अंदर खुलने वाली खिड़की
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इसके अलावा, बुढ़िया की कुछ आदतें विचित्र और पुरानी थीं। उसे थूकने की आदत थी। खिड़की से सर निकाले हुए वह थोड़ी थोड़ी देर में थूकती रहती थी। हालांकि थूकने से पहले वह देख लेती थी कि नीचे सड़क पर कोई खड़ा न हो, पर कई बार ऐसा होता कि उसके देख कर थूकने के बाद अचानक कोई अंदर फुटपाथ से निकल कर सड़क पर आ जाता। तब हवा में आता हुआ थूक बिखर कर उसके सर पर गिरता। यदि थूक जमा हुआ थक्के की तरह होता, तो वह समझ जाता कि थूक है। गाली देने के लिए सर उठा कर देखता, तो चौथी मजिंल की खिड़की के बाहर लटकी बुढ़िया का सर उसे दिखायी नहीं देता। बुढ़िया भी अपना सर तब तक अंदर कर लेती। पर अक्सर ही नीचे तक आते हुए थूक छोटी बूंदों में बदल जाता। तब वह आदमी इसे बिजली के तारों पर रूकी पानी की बूँद समझता या आकाश में बेमौसम हुयी बारिश की बौछार और चुपचाप चला जाता। खिड़की पर बैठा बूढ़ा, बूढ़िया के होठों से गिरते हुए थूक को आखरी तक देखता। उसे यह देख कर कौतूहल और कौतुक होता, कि थूक कितने अलग अलग तरीकों से गिरता है। थूक का अलग अलग तरीकों से गिरना मौसम, हवा, मूँह से निकलने की रफ्तार, थूक की मात्रा, गाढे़पन और खाए हुए खाने पर निर्भर करता। थूक कभी टूटी पत्ती की तरह, कभी चिड़िया के टूटे पंख की तरह, कभी कटी पतंग की तरह और कभी आलाप के अवरोह की तरह गिरता। बुढ़िया की थूकने की आदत से बूढ़े को शुरु से नफरत थी। पर जिस तरह उसने बुढ़िया के तीन दिनों को लेकर कभी झगड़ा नहीं किया, उस तरह थूकने को लेकर भी नहीं किया। तीन दिनों की तरह, इसमें भी उसका स्वार्थ और आनन्द शामिल था। शादी से पहले उसने बूढ़िया से इतना ज्यादा थूकने का कारण पूछा था। बुढिया ने तब बताया था कि यह उसकी माँ की वजह से है, जो उसे एक टूटी कठपुतली के साथ छोड़कर काम करती रहती थी। तब वह कठपुतली के भूखा होने पर उसे दीवार का चूना चटवाती थी। बाद में खुद भूख लगने पर चूना चाटने लगी। माँ जब उसे देखती, तो चूना चाटने का शक दूर करने के लिए उससे थूकने को कहती। थोड़ी थोड़ी देर में वह चूना चाट ही लेती और माँ उससे थूकने को कहती। नतीजे में बचपन से ही बुढ़िया के पूरे मानसिक और भावनात्मक तंत्र में थूकना दर्ज हो गया। समय के साथ यह उसके अवचेतन और अचेतन में भी चला गया। पचपन साल पहले बूढ़े को लगा था कि वह उसकी इस आदत को छुड़ा सकता है। एक दिन उसने बुढ़िया को इसके लिए टोका और छोड़ने के लिए समझाया। एक होम्योपैथी दवा के बारे में भी बताया जो ऐसी लतों को छुड़ाने के लिए मशहूर थी। काली मंदिर के पास तहखाने में बैठने वाले, और देश के बटवारे में अपने साथ सिर्फ दवाओं की पेटी और पुरखों के पुराने नुस्खे लेकर ढाका से भागने वाले बंगाली डाक्टर के पास खुद ले चलने की बात की। बुढ़िया