Jai Hind ki Sena - 6 in Hindi Moral Stories by Mahendra Bhishma books and stories PDF | जय हिन्द की सेना - 6

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जय हिन्द की सेना - 6

जय हिन्द की सेना

महेन्द्र भीष्म

छः

ढलान समाप्त हो रही थी।

भानु ने गियर बदला, अब जीप हल्की चढ़ाई पर चढ़ रही थी। नदी से पहले का ऊबड़—खाबड़ बीहड़ क्षेत्र।

कुछ पल शांतमय बीते।

अब जीप उसी नदी के पुल को पार कर रही थी जिस नदी को कल

ठीक मुँह अंधेरे मोना छोटी नाव की मदद से पार करके इस ओर आयी थी।

कल वह पूर्व से पश्चिम की ओर इस उम्मीद से नदी पार गयी थी कि वह अब कभी भी वापस नदी के उस ओर नहीं आयेगी।

परन्तु ठीक चालीस घण्टे बाद ही वह नदी के उसी ओर जा रही थी जहाँ वापस न लौटने की वह सौगंध ले चुकी थी।

‘आज नदी के पश्चिम से पूर्व जा रही थी वह' मोना ने हसरत भरी नज़रों से शाम के धुंधलके में नदी को निहारा जो शांत उत्तर से दक्षिण की अोंर बह रही थी। कोई दो फर्लांग का छोटा सा पुल सेकेण्डों में पार हो गया।

‘‘मोना'' हल्के से टोका, खोई हुई मोना को, बलबीर ने।

‘‘हूँ'' विचारों की क्रमबद्धता को छोड़ मोना यथार्थ में लौटते हुए बोली।

‘‘कहाँ खो गयी।'' बलवीर ने इशारे से पूछा।

मोना ने भी मुस्कुराकर इशारे से मौन ही कहा, ‘‘कहीं नहीं।''

दोनों एक दूसरे को अपलक निहारे जा रहे थे। पता नहीं कितने पल

ऐसे ही बीत गये। जीप के हिचकोले उन्हें बाधा नहीं पहुँचा रहे थे। एकाएक बे्रक चरमराये और झटके के साथ जीप रुक गयी।

जीप के रुकते ही भानु चीखा, ‘‘एक्शन पाकिस्तानी टुकड़ी।''

मोना और बलवीर की तंद्रा भंग हुई।

बलवीर ने कंधे से स्टेनगन उतारते हुए सामने देखा।

कुछ फर्लांग आगे पीपल के पेड़ के पास पाकिस्तानी फौज का पूरा पेट्रोलिंग दस्ता, कोई दर्जन भर पाकिस्तानी सेना के जवान सामने से आती हुई जीप को ताक रहे थे।

इसके पहले कि भानु की राइफल लक्ष्य भेदने के लिए गरजती। तौसीफ़ चीख़्ा पड़ा—‘‘रुको .... ये पाकिस्तानी फौजी नहीं हैं बल्कि बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी के गुरिल्ला हैं।''

‘‘क्या?'' प्रश्नवाचक दृष्टि से भानु व बलवीर ने एक साथ तौसीफ को

घूरा।

‘‘हाँ, तौसीफ़ ठीक कह रहा है, वह देखो।'' हम्माद ने पीपल के नीचे खड़े युवाओं के दल में से एक द्वारा हैट हिलाने का सिगनल करते युवा की ओर सभी का ध्यान आकृष्ट किया। सभी ने उस ओर देखा, प्रतिउत्तर में तौसीफ़ भी सिर से हैट उतार कर उसी अंदाज़ में हैट हिलाने लगा जैसा कि वह वर्दीधारी युवा पीपल के नीचे से कर रहा था। दोनों की मुद्रा एक थी, यानी कमर से लेकर ठीक सिर के ऊपर तक हाथ ले जाना। भानु व बलवीर पूर्व निर्धारित सूचना के विपरीत इस अचानक आयी स्थिति से कुछ पल के लिए सकते में आ गये थे।

वे दोनों कभी पीपल के नीचे खड़े तथाकथित बांग्लादेश मुक्तिवाहिनी के स्वयंसेवकों को देखते, जो इस समय पश्चिमी पाकिस्तानी सेना की वर्दी में थे, तो कभी हम्माद व तौसीफ़ को जो निश्चिंत भाव से खड़े मुस्करा रहे थे। कुछ क्षण इसी में बीत गये।

‘‘चलिए भाई जान।'' तौसीफ़ सीट पर यथावत बैठते हुए बोला। भानु ने बलवीर की ओर देखा।

बलवीर ने चलने का इशारा कर दिया और स्वयं अपनी पूर्व की स्थिति में आ गया। मोना अचानक आई इस क्षणिक उत्तेजना से रोमांचित हो उठी

और माथे पर उभर आईं स्वेद की बूँदें पोंछते हुए बलवीर की ओर देखने लगी। बलवीर से निगाहें मिलते ही उसने अपनी घबड़ाहट छिपाने के लिए मुँह दूसरी ओर कर लिया, परन्तु स्वेद बूँदें बलवीर से छिपी न रह सकीं।

पश्चिमी पाकिस्तानी सेना की वर्दी धारण किए हुए बांग्लादेश मुक्तिवाहिनी के युवाओं ने जीप को घेर लिया।

