solahavan sal - 18 - last part in Hindi Children Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | सोलहवाँ साल (18) - अंतिम

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सोलहवाँ साल (18) - अंतिम

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707Email:- tiwariramgopal5@gmai.com

भाग अठ।रह

आठ दस दिन ही उन्हें सेना से अवकाश मिला। वे छुट्टी पर आये। उनके आने की सूचना हमारे घर आ गई ।

मैं चाहती थी कि इस अवसर पर सुमन गुप्ता मेरे पास रहे। उनके आने के एक दिन पहले मैं ही सुमन को डबरा नगर से लिवा कर ले लाई।

सुमन को मजाक सूझा। मेरे कान के पास आकर फुसफुसाई -‘‘सुगंधा, वे आ रहे हैं। ’’

मैंने जानबूझकर अनभिज्ञता प्रगट की ‘‘कौन ?’’

‘‘अरे ! तुम्हें देखने के लिए उन्हें छुट्टी मिल गई।’’

‘‘तो मैं क्या करूँ ?’’

सुमन ने अपने हाथ नचाते हुए कहा ‘‘अरे ! नाचो, गाओ और धूम मचाओ।’’

‘‘ यह तुम्हें ही अच्छा लगता है। मुझे अपनी शादी की चिन्ता नहीं है।’’

‘‘यह बात तो तू ऊपर से कह रही है। मन में तो लड्डू फूट रहे होंगे।’’

‘‘मैं ऐसे नहीं सोचती ।’’

‘‘तो कैसे सोचती है ?’’

‘‘जब मैं उनके घर जाऊँगी उस समय सोचूंगी । अभी क्या पता वे आकर मुझे पसंद न करें। अभी से मैं अपने मन को किसी से क्यों बाँधू ।’’

यह बात सुनकर सुमन ने स्वीकार किया -‘‘सुगंधा, तुम्हारा सोच उचित ही है। इन पुरुषों का कोई भरोसा नहीं हैं।’’ इसी समय मम्मी ने आवाज दी -‘‘सुगंधा ।’’

‘‘जी मम्मी। ’’

‘‘बेटी घर का सारा काम पसरा है। वैसे रोज का काम तो मैं कर लेती थी। आज मेहमान आ गये तो फिर कुछ न हो पायेगा।’’

मम्मी की बात सुनकर मैं मदद करने नीचे उतर आईं।

दोपहर एक बाइक दरवाजे पर आकर रूकी। स्वस्थ्य सुन्दर लम्बे तगडे व्यक्ति को फौजी वेषभूषा में दरवाजे पर खड़े देखा। घर के सभी लोग उनकी आगवानी करने घर से बाहर निकल आये। मैंने दरवाजे के ऊपर छज्जे पर खड़े होकर उनकी आगवानी की। हम दोनों की आँखें मिली। मैं पीछे हट गई। उनके अपने परिचय में शब्द सुन पड़े -‘‘मैं आनन्द प्रकाश।’’

पापा जी बोले- ‘‘ आईए ऽऽ.. ,हम आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं।’’

उन्हें सम्मान पूर्वक बैठक में बैठाया गया। मैं सुमन के साथ चाय की ट्रे लेकर उनके सामने पहुँची। आँखें मिली। मैंने उनकी वन्दना में आँखें झुका लीं। आनन्द ने मुझे घूरते हुए चाय का प्याला उठाया। प्याला हाथ से छूट गया होता। मैं समझ गई, श्रीमान की निगाहें मुझे घूर रहीं हैं। वे सँभालते हुए हाथ में प्याला लेकर बोले -‘‘बैठिये ’’

मैं उनके सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गयी। सुमन भी मेरे पास पड़ी दूसरी कुर्सी पर बैठ गई। मम्मी ने इसारे से सुमन को बुला लिया। वह चुपचाप उठकर चली गई।

हम दोनों बैठक में अकेले रह गये। आनन्द के मुँह से शब्द निकले -‘‘कुछ पूछना चाहोगी ?’’

