ज़िन्दगी की धूप-छाँव
हरीशं कुमार ’अमित'
आदत
‘‘पापा, जल्दी घर आ जाओ. छोटू खेलते-खेलते गिर गया है. सिर से बड़ा खून बह रहा है. मम्मी भी ऑफिस में हैं. डॉक्टर के पास ले जाना पड़ेगा.’’ पिंकी घबराई-सी आवाज़ में रामदीन को फोन पर कह रही थी.
‘‘अगले महीने देखेंगे.’’ रामदीन ने दफ़्तर के काम में डूबे-डूबे आदतवश कह दिया.
-०-०-०-०-०-
अपनी-अपनी दुकान
‘‘पारस जी, ये आपने अच्छा नहीं किया.’’ फोन पर नश्वर जी की ग़ुस्से-भरी आवाज़ गूँज रही थी.
‘‘क्या अच्छा नहीं किया, नश्वर जी?’’
‘‘ये जो आपने लिखना-पढ़ना व्हाट्सअप ग्रुप में पोस्ट किया है कि मैं अपनी वही रचनाएँ एक-से ज़्यादा जगह छपवाता हूँ. ’’
‘‘तो इसमें ग़लत क्या लिखा है, नश्वर जी? जो लिखा है, सच ही तो लिखा है.’’
‘‘ऐसा है पारस जी, मैं भी जानता हूँ कि आप नए-नए लेखकों से रचनाएँ लिखवाकर अपने नाम से छपवाते हैं, इसलिए बेहतर यही है कि आप अपनी दुकान चलाते रहो और मुझे अपनी दुकान चलाने दो, नहीं तो...’’
‘‘नहीं तो क्या?’’
‘‘नहीं तो उखाड़ फेकेंगे आपकी दुकान! बड़े ऊँचे तक पहुँच है हमारी!’’
-०-०-०-०-०-
बरक़त
‘‘यार रवि, तुम्हारे दिए पैनों में बड़ी बरकत है. इनसे जो भी लिखता हूँ, झट-से छप जाता है.’’ शशिकांत जी अपने दफ़्तर के पुराने सहयोगी को कह रहे थे.
‘‘अरे शशिकांत जी, आप रिटायर हो गए तो क्या, पैनों की कोई कमी थोड़े ही है आपके लिए इस सरकारी दफ़्तर में!’’ रवि ने अपनी मेज़ की दराज़ खोलते हुए कहा.
‘‘बस दो-तीन ही देना.’’ कहते हुए शशिकांत जी मन-ही-मन हिसाब लगा रहे थे कि चलो सौ-डेढ़ सौ का खर्च तो बचा.
-०-०-०-०-०-
बर्थडे
‘‘और दिनेश भाई, कैसा रहा कल का बर्थडे! मैं तो कल तुमको बर्थडे का मैसेज भेज ही नहीं पाया. ऑफ़िस के कई ज़रूरी कामों में फँसा था. इसलिए सोचा आज फोन पर ही बात कर लूँ. आज छुट्टी भी है ऑफ़िस की.’’ कहते-कहते मैं रूका फिर जैसे अचानक कुछ याद आ गया और कहने लगा, ‘‘हैप्पी बर्थडे! नहीं, बिलेटड हैप्पी बर्थडे, दिनेश भाई!’’
‘‘यार, कल का बर्थडे तो बिल्कुल फीका ही रहा.’’
‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया?’’ मेरी आवाज़ में चिंता भर आई.
‘‘यार, रिटायर होने के बाद मेरे बर्थडे पर सिर्फ तुम्हारा बधाई संदेश ही आता है. तुम्हारा संदेश आने का मतलब ही मेरे लिए अपना बर्थडे मना लेना होता है. कल तुम्हारा संदेश आया नहीं, तो मुझे लगता रहा जैसे मेरा बर्थडे मना ही नहीं.’’ अपने दोस्त के मुँह से यह सब सुनकर मैं कुछ बोलने की स्थिति में रह ही नहीं गया था.
