युगदृष्टा पद्मावती
सिन्धु और पारा नदी के संगम के पूर्वोत्तर की ओर पद्मावती नगरी का यह एक ऐसा स्थल है ,जो भारतवर्ष के राजमार्ग से जुड़ा हुआ है। इसीलिये यहाँ आने-जाने वालों का जमघट बना रहता है। इस स्थल पर हमेंशा कुछ राहगीर विरमाते मिल जायेंगे।
जन सामान्य को इस नगर से कोई संदेश कहीं भी भेजना हो तो इस स्थल पर कोई न कोई ऐसा सूत्र मिल जायेगा कि आप वहाँ से संतुष्ट होकर ही लौटेंगे। यों लम्बे समय से सन्देश भेजने की परम्परा इस स्थल से जुड़ गई है।
उसी स्थल पर ग्रीष्म की तप्त दोपहरी में वृक्षों की छाया का आश्रय लेते राहगीर । पक्षियों का कलरव राहगीरों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर रहा था। एक विशाल बरगद के वृक्ष के नीचे बैठे राहगीर, जोर-जोर से बातें करके भूतकाल की परतें उखाड़ने का प्रयास कर रहे थे। उनमें से कोई कह रहा था- ‘वो क्या समय था जब यहाँ पर भारत भर के बड़े-बड़े व्यापारी व्यापार करने के लिये आया करते थे।’
उनमें से एक ने बात आगे बढ़ाई- ‘यह नगरी देश के मध्यभाग में स्थित है, इसीलिये व्यापारियों को इधर से उधर जाने में इसी आम रास्ते से जाना- आना पड़ता था।’
दूसरा राहगीर अपने ज्ञान का प्रदर्शन करते हुये बोला-‘भारतवर्ष के व्यापार का यह प्रमुख केन्द्र था, पास ही सुनारी बस्ती में निर्मित स्वर्ण के आभूषण भारत भर में बिक्री हेतु पहुँचते थे। यहाँ के आभूषणों की देश भर में साख थी।’
तीसरे राहगीर ने अपने क्षेत्र की बात रखी। बोला- ‘भैंसुनारी (भैसनारी) में भी तो सुनार सोने के आभूषण बनाने का कार्य करते थे।’
चौथे ने सुनी सुनाई बात का सहारा लिया, बोला- ‘भैया मैनें तो सुना है कि देशभर के सुनार यहाँ सोने के आभूषण निर्मित करने की कला सीखने के लिये आते थे। यह हमारे लिये गर्व की बात है।’
एक जो इन सब की बातें सुनकर अपनी बात कहने को अधीर हो रहा था। जैसे ही उनकी बातें समाप्त हुई ,वह अपनी बस्तुओं के क्रय-विक्रय पर क्षेत्र की प्रशंसा करते हुये बोला- ‘लुहारी बस्ती के लोहे के उपकरण यहाँ से सम्पूर्ण उत्तर भारत में पहँुचते थे । और तो और लोहे के उपकरण बनाने की कला सीखने के लिये दूर-दूर से लोग यहाँ आते थे।’
बीच में ही दूसरा राहगीर बोल़ा-‘ चाँदपुर में तो आज भी चंदपुरिया रजाइयों का निर्माण किया जाता है।’
एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति इन सब की बातें बड़े मनोयोग से सुन रहा था। वह अपनी साखनी बस्ती (सॉखनी) की साख की बात रखते हुये बोला- ‘मेरे क्षेत्र की बस्ती के लोग बहुत धनाढ्य हैं। देश के बड़े-बड़े व्यापारी यहाँ से धन उधार लेने साखनी कस्बे में आया करते थे। यहाँ के लोग धन उधार देने में अपने क्षेत्र की साख मानते थे। मुझे अपनी साखनी बस्ती पर युगों-युगों तक गर्व रहेगा।’