ने चुपचाप सब सुना। उस रात, काम क्रिया के विमोचन से पहले, जब बूढ़े ने बुढ़िया के होठों को चूसने की कोशिश की, तो बुढ़िया ने उसे ऐसा नहीं करने दिया। बूढ़े ने जिद या जर्बदस्ती की, तो बुढ़िया ने उसके होठ से अपने होठ सटा कर ढेर सा थूक बूढ़े के मुँह में उगल दिया। उत्तेजना में बूढ़ा उसको पी गया था। बुढ़िया की ज़िद और आंनद के वशीभूत होने पर, उसने बुढ़िया की थूक से सनी ज़बान को देर तक चूसा था। उस रात के बाद फिर कभी बूढ़े ने बूढ़िया को थूकने के लिए नहीं टोका, सिवाय 12 साल पहले तब, जब बुढ़िया ने उसे बताया कि वर्षों से लगातार इतना थूकते रहने से उसके मुँह में लार बनना बहुत कम हो गयी है, और जो बनती है थूक के साथ बाहर निकल जाती है, नतीजे में उसकी जीभ और गालों में छाले बने रहते हैं जो भरते नहीं । बुढ़िया ने यह भी बताया था, कि उसे तेज मसाले, खट्टी या मिर्च वाली चीजों से बहुत तकलीफ होती है। तब बूढ़े ने एक बार फिर उससे इस आदत को छोड़ने की कोशिश करने को कहा था, और उस बंगाली डाक्टर के मरने के बाद, उसके लड़के के पास, जो डाक्टर के जीवित रहने तक समय दवाओं की पुड़िया बनाता था, और मरने के बाद खुद डाक्टर हो गया था, खुद लेकर चलने की बात की। बुढ़िया ने इसे चुपचाप सुना पर गयी नहीं। पर बुढ़िया ने थूकना नहीं छोड़ा। अब बूढ़ा जब उसके गिरते हुए थूक को देखता तो उसे अक्सर यह भी लगता कि कोहरे में निकलने की कोशिश करते हुए सूरज की लाली जैसा ही कुछ उसके थूक में रहता है। बूढ़ा गिरते हुए थूक और उसमे झिलमिलाती लाली को सिर्फ बिजली के तारों तक देख पाता। उसके बाद सब बिखर जाता। बुढ़िया थूक में सनी इस लाली से बेनियाज़, निर्विकार, निर्लिप्त होकर बाहर देखती रहती। उसे या तो इसके बारे में पता नहीं था या फिर वह चुपचाप इसे स्वीकार और बर्दाश्त कर रही थी। जानबूझ कर इसकी उपेक्षा कर रही थी। अपना दर्द या दुख बता कर वह बूढ़े को खुश होने का या सहानुभूति दिखा कर महान बनने का या मदद करने का मौका नहीं देना चाहती थी।
थूकने के अलावा, दुनिया की हर औरत की तरह बुढ़िया भी छिपकली से डरती थी या फिर घिन से भर जाती थी या शायद दोनों मिले जुले भाव साथ होते थे। इनके साथ विवशता भी शामिल रहती थी। ये सब भावनाएं वैसी ही थीं, जैसे हत्यारे राजा के शासन में कमजोर, बेबस और मजबूर प्रजा के मन में राजा के लिए होती हैं। छिपकली देख कर बुढ़िया का चेहरा पीला पड़ जाता था। साँस रूकने लगती। तब वह तेज आवाज में, बिना आँसू बहाए रोती हुयी, शादी के कुछ साल बाद मर चुकी माँ, और उससे बहुत पहले मर चुके बाप को याद करती हुयी विलाप करती, कि मेरा दुनिया में कोई नहीं है। ‘हाय...माँ...हाय..