-०-०-०-०-०-
इनाम
‘‘पता नहीं लोग इतने झगड़ालू क्यों होते हैं. नोट नए हों या पुराने, क्या फ़र्क पड़ता है. खर्चने के लिए ही तो निकलवाते हैं नोट.’’ बैंक के काउंटर पर बैठी सुंदर-सी युवती को अपना चैक पकड़ाते हुए मैंने कहा.
मुझसे आगे खड़ा ग्राहक अभी-अभी उस कर्मचारी से झगड़कर गया था क्योंकि वह उसे पुराने-पुराने नोट दे रही थी. उस ग्राहक का ग़ुस्सा देखकर आख़िर उस कर्मचारी को नए नोट ही देने पड़े थे उसे.
मेरी बात सुनकर उस युवती ने एक पल को मेरी ओर देखा, मगर कुछ बोली नहीं. उसके बाद उसने वही पुराने नोट, जिन्हें पिछले ग्राहक ने लेने से मना कर दिया था, मुझे पकड़ा दिए. मेरी शराफ़त का यही इनाम था शायद.
-०-०-०-०-०-
कमाई
‘‘अखबारों की रद्दी, प्लास्टिक, डिब्बे सब मिलाकर 198 रुपए हो गए. ये लो दो सौ रुपए.’’ सौ-सौ के दो नोट मुझे थमाकर रद्दीवाला कबाड़ समेटने लगा.
मैंने झट-से कुरते की जेब से बटुआ निकाला और उसमें से दो रुपए ढूँढने लगा. यह देख रद्दीवाला कहने लगा, ‘‘रहने दो साहब, दो रुपए रख लो आप.’’
‘‘क्यों भैया, क्यों रख लूँ मैं?’’ दो रुपए ढूँढते-ढूँढते मैं ज़रा सख़्त आवाज़ में बोला.
‘‘साहब, अभी थोड़ी देर पहले तो आप रद्दी और प्लास्टिक के रेट पर इतनी बहस कर रहे थे, फिर कबाड़ को भी आपने दो-दो बार तुलवाया. ऐसा करने से हो सकता है आपको पाँच-सात रुपयों का फायदा हो गया हो. लेकिन अब ये दो रुपए तो मुफ़्त की कमाई है आपके लिए! ’’
रद्दीवाले की बात सुनकर मेरा चेहरा और सख़्त हो गया. ‘‘भैया, वह सब तो मैंने हक़ की कमाई के लिए किया था, मगर ये दो रुपए तो मेरे लिए हराम की कमाई होगी न.’’ कहते हुए मैंने दो रुपए का सिक्का रद्दीवाले की तरफ़ बढ़ा दिया.
-०-०-०-०-०-
ख़जाना
‘‘क्या बात है ऊषा, अपने पुराने आशिक के फोन नम्बर की क्या ज़रूरत पड़ गई इतने सालों बाद?’’
‘‘यार सीमा, मुझे आज ही याद आया है कि वह पिछले महीने रिटायर हो गया होगा. अब तो ख़ूब पैसे होंगे उसके पास. ज़रा फिर से पुराने वक़्त के शोलों को भड़काने वाली एक्टिंग करती हूँ एक-दो महीने तक. छोटा-मोटा हाथ तो मार ही लूँगी उसके ख़जाने में से!’’
-०-०-०-०-०-
मौन उत्तर
डाकघर के काउंटर पर बैठी लड़की हमेशा बड़ा मुस्करा कर स्वागत करती थी. उसकी ज़ुबान कम और आँखें ज़्यादा बात करती थीं. उसकी आँखों में न जाने क्या-क्या पढ़ लेता था मैं. सच कहूँ तो उस काउंटर के सामने जितनी देर भी मैं उस लड़की से मुख़ातिब रहता, ऐसा लगता रहता जैसे किसी नशे की-सी हालत में हूँ.
आज भी उस लड़की के काउंटर के सामने खड़ा था. लाइन में मुझसे आगे खड़े हुए लोग जब अपना-अपना काम करवा के आगे से हट गए तो मैंने उस लड़की की तरफ़ अपने काग़ज बढ़ाए और पूछने लगा, ‘‘मैडम, यह जो एरियर मिला है पे कमीशन का, उसे पोस्ट ऑफिस में इन्वेस्ट करना चाहता हूँ. कुछ कमीशन वगैरह मिलेगा क्या?’’
