पौराणिक कथा-
त्याग की होड़
राजकुमार देवापि और शान्तनु की कथा
प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्रियों को राजमहल में मुख्य कक्ष में पहुंच कर राजकुमार देवापि की बात धीमी आवाज में सुनाई दी।
‘‘ शान्तनु, तुम स्वस्थ्य और बहादुर व्यक्ति हो, इसलिए तुम्हारा ही इस राजगद्दी पर पूरा हक बनता है। सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात से भरे खजाने वाला और धरती के इस छोर से उस छोर तक फैली हद वाला यह राजपाट तुम्ही संभालो...’’
शान्तनु ने बहुत विनीत स्वर में देवापि की बात काटी, ‘‘ कभी नही भैया कभी नहीं! राजा तो आप ही बनोगे।’’
किस्सा वैदिक काल के उन दिनों का है जब भारत यानी कि आर्यावर्त पर राजा वेन राज्य करते थे। वे एक प्रतापी और बहादुर व्यक्ति थे। दुश्मन देश उनका नाम सुनकर थर्राते थे।
राजा वेन बिलकुल साधारण लोगों की तरह बिना किसी सुरक्षा और साज-सज्जा के अपना जीवन व्यतीत करते अपनी प्रजा का भी पूरा ध्यान रखते थे ।वे जनता को बच्चों की तरह मानते थे । प्रजा की सुविधा-असुविधा के लिए उन्होने अपने दिन-रात समर्पित कर दिये थे। प्रजा के किसी भी आदमी को जब भी कोई समस्या होती वह बिना हिचक राजमहल आन खड़ा होता और राजा वेन तत्काल ही उसकी समस्या को सुलझाते। राजा वेन की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी। वे काफी वृद्ध हो गये थे और चाहते थे कि उनके बेटों में से कोई यानी कि राजकुमार देवापि या शान्तनु में से कोई अब राज्य संभाले और वे अवकाश ले लें। लेकिन बेटे अपने पिता के सदगुणों की तुलना में खुद को बहुत पीछे मानते थे। वे पिता के परम भक्त भी थे। राजकुमार देवापि और शान्तनु चाहते थे कि महाराज वेन जब तक जियें, राज गद्दी पर वे ही बैठें रहें।
लेकिन काल और समय की गति को कौन बदल सकता है ! सो एक दिन राजा वेन का भी मृत्यू का दिन आ पहुंचा और राजा वेन बिना किसी बीमारी के अचानक अपनी देह छोड़ गये।
राजमहल में तो रोना-पीटना मचा ही , जनता में भी क्रन्दन मच गया।
तेरह दिनों तक राज्य में शोक छाया रहा। परंपरा के अनुसार महाराज वेन के स्वर्ग सिधारते ही किसी का राजतिलक नहीं किया गया था इस कारण सारे काम स्थगित हो गये थे। दरअसल राजा वेन ने अपने शासन काल में अपना कोई भी राजकुमार उत्तराधिकारी नियुक्त नही किया था, क्यों कि उनका बड़ा बेटा राजकुमार देवापि एक बहुत विद्वान और समझदार लेकिन मन से पूरा वैरागी आदमी था। वहीं दूसरा बेटा शान्तनु बहुत वीर, राज काज में पूरी रूचि लेने वाला एक चतुर युवक था। देवापि यदा-कदा अपने पिता से कहा करता था ‘‘ पिताजी, आपको अपना उत्तराधिकारी बनाना हो तो शान्तनु को ही बनाना। मुझे राजा नही बनना है। मैं तो मुक्त रहना चाहता हूं ।’’
जबकि शान्तनु अपने मित्रों से कहता था, ‘‘ हमारे परिवार की परंपरा है कि बड़ा भाई ही उत्तराधिकार में राजा बनता है। छोटा हर जिम्मेदारी से मुक्त होता है, सो मैं तो पूरी तरह स्वतंत्र हूं । पिताजी कहेंगे तो भी मैं राजा नहीं बनूंगा।’
चौदहवें दिन प्रधानमंत्री ने राजा के पुरोहित से मुलाकात की और कहा कि किसी न किसीको राजा बनने के लिए मनाइये अन्यथा आस-पास के राजाओं की नजरें हमारे राज्य की ओर बुरी नियत से ताक रही हैं। ऐसा न हो कि कोई हमला कर दे और हमे पराधीन हो जाना पड़े।