एक बुजुर्ग व्यक्ति यहाँ की गौरवगाथा का बखान करते हुये बोला- ‘धनिकों की बस्ती धमनिका से आगे तिलकरा अर्थात ्ताड़कावन भी प्रसिद्ध स्थान हैं, वहाँ ताड़का की मूर्ति आज भी पड़ी हुई हैं। उससे आगे गिरजोर (गिजौर्रा) बस्ती के उत्तर की ओर च्यवन ऋषि की तपोभूमि के पास विश्वामित्र की यज्ञशाला की खड़िया आज भी जल से परिपूरित है।
उसके पास बैठा व्यक्ति बोला- ‘सुना है हमारे महाकवि भवभूति महावीरचरितम् के लेखन के समय मार्ग में पड़ने वाले डबरा जैसे स्थलों को पार करते हुये इन स्थानों पर जाकर सत्यता की खोज कर आये हैं। इसी कारण महावीरचरितम् का शुभारम्भ विश्वामित्र के यज्ञ से हुआ है।’
एक युवा व्यक्ति जो दूर-दूर तक जाता-आता रहता था, वह भी अपने भ्रमण की बात करते हुये बोला-‘ मुझे तो नरवर के रास्ते में पारा नदी के किनारे बसा मगरौनी गाँव बहुत सुन्दर लगता है। प्रकृति का अनुपम दुलार इस गाँव को भरपूर मिल रहा है।’
यों सिन्ध नदी के किनारे बसे नरवर की बात उठ खड़ी हुई। एक बोला- ‘ज्यों-ज्यों पद्मावती का पतन होता जा रहा है, त्यों-त्यों नरवर का विकास होता जा रहा है। देखना किसी दिन वहाँ विकसित हेाने वाला राज्य ही प्रमुख होगा।’
एक जो सबसे बुजुर्ग व्यक्ति चुपचाप सभी की बातें सुन रहा था, वह लवण सरिता अर्थात् नोंन नदी के किनारे बसे गाँव चित्ओली (चिटौली) के बारे में अपना विचार व्यक्त करते हुये बोला- ‘नाग राजाओं के समय से ही यह स्थान ऋषि- मुनियों की तपोभूमि रहा है। वहाँ आज भी दूधाधारी महाराज जैसे संत निवास करते हैं, यह सिद्ध स्थान हैं। वहाँ जाकर मठ की परिक्रम करने से लोगों की मनोकामनाएँ पूरी हो जाती हैं। हमें ऐसे तीर्थ पर गर्व है।’
एक युवा व्यक्ति ने प्रश्न किया- ‘भगवान कालप्रियनाथ का मंदिर भी तो भारत भर में तीर्थयात्रा का केन्द्र बना हुआ है।’
इस पर उसी बूढ़े व्यक्ति ने अपनी बात कटते देखकर तर्क दिया, बोला- ‘भगवान कालप्रियनाथ का मंदिर अलग बात है। मैं तो साधक-सन्तों की तपोभूमि की बात कह रहा था।’
इसी समय पास ही नीम के पेड़ पर बैठे पक्षी जोर-जोर से कलरव करने लगे। दोपहरी में विश्रामरत राहगीरों का ध्यान अपनी बातों से हटकर उस ओर चला गया। पक्षियों के कलरव में विवाद की स्थिति होने लगी। इसी समय एक राहगीर कह रहा था-‘ इस भव्य पद्मावती नगरी की आज ये कैसी दशा हो रही है ? किसी के मन में राजभय नाम की कोई बात ही नहीं रही है। यहाँ के राजा के सामने ही उसका सम्मान किये बगैर लोग आपस में लड़ने लगते हैं और हमारे राजा निरीह भाव से सब कुछ देखते रहते हैं। लड़ाई में जो जीतता हैं, राजा न्याय-अन्याय छोड़कर उसी का पक्ष लेने में संकोच नहीं करते हैं।।’
बात का तारतम्य दूसरे राहगीर ने बढ़ाया- ‘नागवंश के पतन के बाद तो पद्मावती में शासन व्यवस्था नाम की चीज ही नहीं रही है।’
तीसरे राहगीर ने बात को और विस्तार दिया- ‘यहाँ के राजा को अपने सुख-चैन के अलावा किसी के दुःखदर्द से कोई लेना-देना नहीं है।’
