संगोष्ठी की समाप्ति होते -होते शाम गहरी हो गयी थी।मुझे चिंता हुई कि घर कैसे जाऊँगी?मेरा घर थोड़ी अटपटी जगह है, जहां जाने के लिए सवारी आसानी से नहीं मिलती।मुझे साहित्य -संस्कृति से लगाव है।खुद भी लिखती- पढ़ती हूँ इसलिए ऐसे कार्यक्रमों को छोड़ना भी नहीं चाहती।
जब से मैं अपने पति से अलग हुई हूँ कुछ ज्यादा ही साहित्य को समर्पित हो गयी हूँ।
मेरे पति संस्कृतिकर्मी रहे थे इसलिए शहर के लगभग सभी लेखक -साहित्यकार उनसे परिचित थे और उनके ही कारण मुझसे भी परिचित हुए थे।सभी उनके रहते मेरे घर आते -जाते रहे थे और मैं भी उनकी गाड़ियों में बैठकर गोष्ठियों में आती- जाती रही थी,पर ये अलग होने से पहले की बात थी।उसमें पति की सहमति थी और सभी प्रगतिशील ख्यालातों के थे।
तब तक मेरी पहचान भी एक लेखिका के रूप में हो चुकी थी और मैं खुद को एक व्यक्ति मानने लगी थी ।पर मुझे नहीं पता था कि शहर के तथाकथित प्रगतिशीलों के लिए मैं स्त्री पहले हूँ लेखक बाद में।
पति के जाने के बाद कोई मेरे घर नहीं आता था।उस दिन उनके एक आलोचक मित्र ने कहा-कैसे जाएंगी?मैं छोड़ दूं।
मैंने कहा--नेकी और पूछ -पूछ।वे मुझे घर छोड़ने आये ।
रास्ते- भर अफसोस जताते रहे कि आपने गलत शादी ही कर ली थी।कहाँ आप इतनी सुंदर ,ऊंची जाति की इतनी पढ़ी- लिखी,आत्मनिर्भर स्त्री और कहाँ वह फटीचर -सा नेता।बदसूरत, बेरोजगार और ऊपर से छोटी जाति का।क्या मिला आपको?दोनों जहां से गईं।हमलोग तो तभी कह दिए थे कि ज्यादा दिन चलेगी नहीं यह शादी।बताइए हमलोग आप जैसी पत्नी का सपना देखते रहे ।प्रबुद्ध,सुंदर,स्वावलम्बी स्त्री का औऱ पत्नी वही घरेलू टाइप की मिली। मैं तो अब भी सोचता हूँ कि पत्नी नहीं तो प्रेमिका ही वैसी मिल जाए।
घर आ गया था।दरवाजे पर पहुंचते ही मैंने उन्हें नमस्कार किया--रात ज्यादा हो गयी है ।इस समय आपको चाय के लिए नहीं पूछ सकती।फिर आइयेगा।
वे दूसरे ही दिन आ धमके।अतिथि थे इसलिए मैंने उन्हें ड्राइंगरूम में बैठाया और किचन की तरफ चली गयी।वापस आई तो देखा ये साधिकार पूरे घर में घूम रहे हैं ।मुझे देखा तो कहने लगे--कितना मेंटेन कर रखा है आपने घर को और खुद को।यहां तो आने के बाद जाने का मन ही नहीं कर रहा।
मैंने कहा--कुछ साहित्य -चर्चा भी हो जाए।तो बोले
--अरे छोड़िए साहित्य -वाहित्य।गोष्ठियों -सेमिनारों की चीज है।घर में तो शांति -सुकून चाहिए बस।
मुझे अच्छा नहीं लग रहा था ,फिर भी मन मारकर बैठी रही।ये पुरूष साहित्यकार स्त्री को साहित्य -चर्चा लायक ही नहीं समझते शायद।
--मेरे योग्य कोई सेवा हो, तो बताइयेगा। मैं हर तरह से हाजिर रहूंगा।मन -धन -तन..$$..!उसने गौर किया तन पर कुछ ज्यादा जोर दे रहे थे वे ।
बड़ी मुश्किल से वे टले।फिर तो वे रोज ही फोन करने लगे और बुलाने को कहते पर मैं काम पर होने का बहाना कर देती। मैं तो सोची थी कि वे मेंरे साहित्यिक व्यक्तित्व से प्रभावित हैं पर वे तो स्त्री ,वह भी अकेली स्त्री होने की वजह से मुझसे प्रभावित लग रहे थे।
और यह बात मुझे बिल्कुल पसंद नहीं कि मुझे मात्र स्त्री देह माना जाय।
शनिवार का दिन था।अभी मैं काम से लौटी ही थी कि देखा वे स्कूटर खड़ी कर रहे हैं।मुझे अच्छा नहीं लगा पर पड़ोसियों के डर से दरवाजे पर कुछ नहीं कहा।वे भीतर आये और अपना चश्मा निकालकर दीवान पर लेट गए।मैं चाय लेकर आई तो उन्हें लेटे देखकर बड़ी कोफ्त हुई ।मैं अकेली रहती हूँ इसलिए पड़ोसियों की एक नजर मेरे घर की ही तरफ रहती है।कोई कभी -भी किसी बहाने आ सकता है।इन्हें लेटे देखेगा तो क्या सोचेगा!पर स्त्री सुलभ संकोच के नाते कुछ कह न सकी ।ये उठकर बैठे ।उफ़! चश्मा उतार देने पर उनका प्रौढ़ चेहरा कितना विकृत लग रहा था। एकाएक वे बोले--कंडोम है?