प्रधानमंत्री ने दूसरे मंत्रियों को साथ लिया और राजमहल पहुंचे। मुख्य कक्ष में पहुंच कर उन्होने सेवको से कहा कि ‘‘राजकुमार देवापि को बुलाइये, हम सब उनसे तुरंत मिलना चाहते हैं।’’
बड़ी देर बाद देवापि उन लोगों के बीच उपस्थित हुए तो उनकी हालत देख कर सब हैरान रह गये। पूरे बदन को उन्होंने एक बेहद गंदे चादर से ढंक रखा था, और लगता था कि वे कई दिनों से नहाये नहीं है। उनके चेहरे पर दुःख की गहरी छाया थी।
प्रधानमंत्री ने अपने साथियों की ओर देखा और उनकी मौन सम्मति जान कर बोले ‘‘आप बहुत दुखी दिख रहे हो युवराज। ऐसे मत बनिये, धीरज धारण करिए। महाराज का पूरा आशीर्वाद और निर्देशन आपके साथ है। अब आप यह वेश त्यागें और एक राजा की तरह उत्साह से भर कर अपना सिंहासन संभालिए।’’
‘‘ प्रधानमंत्री जी, मुझे विवश मत कीजिये। मैं राजा बनने को तैयार नही हूं ’’ बड़े दुखी स्वर में देवापि ने बहुत धीमी आवाज में जवाब दिया।
सब सन्न रह गये। कुरू जैसा बड़ा साम्राज्य जिसे अनायास विरासत में मिलने जा रहा हो वह व्यक्ति एक संत की तरह राजा बनने से मना कर रहा था। प्रधानमंत्री आगे बोले ‘‘ तो इस राज्य को कौन संभालेगा युवराज?’’
‘‘ आप लोग शान्तनु को राजा बनाइये न, वह इस पद के लायक सही व्यक्ति है।’’ देवापि ने दो टूक जवाब दिया तो राजपुरोहित ने फिर तर्क दिया ‘‘ आपके वंश की उज्ज्वल परंपरा यह रही है कि बड़ा बेटा ही राजसिंहासन पर बैठता है।’’
‘‘ लेकिन राज सिंहासन पर वही व्यक्ति बैठना चाहिए जो कि इ स पद के योग्य हो। हमारे बुजर्ग कहते है कि वीर भोग्या वसुंधरा ! यानी जो वीर हो, बहादुर हो राजकाज में रूचिरखता हो वही वसुंधरा को भेागे। मेरा कहना है कि शान्तनु इस पद के योग्य वीर और समझदार व्यक्ति है। वे हमारे पिता की तरह ही शासन चलायेंगे।
प्रधानमंत्री और राजपुरोहित हार गये तो कोशपाल यानी खजांची ने बताया कि हमारे राज्य में सोने-चांदी, हीरे-जवाहरातों का ढेर लगा है। हर साल लगान के रूप बहुत सी संपति आती है। हमारे अधीन जो राजा लोग हैं वे कर के रूप में बहुत धन देते हैं।
देवापि ने बिना किसी लालच के कहा ‘‘ मुझे पता है कि खजाने में क्या भरा पड़ा है।
बाकी लोगों ने भी देवापि को बहुत समझाया लेकिन वे कतई नहीं माने अन्ततः क्षमा मांगते हुए उठे और महल के भीतरे हिस्से में चले गये।
सब लोग किंकर्तव्य विमूढ़ से बैठे रह गये। फिर राजपुरोहित ने परामर्श दिया तो राजकुमार शान्तनु को बुलावा भेजा गया।
कुछ देर बाद हमेशा की तरह सजे-धजे शान्तनु ने कक्ष में प्रवेश किया तो सबने उठ कर उन्हे प्रणाम किया।
बिना किसी भूमिका के प्रधानमंत्री ने कहा ‘‘ राजकुमार, आप तो जानते ही हैं कि राजा का पद खाली नहीं रहना चाहिए। पिछले एक पखवारे से हमारे महाराज पधारे हैं तभी से राजसिंहासन खाली पड़ा हुआ है।’’
‘‘ आप लोग महाराज कुमार देवापि को राजतिलक कीजिये न। देर क्यों करते हैं?’’ शान्तनु ने क्षण भर में जवाब दिया तो राज पुरोहित ने विनम्र स्वर में अपनी परेशानी बताई, ‘‘ यही तो दिक्कत है राजकुमार! बड़े कुमार देवापि इस बात के लिए कतई तैयार नहीं है कि वे राजा बनें। उनका आदेश है कि आप ही राजपाट संभले।’’
‘‘ यह कैसे हो सकता है ? मैं अभी जाता हूं और उन्हे मना कर लाता हूं।’’ कहते हुए शान्तनु उठे ही थे कि सामने देवापि फिर से उपस्थित थे। शान्तनु को देख कर ही उन्होने यह बात कही ‘‘ शान्तनु, तुम स्वस्थ्य और बहादुर व्यक्ति हो, इसलिए तुम्हारा ही इस राजगद्दी पर पूरा हक बनता है। तुम्ही राजपाट संभालो...’