बलवीर तौसीफ़ से कुछ पूछने के लिए अपना मुँह खोलता इसके पहले

युवाओं में से एक जो उस टुकड़ी का नायक प्रतीत होता था, विनम्रतापूर्वक बोला, ‘‘श्रीमान्‌जी! मैं रहमान हूँ, हम दस युवाओं को मौलवी साहब ने आप की मदद के लिए भेजा है।''

‘‘किंतु हमें तो ऐसा नहीं बताया गया था।'' भानु ने शंका ज़ाहिर की।

‘‘जी हाँ मौलवी साहब ने यह व्यवस्था मेजर पाण्डे से गुप्त रखी थी। वैसे तौसीफ़ व हम्माद को पहले से मालूम है।'' वह पुनः बोला। तौसीफ़ व हम्माद ने सहमति में सिर हिलाया।

‘‘जी हाँ मेजर साहब ने पीपल तक जीप में आने का निर्देश दिया था। अब हमारी इस टुकड़ी के लीडर यानी आपको मौलवी साहब की योजना से तालमेल रखते हुए आगे की कार्यवाही करनी है।'' तौसीफ़ भानु से ससम्मान बोला।

‘‘वह किस प्रकार से होगी ?'' भानु ने पूछा।

तौसीफ़ ने उसी युवा को संकेत किया जिसने अपना नाम रहमान बताया था। रहमान ने जीप के बोनट पर नक्शा फैलाते हुए कहा, ‘'इस समय हम सभी पाकिस्तानी छावनी से मेरा मतलब महिला छात्रावास से ठीक पाँच किलोमीटर पश्चिम में खड़े हैं। यहाँ से छिपकर चलते हुए कोई नौ बजे रात्रि तक हम सभी महिला छात्रावास के पीछे स्थित पानी की टंकी तक पहुँच जाएँगे। यहाँ एक गुप्त खंदक है जहाँ से रात्रि के ठीक दस बजे हम दस युवा साथी पाकिस्तानी सेना में घुल मिल जायेंगे और सबसे पहले पाँच लोग

शस्त्रागार में लगे पहरेदारों को खत्म करके उनके स्थान पर खड़े हो जाएँगे

और दो युवा साथी शस्त्र व गोला बारूद सुरक्षित स्थान में पहुँचाएँगे। इसके बाद ठीक बारह बजे जब पश्चिमी पाकिस्तानी सेना के अधिकाँश सैनिक

आराम कर रहे होंगे तब तौसीफ़ व हम्माद तीन अन्य युवा साथियों की मदद से संगीन से पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों को मारेंगे। इस क्रम में यदि पश्चिमी पाकिस्तानी फौजी हमें पहचान लेते है तब पोजीशन लेकर हमें लड़ना होगा।''

‘‘ठीक तीन बजे भारतीय कैप्टन सिंह के नेतृत्व में भारतीय सेना हमारी मदद पर आ जायेगी और पश्चिमी पाकिस्तानी सेना की रही—सही कसर पूरी तरह ख़्ात्म कर दी जायेगी।'' तौसीफ़ इस बार बोला था।

‘‘तो भाई हम लोग क्या करेंगे?'' भानु बोला।

‘‘अरे वाह सर ! अब हम सभी आप ही के निर्देशन में तो चलेंगे... अभी तो मैंने मौलवी साहब की योजना बतायी थी... अब आगे आप आदेश दें।'' कहते हुए रहमान ने एक जोरदार सेल्यूट भानु व बलवीर के सम्मान में ठोका।

सेल्यूट का जवाब भानु व बलवीर ने एक साथ दिया और रहमान को दोनों ने एक साथ स्वयं से भाव विह्वल हो चिपका लिया।

‘‘मार्च'' बलवीर ने बुलंद आवाज़ के साथ उद्‌घोष किया। पीपल के पेड़ के खोखलाें में छिपाई गयी पाकिस्तानी ड्रेस फटाफट तौसीफ़ व हम्माद ने सिविल डे्रस के ऊपर पहन ली। दोनों की फुर्ती देखकर बलवीर व भानु मन ही मन उन्हें दाद दिये बिना न रहे। बहुत अच्छा तालमेल बनाए हुए रास्ते में बिना किसी झंझट को झेले यह पन्द्रह सदस्यीय दल सकुशल पाँच किलोमीटर का फ़ासला दो घंटे में पार कर पूर्व निर्धारित स्थान अर्थात्‌ पानी की टंकी के पास आ गया।

महिला छात्रावास से उठ रही सर्च लाइटों का तीव्र प्रकाश पानी की

टंकी की पहुँच से अछूता था।

यद्यपि पानी की टंकी को घनी बाड़ से घेर लिया गया था, फिर भी इस ओर से पाकिस्तानी सेना पर्याप्त लापरवाह थी तभी तो बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी के मौलवी साहब ने यही स्थान आक्रमण से पूर्व के लिए सुरक्षित समझा था।

खंदक में बीस लोगों के बैठने के लिए पर्याप्त जगह थी।

पहले से रखे खाद्य पदार्थ को सभी ने मिल बाँटकर खाया और शीतल जल पिया। सभी के चेहरों पर तृप्ति के भाव थे। घड़ी में साढ़े नौ बज चुके

थे। रहमान ने भानु व बलवीर से फुसफुसाकर अग्रिम कार्यवाही के लिए अनुमति मांगी। सबसे पहले तौसीफ व हम्माद को मुख्य दरवाजे से प्रवेश करना था और बड़ी सफाई से दोनों संतरियों को जान से खत्म कर अपने दो

