Dashanan Ka Bhavan in Hindi Spiritual Stories by Mahendra Sharma books and stories PDF | दशानन का शिव भवन

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दशानन का शिव भवन

शिवपुराण का एक प्रसंग है
दशानन जो रावण के नाम से प्रचलित हुआ, वह एक बहुत बड़ा वास्तु शास्त्री था और उतना ही बड़ा शिवभक्त भी था।
शिवजीने खुद उसे सबसे बड़े भक्त होने का वरदान दिया था।

उसका मानना है कि सभी भक्त शिवजी से कुछ मांगने आते हैं पर उन्हें देने कोई नहीं आता। विद्वान ऋषिओं ने उसे बहुत समझाया की शिव को किसी भी सेवा व वस्तु की आवश्यकता नहीं। शिव बैरागी हैं और उन्हें केवल भक्त की भक्ति से संतुष्टि मिलती है।
पर उसे शिव को कुछ देने की बड़ी इच्छा थी। उन्हें अपने भाई कुबेर से पता चला कि शिव कैलाश पर्वत पर रहते हैं पर उनके पास रहने के लिए कोई भवन नहीं है। उनका परिवार प्राकृतिक स्थान पर ही निवास करता है।
दशानन ने शिव परिवार के लिए एक भवन बनाने के लिए मैन में संकल्प किया और उसकी एक सुंदर प्रतिकृति का निर्माण किया।
यह प्रतिकृति पृथ्वी पर भृमण कर रहे शिव पुत्रों को बहुत पसंद आई। दशानन को शिव परिवार के लिए भवन बनाने के हेतु कैलाश पर निमंत्रण दिया गया।

दशानन के आग्रह और परिवार की इच्छा को पूर्ण करने हेतु शिवजी ने कैलाश पर दशानन को भवन निर्माण की अनुमति प्रदान की।
दशानन शिव परिवार के लिए कैलाश पर एक भवन निर्माण कार्य आरंभ करता है। शुद्ध सोने के भवन का निर्माण कार्य दशानन की कार्य कुशलता से जल्द ही सम्पन्न हुआ, वह अत्यंत सुंदर भवन बना था।

भवन निर्माण सम्पन होने के पश्चात शिव परिवार का गृह प्रवेश हुआ। गृहप्रवेश के समय नारद जी ने दशानन को याद दिलाया कि उन्होंने शिवजी से अपने कार्य के लिए दक्षिणा नहीं मांगी है। दशानन एक ब्राह्मण था इसलिए दक्षिणा लेना स्वाभाविक था।
तब दशानन के मन में विचार आया कि क्या करे कि जिससे शिव परिवार सदैव उसके साथ रहे। तब सोचविचार कर उसने शिवजी से कहा कि आप यह नवनिर्मित भवन मुझे दक्षिणा में दे दें। उसको लगा कि इस दक्षिणा से शिव परिवार भी उसको प्राप्त हो जाएगा।

शिव परिवार को इस दुराग्रह पर आश्चर्य हुआ। जिस भवन को शिव परिवार के लिए निर्मित किया गया था उस भवन को ही दशानन ने अपने लिए दक्षिणा में मांग लिया था। शिवजी को भवन का कोई मोह नहीं था इसलिए उन्होंने दशानन को भवन दक्षिणा में दे दिया।

अब दशानन ने शिवजी व परिवार को भवन सहित उनके साथ आने को निमंत्रण दिया। शिवजी ने दशानन को ज्ञात कराया कि अब उन्होंने यह भवन दशानन को दक्षिणा में दे दिया है इसलिए उनका और उनके परिवार का भवन पर कोई अधिकार नहीं। इसलिए उनका परिवार दशानन के साथ नहीं जा सकता।
दशानन को अपने भवन के साथ अकेले ही अपनी लंका नगरी लौटना पड़ा।

दशानन की भक्ति उसे ईश्वर के समीप ले गई और अभिमान उसे ईश्वर से दूर कर गया। उसकी अपार भक्ति में वह यह भूल गया कि ईश्वर को बंधन में बांधना संभव नहीं। उनकी कृपा उनके समीप रहने वालों के लिए नहीं पर उनकी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करने वालों पर रहती है।

रामायण में जिस रावण की सोने की लंका का वर्णन है वह सोने की लंका रावण अर्थात दशानन ने अपने अभिमान से निर्मित की थी। हनुमान स्वरूप में ईश्वर ने सोने की लंका को अपने पूंछ में लगी अग्नि से जलाकर भस्म कर दिया। उस लंका के साथ अंत में रावण के अभिमान का भी अंत हुआ।

बहुत बार भक्त अपनी भक्ति पर इतना अभिमान करने लगता है कि उसे अपने आराध्य से अनेक अपेक्षाएं बंध जातीं हैं। वह ईश्वर के वरदान को अपनी सिद्धि नहीं अपना अधिकार मानने लगता है। पर ईश्वर का एक अर्थ है संतुलन। प्रकृति में संतुलन बनाए रखना ईश्वर का ही कार्यक्षेत्र है।

इस बात को आज आपके समक्ष रखने का विशेष प्रयोजन था। पुराणों के अनुसार ईश्वर भक्त से केवल आस्था की अपेक्षा रखते हैं। इससे अधिक भक्त जो भी करने को आतुर रहता है उन प्रयत्नों में ईर्ष्या, अभिमान और अतिशयोक्ति से अधिक कुछ प्राप्त नहीं होता। इन दुर्गुणों से दूर रहकर ही ईश्वर के निकट जाया जा सकता है।

भक्तों की अतिशयोक्ति से प्रकृति में असंतुलन उतपन्न हुआ है और उसके फलश्रुति आज ईश्वर संतुलन प्रक्रिया में लगे हुए हैं।

ईश्वर आपको सुरक्षित रखे और अपनी कृपा आप पर बनाए रखे।