यह बात सुनकर तो कुछ व्यक्ति बीच में ही जोर-जोर से बातें करने लगे - ‘यहाँ के महाराज तो तांत्रिकों के चक्कर में फॅस गये हैं। इस समय इस राज्य के राजा हैं तो ये तांत्रिक। काशीराम कडेरे के बारे में तो लोग कुछ भी कहने-सुनने से डरते हैं। कहते हैं, उसके बारे में कही बातें उसे स्वयम् पता चला जाती है।’
कुछ जोर से चिल्लाकर बोले- ‘हम लोग भी तो उसी के बारे में बातें कर रहे हैं। ये बातें भी उसे पता चल गईं होगी।। अब तो वह हमें समूल ही नष्ट कर डालेगा।’
एक व्यक्ति ने साहस जुटाते हुये कहा- ‘हम देखते हैं ,काशीराम जब-जब निकलता है, तब यहाँ के कुछ बड़े-बड़े लोग उसे साष्टांग प्रणाम करते नजर आते हैं।’
कुछ ने डरकर शंका व्यस्त की-‘कहीं उसने हमारे बारे में कोई तंत्र चला दिया तो !’
उसी समय एक बोला- ‘मैं डरने वाला नहीं हूँ। मैं इस नगरी के लोगों की तरह साष्टांग प्रणाम करने वाला भी नहीं हूँ।’ उसकी बहादुरी की सभी ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की।
सिन्ध नदी के किनारे भीषण ग्रीष्म के बाद भी घने वृक्षों की छाया अपनी ओर राहगीरों को खींच रही थी। इधर-उधर से कुछ और लोग वहाँ आकर बैठते हुये बातें करने लगे। कुछ अपने व्यापार की अवनति का दुखड़ा रो रहे थे और कुछ बढ़ती मंहगाई का।
यों दिन ढल गया। लोग अपने-अपने घरों से निकल कर दिनभर की तपन मिटाने के लिये संगम पर एकत्रित होने लगे। कुछ दोपहरी व्यतीत कर रहे राहगीर अपने गन्तव्य की ओर चल पड़े।
कुछ खोमचे वाले ‘चना जोर गरम’ की आवाज लगा कर अपनी ओर राहगीरों का ध्यान आकृष्ट कर रहे थे। कुछ मूँगफली की बहार की आवाज लगा रहे थे। कुछ मावा के बने मिष्ठानों को लेकर उपस्थित थे। विशाल बरगद के नीचे भाँग- ठंडाई की दुकानों पर लोगों का जमघट दिखाई दे रहा था।
ज्यों-ज्यों दिन अस्ताचल की ओर जा रहा था भँगेड़ियों की संख्या बढ़ती जा रही थी। वे भाँग की तरंग में बातें कर रहे थे। रघू नामका व्यक्ति कह रहा था- ‘यहाँ के लोग बड़ी-बड़ी बातें करते रहते हैं, लेकिन सच तो यह है कि हमारे महाकवि के कारण हमारी पद्मावती नगरी का नाम सम्पूर्ण भारत वर्ष में विख्यात् है।’
किसन, इसी तारतम्य में बोला-‘ हमारे भवभूति ,भव की विभूति हैं। हमारे राजा के पिताश्री ने उन्हें यह उपाधि यों ही प्रदान नहीं कर दी। बहुत सोच- समझकर ही यह उपाधि दी है।’
बंसी को भाँग की खुमारी जोर मार रही थी, बोला- ‘जिस समय हमारे राजा के पिताश्री ने उन्हें यह उपाधि दी थी। ये कविता करने लगे थे। उस समय ये युवा कवि ही थे। हमारे वृद्ध राजा ने उनकी प्रतिभा देखकर यह नाम घोषित कर दिया। उनका दिया हुआ नाम आज प्रसिद्ध होता जा रहा है।’
उसके पास बैठा एक मित्र बोला- ‘देख नहीं रहे हो उनके दो-दो नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन किया जा चुका है।’