युवाओं को पहरे में लगा देना था जिससे पीछे आने वाले पाँच युवा साथी

आसानी से शस्त्रागार की ओर बढ़ सकें।

‘‘आप लोगों को ठीक ग्यारह बजे इसी बाड़ से महिला छात्रावास की बिल्िंडग के पीछे शेष तीन वालंटियर्स के साथ पहुँंच जाना है।'' रहमान ने बलवीर को समझाते हुए कहा।

बलवीर ने सहमति से सिर हिलाते हुए पहली टुकड़ी यानी हम्माद व तौसीफ़ के साथ दो युवाओं को विदा किया।

पहली टुकड़ी के जाने के ठीक बीस मिनट बाद रहमान के नेतृत्व में पाँच वालंटियर्स की टुकड़ी रवाना हुई।

खंदक में तीन वालंटियर सहित बलवीर, भानु व मोना कुल छः लोग

शेष बचे रहे, जिन्हें एक घण्टे तक अभी और खंदक में ही सुरक्षित बैठना था। ठंड जोरों पर थी।

भोजन के बाद ठंड की लहर सभी ने खंदक से बाहर आने पर महसूस की।

संयोग से तौसीफ़ व हम्माद को कल वाले संतरी ही आज पुनः मिल गये।

‘‘कहो मियाँ शहर में कुछ मिला मालपानी।'' मौलाना ने तौसीफ को देखते ही उत्सुकता से पूछा।

लगभग किटकिटाते हुए तौसीफ ने मौलाना की ओर घूरा, फिर सहज हो मुस्कराते हुए बोला, ‘‘साथ लाया हूँ एकदम नया चोखा माल है।''

‘‘कहाँ है?'' दोनों एक साथ बोल पड़े।

‘‘वहाँ पहले मोड़ के पास के बंगले में बाउण्डरी पार करते ही बंधी हुई

मिल जायेगी उस्ताद।'' हम्माद ने लालच का टुकड़ा दोनों की ओर फेंका। ड्‌यूटी की चिंता में सोच में पड़े देख तौसीफ़ ने पुनः दोनों को कुरेदा,

''जाओ हम दोनों तो निपट आये हैं, तुम दोनों भी मजा ले आओ.... तब तक तुम्हारी जगह पर हम दोनों खड़े हो जाते हैं।''.... तौसीफ़ ने ठंडे लहजे में परामर्श दिया।

‘‘मगर उस्ताद ज़रा जल्दी करना क्योंकि मेरे पाख़्ााना जाने का वक्त हो रहा है।'' हम्माद ने मुश्की लेते हुए अपने पेट पर हाथ फेरा।

दोनों ‘अभी आये दस मिनट में' कहकर फुर्ती से तौसीफ़ द्वारा बताये गये स्थान की ओर बढ़ लिये। दस मिनट भी न बीत पाये थे कि बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी के दो युवा ठीक वैसा ही भेष बनाए जैसा कि दोनों संतरियों का था यानि एक सफाचट और दूसरा मौलाना की नकली दाढ़ी में आ गये।

दोनों ने तौसीफ़ व हम्माद को आँख दबाकर इशारा किया।

‘‘वे दोनों गये....''

‘‘साले मजा लेने गये थे।'' तौसीफ़ बड़बड़ाया और उन दोनों को गेट पर मुस्तैद डटे रहने का संकेत कर आगे खुले मैदान की ओर हम्माद के साथ बढ़ गया।

तौसीफ़ ने महिला छात्रावास की तीनों मंज़िलों पर निगाह फेंकी।

पचपन नंबर के कमरे को लक्ष्य बनाकर वह कुछ पल के लिए कल वाली घटना की याद में खो गया।

‘‘इसी मंज़िल से नीचे कूदकर ममता ने जान दे दी थी।'' वह बोली थी।

‘‘ममता, अटल'' एक साथ दोनों के चेहरे तौसीफ़ के सामने आ गये।

‘‘नहीं'' तौसीफ़ के चीख़्ाने के साथ ही हम्माद ने उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे शांत रहने का संकेत किया। तौसीफ़ ने एक दीर्घ सांस ली।

तभी उसे एक ओर रहमान शेष चार साथियों के साथ खड़ा दिखाई

दिया।

तौसीफ़ ने अपना हैट उठाया और सिर खुजलाने लगा।

यह रहमान को कार्यवाही जारी रखने का स्पष्ट संकेत था। रहमान ने भी वैसी ही प्रतिक्रिया कर सहमति दी। कुछ ही मिनटों के अंदर शस्त्रागार की रक्षा में तैनात चारों संतरी अपना शरीर त्याग चुके थे और शस्त्रागार के अंदर

ही एक अंधेरे कोने में एक के ऊपर एक पड़े हुए थे।

रहमान ने अपने चारों साथियों को उनके स्थान पर खड़ा कर दिया और

शस्त्रागार से कोई बीस गज़ दूर एक टूटे हुए कमरे में जो उपेक्षित सा कोने में था जहाँ शस्त्रागार की छाया से पर्याप्त अंधेरा भी था, स्वयं तौसीफ़ व हम्माद की मदद से हथगोले, राइफलें, गोला—बारूद, स्टेनगन आदि अस्त्र—शस्त्र ढोने लगा।