अब तक तो मैंने उस लड़की से कमीशन की बात कभी की ही नहीं थी. जो भी थोड़ा-बहुत पैसा जमा करवाना होता था, करवा दिया करता था. दूसरे शब्दों में, कमीशन की जो थोड़ी-बहुत रकम बनती थी, वह उस लड़की पर क़ुर्बान कर दिया करता था, मगर वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू होने पर मिली पिछले दो सालों की तनख़्वाह की बकाया राशि काफ़ी ज़्यादा थी. इसलिए इस पर कमीशन भी तगड़ा बनना था.
कमीशन वाली बात सुनते ही उस लड़की का चेहरा सख़्त पड़ गया. उसकी आँखों में तैर रही मुस्कान और तरलता एकदम-से उड़नछू हो गए. उसके बग़ैर कुछ कहे ही मैं बहुत कुछ समझ गया था.
-०-०-०-०-०-
सबूत
रामरती ने झाड़ू लगाते-लगाते पलंग के पास ज़मीन पर पड़ा पाँच सौ का नोट पलंग पर बैठकर अख़बार पढ़ रहे नरेश बाबू की ओर बढ़ा दिया. बोली कुछ नहीं.
‘‘रख लो.’’ नरेश बाबू ने फुसफुसाती-सी आवाज़ में कहा और साथ ही कमरे के दरवाज़े की ओर भी देखा कि कहीं घर का कोई सदस्य तो नहीं आ रहा कमरे में.
‘‘सौ-सौ वाले दो.’’ रामरती ने भी धीमी-सी आवाज़ में कहा.
‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं.’’ खुशियों के सागर में गोते खाते हुए नरेश बाबू ने झट-से कुरते की जेब से पर्स निकाला और सौ-सौ के पाँच नोट निकालकर जल्दी से रामरती को पकड़ा दिए. साथ ही रामरती का लौटाया पाँच सौ का नोट पर्स में रख लिया.
‘‘अब तो मेरे पास ये सबूत हो गया न कि ये नोट आपने ही मुझे दिए हैं. एक नोट के लिए तो आप कह सकते थे कि गलती से फर्श पर गिर गया.’’ रामरती ने ठहरी हुई आवाज़ में कहा.
कुरते की जेब में रखते-रखते पर्स नरेश बाबू के हाथ से छूटकर फर्श पर जा गिरा.
-०-०-०-०-०-
सच की परतें
आज यूँ ही मूड बन गया तो अपने पड़ोसी हीरालाल जी के साथ सुबह की सैर करने निकल गया. वैसे तो सुबह देर तक सोता रहता था. सैर करके हम दोनों वापिस लौटे तो हाउसिंग सोसायटी के गेट पर खड़े गार्ड ने मुझे जबरदस्त सैल्यूट मारा. मेरा दिल एकदम-से बाग़-बाग़ हो गया. सरकारी नौकरी के दौरान तो दफ़्तर में लोग झुक-झुककर मुझे सलाम करते ही रहते थे, पर रिटायरमेंट के बाद किसी का इस तरह अभिवादन करना मुझे बहुत अच्छा लगा. मुझे लगा मेरी ‘वेल्यु’ अब भी है. मेरी आँखों और चेहरे-से भी ऐसा ही भाव टपकने लगा होगा.
अपने-अपने फ्लैट वाली मंज़िल पर जाने के लिए जब हीरालाल जी के साथ लिफ़्ट में सवार हुआ तो वे मुझसे कहने लगे, ‘‘आपको सलाम तो ठोकेगा ही यह नया गार्ड. आपके घर आनेवाली हिन्दी की अख़बार हॉकर से लेकर यही तो पहले पढ़ता है हर रोज़!’’
-०-०-०-०-०-
विडम्बना
‘‘क्या बात है लक्ष्मी, आज बड़ी सुस्त-सी लग रही है?’’ विभा ने रसोई की तरफ़ जाती हुई लक्ष्मी से पूछा.
‘‘बीबी जी, आज खाली पेट आई हूँ न, इसलिए.’’
‘‘क्यों, खाना क्यों नहीं बनाया आज?’’