रघु ने बात शुरू की थी , वह कुछ सोचते हुये बोला-‘ भवभूति सचमुच में ही भव-विभूति अर्थात् संसार की विभूति हैं। हमें उन पर गर्व है।’ यों कहते हुये भँगेड़ी गर्व से तन गये।
घने जंगलों के बीच सिन्धु और पारा (पार) नदी का संगम। संगम पर शान्त धीर प्रवाह। आने-जाने वाले यात्रियों को पार ले जाने वाली नावें। सिन्धु और पारा नदी के मिलन बिन्दु पर बना पद्मावती नगरी का राजमहल। ग्रीष्म ऋतु की तपन मिटाने राजमहल की छत पर दिखाई दे रहे राजपरिवार के लोग, वहीं से वे व्यवस्था देखने के लिये दूर-दूर तक दृष्टि डाल रहे हैं। राजमहल के नीचे संगम पर लोगों की भीड़। भीड़ को व्यवस्थित बनाये रखने के लिये चुस्ती प्रदर्शित करते हुये राज्य के रक्षा कर्मी।
भीड़-भाड़ से बचकर, सिन्धु नदी के किनारे विशाल शिलाखण्ड पर बैठा दिख रहा था एक अधेड़, जिसके उन्नत ललाट पर ध्वज की तरह दिखता त्रिपुण्ड़, पीला अँगरखा पहने, कमर से नीचे धोती। एक सफेद वस्त्र कन्धे से नीचे जनेऊ की तरह लिपटा हुआ। सुन्दर आकर्षक चेहरा, लम्बी नाक, चमकीला बदन। पीछे की ओर सँवरे हुये गर्दन तक के काले बाल, उनमें से झाँकता एकाध सफेद बाल, वे किसी सोच में डूबे हुये दिखाई दे रहे हैं।
जब-जब पद्मावती से महाकवि भवभूति का चित्त उद्धिग्न होता है, उन्हें इसी शिलाखण्ड पर आकर विराम मिलता है। यहीं बैठकर ये चिन्तन में निमग्न हो जाते हैं- महावीरचरितम् एवं मालतीमाधवम् जैसे दो-दो नाटक लिखने के बाद भी उन्हें कहीं कोई संतोष नहीं मिला? इन नाटकों के अभिनय के लिये कितना परिश्रम करना पड़ा। पहले पात्रों को शिक्षित किया, बाद में उन्हें अभिनय का ज्ञान दिया। सबसे कठिन कार्य था पात्रों का चयन। जातिवाद के बढ़ते वर्चस्व ने तो यह कार्य और भी कठिन बना दिया। दूसरी जातियों के पात्र मेरे मन को बहुत भा रहे थे। कैसे सारे पात्र ब्राह्मण ही चुने जा सकते थे! मैंने पात्रों के चयन में जातिवाद की चिन्ता नहीं की। इसी कारण गरीब-अमीर, छोटे-बड़े सभी का इस कार्य में भरपूर सहयोग मिल सका है। शुरू-शुरू में इन ब्राह्मणों ने अपने वर्चस्व के लिये कितना विरोध किया था। मैंने इन सब की किंचित मात्र भी चिन्ता नहीं की। इन लोगों ने मुझे विधर्मी तक कह दिया। मेरा अपने काम के प्रति आत्मविश्वास ही मुझे इस लक्ष्य तक पहंँुचा सका है। मेरे पात्रों में नाई, धोबी, कुम्हार, और बरार आदि सभी संवर्ग जातियों के लोग हैं। जातिवाद के बढ़ते वर्चस्व को कैसे कम किया जाए? मुझे इससे अच्छा कोई दूसरा उपाय नहीं सूझा। आने वाले समय में मेरे इस प्रयोग का समाज अवश्य ही मूल्याँकन करेगा। ब्राह्मणवाद की हवा जितनी तीव्र गति से प्रवाहित हो रही है, देखना किसी दिन उतनी ही तीव्र गति से उसका दिशा परिवर्तन भी होगा। उस समय लोगों को मेरे सिद्धान्त समझ में आयेंगे और मेरे कृतित्व का सही-सही मूल्याँकन हो सकेगा।