शान्तनु ने इन्कार किया । तो वे गुस्से वे बोले कि तुम बड़ों की आज्ञा का पालन नहीं करते हो, यह गलत बात है।
प्रधानमंत्री और राजपुरोहित के साथ वहां मौजूद दरबारी गण इन अनोखे भाइयो को देख रहे थे जो कुरू प्रदेश जैसे विशाल राज्य के राजा की गद्दी को गेंद की तरह एक दूसरे की तरफ उछाल रहे थे और कोई भी राजा नही बनना चाहता था। जब कि सब जानते हैं कि इसी देश के दूसरे राज्यों की हालत आपसी मारकाट की होती थी। वहां के राजकुमार गद्दी पर बैठने के लिए आपस में हिंसा करने से भी नही हिचकते थे।
अन्ततः देवापि बोले ‘‘ सुनो शान्तनु, और आप सब भी सुन लीजिये। मैं कहना नहीं चाहता था क्यों कि पिता महाराज ने कहा था कि मैं अभी न बता कर अपनी बीमारी की बात समय आने पर बताऊं, लेकिन आप मजबूर कर रहे हो तो बताता हूं। ’’ फिर उन्होंने अपने बदन पर लपेटा वह गन्दा सा चादर उतार दिया और बोले, ‘‘ ये देखो, मेरे पूरे बदन पर त्वचा की बीमारी हो गई है। इस वजह से मेरा मन उदास और दुखी रहता है।’’
सारे मंत्री सन्न रह गये। ये तो किसी को पता न था। शान्तनु तक अन्जान थे राजकमार की इस बीमारी से। देवापि का पूरा बदन जख्म और सफेद दागों से भरा हुआ था।
देवापि आगे बोले ‘‘ मैं तो दिखने में बड़ा बुरा लगता हूं । आप राजा बनाओगे तो मुझे पचासों राज्यों में आना-जाना पड़ेगा, ऐसे में इस तरह के जख्म और दागों से भरा मेरा यह शरीर आप सबके लिए बेइज्जती का कारण बन सकता है। वैसे भी राजा को अपना पूरा समय प्रजा के लिए देना पड़ता है लेकिन मै अपने शरीर के दुखों से दुखी रहता हूं सो प्रजा को कहां से समय दे पाऊंगा। ’’
राज पुरोहित बोले, ‘‘ राजकुमार, आप यह क्यों मानते हो कि हर सफेद दाग कोड़ होता है। ये सफेद दाग व जख्म तो किसी और बीमारी की वजह से बने हैं। आपका इलाज होगा तो आप ठीक हो जायेंगे। आपका सोने सा बदन होगा। आप निराश क्यों होते हो?’’