‘‘पहले आप पूछें।’’

‘‘मुझे कुछ नहीं पूछना। मुझे जो पूछना था, उस बात का उत्तर बिना पूछे ही मिल गया है ।’’

इनके माता- पिता जी मुझे देखने आये थे, उस दिन से एक बात मेरे मन में उमड़ रही है। जब ये स्वयं ही पूछने की कह रहे हैं तो पूछ ही लेती हूँ। यह सोचकर मुँह से शब्द निकले-‘‘मैं विवाह के वाद आपके घर पहुँचूगी। काश ! उस दिन आपको सेना में वापस जाने का सन्देश मिल जाये। उस समय आप मेरे हित में क्या निर्णय लेंगे ?’’

प्रश्न करने के मैंने उनके चेहरे पर दृष्टि डाली। उन्होंने तत्क्षण उत्तर दिया - तुम्हारे हित में ....... तुम्हारे ...... हित ..... में .... तत्क्षण देश की सेवा में वापस लौट जाऊँगा। इस बात पर आप चाहें तो इस सम्बन्ध से इन्कार कर सकती हैं।’’

मैंने निगाहें नीची करते हुए उत्तर दिया- ‘‘मुझे सम्बन्ध स्वीकार है। हमारे देश को ऐसे ही सैनिकों की आवश्यकता है।’’

मेरे उत्तर से वे सन्तुष्ट होकर बोले -‘‘सुगंधा, तुम्हारे नाम की सुगन्ध ही मुझे यहाँ खींच लाई है। तुम सच में एक सैनिक की पत्नी होने योग्य हो।’’

यह कहते हुए उन्होंने अपनी जेब से अंगूठी निकाली। अपने स्थान से उठकर मेरे सामने आ गये। मेरे दायें हाथ की अनामिका अंगुली पकड़ी और अनायास उसमें वह नगदार अंगूठी पहना दी ।

मैंने कहा- ‘‘यह आप क्या कर रहे हैं ? यह तो हमारे दोंनों परिवारों की उपस्थिति में की जाने बाली रस्म है।’’

मेरी बात के उत्तर में वे बोले -‘‘सैनिक किसी क्षण का इन्तजार नहीं करते।’’

पाप-मम्मी कान लगाये बैठक के बाहर खडे़ थे। उनकी ये बातें सुनकर वे बैठक में आ गये ।

आनन्द थोडे़ पीछे हट कर अपनी कुर्सी पर बैठ गये । मैं समझ गई, मेरी अब यहाँ आवश्यकता नहीं है। मैं वहाँ से उठकर अन्दर चली आई। मैं सोचने लगी - हाय राम ! इतनी बडी बात मेरे मुँह से कैसे निकल गयी !

याद हो आई - जयशंकर प्रसाद की कहानी पुरुस्कारश्।

कहानी की नायिका मधूलिका अपने देश की रक्षा के लिये प्रेमी अरुण की योजना का पर्दाफाश कर अपने प्रेम का बलिदान कर देती है। अरुण पकडा जाता है। भरी सभा में उसके लिये मृत्युदण्ड की घोषणा की जाती है, और मधूलिका से देश की रक्षा के लिये पुरुस्कार माँगने को कहा जाता है तो वह पुरुस्कार में मृत्युदण्ड माँगते हुये अपने प्रेमी अरुण के पास जाकर खडी हो जाती है।

यों मुझे देशप्रेम और व्यक्तिगत प्रेम में फर्क करना आ गया है।

ऐसे ही प्रसंग मुझे चेतना प्रदान करते रहे हैं। उस दिन आनन्द हमारे साथ खाना खाकर-पीकर लौट गये। उनके जाते ही सुमन कुछ याद करते हुए बोली-‘ सुगन्धा, आज इस समय मुझे तुम्हारी बी.ए. पार्ट वन में शहीद सैनिक पर लिखी कविता याद आ रही है , उसे एक बार फिर सुनना चाहती हूँ। मैंने उसकी बात सुनकर अपनी डायरी उठाली और यह कविता पढ़ने लगी- मेरी इस कविता का शीर्षक है-