आज जनता-जनार्दन के समक्ष मैं अपने काम से सफल रहा हूँ, लेकिन मन के किसी कोने में कोई बिन्दु रिक्तता लिये बैठा है। महावीरचरितम् का वह प्रसंग जिसमें सीता माता अग्निपरीक्षा से गुजरती हैं, बारम्बार जाने किस-किस तरह से सोचने को विवश कर देता है। चाहे मैनें पात्रों के चयन में जातियों के साथ न्याय करने का प्रयास किया हो पर अग्नि परीक्षा का प्रसंग प्रस्तुत करके नारियों के साथ न्याय नहीं कर पाया हूँ। महर्षि वाल्मीकि के प्रभाव में शायद यह सब हो गया। यही प्रसंग मेरे अन्तर्मन को बारम्बार धिक्कारता है। कैसे हो इस समस्या का हल ? कैसे अग्नि परीक्षा जैसे इस दलदल से नारी जाति को निकाल सकूँ ? मेरे प्रिय मित्र आचार्य भगवान शर्मा और महाशिल्पी वेदराम दोनों ही इस प्रसंग की सैकड़ों बार आलोचना कर चुके हैं। यदि जनता जनार्दन के समक्ष इस नाटक के प्रस्तुत करने से पहले ही मन चेत जाता तो आज मुझे मित्रों की आलोचना का अवसाद तो नहीं झेलना पड़ता। अब तो अपने बुद्धि कौशल से ही इसका हल ढूँढ़ना पड़ेगा। कैसे हो सकता है, इस दृश्य का शमन ? बारम्बार यही प्रश्न, मेरे समक्ष खड़ा हो जाता है। क्या हो सकता है इसका हल ? एक और नई रचना का जन्म! इसका अर्थ है सीता निर्वासन। यह तो और भी बड़ा अभिशाप होगा। जिसे झेलना और भी कठिन होगा। अन्त भी वाल्मीकि रामायण की तरह सुनिश्चित? नहीं, नहीं। यह संभव नहीं है। राम- सीता का मिलन ही इस समस्या का समाधान हो सकता है। निश्चित यही हल मेरे अपने किये अभिशाप का प्रायश्चित और यही एक नई रचना का उदय ही है।
दृष्टि अन्तर्मुखी से र्विहर्मुखी हुई और दूर संगम पर पहुँच गई। दृष्टि गोचर होने लगा संगम का मनमोहक दृश्य। याद हो आई जब पहली-पहली वार पद्मपुर (विदर्भ) से यहाँ आया तो बसई कस्बे के पास इसी सिन्ध नदी के मध्य बने द्वीप पर, जहाँ परम्परा से बंजारे ठहरा करते थे ,वहीं मैं काशीनाथ बंजारे के साथ आकर ठहरा था।
प्रारम्भिक अध्ययन तो वहीं पर पूर्ण हो गया था। मेरे बाबाश्री मुझे न्यायशास्त्र, व्याकरण और मीमांशा का आचार्य बनाना चाहते थे। यहाँ आकर मेरा मन ऐसा रम गया कि फिर जन्मभूमि की सुध ही नहीं ले पाया।
गुरुदेव ज्ञाननिधि और मेरे बाबाश्री दोनों ही बाल सखा थे। इन दोनों ने भी पद्मावती नगरी के विद्याविहार में ही अध्ययन किया था। इस तरह इस नगरी से मेरा जुड़ाव मेरे बाबाश्री के समय से ही रहा है। वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों, न्यायशास्त्र, ज्योतिष, खगोलशास्त्र, चित्रकला एवं नाट्यकला का यह अंचल नाग राजाओं के समय से ही प्रमुख केन्द्र रहा है। गुरुदेव ज्ञाननिधि ने तो इसके विकास में चार चाँद लगा दिये हैं। इस तरह गुरुदेव का स्मरण युग-युगों तक किया जाता रहेगा।
इसी समय किसी पदचाप ने ध्यान भंग कर दिया। सामने मित्र आचार्य भगवान शर्मा और महाशिल्पी वेदराम खड़े थे। उपस्थित होते ही आचार्य शर्मा ने कहा- ‘हमारे महाकवि काव्यधारा की किन पंक्तियों में खेाये हुये हैं!’
यह सुनकर भवभूति सोच की चूनर उतारते हुये बोले- ‘यहाँ की प्रतिकूल शासन व्यवस्था पर कदाचित् चिन्ता की लकीरें उभरी थीं।’
यह सुनते ही महाशिल्पी वेदराम दुःख व्यक्त करते हुये बोले-‘ नरबलि का तो यहाँ लम्बे समय से प्रचलन रहा है। ये तांत्रिक लोग इस दिनों और अधिक स्वेच्छाचारी हो गये हैं। जब ये लोग नगर में निकलते हैं तो उनके चरण छूने वालों का ताँता लग जाता है। यहाँ के राजा वसुभूति भी तो उनके शिष्य हो गये हैं। ये तांत्रिक चाहते हैं कि आप जैसे लोग भी उनके चरण छुएँ।’
इस बात के उत्तर में भवभूति बोले- ‘ऐसी कौन सी शक्ति है जो हमारे संकल्प के विरुद्ध कार्य करा सके, चाहे हमें यह पद्मावती नगर ही क्यों न छोड़ना पड़े हम अपनी आत्मा को दुखित करने वाला ऐसा कोई कार्य करने को तैयार नहीं होंगे।’
आचार्य शर्मा उस प्रसंग पर आ गये, जिसमें नरबली का दृश्य है- ‘हमारे महाकवि ने नरबली का जो प्रसंग मालतीमाधवम् में रखा है, उसे देखकर तो यहाँ के राजा हम पर कुपित हो गये हैं। क्योंकि आपने उस दृश्य के माध्यम से जन-साधारण की चेतना को जगाने का प्रयास जो किया है। सुना है यही बात उन्हें अपने सम्मान के विरुद्ध लगी है।’
भवभूति बोले- ‘इन सब बातों के कारण ही मुझे लग रहा है, मेरा नाटक लिखना और उसका मंचन पूरी तरह सफल रहा है। राजा वसूभूति को सोचने के लिये विवश होना पड़ा है। उनका हम से क्षुब्ध होना इस बात का साक्षात् प्रमाण है।’
महाशिल्पी वेदराम इन बातों का आनन्द लेने में लगे थे। अब वे समीक्षकों की तरह बोले- ‘लोगों का आपस में लड़ना, राजा वसुभूति का खड़े-खड़े यह सब देखना और लड़ाई में जो जीता, उसी का उनके द्वारा पक्ष लेना। आपने अपने नाटक के माध्यम से सीधे-सीधे उनके अह्म को चोट पहँुचायी है। लेकिन वे भी विवश हैं। आप जैसे विद्धान को खोना भी तो नहीं चाहते। गुरुदेव ज्ञाननिधि के निर्वाण प्राप्त कर लेने के बाद, आपने ही गुरुदेव के विद्याविहार को यथास्थिति बनाये रखा है।’
आचार्य शर्मा बोले-‘आपको खोने के बाद इस धरती पर क्या शेष रह जाएगा ?’ यह बात हमारे राजा वसुभूति अच्छी तरह जानते हैं।’
प्रशंसा सुनकर भवभूति बोले-‘विद्याविहार के लिये तो आचार्य शर्मा और माहशिल्पी ही पर्याप्त हैं। जब तक ऐसे गुरुभक्त शिष्य गुरुदेव की इस नगरी में हैं, विद्याविहार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है।’
आचार्य शर्मा ने अपना निर्णय सुनाया- ‘राजा वसुभूति हृदय से न चाहते हुये भी आपके नाटकों के प्रशंसक हैं। सायंकाल किसी भी पान की दुकान पर जाकर खड़े हो जाइये। आजकल मालतीमाधवम् ही जनचर्चा का विषय बना हुआ है।’
महाशिल्पी ने विषय को बढ़ाते हुये कहा-‘इस अव्यवस्था से लोग ऊब गये हैं, वे परिवर्तन लाना चाहते हैं। मालतीमाधवम् में व्यवस्था के विरोध में आपने जो शंखनाद किया है, राजतन्त्र के युग में महाकवि जैसे साहसी बिरले ही हो पाते हैं।’
आचार्य शर्मा के मन में प्रश्न उभरा। बोले-‘क्या लोग महावीरचरितम् को इतनी जल्दी भूल गये ?’