देवापि अब गुस्सा हो उठे, ‘‘ गुरूदेव, मैं कतई नहीं मानूंगा।’’
वे फिर उठ कर चले गये।
अब तो एक ही रास्ता बचा था कि देवापि के कहने के मुताबिक शान्तनु राजसिंहासन पर बैठ कर राज्य संभालें। सारे मंत्रियों ने शान्तनु से अनुरोध किया कि सिर्फ आप ही इस राज्य को संभालने में सक्षम हैं। आप बलशाली हैं। समझदार हैं। लोकप्रिय हैं। आप ही राजा बन जाइये।
अन्ततः शान्तनु मान गये। राजपुरोहित ने अगले ही दिन शान्तनु को सिंहासन पर बैठा कर उनका राजतिलक कर दिया। शान्तनु राजसिंहासन से उतर कर सीधे अन्तःपुर में गए और उन्होंने वहां एकान्त में बैठे बड़े भाई देवापि के चरण छुये । वे बहुत प्रसन्न हुए । शान्तनु ने उनसे एक वायदा मांगा कि जब भी राजकाज में उनकी सलाह और सहयोग चाहिये होगा, वे इन्कार नहीं करेंगे।
देवापि बोले, ‘‘ इस राज्य के लिए मेरा रोम-रोम कर्जदार है। आखिर यह हमारी जन्मभूमि है। इसके लिए मैं अन्तिम सांस तक सेवा करने तैयार हूं। जब जरूरत पड़े तुम निस्संकोच मेरे पास चल आना।
फिर जल्दी ही देवापि ने राजधानी छोड़कर समीप के एक जंगल में अपनी कुटिया बनाई और राज वैद्य से अपनी बीमारी का इलाज कराते हुए जप-तप करने लगे। उनके शरीर से धीरे-धीरे करके बीमारी खत्म होने लगी।
शान्तनु तो जैसे राजा वेन का ही दूसरा रूप थे। वे पूरी रूचि लेकर राजकाज करने लगे। उनके आदेश पर जगह-जगह कुंए, बावडी़, सरोवर, सराय और नई सड़कें बनवाई जाने लगीं। राजा वेश बदल कर कई दिनों तक प्रजा के बीच घूमते रहते और जो भी समस्या उनको दिखाई पडती वे उसे तुरंत दूर करते। इस तरह प्रजा के हमदर्द बन कर उन्होंने जल्दी ही जनता का मन जीत लिया। जन-जन में चर्चा होने लगी कि राजा वेन ने ही शान्तनु के रूप में दुबारा अवतार लिया है।
एक बार ऐसा हुआ कि कुरू प्रदेश में लगातार बारह साल तक बारिस नहीं हुई। जनता में हाहाकार मच गया। राजा ने अकाल राहत के काम खोल दिये। बूढ़े, स्त्रियों, बच्चों और रोगियों को बिना काम किये राजा की ओर से भोजन बांटा जाने लगा।
जनता में तरह-तरह की अफवाहें फैल गईं। कोई कहता था कि यज्ञ न होने से बरसात नहीं हो रही है । कोई कहता कि पेड़ कम लगाये जा रहे हैं इस कारण बरसात नहीं हो रही है। तो कोई कहता कि इंन्द्र सहित सारे देवता हमारे राज्य से नाराज हो गये हैं। क्यों कि इस खानदान की परंपरा रही है कि बड़ा बेटा राजा बनता है, पर इस बार यह परंपरा निभाई नहीं गई है सो पानी के देवता इन्द्र इस राज्य पर बहुत गुस्सा हैं। वेश बदल कर राजा जनता के बीच निकले तो जनता की बाते सुनाई पड़ीं।वे मन ही मन बहुत दुखी हुए।
अगले दिन राजदरबार लगा तो महाराज शान्तनु ने मंत्रियों से कहा िक बहुत दुखी हैं, बारह साल तक पानी न बरसने का कारण वे खुद का राजसिंहासन पर बैठना मान कर सिंहासन छोड़ना चाहते हैं । अन्त में उन्होंने कहा कि उन्हे गुप्त रूप से पता लगा है कि हमारी जनता भी यही चाहती है कि मैं सिंहासन त्याग दूं। इसलिए अब आप लोग बड़े भाई देवापि के पास जाकर उनसे निवेदन करें कि वे आकर अपना राज-पाट संभालें। मैं तो ऊब गया भई इस झंझट से।
सारे दरबारी सन्न रह गये। उन्हे काटो तो खून नहीं। जनता क्या कई दरबारी खुद यह बात राजा की पीठ पीछे कहा करते थे। वे सब डर गये कि राजा को पता तो नहीं लग गया कि कोन-कौन राजा को सिंहासन छोड़ने की मांग कर रहा है।
प्रधानमंत्री ने अनमने हो कर कहा ‘‘ तो महाराज आप भी चलें हमारे साथ और हम एक बार फिर बड़े महाराज देवापि जी से राज सिंहासन पर बैठने का अनुरोध करें।’’
शान्तनु के साथ सारे दरबारी देवापि जी के आश्रम में पहुंचे।
देवापि को देखकर सब दंग रह गये। वे एकदम स्वस्थ्य थे। उनका बदन सोने सा चमक रहा था। इतने सारे मंत्रियों के साथ राजा शान्तनु को देखकर उनका माथा ठनका। वे बोले‘‘कहो राजन, आप लोग अपना काम छोड़ कर यहां क्यों पधारे ?’’