पूरे एक घण्टे तक ढुलाई करने के बाद वे तीनों थक कर चूर हो गये थे फिर भी अभी शस्त्रागार में काफी गोला बारूद शेष था। एकाएक एकसाथ सभी चौंके, राइफलें ढोते हुए तीनों रुक गये।

महिला छात्रावास के पीछे पानी की टंकी के पास फायरिंग शुरू हो गयी।

रहमान ने घड़ी की ओर देखा ग्यारह बजकर पाँच मिनट का समय हो रहा था।

यानी भारतीय सेना के तीन जवानों को खोज लिया पाकिस्तानियों ने

या वे सब महिला छात्रावास की बिल्डिंग के पास देख लिये गये और पहचाने गये।

गोलियाँ चलने की आवाज़ के साथ एक साथ कई आवाज़ें गूँजी।

‘‘दुश्मन ने हमला बोल दिया है..भारतीय सेना आ गयी है... मोर्चा सम्भालो...''

‘‘शस्त्रागार में हथगोला फेंक दो जल्दी।'' तौसीफ़ चीखा।

.......और एक साथ सात हथगोले शस्त्रागार में फूट पड़े।

एक साथ कई धमाके हुए और शस्त्रागार तहस नहस हो गया।

शस्त्रागार की ओर आ रहे पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिक अप्रत्याशित हमले से बौखला उठे। छात्रावास में अफरा—तफरी का माहौल फैल गया।

मौका पाकर तौसीफ़, रहमान, हम्माद व उनके शेष चारों साथी टूटे कमरे में सुरक्षित आ गए और मोर्चा सम्भाल कर पोजीशन ले ली।

तौसीफ़ व हम्माद महिला छात्रावास के पीछे तक आ गये परन्तु यहाँ

उन्हें बलवीर वगैरह नहीं दिखे।

हाँ, पश्चिमी पाकिस्तानी फौजी पानी की टंकी की ओर फायर झोंकते हुए अवश्य दिखाई दिये।

मामला समझते हुए उन्हें देर न लगी। लगभग सौ पाकिस्तानियों के घेरे के पीछे अपनी—अपनी स्टेनगन सम्भाले पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों की वेशभूषा में तौसीफ़ व हम्माद बढ़ चले।

गोलियाँ दोनों ओर से बंद थीं।

तौसीफ़ ने अपने पीछे देखा कोई नहीं आ रहा था तभी शस्त्रागार के पास से एक साथ कई राउण्ड गोलियाँ बरस पड़ीं।

‘रहमान को चैन नहीं।' तौसीफ़ बड़बड़ाया। वास्तव में यहाँ भौंचक्की भीड़ की शक्ल में मैदान में आ गयी पश्चिमी पाकिस्तानी सेना को रहमान व उसके चारों साथियों ने पोजीशन लेते हुए एल.एम.जी. से अंधाधुंध गोलियों की बरसात के दायरे में ले लिया था और बीच—बीच में मौका पाते ही वे हथगोला छोड़ रहे थे।

गेट पर संतरी बने दोनों युवा किसी को भी बाहर निकलने नहीं दे रहे थे।

आड़ लिए वे दोनों रुक—रुक कर निशाने में फायर झाेंक रहे थे।

यहाँ तौसीफ़ व हम्माद ने देर करना उचित न समझा और तड़—तड़ करते हुए स्टेनगन से कई फायर एक साथ सामने घेरा मजबूत करती हुई पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों पर झोंक दिए और हथगोले फेंकना शुरू कर दिए।

इस दो तरफे आक्रमण से दुश्मन भौचक्का रह गया। लगभग सौ पाकिस्तानी सैनिकों की भीड़ में अधिकांश खेत रहे। इससे बलवीर व उसके साथियों में जोश भर गया।

पूरे तीस मिनट तक महिला छात्रावास का परिसर धमाकों से गूंजता रहा और जब धमाके शांत हुए, महिला छात्रावास में चारों ओर तेज प्रकाश के बीच मुर्दानगी—सी छा गयी।

रह—रह कर घायलों की कराह से भंग होती शांति के बीच भानु की कड़क आवाज गूंजी।

‘‘पश्चिमी पाकिस्तानी सेना के दरिंदों ....तुम्हारे द्वारा मानवता पर किए जा रहे अत्याचार की घड़ियाँ ख़त्म हो चुकी हैं। तुम सब भारतीय सेना द्वारा चारों ओर से घेर लिए गए हो। ....... खुलना शहर में भारतीय सेना का कब्जा हो गया है....... ऐसी दशा में जो भी पाकिस्तानी सैनिक जिंदा बचा है और जिंदा रहना चाहता है, वह जहाँ भी छिपा हो आत्म समर्पण कर दे अन्यथा वह बेकार में बेमौत मारा जायेगा .... मैं दस तक गिनूँगा .... एक .... दो .... तीन

.... चार.... पाँच.........