पहले तो मैं कुछ समझ ही नहीं पाई कि क्या कह रहे हैं!जब उन्होंने दुहराया तो समझ में आया।शादीशुदा जीवन जिया है।तुरत सब कुछ समझ में आ गया ।अब मैं आपे से बाहर हो गयी--बाहर निकलिए अभी...।
क्यों, क्या हुआ?नहीं है तो मैं ले आऊँगा।
-यही करने यहाँ आए हो। समझ क्या रखा है मुझे।अभी बाहर निकलो।
अरे ये क्या बात हुई?फिर बुलाती क्यों थीं?
-मैं तुझे सहित्यकार समझती थी ।प्रगतिशील समझती थी इसलिए बुलाया था।
अब बनो मत ।क्या ऐसे ही रहती होंगी ?खूब चर्चा होती है बाहर आपकी।
--और तू उस चर्चा को सुनकर ही यहां आया।चल उठ भाग यहां से।कुत्ते मैं अपनी मेहनत से कमाकर खाती हूँ।दम है.. संयम है इसलिए अकेली रहती हूँ।तू जाता है या नहीं कि बुलाऊँ अपने पड़ोसियों को।
वह उठा और बड़बड़ाता हुआ बाहर निकला और स्कूटर स्टार्ट कर चला गया।
मैं गुस्से में खौलती थोड़ी देर यूं ही बैठी रही।सोचती रही उसका इतना साहस क्यों -कर हुआ?
पति से अलग होने के कारण कि अकेली स्त्री होने के कारण।इस आदमी को इतना भी ख्याल नहीं आया कि मैं उसके मित्र की भूतपूर्व पत्नी हूँ।शायद यही कारण है कि असहनीय स्थितियों के बावजूद स्त्रियाँ पति से अलग नहीं होती।अकेली स्त्री को पुरूष सहज -सुलभ मान लेते हैं।
मेरा गुस्सा कम ही नहीं हो रहा था।मैंने फ्रिज से ठंडा पानी निकाला और एक सांस में ही उसे पी गयी।सोचा-अच्छी खातिर कर दी है उसकी।सोचिए इतना बड़ा साहित्यकार,अच्छे पद पर कार्यरत,बाल -बच्चेदार ,प्रतिष्ठित आदमी अपनी एक कुचेष्टा से कितना अपमानित हुआ।मुझे भी गुस्सा कुछ ज्यादा ही आ गया था ,पर क्या करती उसका प्रस्ताव ही इतना घिनौना था।
अब वह क्या- क्या नुकसान करेगा।!साहित्य से मुझे ख़ारिज करने की कोशिश करेगा और क्या कर लेगा?कलम इसलिए थोड़े पकड़ी है कि अपना शोषण होने दूं।
दस मिनट ही हुए थे कि दरवाजा फिर खटखटाया गया।देखा वह धड़धड़ाता हुआ घर में घुस आया है।मैं उसके पीछे।उसने दरवाजे को हल्के से बंद किया ताकि बाहर से कोई न देखे और मेरा पैर पकड़ लिया--मुझे माफ कर दो।मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गयी।लोगों की बातें सुनकर मैंने भी सोच लिया था कि तुम गलत हो ।किसी से ये बात बताना मत ,मैं बर्बाद हो जाऊँगा ।बदनाम हो जाऊँगा।
ओह, तो असल बात ये है कि मैं किसी को ये बात बता न दूँ और इसकी साफ- सुथरी इमेज न खराब हो जाए।ये डरपोक कायर ,कापुरुष आड़ में शिकार करना चाहते हैं।
--मेरा पैर छोड़िए !आप जाति के ब्राह्मण हैं। मुझे पाप लगेगा।
'वचन दो नहीं तो मैं अभी आत्मघात कर लूंगा।
मुझे अपने पैरों पर लिजलिजा- सा अहसास हो रहा था जैसे कोई केचुआ लिपट गया हो ।
'जाइये ,मैंने आपको माफ किया।मानव जनित कमज़ोरी मानकर इसे भूल जाऊँगी।'
उसे विश्वास नहीं हो रहा था।वह बार -बार गिड़गिड़ा रहा था पर मैं साफ- साफ देख पा रही थी कि उसकी आँखों के पश्चाताप के चिह्न नहीं हैं।