‘‘ बड़े भाई, मैं यह राजकाज नहीं चला पाऊंगा । मैं तो ऊब चुका हूं इस झंझट से। आप कृपा करें और चल कर अपना सिंहासन संभालें।’’
‘‘मैं तो पहले ही इस झंझट से मुक्त हो चुका हूं राजन। आप जानो और आपका राज जाने , मुझे तो दूर ही रखो इस फालतू के पचड़े से।’’ देवापि साफ शब्दों में बोले।
राजपुरोहित से रहा नहीं गया वे बोले, ‘‘ महाराज शान्तनु का मन बड़ा दुखी है। दरअसल हमारे राज्य में पिछले बारह साल से बरसात नहीं हुई है सो जनता के लोग इस के लिए राजा को दोशी ठहरा रहे हैं। सब चाहते हैं कि आप ही राजपाट संभालिये।’’
‘‘ बरसात नहीं हुई यह अलग बात है।राजा बन कर तो नहीं, वैसे मैं आप लोगों की जो भी संभव होगी मदद करूंगा।’’देवापि ने हथियार डालते हुए कहा।
सबके चेहरे खिल गये।
देवापि ने अगले दिन से अपने आश्रम में एक विशाल यज्ञ आरंभ कर दिया। इस यज्ञ के पुरोहित का काम स्वयं देवापि संभाल रहे थे।
यज्ञ चलता रहा और लोग बरसात का इंतजार करते रहे।
अन्ततः सातवें दिन इन्द्र स्वयं बादल के एक समूह के साथ यज्ञ शाला के पास आकर हाजिर हुऐ और बोले, ‘‘ देवापि जी, अब यज्ञ की पूर्णाहुति कीजिये। में इसी क्षण से बादलों को आपके राज्य में बरसात आरंभ करने का हुक्म देता हूं।’’
फिर क्या था। देवापि ने यज्ञ पूरा कर पूर्णाहुति प्रदान की और सबसे कहा कि वे तत्काल घर लौट जावें, बहंत तेज बरसात होगी। सब लोग तुरंत ही चल पड़े। लेकिन शान्तनु अब भी खड़े हुए थे। वे घिघियाते स्वर में बोले ‘‘ भैया, मान जाइये। मुझे अपने दोस्तों के साथ खूब मौज-मस्ती करना है, सो मैं राजकाज छोड़ना चाहता हूं। आप राज संभालिये।’’
देवापि ने डांट कर शान्तनु को घर लौटने पर विवश कर दिया। उनका हुक्म था कि राजा शान्तनु ही रहेगे।
एकाएक बादल गरजे। बिजलियां तड़क उठीं। फिर तो खूब झमाझम बरसात हो उठी।
ऐसी मूसलाधार बरसात हुई कि रात तक तो सारे नदी-नाले भर उठे।
चारों ओर खूशी का वातावरण था।
अगली सुबह प्रजा के सहस्त्रों लोग राजमहल केसामने इकट्ठे थे। सुना तो महाराज शान्तनु अपने महल के ऊपरी हिस्से में बने झरोखे में आये। उन्होने चिल्ला करपूछा कि अब जनता क्या चाहती है।
जनता उनकी जय जय कार कर रही थी। जनता के अनेक प्रतिनिधियों ने चिल्ला कर कहा कि अब वे सब चाहते हैं कि महाराज शान्तनु ही राजकाज संभालते रहें। ऐसे त्यागी राजा को भला कौन छोड़ना चाहता है।
जनता के मन की बात जान की राजा शाल्तनु का मन शांत हुआ। वे जनता की बात मानने को तैयार हो गये।
अब न जनता को कोई मलाल था न राजा को।
सब सुखी थे, सब प्रसन्न। कहते हैं कि जैसा राज्य शान्तनु ने किया वह अपने आपमें एक मिशाल है। ऐसा न कभी पहले हुआ न कभी बाद में हो सका।
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