Gavaksh - 21 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | गवाक्ष - 21

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गवाक्ष - 21

गवाक्ष

21==

निधी को शर्मिंदगी हुई, कैसी बचकानी बातें कर रही है! उसके साथ बैठा हुआ मृत्यु-दूत है, कॉस्मॉस! उसका कार्य-क्षेत्र किसी एक स्थान पर कैसे हो सकता है? उसनेअपने दोनों कान पकड़ लिए।
दोनों पुराने मित्रों की भाँति खिलखिलाकर हँस पड़े। निधी ने उसे हाथ के इशारे से आगे बढ़ने को कहा, कॉस्मॉस को उसका इशारा समझने में एक पल लगा ।
"अरे भई ! आगे बढ़ो न ---मेरा मतलब है आगे सुनाओ न फिर क्या हुआ ?"
"इस भाषा में बोलो न ---"कॉस्मॉस ने बच्चे की भाँति ठुनककर कहा ।
“पहले बताओ तुम इतनी अच्छी भाषा कैसे बोल लेते हो?"
"बहुत आसान है, जहाँ जाता हूँ, वहाँ की भाषा जल्दी ही समझ में आने लगती है, हाँ, हमें इसकी आज्ञा नहीं होती किन्तु---"
"क्यों?"
"क्योंकि हम धरती के वासी नहीं हैं, यदि धरती पर हमारा दिल लग जाएगा तब स्वामी केवल हमारा उत्पादन ही करते रहेंगे । हमारे न होने से वे शक्तिहीन हो जाएंगे न ?"
"ओहो! इसीलिए वे तुम लोगों को भयभीत रखते हैं?यह चतुराई गवाक्ष में भी है। " उसने व्यंग्य किया फिर बोली;
"चलो, अब आगे बढ़ो ---"
"कहाँ ?"
" अपनी कथा पूरी तो करो, फिर क्या हुआ हुआ?"
"हाँ, तो वो महानुभाव --क्या ---हाँ, मोबाईल, पर वार्तालाप कर रहे थे, वास्तव में डांट रहे थे किसीको कि वे उनको इतना धन भेजते हैं आखिर वे करती क्या हैं ?"
"कुछ समझ में आया किससे वार्तालाप कर रहे थे ?"
" हाँ, स्पष्ट था, वे अपनी पत्नी से ही वार्तालाप कर रहे थे । "
"कैसे स्पष्ट हुआ ?"

"मैं छोटा सा मच्छर बनकर उनके मोबाईल के ऊपर पर जा बैठा था जहां से ध्वनि आ रही थी। "
" वाह ---वाह ---आनंद आ गया । फिर ?"
"ऐसे बीच में टोकेंगी तो- ?"
"नहीं, अब नहीं -- क्या कह रही थीं वो ---"
" उन्हें किसी उत्सव के लिए सोने व हीरे के आभूषण बनवाने थे, वे उसीके लिए उन्हें धन भेजने के लिए बाध्य कर रही थीं। वे अपने पति के पास विदेश भ्रमण के लिए भी आना चाहती थीं क्योंकि वे प्रति वर्ष छह माह विदेश में रहते थे और छह माह देश में! कितने ही वर्षों से इनका कार्यक्रम यही चल रहा था किन्तु वे देश में पड़ी रहती थीं। जब कई वर्ष तक पति महोदय ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया तब उन्होंने शोर मचाना प्रारंभ कर दिया । उन्हें ज्ञात था कि इन गुरुदेव कहलाने वाले उनके पति के पास धन व तन की कोई कमी नहीं थी। अब वे देश में अकेली रहकर ऊबने लगी थीं और उनका आभूषणों व धन के प्रति अधिक शोर मचाना शुरू हो चुका था । वो कह रही थीं ;

“मैं जानती हूँ तुम वहाँ क्या-क्या करते हो ?इसीलिए हमें नहीं ले जाना चाहते ' वे कठोर शब्दों में कह रही थीं । "
उन्होंने पत्नी के समक्ष समर्पण कर दिया, वहाँ पहुँचतीं तो उनकी पोल खुल जाती । वास्तव में मनुष्य स्वयं से भयभीत रहता है । अपने कर्मों का लेखा -जोखा उसकेभीतर ही कैद रहता है न ! कई बार तो वह स्वयं से भी स्वयं को छिपाने की चेष्टा करता है --
"हम तुम्हें धन भेज देंगे, तुम बनवा लेना जो चाहो, सोनेका ध्यान रखना । आजकल बहुत बदमाशी चल रही है। लोग ईमानदार नहीं रह गए हैं| यहाँ आने की सोचनाभी मत वरना ---और सत्यपुत्र का ध्यान रखना ।
एक बदमाश स्वयं दूसरों को ख़राब बताकर अपनी पत्नी को चेतावनी दे रहा था |
"सत्यपुत्र ---?"
"हाँ, उनका बेटा ! मुझे उनकी बदमाशी भरी ईमानदारी और वहाँ के मूर्ख लोगों पर हँसी आ रही थी मैं हँसता -हँसता कई बार उनके कान पर जा बैठा जिसे वे बार-बार झटकते रहे। जब कई बार उन्होंने मुझे झटके दिए तब मैं बौखला गया । यदि मैं उनके हाथ में आ गया तो मसला जाऊँगा । मैं बहुत ही नन्हे से रूप में था। "उसके चेहरे पर मासूम सी हँसी बिखर गई |
उन्होंने अपनी पत्नी को डाँटकर फ़ोन एक ओर पटक दिया था, मच्छर पकड़ने के लिए इधर-उधर हाथ मारते हुए वे बड़बड़ करते जा रहे थे कि लंदन जैसे देश में भला मच्छर कैसे हो सकता है? यह अवश्य ही उन लोगों की अव्यवस्था है जिनको सफ़ाई का कार्य सौंपा गया है । वे क्रोध में किसीको बुलाने के लिए घंटी बजाने के लिए आगे बढ़े, मैं छिपकली का रूप लेकर उनके ऊपर टपक पड़ा ।
"राम--राम --यहाँ छिपकली भी --अब नहाना पड़ेगा” "उनके मुखारबिंद से सुनकर मैं खिलखिला पड़ा ।
" कौन है --मेरे कक्ष में आने का साहस कौन कर सकताहै?"वे दहाड़े, कमरा बंद था।
"केवल मैं ही यह साहस कर सकता हूँ, मान्यवर !” उनके प्रति मेरे मन में कोई मान अथवा श्रद्धा का भाव नहीं था|
" कौन हो तुम ? कहाँ हो? मेरे समक्ष क्यों नहीं आते ?"

