Penkilar in Hindi Women Focused by Dr Vinita Rahurikar books and stories PDF | पेनकिलर

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पेनकिलर

पेनकिलर
“हाय...कैसी है?”
फोन उठाते ही दूसरी तरफ से विद्या का चहकता स्वर सुनाई दिया.
“अरे विद्या तू? कैसी है? कितने दिनों बाद याद आई आज मेरी.” विद्या कि९ आवाज सुनते ही मीता ख़ुशी से चहककर बोली.
“तो तूने ही मुझे इतने दिन कहाँ याद किया मेरी जान.” कहते हुए विद्या जोर से ठहाका लगाकर हँस दी “अच्छा ये गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड वाली शिकवे-शिकायतों की बातें छोड़ ये बता आज घर पर ही है न, कहीं जा तो नहीं रही है?”
“नहीं कहीं नहीं जा रही घर पर ही हूँ.” मीता ने कहा.
“ठीक है तो सुबह दस बजे का डॉक्टर के यहाँ का अपोइंटमेंट है तेरे घर के उधर ही है तो सोचा आज तुझे भी मिल लूँ. साढ़े ग्यारह बजे तक फ्री होकर तेरे घर आती हूँ बाय.”
इससे पहले कि मीता विद्या से पूछ पाती कि उसे क्या हुआ है, वह डॉक्टर के यहाँ क्यों जा रही है, विद्या ने फोन काट दिया. मीता भी जल्दी-जल्दी अपना काम खत्म करने में लग गयी ताकि विद्या के आने से पहले फ्री हो जाये और फिर उसके साथ जरा देर चैन से बैठ पाए. मीता जब किराये के मकान में रहती थी तब विद्या उसकी पडौसन थी. हँसमुख और मददशील स्वभाव की विद्या के साथ जल्दी ही मीता की गहरी दोस्ती हो गयी थी. तीन साल मीता उस मकान में रही. इन तीन सालों में वह और विद्या एकदूसरे के साथ बहुत आत्मीय हो गये थे. हर सुख-दुःख, बाहर आना-जाना, फिल्मे देखना, शोपिंग करना. कितने सुखद दिन थे वे. फिर मीता अपने घर में शिफ्ट हो गयी.
ठीक पौने बाढ़ बजे विद्या आ गयी. मीता तो काम से फुर्सत होकर बैचेनी से उसकी राह देख ही रही थी. आते ही दोनों सखियाँ आत्मीयता से गले मिलीं.
“पहले तू बता डॉक्टर के यहाँ क्यों गयी थी? सब ठीक तो है? क्या हुआ तुझे?” मीता ने चिंतित स्वर में पूछा.
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“अरे कुछ नहीं बाबा. दांत में दर्द था तो रूट केनाल ट्रीटमेंट करवाया था. आज ड्रेसिंग करवाने आना था तो सोचा तुझसे मिल लूँ इसी बहाने. वैसे तो घर छोडकर न तेरा आना हो पाता है न मेरा.” विद्या सोफे पर बैठते हुए बोली.
“अच्छा किया तूने जो चली आई. कम से कम मिलना तो हुआ. एक समय था कि सुबह, दोपहर, शाम जब मन होता पहुँच जाते थे एकदूसरे के पास और कहाँ अब दो-ढाई साल हो गये मिले हुए.” मीता भी सामने वाले सोफे पर बैठते हुए बोली.
“और बता क्या चल रहा है आजकल?” विद्या ने पूछा और फिर बातों का सिलसिला शुरू हो गया. दुनिया जहान की बातों का सिलसिला जो न जाने कब की नई पुरानी यादों को कुरेदती रही. लेकिन विद्या देख रही थी कि मीता बहुत धीमी आवाज में बातें कर रही थी और खास तौर पर हँसते हुए वह बहुत ही असहज हो जाती और आवाज और भी धीमी कर लेती. विद्या के अनुसार तो घर में कोई भी नहीं था. बच्चे दोनों स्कूल जा चुके थे और मीता के पीटीआई ऑफिस में. तब मीता इतनी असहज क्यों है? आखिरकार विद्या से रहा नहीं गया तो उसने पूछ ही लिया.