भानु की गिनती के साथ ही महिला छात्रावास के कमरों में छिपे पश्चिमी पाकिस्तानी सेना के दरिंदे नीचे लॉन में इकठ्‌ठे होने लगे। इनमें से कुछ तहमद व जर्सी पहने हुए निहत्थे थे, ये सब छात्राओं के साथ कमराें में बंद थे।

संख्या यही कोई सौ के आस—पास यानि शेष या तो मारे गये या घायल हो गये थे।

बलवीर ने रहमान को अपने पन्द्रह सदस्यीय दल को इकट्‌ठा करने को कहा।

कुछ देर में कुल ग्यारह लोग उपस्थित थे, शेष चार वालंटियर जिसमें दो गेट पर लगाये गये थे और दो शस्त्रागार के वालंटियर अपने देश के लिए बलिदान हो गये थे।

ईश्वर को धन्यवाद देते हुए भानु ने कहा, ‘‘धर्म के लिए, मानवता की रक्षा के लिए आगे आए हमारे साथी शहीद हो गये। हम सभी उन्हें प्रणाम करते हैं। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।'' सभी ने नम आँखों से कैप उतारकर उन्हें सलामी दी।

तौसीफ़ व हम्माद महिला छात्रावास की बिल्डिंग की बालकनी में इकट्‌ठी हो चुकीं छात्राओं की ओर बढ़ गये। लड़कियों के झुंड से कमला व परवीन निकल कर बाहर आ गयीं। दोनों ने कपड़ाें की माला बनाकर उन दोनों के गले में डाल दी। तौसीफ़ की आँखों में आँसू आ गये।

मोना यह दृश्य देख अपनी हिचकी न रोक सकी।

.....तभी एक साथ कई धमाके हुए। जब तक बलवीर सम्भले..... कई हथगोले लॉन में एकत्र पाकिस्तानी सैनिकों के ऊपर गिरे। ये हथगोले बालकनी से तौसीफ़ ने बरसाये थे, वह पागल सा हो गया था।

तितर—बितर होती पाकिस्तानी सेना को रहमान ने अपने शेष चार साथियों की मदद से लाइट मशीन गन से भूनना शुरू कर दिया। स्वर्गीय असगर उसका चचेरा भाई था जिसकी बहन के साथ बलात्कार कर उसे इन्हीं पश्चिमी पाकिस्तानी सेना के दरिंदों ने उसके चाचा—चाची सहित जान से मार डाला था।

खौलता खून तब तक शांत न हुआ जब तक कि एक भी गोली रहमान के पास बची। भानु—बलवीर जब तक स्थिति सम्भालते तब तक बहुत देर हो चुकी थी। भावना के आगे आदेश निरर्थक था। यह भानु और बलवीर जानते थे फिर भी उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए निहत्थों पर गोली न चलाने की चेतावनी मुक्तिवाहिनी के स्वयंसेवकों को सख़्त शब्दों में दी।

......परन्तु तब तक देर हो चुकी थी, अब कोई भी ऐसा सैनिक नहीं बचा

था, जो कम से कम घायल न हुआ हो।

‘‘ये है, कर्नल... इस छावनी का कमाण्डर‘' मुक्ति वाहिनी के दो वालंटियर गोली से घायल कर्नल को घसीटते हुए भानु व बलवीर के सामने ले आये।

भानु ने आत्मसमर्पण के कागज़ हस्ताक्षर करने के लिए कर्नल के सामने फैला दिये। घायल कर्नल हस्ताक्षर करते ही परलोक सिधार गया और तभी जीपों की घड़घड़ाहट ने एक बार पुनः घिर आई शांति को भंग कर दिया। जीपों का काफिला कैप्टन सिंह के नेतृत्व में आया था।

जिसके आने के पूर्व ही खुलना शहर की प्रमुख अस्थाई चौकी पर लेफ़्िटनेंट भानु विजय पा चुके थे। कैप्टन सिंह को ज़ोरदार सेल्यूट किया भानु व बलवीर ने।

कैप्टन सिंह दोनों की बहादुरी पर गर्व कर रहे थे।

उनके दस्ते के शेष भारतीय सैनिक मन ही मन पन्द्रह सदस्यीय इस

छोटी—सी टुकड़ी के सदस्यों को दाद दे रहे थे। जिसने अपने बल—बूते पर

दुश्मन की एक बहुत बड़ी चौकी तहस—नहस कर दी थी। घड़ी इस समय रात्रि के तीन बजा रही थी। भारतीय सेना के जवान गोला—बारूद व लाशों को इकठ्‌ठा करने में लग गए और घायलों को अपनी क़ैद में लेने लगे।

प्रातः आठ बजे तक भारतीय सेना ने खुलना शहर को पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले लिया। समय से पूरे छः घण्टे पहले खुलना शहर भारतीय सेना के नियंत्रण में आ चुका था। कैप्टन सिंह की टुकड़ी के अलावा शेष चारों सैन्य टुकड़ियाँ महिला छात्रावास के प्रांगण में आ चुकी थीं।

भारतीय सेना के दस जवान व मुक्ति वाहिनी के लगभग पच्चीस स्वयंसेवक खुलना शहर के विजय अभियान में शहीद हुए थे, जबकि पश्चिमी पाकिस्तानी सेना के लगभग दो सौ सैनिक मारे गये और इतने ही घायल हुए

शेष सैनिक क़ैद कर लिए गये। साथ ही भारी मात्रा में गोला बारूद व अन्य

सैन्य सामान भारतीय सेना के क़ब्ज़े में आ गया।

प्रातः नौ बजे विजय की सूचना पाकर मेजर पाण्डेय अपने दल—बल के साथ खुलना आ गये। सुबह का नाश्ता लेते हुए उन्होने एक बहुत ही सामयिक सारगर्भित लेक्चर भारतीय सेना के जवानों, मुक्ति वाहिनी के वालंटियर्स के बीच दिया।