"आओ ज़रा, मैं तुम्हें कैसा मज़ा चखाता हूँ----"

" बस तैयार हो जाइए, मैं आ ही रहा हूँ -- "और मैं यमदूत के भयभीत करने वाले रूप में प्रगट हो गया। मुझे देखकर वे चौंक गए, उनकी घिग्घी बंध गई।

" तैयार हो जाइए, मैं आपको ले जाने आया हूँ, इस पृथ्वी पर आपका समय समाप्त हो चुका है। मैं समय-यंत्र को स्थापित करता हूँ, जब तक इसकी रेती ऊपर है आपके पास केवल उतना ही समय है। जब पूरी रेती इस यंत्र के नीचे के भाग में पहुँच जाएगी, आपका समय समाप्त !”
" कैसी बात करते हो प्रियवर ! मैं अभी कैसे चल सकता हूँ ?अभी तो मेरे कितने कार्य अधूरे हैं, देश में बेटे को बड़ा करना है --"कितना निरीह लग रहा था वह !!
" मृत्यु अधूरे कार्य नहीं देखती, उसका समय सुनिश्चितहोता है । हमें स्वामी का आदेश है | सत्य नामक किसी भीप्राणी को ले जाना है । "
"कोई भी उम्र क्यों न हो ---?" उनकी आँखें फटने को हुईं |
"हाँ, इस बार केवल सत्य की ही योजना है । "
"तो एक काम करो, मेरे देश में जा सकते हो ?"
"मैं कहीं भी जा सकता हूँ ---"
" मेरी पत्नी को ले जाओ न, उसका नाम भी सत्या है । इस जीवन में उसकी कोई इतनी अधिक आवश्यकता भी नहीं है। यदि मुझे कुछ हो गया तो तुम देखना, लोग बवंडर मचा देंगे। " उन्होंने मुझे भयभीत करना चाहा ।

"इतना नीच मनुष्य मैंने अभी तक नहीं देखा, अपने प्राण बचने के लिए वह अपने परिवार को ही ख़त्म कर देने को तैयार था | वैसे भी उसकी पत्नी की उसको ज़रुरत ही नहीं थी |उसके पास तो --"
"हमें इससे कोई अंतर नहीं पड़ता लेकिन आपको अपना त्याग करने चाहिए न कि ---"
"मेरी मृत्यु के पश्चात कितने निरीह प्राणी मर जाएंगे । "जैसे ज़माने भर का ठेका उसने उठा रखा था |
" उसकी आप चिंता न करें, जब तक हम किसीको नहीं ले जाएंगे, किसी की मृत्यु नहीं हो सकती। "

मैं उनकेलिए बहुत कठोर था ।
"आप वास्तव में बड़े बैरागी और संत महामानव हैं जो पूरी दुनिया की चिंता करते हैं, उसके लिए परिवार की बलि आपको स्वीकार्य है---कमाल हैं, धन्य हैं आप !" मैंने व्यंग्य से कहा।
"आपको यदि अपने भक्तों की इतनी ही चिंता है तो उन्हें समझाइए और स्वयं की आहुति दीजिए। स्वैच्छिक मृत्यु के आलिंगन से आपका नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा--"
उन्हें उकसाने में क्या खराबी थी ?समय -यंत्र की रेती कब से नीचे आ चुकी थी, मैं केवल उन्हें तोलने का प्रयास कर रहा था ।
""हमें अपनी भूमि की मिट्टी तो मिलनी चाहिए, फिरंगी देश में प्राण त्यागना--- । "वह संवेदनाओं का असत्य प्रदर्शन करके छलावा करने लगा जैसे बहुत बड़ा देशभक्त हो ।
"क्यों मिलनी चाहिए आपको अपनी मिट्टी? मौज-मस्ती दूसरों के देश में ! मृत्यु के समय यही देश फिरंगी बन गया----?"
"अपनी मृत्यु का समय आज तक किसी को ज्ञात नहीं, यदि आपको अपनी भूमि से इतना ही प्रेम है तो अपनीभूमि पर क्यों नहीं रहते, यहाँ क्यों भटकते हैं ?"
" क्या करता, ये इतने भक्तगण---" वह निरीह से बन कातरता से भर गए।
मुझे उन पर क्रोध था, समय-यंत्र की रेती न जाने कबकी समाप्त हो चुकी थी । मैं पुन: हताश था ।

क्रमश..