‘‘बीबी जी, घर में कुछ होता तब तो बनाती न. ’’
‘‘क्यों, कल शाम को ही तो दी थी तुझे पूरे महीने की तनख़ा!’’
‘‘बीबी जी, वो तो मेरे मरद ने घर पहुँचते ही छीन ली थी मुझसे और फिर दारू के अड्डे पर चला गया था.’’ लक्ष्मी ने सिंक में पड़ी प्लेटों में पड़े ढेर-सारे जूठे खाने को कूड़ेदान में फेंकते हुए जवाब दिया.
-०-०-०-०-०-
हँसना-रोना
आधी रात को अचानक पत्नी की नींद खुली तो आदतन उसका हाथ अपने और पति के बीच वाली जगह पर पिंकी को टटोलने के लिए बढ़ गया, मगर पत्नी के हाथ को पिंकी का स्पर्श न हुआ. पत्नी को जैसे ज़ोर का झटका लगा. वह एकदम-से बिस्तर से उठ बैठी और नाइट बल्ब की धीमी नीली रोशनी में बिस्तर को ऊपर से नीचे की ओर देखने लगी. पति दूसरी तरफ़ मुँह करके सो रहा था और पूरे बिस्तर पर पिंकी कहीं नहीं थी.
‘‘पिंकी कहाँ है?’’ पत्नी के मुँह से जैसे चीख-सी निकली.
पत्नी की आवाज़ सुनकर पति की नींद खुल गई और वह भी उठ बैठा.
तभी पत्नी की नज़र पलंग के नीचे फर्श की ओर गई. पिंकी को पलंग से गिरने से बचाने के लिए उसके सिर की तरफ़ रखा सिरहाना ज़मीन पर पड़ा था. साथ ही पिंकी भी सिरहाने से कुछ दूर औंधे मुँह पड़ी हुई थी.
यह देख पत्नी का कलेजा धक्क-से रह गया. वह झट-से पलंग से उतरी और उसने पिंकी को उठाकर सीने से लगा लिया. पति ने भी बिस्तर से उतरकर ट्यूबलाइट जला दी.
भरपूर रोशनी में पति-पत्नी ने देखा कि बच्ची नींद में मुस्कुरा रही थी. मगर पति-पत्नी, दोनों, की आँखों से आँसू बह रहे थे.
-०-०-०-०-०-
सुख
टाइपिंग की दुकान पर टाइप करनेवाला लड़का चारों तरफ़ ग्राहकों से घिरा बैठा था. सब ग्राहकों को जल्दी थी. किसी को एक पृष्ठ टाइप करवाना था तो किसी को दो. दोपहर के सवा तीन बज चुके थे, मगर उस लड़के को खाना खाने का मौका अभी तक मिल ही नहीं पाया था. आख़िर किसी तरह उसने काम रोका और पास पड़े बैग से खाना निकाल पिछली तरफ़ पड़ी एक मेज़ के पास खड़ा होकर खाने लगा.
उसे इस तरह खड़े होकर खाना खाते देख कुर्सी पर बैठा एक ग्राहक कहने लगा, ‘‘आराम से बैठकर खाना खा लो भाई! इस तरह खड़े-खड़े खाना खाना ठीक नहीं.’’
‘‘पूरे तीन घंटे बाद ये पाँच-सात मिनट ही तो मिले हैं खड़े होने के लिए. सारा-सारा दिन बैठकर टाइप करने के बाद इस तरह कुछ देर खड़ा रहने में बड़ा सुख है, सर!’’ खाना खाते-खाते उस लड़के ने जवाब दिया.
-०-०-०-०-०-
सपनों के सच
बिस्तर पर लेटे बच्चे की आँखों से भूख का एहसास साफ-साफ झलक रहा था. सिर्फ़ एक सूखी रोटी ही तो मिली थी उसे रात के खाने के तौर पर. घर में कुल मिलाकर महज़ दो रोटियों के लायक आटा ही बचा था. इस आटे से बनी रोटियों में से एक बच्चे को दे दी गई थी और आधी-आधी मैंने और दीपा ने खा ली थी. बच्चे के लिए आख़िर उसके माँ-बाप का ज़िन्दा रहना भी तो ज़रूरी था न.