“क्या बात है मीता कुछ परेशान सी हो. सब ठीक तो है?” विद्या ने पूछा.
“नहीं यार ऐसी कोई बात नहीं है. ल्रेकिन वर्षा उपर वाले कमरे में बैठी है इसलिए और कुछ नहीं.” मीता दबी आवाज में बोली.
“अरे वाह वर्षा आई हुई है और तूने मुझे बताया भी नहीं. बुला न उसे. उपर क्या कर रही है. नहाने गयी है क्या?” विद्या ने चहककर एक के बाद एक ढेर सारे प्रश्न पूछ डाले.
“आई हुई नहीं है यार वो तो शादी के तीन-चार महीने बाद से यहीं है.” मीता ने उदास स्वर में उत्तर दिया.
“यहीं है? लेकिन क्यों?” किसी बुरी आशंका से विद्या का कलेजा धड़क गया. वर्षा मीता की लाडली इकलौती ननद है. दो साल पहले ही बहुत धूमधाम से मीता और उसके पति ने उसका विवाह किया था. कितना ठाटबाट किया था शादी में, लोग वाह-वाह कर उठे थे. देखभाल कर बहुत अच्छे घर में दिया था उसे. लड़का भी हर तरह से गुणी था. फिर अचानक .....
“कुछ नहीं रे वही इश्क का चक्कर. जल्दी ही वर्षा को पता चल गया था कि कार्तिक का
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विवाह के बहुत पहले से ही अपनी कम्पनी में काम करने वाली एक विवाहित महिला से अफेयर है. वह दो बच्चों की माँ है, अपने पति से तलाक लेकर कार्तिक से शादी तो नही कर रही पर उसे छोड़ भी नहीं रही. कार्तिक भावनात्मक रूप से उस औरत के साथ इतनी गहराई से जुड़ा हुआ था कि किसी भी तरह से न तो वह वर्षा से सामंजस्य बिठा पा रहा था और न ही उसे स्वीकार कर पा रहा था. माँ-बाप के दबाव में आकर उसने वर्षा को उस घर की बहु तो बना दिया लेकिन अपनी पत्नी नही बना पाया. बेचारी वर्षा तो अंदर तक इतनी टूट गयी कि स्तब्ध सी रह गयी. सबके समझाने, धमकाने, मिन्नत करने किसी का भी उन दोनों पर असर नहीं हुआ. सबके सामने कार्तिक और वो औरत अपने रिश्ते से साफ मुकर जाते. वर्षा पूरी उम्र भर तो किसी की बहु बनकर नहीं रह सकती थी न. आखिर उस बेचारी के भी कुछ अरमान, उमंगे थीं अपने पति से. लेकिन सब ख़ाक हो गया. आखिर फैमिली कोर्ट में चुपचाप आपसी सहमती से तलाक दिलवाया और वर्षा को हम घर ले आये.” अरुमिता ने संक्षेप में बताया “बस तबसे डेढ़ साल हो गया वह बेचारी इतनी मानसिक त्रासदियों से गुजरी है कि जीवन से ही निराश हो गयी है. बस रात-दिन चुपचाप पड़ी रहती है. लोग पूछने न लगें इसलिए अपने आपको घर में ही कैद करके रख लिया है उसने. कहीं बाहर नहीं निकलती, किसी से मिलती-जुलती नहीं. उसके दुःख से दुखी होकर हम भी कहीं आ-जा नहीं पाते. उसके उदास निराश चेहरे को देखकर मन ही नहीं करता. न बाहर जाने का, न तीज-त्यौहार मनाने का. एक इन्सान की गलती की वजह से कितनी जिंदगियों में वीरानी फ़ैल गयी. पुरे घर में हर समय एक नकारात्मकता, एक मनहूसियत छाई रहती है. समझ नहीं आता इस स्थिति से कैसे बाहर निकले. हर समय घर में घुटन भरा माहौल रहता है. बच्चे भी सहमें-सहमें से रहते हैं.”