यह प्रश्न सुनकर महाशिल्पी ने उत्तर दिया- ‘यह बात नहीं है मित्र! ऐसी रचनाओं का परिणाम दीर्घकाल में सामने आता है।’
आचार्य शर्मा ने भवभूति के सिद्धान्तों को थपथपाया, बोले- ‘आपने जो कदम उठाया है, वह जन-जीवन के दुःख-दर्दाें से छुटकारा दिलाने के लिये एक अनूठा कदम है।’
महाशिल्पी को भवभूति के जो सिद्धान्त रुचिकर लगें, उन्होंने उनका वर्णन किया-‘समाज में फैले अंधविश्वासों पर जब तक प्रहार नहीं होगा तब तक समाज की दिशा,दशा सुधरने वाली नहीं है। शायद यही सोचकर आपने मालतीमाधवम् की संरचना की है।’
भवभूति उनकी बातों को स्वीकार करते हुये बोले- ‘जब तक आदमी के झूठे अहं पर प्रहार नहीं होगा तब तक उसमें कोई सुधार नहीं होने वाला।’
आचार्य शर्मा दूसरे प्रसंग पर आते हुये बोले- ‘आपने महावीरचरितम् के माध्यम से राम के चरित को जन-जन तक पहँुचाने का प्रयास किया है।’
महाशिल्पी झट से बोले- ‘राम के चरित को तो महर्षि वाल्मीकि जन-जन तक पहँुचा चुके हैं, हमारे महाकवि ने नये-नये संदर्भों के माध्यम से राम के चरित से प्रेरणा लेने के लिये लोगों को प्रेरित किया है।’
आचार्य शर्मा बोले- ‘अभिनय की दृष्टि से जो परिवर्तन आवश्यक थे। वे हमारे महाकवि ने इतनी सहजता से कर डाले कि रचना में वे स्वाभाविक लगते हैं। चाहे इसके लिये मूल कथानक में ही परिवर्तन क्यों न करना पड़ा हो।’
मित्रों की राय जानने के लिये भवभूति ने प्रश्न किया- ‘ऐसा आप लोगों को कहाँ-कहाँ लगा है ?’
