बहुत समय पहले की बात है। तब वर्तमान जैसी आधुनिक चिकित्सा पद्धति नहीं थी।
उस समय वैद्य हुआ करते थे, कुछ तो इतने कुशल और प्रसिद्ध होते थे कि किसी का इलाज शुरू कर दिया तो रोगी को ठीक करके ही दम लेते थे।
ऐसे वैद्यों को धन्वतरि कहा जाता था। जो किसी भी रोग का इलाज जड़ी-बूटियों से करने सक्षम थे।
ऐसे ही एक वैद्यराज शिवानंद थे जो कि शिवभक्त भी थे।
जब भी समय मिलता भगवान शिव का गुणगान करते और दीन-दुखियों की सेवा करते। भगवान शिव की भी मानो उन पर बड़ी कृपा थी जो भी रोगी उनसे इलाज कराता, बहुत कम समय में ही स्वस्थ हो जाता था।
उनके इलाज करने का बड़ा ही अनोखा तरीका था नब्ज देखते ही तुरंत रोग पकड़ लेते और दवाई देते थे।
एक बार नब्ज देखते ही ही बता देते थे कि रोगी को कब और कैसे बीमारी हुई और निदान भी कर देते थे।
वैद्यजी के एक लड़की शिवानी थी जिसका विवाह 10 वर्ष पूर्व पास के ही गाँव में मोहन से कर दिया था।
दोनों के दो छोटे-छोटे बच्चे भी थे।
एक बार मोहन को किसी बीमारी ने घेर लिया। मोहन ने अपने आस-पास सभी जगह इलाज करवाया लेकिन उसे कोई आराम नहीं मिला।
मोहन की साधारण सी खाज की बीमारी ने धीरे-धीरे सारे शरीर पर कब्जा जमा लिया।
बहुत भागदौड़ की शायद ही कोई नीम-हकीम हो जिससे दवा न ली हो। यहाँ तक कि झाड़-फूँक करने वालों से भी उपाय करवाकर देख लिया लेकिन मोहन की कोढ़ दिनों-दिन बढ़ती ही गयी।
इसी बीच शिवानी ने अपने पति से कई बार आग्रह किया कि "बाबूजी से दवाई ले लीजिए, आप अवश्य ही ठीक हो जाएँगे।"
मोहन हर बार उसकी बात को टाल देता क्योंकि अपने ससुर से दवा लेने में उसे संकोच हो रहा था।
आखिर जब कहीं भी बात बनती नज़र नहीं आयी तब मोहन और शिवानी दोनों धन्वंतरि शिवानंद के पास गए।
वैद्यजी ने मोहन की नब्ज देखकर उनको सब कुछ बता दिया कि ये रोग कब और किस कारण से हुआ है।
शिवानंद जी ने दुःखी मन से ये भी कहा कि ये कोई साधारण रोग नहीं है। इसकी दवा तो है लेकिन मैं नहीं बना सकता नियति ने चाहा तो भगवान भोलेनाथ की कृपा से समय आने पर अपने आप ठीक हो जाएगा।
और कुछ जड़ी-बूटियाँ तैयार करके दे दी जिससे शरीर मे जलन कुछ कम हो जाये।
तत्पश्चात वैद्यजी ने बेटी और दामाद को सुखिभवः का आशीर्वाद देकर विदा कर दिया।
उनके जाने के बाद वैद्यराज ने सजल आँखों से हाथ जोड़कर भगवान भोलेशंकर को मन ही मन में याद किया और प्रार्थना की कि " हे, प्रभु मैंने बेटी को सुखिभवः का आशीर्वाद तो दे दिया लेकिन मेरे इस आशीर्वाद की लाज अब आपके हाथ में है।"
उधर शिवानी और मोहन दवाई लेकर अपने घर पहुंच गए...
समय पर वैद्यजी द्वारा दी गयी दवाओं का सेवन करना प्रारम्भ कर दियाक, जिससे मोहन को शारिरिक पीड़ा और कष्ट से थोड़ी बहुत राहत मिलती लेकिन जैसे ही दवाई का असर कुछ कम होता फिर वही पीड़ा फिर वही कष्ट।
मोहन को किसी भी तरह से चैन नहीं मिल रहा था।
एक रात जब सारे घरवाले सो रहे थे तब उसने मन में विचार किया कि कोढ़ की बीमारी मुझे है। हो सकता है लाख ध्यान रखने पर भी ये रोग मेरे परिवार में किसी और को भी लग जाये।
वैसे भी मेरे कारण परिवार वालों ने बहुत दुःख झेले हैं अगर मैं मर जाऊँ या घर छोड़कर चला जाऊँ तो परिवार वाले थोड़े दिन तो रोयेंगे, मातम करेंगे लेकिन फिर इनके लिए धीरे धीरे अब कुछ ठीक हो जाएगा।
कम से कम मेरे जाने के बाद तो घरवाले आराम से जीवन व्यतीत कर सकेंगे।
मुझसे तो अब और सहा नहीं जाता इसलिए मैं अभी रात को ही घर त्याग देता हूँ।
इस तरह से मोहन के मन में अंतर्द्वंद्व चलता रहा। अंततः मोहन बिना किसी को कुछ बताए रात को ही घर से निकल गया और चल पड़ा एक अंजान और अंतहीन रास्ते पर जिसकी ना कोई मंज़िल ना कोई ठिकाना...