इस दरम्यान मौलवी साहब मेजर पाण्डेय के बगल में कुर्सी पर टेक लिए बैठे रहे। अंत में उनका भी संक्षिप्त भाषण हुआ जिसमें एक प्रेरक संदेश था बंगालियों के लिए। महिला छात्रावास की लड़कियाँ बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी के स्वयं सेवकों की सुरक्षा में आ गयी। खुलना में जिसका जो परिचित था उसे उसके घर पहुँचाया जाने लगा।

इसके पूर्व भारतीय सेना व मुक्ति वाहिनी के वालंटियर्स की कलाइयों में इन छात्राओं ने राखियाँ बाँधी।

यह सामूहिक उत्सव प्रत्येक की आँखों में प्रेम के आँसू भर गया। दोपहर खुलनावासियों ने भारतीय सेना की विजय की खुशी में गली—गली जुलूस निकाला। आज कई दिनों बाद चैन की साँस ली थी खुलनावासियों ने, मानो पूरा मृत शहर फिर से ज़िन्दा हो गया हो।

तौसीफ़ व हम्माद अपने नव परिचित भारतीय सेना के मित्र बलवीर व

भानु को घर चलने का आग्रह करने लगे, जिसे वे दोनों ठुकरा न सके।

.....और कैप्टन सिंह से अनुमति लेकर मोना सहित वे सब जीप में सवार होकर हम्माद की कोठी में आ गये।

उन्होंने मार्ग में उत्साहित भीड़ को कई स्थानों पर हर्षोन्माद में देखा।

शहर के मुख्य चौराहों पर भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी व

शेख मुजीबुर्रहमान के बड़े—बड़े पोस्टरों के साथ भारतीय सेना के स्वागत में बैनर लग रहे थे। रास्ते में कई जगह उनकी जीप रोककर उन्हें मालाएँ पहनायी गयीं।

फलस्वरूप जीप से पन्द्रह मिनट का रास्ता पूरे डेढ़ घण्टे में तय हो पाया।

हम्माद की कोठी के लॉन में तौसीफ़ व हम्माद के स्वागत के लिए एक

छोटा—सा पंडाल बना लिया गया था।

कोठी में पर्याप्त चहल—पहल थी।

जीप के गेट के अंदर प्रवेश करते ही वहाँ उपस्थित सभी लोग जीप की ओर हर्षनाद करते हुए दौड़ पड़े।

तौसीफ़ ने देखा कि उसके अब्बा, अम्मी व छोटी बहन शमा जीप की ओर बढ़े चले आ रहे हैं।

हम्माद के माता—पिता व बहन रुख़्ासाना भी जीप के पास पहुँच गयी।

.....और फिर छोटी सी भीड़ ने उन सबको फूल मालाओं से लाद दिया।

मोना मन ही मन आज बेहद खुश थी। समय इतनी तेजी से परिवर्तित होगा उसने अनुमान भी नहीं लगाया था। तौसीफ़ ने बलवीर, भानु व मोना का क्रमशः सभी से परिचय कराया।

सभी ने उन तीनों से हाथ मिलाया। औपचारिकताएँ पूरी कर सभी अंदर हॉल में प्रविष्ट हुए।

अंदर घायल अटल अधलेटी अवस्था मे प्रसन्न मुद्रा में सभी को अन्दर आते देख रहा था।

मोना, जो सिख सैनिक के भेष में थी, की नज़र अभी तक अटल के

ऊपर नहीं पड़ी थी।

वह अपनी आदत के अनुसार बड़े ड्राइंगरूम में रुख़्ासाना द्वारा सजाई

गयी कलाकृतियों को ग़ौर से देख रही थी।

तौसीफ अटल की ओर उदास मुद्रा में बढ़ा।

उसकी आँखों में आँसू आ गये।

यह देख अटल किसी आने वाली बुरी ख़्ाबर की आशंका से सहम गया।

उसने अपना साहस बटोरा और तौसीफ़ का हाथ अपने हाथ में लेकर प्रश्न वाचक दृष्टि से उसकी आँखों में मौन रहते ममता के बारे में पूछा।

तौसीफ़ के नकारात्मक सिर हिलाने से अटल टूट—सा गया, उसने हॉल में लगे झाड़ फानूस पर अपनी दृष्टि जमा दी। तौसीफ़ का हाथ एकाएक छूट गया और अटल दूसरे पल ही गश खाकर एक ओर लुढ़क गया।

तौसीफ़ ने अटल को सम्भाला।

शेष लोग भी इस अप्रत्याशित घटना से घबड़ा गये। अटल के पलंग को सभी ने घेर लिया। तौसीफ़ ने बलवीर को बताया कि यह उसका मित्र अटल बनर्जी है जिसका पूरा परिवार साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गया। ‘अटल बनर्जी' तौसीफ़ के मुँह से सुनकर एक ओर खड़ी मोना चौंकी।

‘कहीं उसके अटल दा की चर्चा तो नहीं हो रही।'

वह पलंग के पैताने पहुँच गयी।

‘हाँ, यह उसके अटल दा ही तो हैं। कितने कमज़ोर हो गये हैं।' मोना अपने आप को अधिक देर संभाल न सकी।

‘‘अटल दा।'' एक तेज़ चीख़्ा के साथ मोना अटल से लिपट कर रो पड़ी।

सिख सैनिक की वेश—भूषा में शांत युवक के मुँह से नारी कंठ का स्वर सुनकर बलवीर व भानु के सिवाय सभी असमंजस में पड़ गये।

