कृति का पुनर्पाठ: औपचारिक कर्मकाण्ड से अलग एक सहज आवश्यकता
किसी कृति का पाठ या विमर्श उसमें निहित लेखक के रचनात्मक निवेश का उत्खनन है। यह उत्खनन कृति की संभावनाओं के अनुसार पुनर्पाठों के रूप में चलती रहने वाली सतत् प्रक्रिया हो सकती है। चेतना से जुड़ी हुई मानवीय प्रक्रिया होने के कारण कोई रचना निर्माण और उपभोग दोनों ही स्तरों पर वस्तुपरक या निर्लिप्त नहीं होती। इसलिये उसके प्रति बोध की अनेक दिशाएँ हो सकती हैं। यहीं से किसी पुनर्पाठ का जन्म होता है लेकिन पाठ की संभावनाओं की यह अनेकान्तता जाक देरिदा के विखंडनवाद की विभिन्न ज्ञान परम्पराओं के अन्त से उपजी पाठ की सत्ता का निषेध नहीं है न ही रोलाँ बार्थ की ऐसी पाठ स्वायत्तता है जिसमें लेखक का अवसान हो चुका है और पाठ का वस्तुगत अध्ययन ही हो सकता है।
पाठ को संदर्भ से- टैक्स्ट को कंटैक्स्ट से अलग करके रचना और पढ़ना रचनागत प्रयोजन, दृष्टि और समय तथा समाज के अनिवार्य आसंगों से ही इन्कार करना है। किसी भी रचना या पाठ का अपना देशकाल होता है, हालाँकि लेखक अपने समय की संवेदना को व्यापक और अधिक प्रासंगिक बनाने के लिये तथ्यों और तारीखों से बाहर निकल कर बार-बार दिक् और काल के अतिक्रमण की कोशिश करता रहता है जिससे वह घटना में सीमित न रह जाये फिर भी बदलते हुए समय के संदर्भों में कुछ मूल आशयों की निरन्तरता के बाद भी पुनर्पाठ आवश्यक हो जाता है इससे दीर्घकालिक प्रासंगिकताओं का पुनर्पाठ भी होता रहता है और नये आशयों की तलाश भी होती रहती है। कभी-कभी भिन्न दृष्टियाँ एक ही समय में किसी कृति को अलग अलग रूपों में पढ़ती हैं। अलग-अलग पीढ़ियों की दृष्टि में तो पुनर्पाठ की संभावना और भी बढ़ जाती है। पुनर्पाठ की आवश्यकता या उपयोगिता को हर कृति के संदर्भ में लागू नहीं किया जा सकता। कृति का पोटेंशियल इसी संभावना में माना जाता है कि उसे बार-बार पढ़ने से उसके विभिन्न आशय उद्घाटित होते हैं। क्लासिक इसी अर्थ में विभिन्न समयों और प्रतिमानों के परीक्षण से गुज़रते रहते हैं। तुलसी कहते हैं ‘‘शास्त्र सुचिन्तित पुनि पुनि पेखिय।’’ एक समय में एक ही तरफ से उत्खनन होता है। इसीलिये पुनः की जरूरत होती है।
अगर सामान्य और बृहत्तर संदर्भो में देखा जाये तो संस्कृति, सभ्यता, ज्ञान-सम्पदा आदि के अन्तर्गत हुआ मनुष्य का सारा भीतरी और बाहरी विकास पाठ और पुनर्पाठ की ही निरन्तरता है। वैसे तो पाठ और पुनर्पाठ का अधिकरण पाठक में माना जाता है और प्रायः वह होता भी है फिर भी लेखक जो पाठ तैयार करता है वह स्वयं एक तरह का पुनर्पाठ ही होता है क्योंकि लेखक के भीतर पाठक और समीक्षक भी होता है। इस तरह लेखक का पाठ या पुनर्पाठ इसी संसार को समझने और अनुभव करने के लिये नयी उद्भावनाओं से सम्पन्न एक कलात्मक प्रारूप होता है। वास्तविक पुनर्पाठ किसी कृति के निहितार्थांें को ऐसी भिन्न दृष्टि से अनावृत करता है जो उसे प्रस्तुत से अलग और सही परिप्रेक्ष्य में देख सके। इसका एक ताजा और सटीक उदाहरण 1857 के स्वातं़त्र्य युद्ध का पाठ हो सकता है। इसका एक पाठ औपनिवेशक और साम्राज्यवादी अर्थ का है जो सिपाही विद्रोह तक सीमित है। यह पाठ प्रस्तुत करने वालों के हाथों में इतिहास लेखन और प्रचार माध्यमों का अधिकार तो था लेकिन सच को व्यक्त करने की ईमानदारी न थी। इसलिये एक पुनर्पाठ के रूप में तर्कों और उदाहरणों द्वारा यह प्रस्तुत किया गया कि यह व्यापक जनान्दोलन था जिसमें देश के विभिन्न अंचलों में व्याप्त ग्राम और आदिम समाजों का प्रखर प्रतिरोध शामिल था। एक और पुनर्पाठ यह सिद्ध करता है कि विरोध की इस चेतना के उभार में उपनिवेशवादियों द्वारा किये जा रहे आर्थिक शोषण और विनाश के विरूद्ध संघटित होती सामूहिकता भी थी। उपनिवेशवादी पाठ में एक व्यापक और महत्त्वपूर्ण घटना को तात्कालिक और अनायास मानने की कुटिलता थी। धार्मिक आस्था के प्रतिकूल आचरण के लिये विवश किये जाने का रोष और कुछ अधिकार वंचित नरेशों के स्वार्थों को मूल कारण मानना भी समग्र पाठ के अन्तर्गत नहीं आता। सन् 1857 की सौवीं और डेढ़सौ वीं जयन्ती के उपलक्ष्य में विशद अनुसंधान से जो प्रभूत सामग्री सामने आयी है उसके आधार पर निर्मित पाठ सिर्फ इतिहास के सही और ईमानदार विश्लेषण की दृष्टि से ही आवश्यक नहीं है बल्कि उसमें हमें अपनी जातीय चेतना और सामाजिक संरचना के वास्तविक परिप्रेक्ष्य भी मिलते हैं।
कोई कालखण्ड विशेष भी कभी कभी किसी कृति की तरह वैचारिक हलचलों और विमर्श का नया पाठ तैयार करता है। यह पाठ विचार के रूप में अपने समय के कला साहित्य रूपों में प्रतिविम्बित होता है। नवजागरण काल में सामाजिक नैतिक मान्यताओं की समीक्षा से पुनर्पाठ रचा जा रहा था। आदर्शों के केन्द्र बदल रहे थे। परिधियाँ विस्तृत भी हो रही थीं और टूट भी रही थीं। बंगाल और पंजाब से चले विचार-प्रस्थान धीरे-धीरे सार्थ बनने लगे थे। इयत्ताओं के संस्करण बड़े होने लगे थे। कारण तर्क और विवेक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखने लगे थे। स्थानीयताओं के गोत्रों में उदार अन्तर्क्षेत्रीयता आने लगी थी।
वैचाारिकता के नये नियमों के दौर में ही हिन्दी कविता का भक्ति युग व्यापक और नये अर्थों के आलोक में देखा जाने लगा। भक्ति की आध्यात्मिक और वैयक्तिक भावभूमि ऐकान्तिक समपर्णशीलता तथा दार्शनिकता के साथ ही इस कविता की सामाजिक भूमिका पर भी चर्चा होने लगी। इस सामाजिक पाठ के अन्तर्गत ईश्वर-भक्ति में जाति और वर्ण के भेद तथा आडम्बर महत्त्वहीन दिखायी देने लगे । इसके अभेदमूलक समाज का प्रारूप कम से कम विचार में तो स्वीकार हुआ ही। तुलसी के लोक मंगल में भगवान की लोकहित की लीला दिखायी दी। सूर का गोलोक कोई अनजाना प्रदेश न रह कर ब्रज क्षेत्र का वास्तविक गोलोक हो गया। उसमें पूरा समाज अपने जीवन व्यापारों के साथ उपस्थित है। सूर के मुक्तकों ने ऐसा महाकाव्य रचा जिसके स्थायी भाव ने काव्य शास्त्र का भी पुनर्पाठ प्रस्तुत कर दिया।