बाबा... बस तुम थे तुम भी छोड़ गए‘। बूढ़ा कभी समझ नहीं पाया कि छिपकली देख कर उसे मरे हुए माँ बाप क्यों याद आते हैं? शादी की पहली रात बूढ़ा कभी नहीं भूला था। ठीक उसी समय, जब कड़ी सर्दी वाली रात में, फायर प्लेस में आग जला कर, जुड़े हुए पलंग पर दोनों निर्वस्त्र थे और बुढ़िया बूढ़े की नाक की नोक को अपनी जीभ की नोक से सहला रही थी, बुढ़िया की खुली आँखों ने संगमरमर की नंगी मूर्ति की छातियों के बीच से निकलती हुयी चितकबरी छिपकली को देख लिया। बूढ़े को ढकेल कर चीखती हुयी वह पलंग से कूदी और कमरे के दूसरे कोने में खड़ी होकर थर थर काँपने लगी। वह इतना डर गयी थी कि उसे सर्दी और अपनी नग्न देह का भी बोध नहीं था। तब पहली बार उसने विलाप करते हुए अपने माँ बाप को याद किया था। उत्तेजित बूढ़ा बेबसी, क्रोध और आवेग में पलंग से उठ गया था। कमर में बाँधने वाली चमड़े की पेटी से उसने दीवार पर चिपकी छिपकली पर वार किया था। छिपकली तो भाग गयी पर उसकी दुम कट कर गिर गयी थी। देर तक फर्श पर कटी दुम फड़फड़ाती रही थी। कोने में काँपती बुढ़िया उस नाचती हुयी दुम को आश्चर्य और भय से देखती रही थी। बाद में जब बूढ़े की तरफ से इकतरफा और जर्बदस्ती की गयी रति क्रिया सम्पन्न हो गयी और छिपकली की कटी दुम ठंडी हो गयी, बूढ़े ने उस दुम को, अपनी सुहागरात की स्मृति के तौर पर चाँदी की उस डिबिया में, जिसमें बुढ़िया ने उसे पहले प्रेमी के लिए लायी हुयी कलाई में बाँधने वाली घड़ी दी थी, रख लिया था। उस रात, फायर प्लेस की आग की रोशनी मेें प्रेम करते समय बूढ़ा देख रहा था कि बुढ़िया की आँखों की पुतलियाँ तेजी से दीवारों पर घूम रहीं हैं। उसका पूरा ध्यान कटी दुम वाली छिपकली पर था जिसे बदला लेने के लिए जरूर आना था। बीच बीच में जब बूढ़ा उत्तेजना में कुछ फुसफुसाता तो उसे जवाब में बुढ़िया की रिरियाहट सुनायी देती। उस रिरियाहट में कटी दुम, दुश्मन से बदला लेने की छिपकली की फितरत, मरे हुए माँ बाप और बूढ़े के बदन काटने से जन्मी कराह शामिल थी।
छिपकली कमरे में अक्सर आती थी या कि उस घर में रहती ही थी। बुढ़िया जब भी छिपकली को देखती, विलाप शुरू कर देती। रात को जब मच्छर होते और छिपकली को अपना भोजन मिलता, वह जरूर निकलती। छिपकली के प्रति बुढ़िया की अतिरिक्त सतर्कता और स्थायी रूप से उसके आने और बदला लेने के संदेह, शंका और भय के बने रहने से पैदा हुयी कामक्रीड़ा से विरक्ति के कारण, बूढ़े की कामोत्तेजना घटने लगी थी। वह बुढ़िया की इन हरकतों से बुरी तरह ऊब चुका था। सच तो यह था कि बुढ़िया के कारण उसके जीवन में भी छिपकली की उपस्थिति रहने लगी थी। उसने शुरू में कोशिश की, कि घर के किसी भी हिस्से में छिपकली न आ सके, पर वह उन्हें रोक नहीं सका, उसी तरह, जिस तरह हत्यारा राजा अपनी प्रजा के मन में अपनी मृत्यु की कामना नहीं रोक सकता। वह एक सौ तीस साल पुरानी इमारत थी जहाँ उसकी अलग अलग मंजिलें समय के साथ बढ़ती गयीं। उस इमारत की सीलन भरी, चटकी दीवारों में