रात का तीसरा पहर गुजर चुका है और मोहन अनवरत चलता ही जा रहा है...
मोहन सूर्योदय होने तक लगातार चलता रहा...
रातभर पैदल चलने और पहले सी ही रोगग्रस्त शरीर के कारण मोहन अत्यधिक थक गया था।
अब वह और अधिक नहीं चल सकता था...।
थोड़ी ही दूर उसे एक नदी दिखाई दी। जहाँ उसने जल पीकर अपनी पिपासा को शान्त किया।
उसने नदी किनारे ही कोई स्थान देखकर विश्राम किया।
इसी तरह दिन बीतते गए मोहन एक स्थान पर कुछ दिन रुकता और फिर अन्यत्र चल देता।
किसी तरह दिन कट रहे थे।
कोढ़ के कारण मोहन के शरीर में पीड़ा अब भी उतनी ही थी जितनी घर छोड़ने से पहले थी लेकिन मन ये सोचकर शान्त था कि कम से कम अब उसकी वजह से घरवाले तो परेशान नहीं हैं।
उधर मोहन के घरवालों ने जब देखा कि मोहन घर में नहीं है तो पहले उन्होंने कई दिन तक बहुत ढूंढा लेकिन सभी जगह पूछताछ करने पर जब मोहन का कोई पता नहीं चला तब उन्होंने ये मान लिया कि हो न हो निश्चित ही मोहन अब इस संसार में नहीं रहा।
कुछ दिन तक घर में मातम छाया रहा।
जो भी इस घटनाक्रम के बारे में सुनता उसकी आँखों में भी अश्रुधारा बहने लगती।
उधर जब वैद्यराज शिवानंद को घटना का पता चला तब उनके मन में आत्मसंतुष्टि के कुछ भाव आए जैसे उनको सब कुछ पहले से ही पता हो और उन्होंने आत्मसयंम बनाये रखते हुए अपने हाथ जोड़कर भगवान शिव शंकर से मन ही मन प्रार्थना की।
इधर एक दिन मोहन किसी नए स्थान की तलाश में निकला... सुनसान जंगल का रास्ता।
जब मोहन थोड़ी दूर चला तो उसी स्थान पर थोड़े ही समय पहले बरसात होकर थमीं थी, इस कारण वहाँ रास्ते पर जगह-जगह पानी भरा पड़ा था।
इतने में मोहन देखता है कि उसके सामने से एक सर्प गुजरा।
वहाँ थोड़ी ही दूरी पर किसी पशु अथवा जानवर की खोपड़ी जो कि कंकाल का रूप ले चुकी थी में बारिश का जल भरा हुआ था।
वह सर्प उस कंकालनुमा पात्र के पास गया और उसमें अपना विष त्याग दिया... तत्पश्चात सर्प वहाँ से चला गया।
जब मोहन ने सर्प को ऐसा करते हुए देखा तो सोचा मैं इस ज़िन्दगी से छुटकारा चाहता हूँ, और इस समय मेरे लिए इससे आसान मृत्यु और नहीं हो सकती, क्यों न मैं इस विषभरे जल को पीकर अपनी इहलीला को ही समाप्त कर दूँ।
इतना विचार कर मोहन ने उस जल को पी लिया और उसी स्थान पर बैठकर अपनी मृत्यु का इंतज़ार करने लगा।
जल में विष की पर्याप्त मात्रा होने के कारण उसकी आँखों के आगे अंधेरा छाने लगा और धीरे-धीरे दिखाई देना भी बन्द हो गया और वह एक तरह से नशे की हालत में वहीं पर ढ़ेर हो गया।
कई घंटों बाद उसे होश आया तब ना तो उसके बदन में दर्द और ना ही कहीं कोढ़ का नामोनिशान था...।
"अरे! ये क्या? मैं तो ठीक हो गया..।" - घंटो बाद मोहन के मुख से निकलने वाला पहला वाक्य यही था, जो उसने होश आने पर खुशी में अपने आप से ही कहा था।
अब तो उसके मन में जिजीविषा भी प्रबल हो उठी थी...।
उसने हाथ जोड़कर अनंत आकाश की ओर देखकर कहा; "हे प्रभु मैं नहीं जानता तू कैसा दिखता है, लेकिन इतना अवश्य कहूँगा तेरी सत्ता असीम है, खेल भी तेरे निराले हैं।
आज महसूस हो रहा है कि तू सर्वव्यापी है। इस संसार में जो भी होता है सब तेरी इच्छा से ही तो होता है।
हे प्रभु आपने मुझे नया जीवनदान देकर मुझ अकिंचन पर जो दया की है उसके लिए मैं आपको कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ।"
इस तरह से मोहन प्रसन्नता से अपने घर की ओर चल पड़ा। आज मोहन के कदमों में जैसे नई ऊर्जा भर दी गयी हो... इस बार मोहन का लक्ष्य निश्चित था। वह तेज़ कदमों से अपने लक्ष्य को जितना हो सके उतना जल्दी प्राप्त करने के लिए प्रयासरत था...।
चलते-चलते मोहन जब घर पहुंचा तब तक रात का तीसरा पहर लगभग समाप्ति की ओर था, तथा चौथा पहर प्रारम्भ होने में कुछ क्षण ही शेष थे...।
घर के दरवाजे पर पहुंचकर उसने दरवाजा खटखटाने के साथ आवाज लगाई...