विद्या देख रही थी अरुमिता के चेहरे पर उदासी और घुटन की घनी छाया तैर रही थी. विद्या के आने से कुछ समय के लिए अरुमिता के मन से वह छाया लुप्त जरुर हो गयी थी लेकिन अतीत की बात आते ही फिर से घनी होकर चेहरे पर छा गयी. विद्या की गहन बुद्धि स्थिति की गम्भीरता को समझ गयी. ऐसी हताशा से उबरना और दुसरे को उबारना कितना मुश्किल होता है वह समझती थी. पाँच मिनट तक दोनों के बीच मौन पसरा रहा फिर विद्या ने ही सवाल किया-
“वर्षा की दूसरी शादी करने का नहीं सोचा? तलाक तो हो ही चुका है.”
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“वह शादी और पुरुष के नाम से ही इतनी विरक्त हो चुकी है कि इस बारे में सोचना भी नहीं चाहती. बहुत कोशिशें की मगर वह डिप्रेशन से ग्रस्त हो चुकी है क्या करें....” अरुमिता की आँखें डबडबा आईं.
विद्या समझ रही थी कि वर्षा के हालातों का असर न सिर्फ घर पर बल्कि अरुमिता के दाम्पत्य पर भी पड़ रहा होगा. वह और आरुष शायद पिछले डेढ़ साल से फिल्म देखने या घूमने भी नहीं जा पाए होंगे. घर में भी खुलकर बातें या हँसी-मजाक नहीं कर पाते होंगे.
“इस बिमारी का ईलाज तो तुझे ही करना होगा. वर्षा की बिमारी को कब तक तुम सब भुगतते रहोगे.” विद्या ने सहानुभूति से कहा.
“ये तो ऐसा दर्द है की जो उम्र भर के लिए ही मिल गया लगता है. कुछ समझ ही नहीं आ रहा है कि वर्षा को इस दर्द से कैसे उबारें.” अरुमिता दुखी स्वर में बोली.
“डॉक्टर नब्ज देखता है, बिमारी पहचानता है और फिर ईलाज भी करता है. बिना ईलाज किये छोड़ नहीं देता.
इसी तरह जीवन में भी दर्द और समस्याएँ होती हैं, सिर्फ सहते रहने से ही बात नहीं बनती, उन्हें दूर तो करना ही पड़ता है, समय रहते ईलाज करना पड़ता है. शरीर के दर्द में डॉक्टर पेनकिलर गोलियाँ देता है. दर्द बहुत ज्यादा हो तो इंजेक्शन लगाता है. मन के दर्द में हमें ही एकदूसरे के लिए पेनकिलर का काम करना पड़ता है राहत देने के लिए. तुम भी वर्षा के लिए पेनकिलर बन जाओ, चाहे शुरू में थोड़ी कडवी ही लगे लेकिन तभी वह दर्द से बाहर आ सकेगी.” विद्या ने उसे समझाया.
अरुमिता सोच में डूबी बैठी रही. सचमुच वर्षा का दर्द तो कम नहीं हुआ उलटे वो सब एक बोझिल दर्द के नीचे दबकर छटपटा रहे हैं. वो, आरुष, बच्चे, सब.
“चल अब फटाफट तीन कप चाय बना उपर वर्षा के साथ बैठकर चाय पीते हैं.” विद्या ने सर झटककर मानों वातावरण में व्याप्त तनाव को दूर करना चाहा.
“लेकिन वर्षा तो किसी से मिलना ही नहीं चाहती. बहुत असहज सी हो जाती है किसी को भी देखते ही.” अरुमिता शंकित स्वर में बोली.
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“थोड़ी देर तक ही असहज रहेगी फिर अपने आप सहज हो जाएगी तू मुझपर विश्वास तो रख.” विद्या मुस्कुराते हुए बोली.
अरुमिता एक ट्रे में चाय-बिस्किट ले आई और दोनों उपर वर्षा के कमरे में आ गयीं. विद्या ने देखा वर्षा खिड़की के बाहर शून्य में न जाने कहाँ देख रही थी. किसी के आने का आभास होते ही उसने दरवाजे की तरफ देखा. अरुमिता के साथ विद्या को आया देख उसके चेहरे का रँग उड़ गया. उसे लगा कि उसके बारे में सुनकर वह उससे सहानुभूति जताएगी, उसे बेचारी की दृष्टि से देखेगी फिर उसके घाव हरे हो जाएँगे.