छिपकली को सुरक्षा, भोजन, शरण सब मिलता था। पहली रात छिपकली की कटी, नाचती हुयी दुम बुढ़िया की चेतना से कभी नहीं गयी। खासतौर से तब वह उसे जरूर याद आती, जब बूढ़ा उससे प्रेम शुरू करता। जैसे ही बूढ़ा बुढ़िया को चूमता, छिपकली की संभावना में बुढ़िया, अपनी चौकन्नी आँखें चारों ओर नचाना शुरु कर देती। उसने शायद ही कभी जीवन में आँख बंद करके काम सुख को सम्पूर्णता में अनुभव किया हो। बल्कि यह सब बने रहने से उसके अंदर इसकी ज़रूरत महसूस होना ही बंद हो चुकी थी। बुढ़िया की इस कुदरती भूख या इच्छा को छिपकली की आशंका और आतंक ने चाट लिया था, उसी तरह, जैसे हत्यारा राजा, प्रजा के उत्साह, आनंद और इच्छाओं को चाट लेता है। पर बूढ़े में काम की यह आग शुरू से ही कुछ ज्यादा तेज थी। कभी भी, कहीं भी सुलग पड़ने वाली। उधर छिपकली की वजह से, बुढ़िया धीरे धीरे कामुक चेष्टाओं में उबाऊ और निर्जीव होती चली गयी। धीरे धीरे बूढ़े के अंदर बुढ़िया के लिए प्रेम की जगह पहले विरक्ति, फिर ऊब, फिर घृणा की हदों को छूने वाली भावनांए फैलती चली गयीं। समय के साथ दूसरी बातें, जो वैसे मुख्य नहीं थीं, इन भावनाओं की तीव्रता बढ़ाती गयीं, उसी तरह, जैसे हत्यारे राजा के अलावा उसके साथ रहने वाले उसके नुमाइन्दे, सामन्त, जो मुख्य नहीं होते पर राजा के विरूद्ध प्रजा की भावनाएं बढ़ाने में मदद करते हैं। प्रतिक्रियास्वरूप बुढ़िया के अंदर भी बूढ़े के लिए ऐसी ही भावनाएं पैदा होने लगीं। पर उसके कारण दूसरे थे।
हुआ यह कि शादी के बारह साल बाद से बुढ़िया को अचानक, बूढ़े की देह से बर्दाश्त न की जा सकने वाली दुर्गध्ां आने लगी। शुरू में बुढ़िया को लगा कि यह किसी मरे चूहे या कुचले हुए तिलचट्टे या चीटियों द्वारा खा लिए छोटे साँप के बचे रेशों की गंध है। बूढे के काम पर निकलने के बाद वह नाक से गहरी साँस लेती हुयी पूरे घर में घूमती। अलमारियों, दीवारों के कोनों पर रखे पुराने सामान, तस्वीरों के फ्रेम, घर तक आने वाली टूटी सीढ़ियों की दरारों तक में नाक घुसेड़ कर दुर्गध्ां का स्त्रोत ढूंढती रहती। पर गंध कहीं नहीं होती। उसने बाद में ध्यान दिया कि बूढ़े के घर में घुसते ही दुर्गध्ां आती है और बाहर जाते ही कम हो जाती है। उसने इस पर भी ध्यान दिया, कि बाहर से आने के बाद, जब बूढ़ा चमेली के खुशबूदार साबुन से नहाता और बेला की खुशबू वाला पाउडर लगाता और एक बड़े मग में तीन चौथाई बियर और एक चौथाई नींबू का शर्बत मिल कर ‘शैंडी‘ बनाता और मग लेकर खिड़की की चौखट पर बैठ जाता, और उगते हुए चाँद के आगे से निकलते हुए भूखे चमगादड़ों के झुँड को खेतों की ओर जाते देखता हुआ घूँट भरता, और तेज आवाज के साथ चटखारे लेकर बुढ़िया को कामुक निगाहों से घूरते हुए अश्लील संकेत देता, तब दुर्गध्ां बहुत कम हो जाती। जिस तरह लहसुन खाने वाला नहीं जानता कि