30 शेड्स ऑफ बेला
(30 दिन, तीस लेखक और एक उपन्यास)
Episode 6 by Iqbal Rizvi इकबाल रिजवी
एक नदी की वापसी
ऋषिकेश में गंगा का प्रवाह बनारस के मुकाबले काफी तेज़ है, पानी भी साफ़ रहता है. बेला की नज़रें लगातार पानी के बहाव पर टिकी हुई हैं. बेला को पूरी ताकत लगानी पड़ी थी उस सदमे से बाहर आने में जो बनारस में उसने झेला था. अब किसी हद तक वो सामान्य होती जा रही थी.
बरसों बाद आज उसे मां की याद शिद्दत से आ रही थी. हालांकि मां को लेकर उसके अनुभव अच्छे नहीं थे. लेकिन स्वाभाविक सा है कि जब ज़िंदगी में बहुत कठिन समय आता है तो अपने आप मां याद आने लगती है. मम्मी एक के बाद एक कैनवस पेंट करती जाती थी, तब वो छोटी थी और मां के पास बैठ कर उन्हें पेंट करते देखना और बातें करना उसे अच्छा लगता था लेकिन उनके कमरे में पैर रखते ही उनकी चेतावनी उभरती ‘ बेला शैतानी मत करना, एक तरफ़ खामोशी से बैठो ’. बेला को मम्मी का यह स्वर बिल्कुल नहीं भाता था और वह मन में खामोश ग़ुस्सा लिये वापस दादी के पास लौट जाती. धीरे-धीरे उसने मम्मी के कमरे में जाना छोड़ दिया. मम्मी मान के चलती थीं कि दादी बेला का भरपूर ख़याल रख लेंगी इसलिये बेला की और से वे निश्चिंत रहती थीं.
बेला ने पापा और मम्मी के बीच तीखा संवाद होते बहुत देखा. थोड़ा समझदार होने पर उसे इस बात का एहसास हो गया था कि मम्मी और पापा के बीच किसी तीसरे शख्स को लेकर बहस होती रहती है. हर बार बहस के बाद पापा घर से बाहर चले जाते और मम्मी रंगों की दुनिया में खो जातीं. और बेला दादी के पास चली जाती. कृष से मुलाकात के बाद उसकी ज़िंदगी में कटुताओं, बेचैनी, गुमनाम ग़ुस्से और चिड़चिड़ाहट में कमी आ गयी थी. और कुछ समय बाद जब कृष उससे दूर गया तब तक उसकी सोच, फैसलों और भावनाओं में काफी ठहराव आ गया था. बेहद उलझ जाने पर उसकी सच्ची दोस्त यानी उसकी दादी तो उसके पास में थीं ही.
उन्हीं के बार बार कहने पर वो बनारस आयी. पर्स ,पैसे, कार्ड सब कुछ खो जाने के बावजूद वो बनारस को दादी की आंखों से देखती रही. उसने तो लगभग फैसला भी कर लिया था कि वो बनारस में ही रह जाएगी. बेला बरसों से मौत के इंतज़ार में घाट दर घाट भटकने पर मजबूर की गयीं विधवाओं के लिये कुछ करने की य़ोजना को अंतिम रूप दे ही रही थी कि इंद्रपाल के चंगुल में फंस गयी.
तभी शोभा गुर्टू की आवाज़ ने बेला कौ चौंका दिया. शायद घाट पर बैठा कोई इंसान शोभा गुर्टू को सुन रहा था. उनकी गायी ठुमरी “ याद पिया की आए – हाए राम, याद पिया की आए.” हवा में सर उठा कर गंगा की लहरों पर तैरती हुई दिलों में उतरती जा रही थी. बेला को बहुत राहत मिली. जैसे ज़ख्मों पर किसी ने मरहम रख दिया हो.
मैडम चाय, घूम घूम कर चाय बेचने वाले एक लड़के ने उसे टोका तो अचानक छोटू का चेहरा आंखों में घूम गया. बनारस में पहले दिन दादी के नाम की कचौड़ी की थाली जिस लड़के को उसने खिलायी थी उसी छोटू की मदद से वो इंद्रपाल के चंगुल से आज़ाद हुई. छोटू उस कमरे में खाना पहुंचाने के लिये भेजा गया था. भेजने वाले को एहसास भी नहीं था कि छोटू और बेला की पहचान है. उसके लिये मसीहा बने छोटू की मदद से वो कमरे में उसकी निगरानी के लिये तैनात महिला की आंखों में धूल झोंक कर भाग खड़ी हुई. बाहर निकल कर वो छोटू को भी भूल गयी. बदहवासी की हालत में भागते हुए वो उस जगह से दूर जाना चाह रही थी.
बेला की किस्मत उसके साथ थी. गुजरात की महिला श्रद्धालुओं का एक दल बस के जरिये बनारस से ऋषिकेश रवाना हो रहा था. बेला ने उनसे मदद मांगी और बस में सवार हो कर सुरक्षित ऋषिकेश पहुंची. अब यहां से उसे दिल्ली चले जाना चाहिये. मगर ना जाने क्या ऐसा था जो उसे बेचैन कर रहा था. अपने साथ हुआ हादसा उसे कहीं गहरे तक हिला गया था लेकिन उसका परिणाम डर, डिप्रेशन या निराशा के रूप में सामने नहीं आ रहा था. रह रह कर एक रोष उभर रहा था बेला के मन में उसके वुजूद मे बेचैनी भरी हुई थी.
बेला घाट से उठ खड़ी हुई. नहीं वो दिल्ली नहीं जाएगी--इंद्रपाल यादव तुझे छोड़ूंगी नहीं. अकेले तुझसे निपटूंगी. मुझे जानना है बहुत कुछ। वो कौन है जो उसकी तरह दिखती है और जिसे बचाने के लिए इंद्रपाल ने उसे कैद खाने में रखा. पैसा कोई समस्या नहीं है जितना चाहेगी पापा बिना कुछ कहे भेज देंगे. उन्हें ये भी समझा देगी कि अभी बनारस से उसका दिल नहीं भरा है. बनारस जा कर दोषियों से कैसे निपटेगी इस बारे में उसके दिमाग़ में कुछ नहीं था. बस दिमाग़ में एक ही बात थी. इंद्रपाल यादव तू किसी के भी साथ जो चाहे नहीं कर सकता. मैं बनारस आ रही हूं इंद्रपाल.