वर्षा का हताश, पीड़ा से भरा चेहरा देखकर विद्या का दिल पसीज गया. लेकिन अभी समय खुद दर्द में डूबने का नहीं वरन वर्षा को दर्द से बाहर निकलने का है. विद्या ने चाय पीते हुए पुरानी बातें करना शुरू कर दिया. कॉलेज, पुराने मुहल्ले, बाहर घुमने-फिरने के दिनों की मस्ती भरी यादें. विद्या देख रही थी वर्षा के चेहरे से असहजता के भाव धीरे-धीरे दूर हो रहे हैं, वह सामान्य हो रही है. पन्द्रह-बीस मिनट बाद ही जब वर्षा को यकीन हो गया कि विद्या उसके घाव कुरेदकर उसे दर्द देने नहीं आई है तो उसके चेहरे पर राहत के भाव आ गये और वह सामान्य होकर कभी मुस्कुरा देती कभी एखाद शब्द बोल देती. अरुमिता के चेहरे से भी तनाव की परतें छटने लगी. करीब एक घंटे तक सामान्य हल्की-फुलकी बातें करने के बाद अचानक विद्या बोली-
“आज मैं डेंटिस्ट के यहाँ गयी थी. बहुत दिनों से एक दाढ़ में दर्द हो रहा था, असहनीय दर्द. उस दर्द की वजह से सर, गर्दन, जबड़े सबकुछ दर्द करने लगा था. यहाँ तक कि बुखार जैसा रहने लगा था. बहुत परेशान हो गयी थी. एक छोटी सी दाढ़ ने पूरे शरीर को त्रस्त कर दिया था. शरीर ही क्यों पूरी दिनचर्या, जीवन सबकुछ अस्त-व्यस्त हो गया था. आखिर डॉक्टर ने रूट केनाल ट्रीटमेंट करके सड़ी हुई नर्व को निकाल दिया. इंजेक्शन लगे, ट्रीटमेंट में और ड्रेसिंग करवाने में थोड़ी तकलीफ हुई, समय भी लगा लेकिन अब चैन मिला है, दर्द भी खत्म हो गया. अब जीवन, दिनचर्या सबकुछ ठीक हो गया.”
वर्षा और अरुमिता आश्चर्य से उसकी तरफ देखने लगी. अचानक ही ये क्या बात छेड़ दी विद्या ने. दोनों कुछ समझ पाती इसके पहले ही विद्या ने एक अजीब सवाल कर दिया वर्षा से-
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“अच्छा बताओ वर्षा मैंने सड़ी हुई नर्व निकलवाकर ठीक किया या नहीं. या मुझे उम्र भर वो दर्द सहते रहना चाहिए था. अपना जीवन उसी दर्द के साथ सहते हुए घर-परिवार सबकुछ अस्त-व्यस्त कर देना चाहिए था?”
वर्षा एकदम से अचकचा गयी कि इस सवाल का क्या तुक है, फिर भी उसने अपने आपको सम्भालकर जवाब दिया-
“न...नहीं दीदी किसी भी दर्द को क्यों सहना. आपने ठीक ही किया कि उसका ईलाज करवाकर दर्द से निजात पा ली. यही तो करना चाहिए.”
“तो बस फिर वर्षा, कार्तिक भी तुम्हारी वही सड़ी हुई नर्व है जिसकी वजह से तुम्हारा पूरा जीवन दर्द से भरता जा रहा है और अस्त-व्यस्त हो रहा है. समय रहते उसे अपने जीवन से उखाड़ फैंको. थोडा दर्द जरुर होगा, लेकिन आगे का पूरा जीवन दर्दरहित और सुखमय गुजरेगा. तुम्हारा भी और दूसरों का भी. वरना कीड़ा एक दांत के बाद दूसरे दांतों को भी धीरे-धीरे खराब करता जायेगा, वे भी बेवजह दर्द और सडन के शिकार हो जाएँगे. तुम समझ रही हो न मैं क्या कहना चाह रही हूँ?” विद्या ने वर्षा के हाथ पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा.