उसकी साँस ही नहीं , उसकी देह के हर छिद्र, हर रोम से हमेशा तीखी गंध निकलती रहती है, उसी तरह बूढ़ा नहीं जानता था कि उसकी देह से हर समय दुर्गध्ां आती है, जब तक कि बारह साल पहले, बुढ़िया ने उसे यह नहीं बताया। सुन कर बूढ़ा चुप रहा था। बूढे़ ने उससे उसी तरह कोई बहस नहीं की, जिस तरह बुढ़िया के तीन दिन चुनने पर, थूकने पर और छिपकली को देख कर विलाप करने पर नहीं की थी। वह जानता था कि बुढ़िया उसे अपमानित नहीं कर रही है बल्कि सच कह रही है।
हुआ यह था कि शादी के बारह साल बाद बूढ़े ने घोड़ों के लिए चमड़े की काठी बनाने का अपना धंधा बदल दिया था। दुनिया में धीरे धीरे घोड़ों का और नतीजे में घोड़ों पर कसने वाली चमड़े की काठी का चलन कम होता गया था। घटती आमदनी की वजह से बूढ़े को किसी नए काम की तलाश थी। थोड़ी खोज बीन, भाग दौड़ और सलाह मशवरे के बाद उसने काठी बनाने की जगह, मुर्दों के क्रिया कर्म और उसके बाद के कर्मकांडों का ठेका लेने का काम शुरू कर दिया था। वह काठी के लिए चमड़ा खरीदता था, इसलिए लाशों की दुनिया से उसका पुराना सम्पर्क और परिचय था। मुर्दार जानवरों की दुनिया के हर पहलू से उसका पुश्तैनी और पुराना रब्त जब्त था। बचपन से ही चमड़े को पहचानने, उसकी असली कीमत तय करने, उसे छू कर और सूंघ की परखने की जरूरत ने, उसे धीरे धीरे पहले लाशों और फिर मृत्यु के प्रति ही एक दार्शनिक, स्वार्थ, विवेकी विरक्ति से भर दिया था। बूढ़े ने जब नया काम तलाशने की बात सोची, तो जानवरों की लाशों और चमड़े का काम करने वाले उसके हमदर्द साथियों ने उसे जानवरों की जगह इंसानी लाशों से जुड़ने और उनकी अंत्योष्टि के सारे काम करने के ठेका लेने की सलाह दी। उन्होंने देशी ठर्रे का घूँट लेते हुए उसे समझाया, कि जिस तेज रफ्तार से इंसान मर रहे हैं और उनका मरना बढ़ रहा है, इंसानी लाशों से जुड़नेे का काम भी उसी रफ्तार से बढे़गा। समझाया कि चमड़े की काठी का तो विकल्प संभव था, पर मुर्दों की अंत्येष्टि का कोई विकल्प नहीं है। यह भी समझाया, कि पहले लोग घर के मुर्दे से मुहब्बत करते थे, इसलिए उनके सब काम अपने हाथों से करते थे। पर अब वे चाहते हैं कि मरने वाले से दूर रहें और दूसरा कोई उसके सारे आखरी काम पूरा करने की जिम्मेदारी ले ले। उन्होंने बूढ़े की हिचकिचाहट देखकर हरी मटर तलवायी और बूढ़े को खिलाते हुए फिर समझाया, कि मर जाने के बाद हर इंसान सिर्फ लाश होता है और कुछ नहीं, इसलिए बूढ़े को यह नहीं सोचना चाहिए कि क्या अच्छा है क्या बुरा, या यह, कि लाश का धर्म क्या है, जाति क्या है, किसकी है, कहाँ से आयी है? उन्होंने इस काम का मजबूत आर्थिक पक्ष समझाने के लिए बूढ़े को बताया कि हजारों सालों से, दुनिया के हर हिस्से में, हर धर्म में, कुछ न कुछ पूरी तरह बदला या खत्म हो गया, पर मुर्दे का अंतिम संस्कार