अटल ने अपनी आँखें खोलकर सिख वेषधारी मोना की आँखों में झाँका।

मोना ने अपनी नकली दाढ़ी मूँछ व पगड़ी फेंक दी।

इस बार तौसीफ व हम्माद भी चौंके। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि वे तनिक भी शंकित नहीं हुए थे कि वह लड़की है जबकि पूरे बीस घण्टे का साथ

हो रहा था उनका।

मोना को अप्रत्याशित रूप से सामने देख अटल कुछ पल के लिए ममता को भूल गया।

बहन भाई के पुनर्मिलन से सभी की आँखें नम हो गयीं और फिर मोना ने सभी को संक्षेप में आप बीती सुबकते हुए सुनायी।

उसने बताया कि किस तरह बलवीर व भानु ने उसे सुरक्षा प्रदान की।

सभी बलवीर व भानु के प्रति कृतज्ञ हो उठे, विशेषकर अटल जिसकी

प्यारी बहन को उन्होंने न केवल बचाया बल्कि मिलवा भी दिया।

मोना को रुख़्ासाना अपने साथ अंदर ले गई। कुछ देर बाद रुख़्ासाना के कपड़ों में मोना पुनः हाल में आयी।

रुखसाना के कपड़ों में मोना परी—सी दिख रही थी। बलवीर अपलक

रूपसी मोना को प्यार से निहारता रह गया।

....और फिर उल्लासमय वातावरण में सभी ने दोपहर का भोजन ग्रहण किया।

भोजन के बाद क्रमशः शमा, रुखसाना व मोना ने भावुक गीत प्रस्तुत किए।

अन्त में भानु ने भी देशभक्ति का गीत ‘मेरा रंग दे बसंती चोला' सस्वर सुनाकर सभी को जोश से भर दिया।

शाम पाँच बजे मोना के अलावा सभी वापस जाने के लिए जीप में सवार हुए।

बलवीर को मोना का इस तरह बिछुड़ जाना खल रहा था परन्तु उसे आशा थी कि वे दोनों शीघ्र मिलेंगे। वह मोना को सुरक्षित देख उसकी ओर से अपने आपको आश्वस्त महसूस कर रहा था।

चलते समय मोना ने धीरे से बलवीर के कान में कहा— ‘अपना ध्यान रखना.......मैं आपकी प्रतीक्षा बेताबी से करूँगी''.....फिर भर आये गले से वह कुछ बोल न सकी। नम आँखों से चेहरे पर उभरे भाव बलवीर ने पढ़ लिए।

मोना की रुलाई फूटती इसके पहले ‘विदा दूषित हो न जाये कुछ

अमंगल घट न जाये।' इस आशय से हम्माद की अम्मी ने मोना को समझाया।

........मोना हँस दी। मोना के हँसते ही सभी हँस दिए। भानु ने जीप स्टार्ट कर आगे बढ़ा दी।

हँसते—मुस्कुराते, किन्तु भरे मन से उन्हें विदा दी गई।

कोठी से बाहर निकलते ही जीप में सवार वे सभी रो दिये।

महिला छात्रावास जहाँ अब भारतीय सेना की अस्थाई सैन्य चौकी बन चुकी थी, भारतीय तिरंगे झण्डे व बांग्लादेश मुक्तिवाहिनी के झण्डे यत्र—तत्र—सर्वत्र फहरा रहे थे।

भारतीय सेना के जवान पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा फैलायी गई

गंदगी को साफ करने में जुटे थे।

बलवीर वगैरह जब जीप से वापस महिला छात्रावास आये तब उन्होंने मौलवी साहब को उन लोगों की प्रतीक्षा करते पाया।

छात्रावास के बरामदे में बांग्लादेश मुक्तिवाहिनी के पच्चीस वालंटियर व भारतीय सेना के दस जवान चिर निद्रा में सोये हुए थे।

उन सभी का अंतिम संस्कार सूर्य अस्त के पहले होना था।

महिला छात्रावास के पीछे पानी की टंकी के पास दाह संस्कार के लिए स्थान चुना गया। ‘‘इन शहीदों की समाधि उनके अन्तिम संस्कार स्थल पर बनेगी।'' मौलवी साहब ने भरे गले से घोषणा की।

पूरे सैनिक सम्मान के साथ सभी शहीदों का उनके धर्मानुसार अन्तिम संस्कार किया गया।

पन्द्रह को अग्नि दी गई, जबकि बीस को दफ़नाया गया।

मानव ने जीवन की समाप्ति पर पार्थिव शरीर के साथ धर्मानुसार अलग—अलग रीति—रिवाज अपनाये हैं, यद्यपि सभी का उद्देश्य कुल मिलाकर पार्थिव शरीर को पंचतत्व में विलीन करना होता है, परन्तु स्वयं मानव द्वारा गढ़े गये इस भेद से पता नहीं कब मानव समाज पार हो पायेगा।

पंचतत्व में विलीन होते शहीदों की आत्मा को शांति मिले, इस हेतु सभी ने ईश्वर से प्रार्थना की।

मृत्यु निश्चित है, परन्तु मृत्यु के रूप कई होते हैं और ये पैंतीस शहीद हुए थे, शानदार मृत्यु को गले लगाकर।

