Ramu kaka in Hindi Short Stories by Rajesh Kumar Srivastav books and stories PDF | रामू काका

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रामू काका

"अरे! बबुआ। तुम कईसे-कईसे यहाँ पहुँच गए।" रामू काका अचानक मुझे दरवाज़े पर खड़ा पाकर हैरान थे। दरवाज़ा खोलकर झट मुझे अपनी गोद में उठाना चाहा। लेकिन अब मैं इतना भारी हो गया था कि काका उठाने के अपने प्रयास में सफल नहीं हो पाये।

मै हँसते-हँसते उनसे लिपट गया और बोला, "काका अब मैं बड़ा हो गया हूँ। मुझे अब तुम गोद में नहीं उठा सकते।" काका ने तुरंत मुझे अपने गले से लगा लिया।

रामू काका मेरे घर में लगभग बीस वर्षों से नौकरी करते हैं। छोटा कद, गहरा रंग, घुटने तक धोती और बाहों वाली गंजी पहने काका कभी बाल नहीं झाड़ते। लेकिन सुबह उठकर नहा ज़रूर लेते। हमारे घर में रसोई बनाने से लेकर बागवानी और घर की पहरेदारी तक का सारा ज़िम्मा रामू काका ही सम्भालते है। वे कहाँ से आये और कैसे आये ये तो मुझे नहीं पता लेकिन इतना पता है की वे आज तक कभी अपने घर नहीं गए। वे बताते हैं कि उनका अब कोई नहीं है। मुझसे वे बहुत प्यार करते हैं। मेरे पिताजी अक्सर अपने बिज़नेस के सिलसिले में बाहर ही रहते हैं। माँ भी कई सामाजिक संगठनों से जुड़ी हैं। इसलिए वो भी घर में बहुत कम समय दे पाती हैं। पिताजी कहते हैं कि माँ की सामाजिक पहचान उनके व्यवसाय वृद्धि में बहुत सहायता प्रदान करती है। इसलिए मेरा बचपन रामू काका के साथ ही ज़्यादा गुज़रा है। वे पढ़े-खे नहीं हैं लेकिन बहुत सारी कहानियाँ जानते हैं। मैं रोज़ उनसे कहानियाँ सुनता। मुझे याद है जिस दिन मेरे मम्मी-पापा मुझे पहली बार होस्टल में रहने के लिए मुझे छोड़ने जा रहे थे रामू काका खूब रोये थे। मैं तब छह वर्ष का था और पहली कक्षा में पढ़ने जा रहा था। मुझे भी अपनी मम्मी-पापा से बिछुड़ने से ज़्यादा दुःख रामू काका से बिछड़ने का था। तब मेरे पापा ने मुझे समझाया था कि काका होस्टल में हमेशा मुझसे मिलते रहेंगे। और वे ही मुझे हॉस्टल में मिलने आया करते थे। पापा और मम्मी कभी कभार ही हॉस्टल आते।

अब मैं दसवीं कक्षा में हूँ। और मेरा एडमिशन दूसरे शहर के एक स्कूल में करा दिया गया है। मैं वही हॉस्टल में रहता हूँ। मेरे घर से दूरी अधिक होने के कारण रामू काका अब हॉस्टल नहीं आ पाते। मम्मी या पापा ही आया करते हैं वो भी फ़ीस देने। लेकिन पिछले आठ महीनों से मेरे घर से कोई भी मेरे पास नहीं आया। पिछले महीने माँ ने फ़ोन पर बतलाया था कि वो इस दीपावली में मेरे पास आएँगी। लेकिन अभी तक नहीं आ पाई।

आज बाल दिवस है मैंने सोचा क्यों न मैं घर पहुँच कर मम्मी-पापा को सरप्राइज़ दूँ और उनका आशीर्वाद लूँ। इसलिए सुबह-सुबह हॉस्टल से भाग कर घर पहुँचा हूँ।

