आसमान में डायनासौर 4
बाल उपन्यास
राजनारायण बोहरे
जब जागे तो वे चौंक गये
उन्होंने अपना यान पुच्छल तारे के पीछे लपकता हुआ लगाया था सो सबसे पहले उन्होंने शुक्र, पृथ्वी और पुच्छल तारे को देखने का प्रयोग किया।
तोबा रे तोबा न कहीं वह पुच्छल तारा दिखता था न ही कही परिचित ग्रह और उपग्रह दिख रहे थे।
प्रो. दयाल बड़े हैरान हुये।
क्या हुआ वे कहां आ गये
न कहीं सूर्य दिख रहा है न ही कहीं चुद्रमा, युरेन या शुक्र की आकृति झिलमिलाती प्रतीत होती हैं।
न दिशा बताने वाला कम्पास सही काम कर रहा था। न ही ट्रांसमीटर सही काम कर रहा था। अजय अभय भी थोड़ा घबरा से गये।
यहां तो दूर दूर तक छोटे बड़े लाखों टिमटिमाते तारे दिख रहे हैं।
इसका मतलब वे अपने सौरमंडल से भटक गये हैं
उनके यान में हालांकि खाने और यान के चलाने की जरूरी चीज़े भारी मात्रा में मौजूद थी।
उन्होंने अपने सामने फैले पर्दे पर गौर से देखने का प्रयास किया यान के बाहर का सारा नजारा पर्दे पर उमर रहा था।
सहसा वे चौके।
दूर एक पीला चमकदार पिंड नजर आ रहा था जिसके चारों और कई छोटे बड़े पिंड चक्कर काटते से दिखते थे।
वे प्रसन्न हुये और अजय-अभय से बोले-शायद ये पीला ग्रह सूर्य ही है जिसके चारो और पृथ्वी, चंद्रमा,वगैरह चक्कर काट रहे हैं।
उन्होंने अपने यान की दिशा मोड़ी और गगन पूरी रफतार से उस चमकदार पिंड की ओर दौड़ चला।
तैयारी के दौरान प्रो. दयाल को कठिन प्रशिक्षण दिया गया था और कैसी भी मुसीबत में न घबड़ाने के लिये उन्हे पूरी तरह तैयार कर दिया गया था इसलिये उन्होंने ट्रेनिंग के दौरान सीखी गई योग की क्रिया कर अपने मस्तिष्क को शांत किया। पांच मिनिट तक उन्होंने सांस रोककर प्राणायाम किया और उनके चेहरे पर फिर से ताजगी दिखने लगी।
आनेवाली परिस्थितीयों से निपटने के लिये वे तैयार होकर बैठ गये। इन्होने समय काटने के लिये दैनिक क्रियाओ से निडर होना उचित समझा और वे दैनिक क्रियाओं में व्यस्त हो गये।
पीले पिंड का आकार बढ़ता जा रहा था और उसके इर्द-गिर्द के ग्रह उपग्रह स्पष्ट होते जा रहे थे। प्रो. दयाल अपने अपने परिचित चंद्रमा, बुध, शुक्र आदि ग्रहों को ढूढ़ने लगे। लेकिन जल्द ही वह निराश हो गये।
न सूर्य उन्हे अपना लग रहा था न ही ग्रह उपग्रह। उन्होंने एक एक ग्रह को देखा और विस्मित हो गये।
हरेक का अलग रंग था और हरेक ग्रह एक दूसरे से कम दूर लग रहे थे। आगे क्या किया जाये इस प्रश्न पर विचार करने के लिये वे गगन को अंतरिक्ष में स्थिर करके खड़े हो गये।
सबसे पहले उन्होंने उन यंत्रो को शुरू किया जो सूर्य कि धूप से बिजली बना लेते है और वे प्रसन्न हो उठे इस नये सूरज कि धूप से भी बिजली भी बनाई जा सकती है।
अब उन्हें विश्वास हो गया था कि एक नया सूर्य मंडल उन्होंने खोज लिया है और इसके चारे में पूरी जांच करके ही पृथ्वी और अपने सूर्य मंडल खोजने का विचार करने के लिये वे देर तक सोचते रहे थे। अजय ने सुझाव दिया कि क्यों न इन रंगबिरंगे ग्रहों पर चलकर उतरा जायें।