करना नहीं बदला। जब तक जिंदा इंसान है, मुर्दा इंसान भी रहेगा। उसकी लाश को बर्दाश्त न कर सकना भी रहेगा और उसे तत्काल हटा देने के लिए अंत्येष्टि के जटिल काम भी रहेंगे। उन्होंने बूढ़े को यह भी बताया, कि इस धंधे में अभी कोई मुकाबले में नहीं है, इसलिए बूढ़े का काम घोड़े की तरह सरपट दौड़ेगा। बूढ़ा काठी और घोड़ों से मुहब्बत करता रहा था। उनके साथ रहा था। यह सुन कर, कि मुर्दों की अंत्योष्टि का ठेका लेने पर भी किसी न किसी रुप में घोड़े से जुड़ा रहेगा, वह तैयार हो गया।
बूढ़े को मुर्दों के साथ श्मशान घाट या कब्रिस्तान या कभी कभी अस्पताल के मुर्दाघर में भी रहना पड़ता था। शुरू में बूढ़े को यह दिलचस्प लगता था कि धर्म के निर्देशों और नियमों से जिंदगी जीने वाले इंसानों के लाश हो जाने के बाद भी, धर्म के हिसाब से उनके बीच बड़ा बँटवारा या कि फर्क था। बूढ़ा धर्म की गंदगी में कभी नही धँसा था, पर उसने देखा था कि मुर्दे का धर्म बूढ़े के काम और कमाई में बड़ा फर्क डालता था। हालांकि काम उसे कम मिलता, पर वह मुसलमानों के मुर्दे ज्यादा पंसद करता था। वहाँ इंतजाम छोटा, कम समय का और आसान होता था। अक्सर तो घर वाले सब काम खुद ही कर लेते थे। ज्यादातर गरीब होते। उनके लिए बूढ़े का खर्च उठाना मुश्किल था। फिर भी, कभी कभी कोई अकेला या बीमार होता तो उसे बूढ़े की ज़रूरत पड़ती। गुस्ल, कफन, ताबूत, जनाज़ा जनाजे़ की भीड़, कब्रिस्तान में कब्र तैयार करने और उसके दफनाने के बाद कब्र पर किसी छत की तामीर करना या पत्थर लगवाने तक का इंतजाम बूढ़ा कर देता था। मुसलमानों से भी कम जरूरत ईसाइयों को होती थी। वहाँ चर्च आगे बढ़ कर सारे काम व्यवस्थित ढंग और अपनेपन से कर देता था। बूढ़े के लिए वहाँ काम और पैसों की गुजांइश बहुत कम होती थी। बूढ़े की असली कमाई और असली काम हिंदुओं के मुर्दों से चलता था। वहाँ बूढ़े की बहुत माँग थी। मुर्दे की अर्थी का सामान खरीदने से लेकर बनारस या हरिद्वार या संगम में अस्थि या राख विसर्जन तक का काम लोग बूढ़े से करवाते थे। घर पर कुटिल व संवेदनाशून्य महापात्र को बुला कर मुर्दे पर तुलसीपत्र और गंगाजल डालना, अर्थी तैयार करना, वहाँ कुछ कर्मकांड, मुर्दे को श्मशान घाट ले जाना, घाट पर मुर्दे के शरीर और वजन के हिसाब से चिता के लिए सूखी लकड़ी का इंतजाम करना, चिता का सारा सामान जुटाना, महापात्र और डोम का प्रबंध, बाद मे चिता से अस्थियाँ और राख चुनना, फिर तेरह दिन तक पिंडदान के लिए घर वालों को रोज घाट के पास पिंडदान के लिए बनाए गए बड़े कमरे में ले जाना, वहाँ अनाजों, धातु की आकृतियों, पत्थरों के साथ जटिल, थकाने और पैसा उगलवाने वाले कर्मकांड करवाना, फिर तेरहवीं के खाने का इंतजाम करना, खाने के लिए सत्रह ब्राह्मणों का इंतजाम करना और अंत में घर में शुद्धिपाठ और हवन करवाना।