उत्तर आचार्य शर्मा ने दिया-‘आपने तो शूर्पणखा को रूप बदलकर मन्थरा के भेष में अयोध्या भेजकर कैकेयी-सी माँ को अवसर एवं आचरण से प्रतिकूल कर्म के लिये उत्प्रेरित किया है। इस तरह राम को वनवास देने की कथा को और रोचक बना दिया है, जिससे दर्शकों का चित्त कथा से जुड़ा रहे।’
भवभूति विचार करने लगे- इस समय पूरी तन्यमयता के साथ दोनांे मित्र मेरी समालोचना कर रहे हैं। मैं भी इस नाटक को समालोचकों की तरह ही देखने-परखने में लगा हँू। भवभूति को सोचते हुये देखकर आचार्य शर्मा बोले- ‘वाल्मीकि रामायण की तरह इस नाटक का आरम्भ राम के जन्म से नहीं हैं, बल्कि विश्वामित्र के यज्ञ से है।’
महावीरचरितम् को विश्वामित्र के यज्ञ से प्रारम्भ करने की बात पर भवभूति स्वयं बोले- ‘आप लोगोें को याद होगा कि महावीरचरितम् के लेखन की तैयारी चल रही थी। उन दिनों हम सभी लोग गिरजोर बस्ती के निकट स्थित विश्वामित्र की यज्ञशाला तथा ताड़कावन इत्यादि स्थानों का भ्रमण करने गये थे।’
महाशिल्पी ने स्वीकार किया-‘इस क्षेत्र में स्थित विश्वामित्र की यज्ञशाला से यह सिद्ध है कि महावीरचरितम् यहीं बैठकर लिखा गया है।’
आचार्य शर्मा समालोचकों की तरह बोले- ‘हमारे मित्र को हर पल नये-नये तथ्यों को उद्घाटित करने की चाह रही है। सीता और उर्मिला को भी उसी यज्ञ में लाकर उपस्थित कर दिया है, जिससे राम-लक्ष्मण से उनके मेल -मिलाप में आसानी रहे। इन घटनाओं से लगता है नाटककार राम-सीता के विवाह की तैयारी प्रथम अंक से ही करने लगा है। शब्दों का चयन, भावों की अभिव्यक्ति, दर्शकों को मंत्रमुग्ध बना देती है। नाट्य-मंच पर पात्रों का अभिनय नाटक को स्वाभाविक बना देता है। पात्रों के मुख से शब्दों के उच्चारण इतने स्वाभाविक होते हैं कि कोई अनुभव ही नहीं कर पाता है कि कहीं कोई नाटकीयता भी इसमें हैं।’
भवभूति को स्वीकार करना पड़ा-‘जब तक जनसमूह शिक्षित नहीं होगा तब तक मेरे लेखन का उद्देश्य पूर्ण होने वाला नहीं है। शासन जन-जन को शिक्षित करने के प्रति उदासीन होता जा रहा है। कस्बे में जो पाठशालाएँ बौद्ध विहार द्वारा संचालित की जा रही हैं, वे अब बंद होती जा रही है। मैं इस संबंध में राजा वसुभूति से अनेकों बार मिल चुका हँू। राजा के आश्वासन के बाद भी पाठशालाओं की कोई व्यवस्था नहीं हो रही है।’
महाशिल्पी बेाले-‘हमारे राजपरिवार का खर्च दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। वे विद्याविहार पर किये जाने वाले व्यय को ही बन्द कर देते पर आपके कारण विवश हैं। उनकी मजबूरी है कि वे विद्याविहार को बन्द नहीं कर पा रहे हैं। ’
आचार्य शर्मा इस बात पर व्यंग्य करते हुये बोले- ‘विद्याविहार बंद होने की दशा में शिक्षा का कार्य तांत्रिक करने लगेंगे। उनके द्वारा लोगों को इस तरह शिक्षित किया जायेगा कि पूरा साम्राज्य ही उनके चक्कर में फँस जाये।’
महाशिल्पी ने तांत्रिकों के सम्बन्ध में अपने विचार रखे-‘आजकल घर-घर में तांत्रिक हो गये हैं। सब एक दूसरे पर तंत्र चलाने में लगे हैं। दिनारी नामक तंत्र का चलन तो आम हो गया है।’
भवभूति ने इस तंत्र की व्याख्या करते हुये कहा- ‘इसमें कुछ नहीं होता। दिनारी नामक तंत्र का भय फैलाकर वे जनता का शोषण कर रहे हैं।’
आचार्य शर्मा ने एक बार फिर महाकवि को धन्यवाद दिया, बोले- आपने इन तांत्रिकों के विरोध में आवाज उठाकर जनता को सचेत करने का प्रयास किया है।
इसी समय एक बहुत बड़ी मछली इस तरह उछली कि उसके उछलने और जल में पुनः गिरने की आवाज ने सभी का ध्यान उस ओर खींच लिया।
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