उन्होंने निर्णय लिया िकवे एक-एक ग्रह पर जाकर वहां के जीवन को देखने का प्रयास करेंगे।
सबसे पहले उन्होंने गहरे लाल रंग ग्रह को चुना और गगन यान यानि उनका अंतरिक्ष विमान अपने मालिको की इच्छा पाकर लाल ग्रह की ओर मुखातिब हो गया।
जब कुछ पास जाकर उन्होंनेउस ग्रह को देखा तो दयाल सर ने अपना कम्प्युटर उस ग्रह के अध्ययन पर लगा दिया तो कम्प्युटर ने बताया कि वह ग्रह दूर से इस कारण लाल दिखता था क्योंकि उसमें धरती और पानी से लगातार कई गैसे निकलती थी और उसके वायुमंडल मे छा जाती हैं बाहर से दिखने के कारण पूरा ग्रह लाल दिखता है ।
वे लोग अंतरिक्ष की सीमा पार करके उस ग्रह पर उतरने के लिए ग्रह के चारों ओर चक्कर लगा रही गैस और वातावरण यानि कि ग्रह की कक्षा में पहुंचे तो अभय ने वहां ऑक्सीजन होने की जानकारी लेने के लिये एक गुब्बारे में हवा भरी और यान से बाहर निकाल दिया।
जल्दी ही पता लग गया कि वहां की धरती पर ऑक्सीजन है और वे चाहे तो अपनी सांस लेने की टंकी निकालकर उस ग्रह पर घूम भी सकते हैं। इस समय वे लाल ग्रह की जमीन से सो किलोमिटर उपर थे और नीचे के दृश्य उन्हें पूरी तरह से दिख नही पा रहे थे इसलिये उन्होंने झट से गगन में लगे कुछ बटन दबाये तो गगन का आकार एक हवाई जहाज जैसा हो गया और वह आसमान में परिन्दे सा तैरने लगा।
धीरे धीरे झूलते हुए गगन जमीन पर उतरते हुये उस ग्रह के एक खूब चौरस और चौड़े मैदान में जा टिका।
एक बार और बाहर का निरीक्षण कर प्रो. दयाल ने दरवाजा खोला और तीनो बाहर निकल आये। वातावरण में गहरी उमस थी।
बाहर आकर उन्होंनेअंगड़ाई ली। मुक्त हवा में थोड़ी सी कसरत की और एकदम से ताजादम दिखने लगे।
उन्हे उत्सुक्ता थी कि इस लाल ग्रह पर आदमी होते है या नही मैदान कें दायीं और एक टीला सा दिखता था जो यहां से डेढ़ दो सौ मीटर दूर लग रहा था अपने अंतरिक्ष ट्युब में फिट की गई लेंसर बंदूक को हाथ में लेकर उस टीले की ओर बढ़े।
मैदान में छोटे-छोटे पत्थर फैले हुये थे और कहीं -कहीं कुछ पौधे भी लगे थे दयाल सर ने पास जाकर वे पौधे देखे तो पाया कि उन पौधो की पत्तियां बिल्कुल छोटी-छोटी थीं एकदम पतली टहनियां थी। झाड़ियो जैसे पौधे भी आकार में छोटे ही थे।
ज़मीन और पत्थरों का रंग लाल सा नजर आ रहा था और आसमान भी लाल सा ही दिख रहा था।
चौकन्नी निगाहों से चारो और देखते हुये वे लोग टीले पर चढ़े और शिखर पर खड़े होकर दूरबीन से चारों और देखने लगे।
ये एक बार फिर चौंक गये।
टीले के उस पार एक गहरी घाटी दिख रही थी जिसमें सबसे ज्यादा चौंकाने वाले हाथियों से कई गुना बड़े दिख रहे वे दुर्लभ जीव थे जो उस घाटी के मैदान में बैठे एक दूसरे पर गुर्रा रहे थे। हां अजय और अभय ने हालीबुड की फिल्म में जो मशीन के बने डायनासौर देखे थे वे इस ग्रह पर जीवित बैठे थे, दयाल सर ने बताया कि सामने दिख रहे जीव डायनासौर जाति के इनोस्ट्रासिवियासौरत्र पेरिया सारसो हैं।
घाटी में खूब बड़ी चट्टानें और कठोर मिट्टी के छोटे टीले से बने हुये थे। एक पतली सी नदी भी बहती दिख रही थी।