पुनर्पाठ प्रतिवाद भी हो सकता है और पहले पाठ में जो कुछ अनुपस्थित या उपेक्षित रह गया हो उसे भरने की आवश्यकता पूर्ति भी। कबीर का एक पाठ शुक्ल जी का है और दूसरा हजारी प्रसाद द्विवेदी का जो अधिक भरा हुआ है और जिसके आधार पर कबीर को पूरी तरह समझा जा सकता है। तुलसी के तो पुनर्पाठों ने ही उन्हें भक्ति के बाहर भी महत् आशयों के श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में पढ़ा है। उनका एक पाठ रामचरित मानस के साथ ही ‘कवितावली’ और ‘विनय पत्रिका’ के आधार पर भी बनता है जिसमें तुलसी अशरीरी आत्मा न रह कर अस्थि और चर्म के जैविक आग्रहों और अभावों की चर्चा करते हैं।
साहित्य जब अपनी रचना सामग्री के लिये अतीत में जाता है तो उसकी यथातथ्यता नहीं लेता। वह इतिहास या पुराण के आख्यान को आज के साथ इस तरह संदर्भित करता है कि वह वर्तमान की संवेदना बन जाता है। रामकथा का एक पाठ वाल्मीकि का है तो दूसरा उसके आंशिक पाठ के रूप में ‘रघुवंश’ का और ‘अग्निलीक’ के रूप में भारतभूषण का एक और पाठ। ‘साकेत’ रामकथा का अपने समय का पुनर्पाठ ही तो है।
पुनर्पाठ कितना आवश्यक और स्वाभाविक होता है वह छायावादी काव्य को प्रारम्भिक पाठ से हट कर नयी तरह प्रस्तुत करने से सिद्ध होता है। स्पष्टता का अभाव, सब कुछ छाया छाया सा या अधिक से अधिक स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह अथवा व्यष्टिपरकता जैसे निषेधपूर्ण उपहासों ने छायावाद की नवोन्मेषशीलता को नहीं पहचाना था। पुनर्पाठ में उसमें युगीन स्वाधीनता बोध, रूढ़ियों से मुक्ति की चेतना, राष्ट्रीयता की भावना और सीमित की व्यापकता देखी गयी।
आजकल सहानुभूति के पाठ के स्थान पर स्वानुभूति का पुनर्पाठ प्रस्तुत है। यह सच है कि स्वानभूति सहानुभूति से अधिक तीव्र और प्रामाणिक है। सहानुभूति स्वानुभूति नहीं हो सकती यह भी सच है लेकिन सहानुभूति की नीयत में अगर खोट नहीं है तो उसमें दूसरे के साथ होने की मानवीयता तो है ही। फिर भी दलित विमर्श अपने अनेक पुनर्पाठों में द्वन्द्वों और संघर्षो को जिस तरह रेखांकित करता है और जाति और वर्ण की व्यवस्था के विरूद्ध जिस तरह मोर्चा खोलता है उसका अपना महत्त्व है हालाँकि अक्सर यह विरोध अतिरेक के रूप में विवेक खो बैठता है। यहाँ यह बात एक बार फिर उदग्र होती है कि कोई कृति निरपेक्ष काव्यशास्त्र का तकाज़ा पूरा नहीं करती बल्कि उसके पाठ में समाजशास्त्र और जीवन से जुड़े अन्य संदर्भ भी शामिल हो रहे हैं। इसलिये पाठ निर्धारित करने वाले सौन्दर्यशास्त्रीय प्रतिमानों के भी पुनर्पाठ सामने आ रहे हैं।
पाठ अथवा पुनर्पाठ के सम्बन्ध में लोक की चर्चा आवश्यक है। लोक की प्रकृति विचित्र होती है। वह एक ही साथ स्थैतिक ;ैजंजपबद्ध और गतिज ;ज्ञपदमजपबद्ध दोनों होता है। अपनी सामर्थ्य सुविधा और परिस्थिति के अनुसारं उसके विमर्श आवश्यकतानुसार बदलते रहते हैं। वह साष्टांग पैंड़ भरते हुए भी देवता के पास जाता है और नहीं संभव है तो घर से ही नैवेद्य की छिटकी डाल देता है। यदि बड़े देव स्थानों में उसे सहजता नहीं मिलती तो वह अपने देवता खुद गढ़ लेता है। गाँव के बाहर छोटे से चबूतरे पर विराजे गौड़ और खाती बाबा पूरे गाँव की रक्षा करते हैं। हरदौल विवाह-कार्य में मंगल करते हैं और कारसदेव खोये हुये पशुओं की खोज में सहायक होते हैं।