"मम्मी -पापा घर पर हैं तो?" मैंने रामू काका से जानना चाहा।

"नाही बबुआ उ लोग घर में नाही हैं। मालिक तो तीन दिन से नाही है अउर परसु आवेंगे। मालकिन तो सुबहे-सुबहे निकल गईं। महिला लोगन आई थी कवनो बचवन सन का (बच्चों का) परगुराम (प्रोग्राम) है। उहवें गई है। आज ना आ पावेगी। कल आवेंगी।" रामू काका ने जीतनी सहजता से बताया मेरे मन ने इस बात को उतनी सहजता से नहीं ग्रहण किया। मेरे चेहरे का रंग पढ़ कर रामू काका समझ गए कि मुझे दुःख पहुँचा है। अतः मुझे सांत्वना देने के लिए बोले, "चलो बबुआ कोई नाही है तो क्या हुआ, मैं तो हूँ। चलो हम तुम्हारे लिए गरमा गरम पकौड़ा बनाते हैं अउर चाय पीलाते हैं। तोहार बाबूजी दार्जिलिंग से चायपत्ती लाये हैं। बड़ा बढ़िया चाय का स्वाद है।"

"नहीं काका मुझे नहीं पीनी पिताजी की लायी चाय। मैं तो तुम्हारे हाथों की बनी तुलसी और अदरख वाली चाय पिऊँगा। बहुत दिनों से नहीं पीय।"

ऐसा नहीं कि मुझे दार्जिलिंग चाय नहीं पसंद है लेकिन मुझे पिताजी से चिढ हो रही थी इसलिए मैं उनकी लायी चाय पीने से इंकार कर दिया।

रामू काका एक तरफ पकौड़े तल रहे थे और दूसरी ओर तुलसी और अदरख वाली चाय बना रहे थे। वे बहुत ख़ुश थे।

"बबुआ तू तो अब जवान हो गए हो," रामू काका मेरे पूरे शरीर को निहार रहे थे।

मैंने हँसते -हँसते कहा, "हाँ काका अब मेरे लिए कोई दुल्हनिया खोजो।"

"नाही बबुआ। नाही। अभी तू शादी-वादी नाही करना। पढ़-लिख लो। डाक्टर बाबू बन जइयो तो तोहार ला सुन्दर दुल्हनिया तोहार बाबूजी लाइ दिहे," काका को शायद लगा कि मैं सचमुच शादी करना चाहता हूँ।

"लेकिन काका मैं तो तुम्हारे पसंद कि दुल्हनिया से शादी करूँगा," मैंने भी अपनी शर्त रख दी।

"ठीक है मैं तुम्हारे लिए परी जैसा दुल्हनिया खोज दूँगा," काका बोले भी जा रहे थे और पकौड़े तले भी जा रहे थे।

मैंने कहा, "काका केवल पकौड़े तलते रहोगे या फिर खिलाओगे भी।"

"अभी लाया बबुआ," काका ने तुरंत गरमा-गरम पकौड़े और तुलसी-अदरख की चाय मेरे सामने परोस दी।

"अब अपनी हाथों से एक पकौड़ा खिला भी दो," मैंने काका से निवेदन किया।

"नाही मैं ना खिलाऊँगा। तुम दाँतों से हाथ काट देते हो," काका को याद था। जब भी कभी काका बचपन में मुझे कुछ खिलाना चाहते थे तो मैं जानबूझ कर उनके उँगलियों को काट लेता था। काका को जितना दर्द होता उससे ज़्यादा वो चिल्लाते और मैं खूब हँसता।

"काका अब मैं बड़ा हो गया हूँ। नहीं काटूँगा," मैंने उनको आश्वस्त किया।

काका एक-एक कर मुझे सारे पकौड़े खिला डाले। उनके हाथों से पकौड़े खाने से मुझे जितना आनंद मिला शायद उतना आनंद श्रीराम को शबरी के बेर खाने से भी नहीं मिला होगा।

"अब तुम थोडा आराम करो। मैं तुम्हारे लिए भोजन तैयार कर दूँ।" काका ने भोजन के लिए मेरी पसंद को नहीं जानना चाहा क्योंकि वो मेरी एक-एक पसंद को बचपन से जानते थे।

"काका तुम मुझे आज कहानियाँ नहीं सुनाओगे," मैं जब तक इस घर में था उनकी कहानियाँ सुने बगैर नहीं सोता था।