बच्चे की आँखों से झाँक रहा भूख का एहसास मुझे बहुत बेचैन किए जा रहा था. मैं चाहता था कि बच्चा सो जाए. कल की कल देखी जाएगी, मगर बच्चे की आँखों में नींद के डोरों का दूर-दूर तक पता नहीं था.
पिछले चार महीनों से मैं बेरोज़गारी झेल रहा था. जिस कम्पनी में क्लर्क की नौकरी कर रहा था, किन्हीं वजहों से वह बन्द हो गई थी. कोई नई नौकरी पाने की ताबड़तोड़ कोशिशों के बावजूद अभी तक कोई सफलता मुझे मिल नहीं पाई थी. इस बीच छोटा-मोटा कोई काम करके मैं और दीपा किसी तरह घर चलाने की कोशिशें कर तो रहे थे, मगर घर चल कहाँ रहा था. बस किसी तरह रेंग रहा था जैसे.
पूरे घर में खाने लायक और कोई चीज़ बची ही नहीं थी जो बच्चे को दी जा सके.
अचानक मेरे दिमाग़ में एक बात आई और मैं बच्चे को कहने लगा, ‘‘देखो बेटा, हम लोगों की हालत हमेशा ऐसी ही थोड़ा रहने वाली है! उम्मीद है मुझे जल्दी ही कोई नौकरी मिल जाएगी. तब पता है सबसे पहले मैं क्या लाऊँगा?’’
बच्चे ने प्रश्नवाचक नज़रों से मेरी ओर देखा. दीपा भी पास ही बैठी थी.
‘‘सबसे पहले मैं लाऊँगा आटे की थैली, जिससे तुम्हारी मम्मी बनाएगी गरम-गरम फूली-फूली रोटियाँ!’’ अपने हाथों से रोटी का आकार बनाते हुए मैंने, आगे कहना शुरू किया, ‘‘साथ में बनेगी तुम्हारी मनपसन्द आलू-पनीर की सब्जी! आटे का हलुआ भी बनाएँगे गरमागरम! पेट भरकर खाएँगे हम सब!’’
मेरी बात सुनते-सुनते बच्चे की आँखों के भाव बदल गए. उन आँखों में अब भूख का एहसास नहीं था बल्कि किसी अच्छे दिन के सुनहरे सपने थे. बच्चे की आँखों में नींद भरने लगी और मेरी व दीपा की आँखों में नमी.
-०-०-०-०-०-
अपनेपन की महक
मेरे मोबाइल फोन की स्क्रीन पर ख़ूबसूरत गुलाबों की एक फोटो चमक रही थी और उसके नीचे बड़े भैया का संदेश लिखा हुआ था – ‘जन्मदिन बहुत-बहुत मुबारक हो छोटू! आज तुम्हारे ही शहर में आने का कार्यक्रम है, मगर राजनैतिक कामों में ही व्यस्त रहूँगा. तुमसे मुलाक़ात हो नहीं पाएगी.’
मुझे याद आ रहा था कि बड़े भैया मेरे बचपन से मुझे जन्मदिन पर गुलाब का एक फूल भेंट किया करते थे. कई सालों तक बेरोजगारी झेलने के बाद क़रीब एक साल पहले से भैया एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ता बन गए थे और अब उन्हीं कामों में बहुत व्यस्त रहने लगे थे.
मोबाइल स्क्रीन पर चमक रहे गुलाबों और भैया के बधाई संदेश में कोई आत्मीयता मुझे महसूस हो ही नहीं रही थी. मुझे तो बड़े भैया का गुलाब का फूल देते समय अपने कंधे पर उनके हाथों का स्नेह भरा स्पर्श ही जन्मदिन की असली बधाई लगता था.
मैं कुछ देर तक मोबाइल स्क्रीन पर चमक रहे गुलाबों को देखता रहा और फिर फोन को एक तरफ रखकर अपने संदूक की ओर बढ़ने लगा जिसमें मैंने भैया द्वारा जन्मदिन पर दिए हुए गुलाबों को अलग-अलग लिफ़ाफ़ों में वर्षवार सँभालकर रखा हुआ था.
-०-०-०-०-०-