पुनर्पाठ के रूप में लोक ने रामकथा के कई प्रसंगों को लोकगीतों में इस तरह देखा है जो सामान्य आस्थापरक पाठ से अलग है और लोक ने ऐसा आस्तिकता के अभाव में या किसी प्रतिक्रियावश नहीं किया है। लोक-चेतना में स्थान, समय, लोक-परलोक आदि का ऐसा मिश्रण होता रहता है कि वह अपनी ऐतिहासिकता तथा तथ्यात्मकता की चिन्ता नहीं करता क्योंकि उनसे लोक के मूल आशय में कोई अन्तर नहीं आता है। यह विचित्र बात है कि लोक आध्यात्मिकता में भी अपनी लौकिकता तथा लौकिक आसंगांे को लिये रहता है। इस लौकिकता में ही वह आध्यात्मिक प्रसंगों का निर्वचन करता है। वह दर्शन और अध्यात्म की शास्त्रीयता नहीं जानता। इसके विपरीत शास्त्र को लोक के कारण ही सरलीकृत रूप में प्रस्तुत किया जाता है। अवधी के एक प्रसिद्ध लोकगीत में पेड़ के नीचे खड़ा हिरन अपनी हिरनी से उसकी उदासी का कारण पूछता है। हिरणी बताती है कि कल राम की छठी के उत्सव के लिये तुम्हें मार दिया जायेगा। हिरन का वध होता है। हिरनी कौसल्या से कहती है कि मांस तो तुम्हारी रसोई में पक जायेगा। मुझे हिरन की खाल ही दे दो। मैं पेड़ पर टाँग कर उसे अपना हिरन समझ लिया करूंगी। कौसल्या कहती है कि खाल से तो मैं खंजड़ी बनवाऊँगीं जिसे राम बजायेंगे। जब जब खंजड़ी बजती है हिरनी को अपने हिरन की याद आ जाती है।
लोक का यह पाठ किसी आस्तिक पाठ की व्याख्या में नहीं आता पर ऐसा भी नहीं है कि यह नास्तिक लोक का पाठ हो। ऐसे पाठों के बाद भी लोक की आस्था ही बनी रहती ह,ै वैसे लोक का यह पाठ अपने सुख के लिये निर्बल के प्रति निश्करुण होने का सन्देश तो देता ही है फिर आरोपी कौसल्या या राम ही क्यों न हो।
लंका विजय के बाद सीता की परीक्षा का प्रसंग तो लोक गीतों में और भी साहसपूर्ण लगता है जिसमें सीता राम को अन्यायी घोषित कर देती हैं। लोक का यह पाठ आज के ‘अग्निलीक’ वाले पाठ से बहुत पहले का है। स्त्री-विमर्श का स्वर यहाँ अपनी पूरी शक्ति के साथ उठा है। आज के साहित्य में स्त्री-विमर्श एक मुद्दा नहीं बल्कि एक दृष्टि है, रचनात्मक सरोकार है। जहाँ मूल पाठ में यह सरोकार प्रबलता से नहीं उभरा है वहाँ पुनर्पाठ के द्वारा इस ओर दृष्टि डाली गयी है। मैत्रेयी ने ‘गोदान’, ‘मैला आँचल’, और ‘विश्रामपुर का संत’ उपन्यासों के स्त्री पात्रों का विमर्श करते हुए जो लिखा है वह पुनर्पाठ ही रचा है। स्त्री सम्बन्धी पुनर्पाठ की संभावना वहाँ अधिक है जहाँ उसके विषय में पारंपरिक मूल्यों को आदर्श माना गया है जो कि आज उसके प्रति अमानवीय लगते हैं और उसे प्रदाता पुरूष की सिर्फ आदत मानकर उसकी क्षमताओं का दमन करते हैं।
पुनर्पाठ की प्रक्रिया में पाठक ही कर्ता हैं हालांकि आधार पाठ ही होता है। इसलिये 2007 की नोबेल पुरस्कार विजेता डोरिस लेसिंग सही कहती हैं कि पाठक लेखक को अपने हिसाब से पढ़ता है। यदि वह लेखक की बातों को अलग तरह से समझता है तो भी लेखक कुछ नहीं कर सकता। पाठक जो लेना चाहता है वह ले लेता है।
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