काका कहानी सुनाने लगे। कहानी सुनते-सुनते मैं कब सो गया मुझे पता ही नहीं चला।

"बबुआ उठो। भोजन तैयार है," काका के आवाज़ से मेरी निद्रा भंग हुई।

मैंने हाथ मुँह धोकर खाने के मेज़ पर नज़र डाली। फुली-फुली कचौड़ियाँ, गोभी की सब्जी, खीर, गुलाब जामुन, मीठी चटनी , सलाद, पापड़। काका को मेरी पसंद अब तक याद है।

"मम्मी-पापा कैसे हैं," मैंने खाना खाते-खाते पूछा।

"मालिक को घर आये तो बहुते-बहुते दिन हो जात है। मालकिन भी कहाँ घर में रह पावत है। कोई ना कोई रोज बुलाई लेत है।"

"दोनों लोगों कि मुलाक़ात भी हो पाती है कि नहीं।"

"महीनों बीत जावत है। कभी मालिक आवत है तो मालकिन नाही रहत है अउर मालकिन आवत है तो मालिक नहीं। कबो कभार दोनों मिल जावत है।"

ये कोई नई बात नहीं थी इसलिए मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ।

मेरे पिताजी बहुत बड़े ठेकेदार हैं। करोड़ों की आय है। अधिकांश अपने साइट पर ही रहते हैं। कभी-कभार घर आते तो मेरे लिए महँगे-महँगे उपहार लाते। लेकिन नशे में धुत रहने के कारण मैं उनसे बात नहीं कर पाता। माँ कई सामाजिक और राजनितिक संगठनों से जुड़ी हैं। रोज़ कही ना कही कोई ना कोई कार्यक्रम में उनका निमंत्रण रहता है। घर में भी होती हैं तो संगठनों के लोगो के साथ बैठक में समय गुज़ार देती हैं। पिताजी भी उनके साथ कुछ पल गुज़ारने के लिए तरसते हैं। लेकिन वो अच्छी तरह जानते हैं कि माँ के सामाजिक और राजनैतिक पहचान के कारण ही उनकी ठेकेदारी चलती है। इसलिए कुछ नहीं बोलते।

खाने खाकर उठा तो दिन के दो बज चुके थे। मैंने कहा, "काका आज तुम्हारे हाथों का खाना खाकर मज़ा आ गया।"

"रात में इससे भी बढ़िया खाना खिलाऊँगा," काका भी खाना खा कर हाथ-मुँह धोने लगे।

"लेकिन मैं रात में यहाँ नहीं ठहरने वाला।"

"काहे बबुआ। बिना मालकिन से मिले चले जाओगे।"

"हाँ काका। मैं होस्टल से भाग कर आया हूँ ना। आज बाल दिवस है। मैंने सोचा था मम्मी-पापा से मिलकर आशीर्वाद लूँगा। रात होने के पहले हॉस्टल पहुँचना होगा।"

"तो आगे क्यों नहीं मालकिन को बताय दिए। नाही जाती वो परोगराम में।"

"नहीं काका। तुम तो जानते हो पापा को अपने व्यवशास और मम्मी को अपने कैरियर सँवारने से मौक़ा कब मिलता है जो वो मेरे लिए अपना कार्यक्रम बदल देती," मैं मायूस होकर काका से बोला।

"अभी हम टेलीफून कइके मालकिन के बुलाई लेत है," कहते-कहते काका जैसे ही टेलीफोन कि ओर बढ़े मैंने उनका हाथ पकड़ लिया।

"कोई ज़रूरत नहीं काका। मैं आज अपने अभिभावकों से आशीर्वाद लेने आया था। मम्मी-पापा नहीं है तो क्या हुआ। तुम भी क्या कोई कम हो काका। तुम हमेशा मुझे मेरी मम्मी-पापा की कमी को पूरा किये हो। आज तुम्हीं मुझे आशीर्वाद दे दो," कहकर मैं काका के पैरों में झुक गया।

काका तुरंत मुझे उठाकर अपने गले से लगा लिए। उनके आँखों से निकले आँसू आशीर्वाद बनकर मेरे सर पर गिर रहे थे। मुझे बाल दिवस का उपहार मिल चुका था। मुझे रामू काका के मोती से झरते आँसू मम्मी-पापा के दिए महँगे उपहारों से ज़्यादा कीमती लग रहे थे।