"शिवानी... अरी ओ भागवान दरवाजा खोलो।"
थोड़ी देर में शिवानी ने उठकर दरवाजा खोला... और अपने सामने अपने पति को देखकर आश्चर्य चकित रह गयी...
उसके होंठ कंपकंपाने लगे आँखों से अविरल क्षार मिश्रित अश्रुधारा निकलने लगी...।
बड़ा ही भावुक दृश्य था, कोई भी शिवानी को उस अवस्था में देखता तो अपने आँसू ना रोक पाता..।
दोनों एक दूसरे को एकटक देख रहे थे... दोनों की आँखों से आँसू बह रहे थे...
मन कुछ सयंत होने पर शिवानी ने अपने स्वामी के चरणों में अपना शीश झुकाया... तब मोहन ने भर्राए हुए गले से केवल इतना ही कहा "सदा सुखी रहो...।"
"लोग सोये थे लेकिन उनकी जीभ जागती थी..." इस कारण सुबह होते ही ये बात दावाग्नि की तरह तेजी से पूरे गाँव में फैल गयी...
चर्चा का विषय; मोहन के कोढ़ से मुक्त होना और वापस घर आना था। जो भी इस घटना को सुनता दाँतों तले अंगुली दबा लेता...।
सभी के चेहरे प्रसन्नता से खिल उठते...।
इधर शिवानी अपने पति मोहन को अपने पिताजी वैद्यराज शिवानन्द जी के पास लेकर गयी। दोनों को साथ देखकर शिवानन्द जी बहुत प्रसन्न हुए...।
शिवानी ;"पिता जी आपने तो कहा कि ये असाध्य रोग है तो फिर ये ठीक कैसे हो गया?"
इस बात पर वैद्यजी मुस्कुराते हुए कहने लगे...
" उस वक़्त मैंने सही कहा था कि ये असाध्य रोग है।
लेकिन मैंने ये भी कहा था कि इसका उपाय दवाओं से नहीं होगा... ध्यान से सुनो इसका इलाज किस तरह से होना था; मोहन बिना किसी के कहे घर त्याग करे... किसी ऐसे स्थान पर जाए जहाँ बरसात का पानी किसी पशु के सिर के कपाल जो कि कंकाल बन चुका हो में भरा हुआ हो... उसी पानी में मोहन के सामने ही कोई भुजंग अपना विष त्याग करे और मोहन उस जल को अपनी आसान मृत्यु समझकर पी ले... तब जाकर इसके कोढ़ का नाश हो सकता था और भगवान भोलेनाथ के आशीर्वाद से हुआ भी ऐसा ही।"
अभी मोहन ने मुझे कुछ भी नहीं बताया है लेकिन तुम इनसे पूछ लो, क्यों मोहन क्या ऐसा नहीं हुआ था?
इतना सुनते ही मोहन ने कहा "हाँ यह सत्य है और ऐसा ही हुआ था।"
कहकर वह करबद्ध होकर शिवानन्द जी के चरणों में लोटने लगा।
शिवानी भी अपने पिता से क्षमा माँगते हुए रोने लगी।
तत्पश्चात महान धन्वतरि शिवानन्द जी ने दोनों को आशीर्वाद देकर विदा कर दिया...।
---'समाप्त'
✍️ परमानन्द 'प्रेम' NHR 💞