वापस जाने के पहले मौलवी साहब ने तौसीफ से अटल के स्वास्थ्य के बारे में पूरी जानकारी ली। यह जानकर कि ‘अब अटल स्वस्थ है व कुछ दिन में पूरी तरह स्वस्थ हो जायेगा' मौलवी साहब ने चैन की साँस ली। तौसीफ ने अटल की बिछुड़ी बहन के पुनः मिलने वाली रोचक घटना भी मौलवी साहब को सुनायी।

तौसीफ़ ने मौलवी साहब को पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया कि अटल की देखभाल अब उसके अब्बा हुज़ूर करेंगे जो स्वयं भी एक कुशल मेडिकल प्रैक्टिशनर हैं।

तौसीफ़ व हम्माद को रात्रि दस बजे बांग्लादेश मुक्तिवाहिनी की होने वाली बैठक में उपस्थित रहने का आमंत्रण देकर मौलवी साहब मुक्तिवाहिनी के अन्य वालंटियर्स के साथ महिला छात्रावास से चले गये।

तौसीफ़ व हम्माद वहीं रुक गये।

रात्रि भोजन के बाद भारतीय सेना के मेजर पाण्डेय की अध्यक्षता में एक आकस्मिक बैठक आहूत हुई।

इसमें प्राप्त सूचना के अनुसार मेजर पाण्डेय ने सभी को हर्ष ध्वनि के बीच भारतीय सेना के कई अन्य शहरों में विजयी होने की सूचना दी।

उन्होंने बताया कि, ‘‘आज सात दिसम्बर की रात्रि दस बजे तक प्राप्त सूचनाओं के अनुसार पूर्वी पाकिस्तान में चारों ओर से भारतीय सेना ने अपने प्रथम चरण की लड़ाई सहज में कम नुकसान उठाते हुए जीत ली है। उत्तर में रंगपुर, दिनाजपुर, मेमन सिंह पूर्व में कुम्मिला, चटगाँव, दक्षिण में मैजदी, पढुवाशाही, वारीशाही एवं पश्चिमी सीमा पर खुलना सहित जैस्सौर, कुस्टिया, राजशाही, पवना आदि प्रमुख नगरों में जहाँ—जहाँ पश्चिमी पाकिस्तानी सैन्य छावनियाँ या चौकी थीं भारतीय सेना ने कब्ज़ा कर लिया है और भारी मात्रा में गोला बारूद जो कायर पश्चिमी पाकिस्तानियों द्वारा छोड़ा गया, उस पर भी कब्जा कर लिया है। इसके अलावा भारी संख्या में पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों के हताहत होने और क़ैद में लिए जाने की सूचना सभी जगह से है।' उपस्थित लोगों ने हर्षध्वनि के साथ इस सूचना पर प्रसन्नता व्यक्त की।

मेजर पाण्डेय ने आज की रात विश्राम करने और प्रातः ऊपर से अग्रिम आदेश के प्राप्त होने के बाद आगे मार्च करने के लिए सभी को तैयार रहने के लिए कहा।

बैठक के बाद सभी अपने—अपने विश्राम स्थल की ओर बढ़ गये। बलवीर व भानु कुछ देर लॉन में टहलते रहे। तौसीफ़ व हम्माद पहले ही जा चुके थे क्योंकि उन्हें मुक्ति वाहिनी की आवश्यक बैठक में पहुँचना था। पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों के शव खुलना शहर के जमादार शाम को ही ट्रकों में लादकर क़ब्रिस्तान ले गये थे। लॉन में घूमते हुए उन दोनों को ज़रा भी अहसास नहीं हो रहा था कि अभी कुछ घण्टे पूर्व ही यहाँ कितना बड़ा रक्तपात हो चुका था। ठंड को झेलते हुए बलवीर व भानु अधिक देर टहल न सके और अपने—अपने बिस्तरों में जा घुसे।

सोने से पहले बलवीर की आँखों में मोना की भोली छवि बराबर उपस्थित रही।

बांग्लादेश मुक्तिवाहिनी की बैठक अपने नियत समय से प्रारम्भ हुई। हॉल मुक्तिवाहिनी के स्वयंसेवकों से खचाखच भरा हुआ था। कोई चार सौ के करीब

युवा गुरिल्ला इकट्‌ठा थे। दस बजे से प्रारम्भ हुई बैठक पूरे दो घण्टे चली। बैठक में खुलना व उसके आसपास के क्षेत्र में नागरिक आपूर्ति एवं युद्ध काल के प्रशासन में सहयोग की रूपरेखा तैयार की गयी साथ ही पश्चिमी पाकिस्तानी सेना के आक्रमण से सुरक्षा व बचाव की पूर्व तैयारियों पर चर्चा की गयी।

अगले अभियान के लिए अभिजीत भट्‌टाचार्य ने सभी को बताया कि भारतीय सेना की अग्रिम टुकड़ी के साथ खुलना शहर से मुक्तिवाहिनी के चुने हुए पचास युवा साथ जाएँगे, शेष खुलना शहर व आसपास के क्षेत्रों की चौकसी व नागरिक प्रशासन का कार्य देखेंगे।

बैठक की समाप्ति के पूर्व चयनित पचास मुक्ति वाहिनी के स्वयंसेवकों के नाम पढ़कर सुना दिये गये। तौसीफ़ व हम्माद संयुक्त रूप से प्रसन्न थे, क्योंकि उन दोनों का नाम सूची में रखा गया था।

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