राजा बेटा

सुना है- हमारे राजा बेटा ने

मातृभूमि के लिए, लड़ते-लड़ते

बन्दूक की गोलियाँ

अपने सीने पर झेलीं हैं।

भारत माता आज उसके शहीद होने पर

सीना ताने गर्व से कह रही है-

देखा, मेरा अनोखा लाड़ला

जिसने शत्रु के सभी बार

सीने पर झेले हैं।

उसके जाने के बाद

अब मेरा क्या होगा?

कौन करेगा अब इस माँ की रखबाली?

है कोई राजा बेटा

जो शत्रु के सभी वार

सीने पर झेल सके।

मरते- मरते जय मातृभूमि कह सके।

आज मेरे घर ऐसे राजा बेटा की

अर्थी आने बाली है।

कैसे स्वागत करूँ में उसका?

कैसे आँसुओं के प्रवाह को रोक पाऊँ।

उस पर क्या क्या न्योछावर कर दूँ?

कौन सा पात्र उसके आचमन के लिए भर लूँ।

कौन सी समिधायें उसे अर्पित करूँ।

कौन से गीत उसके स्वागत में गाऊँ।

सब की सब चीज राजा बेटा के स्वागत में

बौनी लग रहीं हैं।

अब तो बस एक ही बात मन में आती है।

काश! ऐसा ही दूसरा राजा बेटा होता,

तो उस भी इसके स्वागत में

मातृभूमि के लिए अर्पित कर देती।।

सुगन्धा तुम्हारे विचार तो पहले से ही सैनिक की भावना से जुड़े थे। आज तुम एक सैनिक की पत्नी बनने जा रही हो। उस दिन जब तुमने यह कविता मुझे पहली बार सुनाई थी, मेरे मन में भी यही बात आई थी, जो आज फलीभूत हो रही है।

सुगन्धा बोली- मैंने यह कविता माँ को लेकर लिखी है। अब मैं ऐसी ही कोई रचना शहीद की पत्नी को लेकर लिखूँ।’

सुमन बोली-‘ अब काल्पनिक कविता से काम नहीं चलने बाला। अब यह कविता लिखी जायेगी तो यथार्थ की ही ’ यह कह कर सुमन बात कहने के लिए मन ही मन पश्चाताप करने लगी। मुझे असमय यह बात नहीं कहना थी। सुमन ने विषय बदला-‘ सुगन्धा में भी तुम्हारी तरह कुछ लिखना चाहती हूँ। मुझे लिखना सिखा दे ना। मैंने उसे समझाया- ‘जब हम लिखना शुरू करते हैं। बहुत सोच विचार के शुरू करते हैं।... और जब लिखना शुरू हो जाता है लिखते-लिखते ऐसी बातंे लिख जाते हैं, जिनकी हमने रचना शुरू करते समय कल्पना भी नहीं की थी। दिन-रात लिखने का चिन्तन चलने लगता है। उठते -बैठते, खाते पीते सुमिरणी सी चलती रहती है। लगता है, कहीं कोई बात लिखने से छूट नहीं जावे। एक बार ऐसा मन बना ले लिखना शुरू हो जायेगा।’

सुमन उसके बाद दो-तीन दिन तक मेरे ही साथ रही।

आनन्द के माता पिता तत्क्षण विवाह चाहते थे। पापा-मम्मी आनन्द के विचार सुन ही चुके थे, ‘‘सैनिक किसी क्षण का इन्तजार नहीं करते ।’’

यों सोच समझकर विवाह की तैयारियाँ की जाने लगी।

शादी-ब्याह मानव जीवन का एक विशिष्ट पड़ाव है।

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