“हाँ दीदी मैं समझ रही हूँ आप क्या कहना चाह रही हो.” वर्षा कांपते स्वर में बोली.
विद्या ने अपनी घड़ी देखी “अरे बाप रे ढाई बज गये. बातों में समय कब कट गया पता ही नहीं चला. बच्चों के घर आने का समय हो गया है. मैं चलती हूँ.”
अचानक वर्षा ने विद्या का हाथ पकड़ लिया “फिर कब आओगी दीदी?”
अरुमिता सुखद आश्चर्य से भर गयी. आज तक वर्षा सबसे कतराती रही है. उसे किसी से भी मिलने में डर लगता था और आज वह खुद विद्या से आग्रह कर रही है आने के लिए.
“मैं बहुत जल्दी आऊँगी.” विद्या मुस्कुराकर बोली “याद रखना वर्षा डर तुम पर तब तक ही हावी रहता है जब तक तुम उससे भागते रहते हो. जिस दिन तुम तनकर उसका सामना करने खड़े हो जाते हो वह उसी पल खत्म हो जाता है. मेरी बात पर थोडा सोचना.”
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विद्या फिर आने का वादा करके चली गयी. महीनों बाद वर्षा अपने कमरे से बाहर आँगन तक उठकर आई विद्या को विदा करने. अरुमिता देख रही थी कुछ मिनटों में ही वर्षा के चेहरे पर हल्की सी रंगत आ गयी है. उस दिन वर्षा ने बच्चों से हँसकर बातें की, उनको होमवर्क करवाया और रात के खाने की तैयारी में अरुमिता की मदद की.
दूसरे दिन स्कूल जाते हुए अरुमिता की बेटी विशु ने उसे फिर टोका-
“माँ आज मेरे सॉफ्ट ट्वॉय जरुर धो देना प्लीज.”
“हाँ बेटा आज धो दूँगी.”
बच्चों को स्कूल और पति को ऑफिस भेजने के बाद अरुमिता ने घर के बाकी काम निपटाए. वर्षा की मदद से उसके काम भी आज जल्दी ही हो गये. तब उसे याद आया कि बच्चों के सॉफ्ट ट्वॉय धोने हैं. वह बच्चों के कमरे में गयी और अलमारी से खिलौने निकालने लगी. तितली, कछुआ, गिलहरी अलग-अलग तरह के टेडी बियर. उसे याद आया इनमें से अधिकांश खिलौने तो वर्षा ने बनाये थे बच्चों के लिए. वर्षा खुद ही खिलौनों के पेटर्न और डिजायन बनाती. फिर बाज़ार से खिलौनों के हिसाब से फर, चाइना फर, एक्रिलिक क्लोथ, आँखे, नाक आदि खरीदती और खिलौने बनाती. उसकी बनाई तितली तो इतनी सुंदर और प्यारी थी कि बहुत से लोगों ने अपने बच्चों के लिए बनवाई थी उससे. वर्षा के हाथ में इतनी सफाई थी कि खिलौने बिलकुल रेडीमेड लगते. अरुमिता ने खिलौने धो कर सूखने रख दिए और अलमारी में कुछ ढूँढने लगी. जल्दी ही उसे खिलौने बनाने के फर और अन्य सामान की थैली मिल गयी. मन ही मन कुछ सोचकर वह मुस्कुरा दी.
शाम को उसने विशु और बेटे विभु को कुछ सिखा-पढाकर वर्षा के पास भेजा. बच्चे खिलौने लेकर वर्ष के पास गये.
“बुआ आप पहले हमारे लिए कितने सुंदर-सुंदर खिलौने बनाती थीं. अब भी बनाइए न. ये तितली पुरानी हो गयी है. मेरे लिए नई रँग-बिरँगी तितली बना दो न प्लीज.” विशु ने मनुहार से कहा.
“और बुआ दीदी के लिए तो आपने कितने सारे खिलौने बनाये थे. मेरे लिए एक भी नहीं. मुझे भी चश्मे वाला टेडी बियर बना दो.” नन्हे विशु ने शिकायत करते हुए कहा.
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“अरे-अरे मेरे राजा बेटा नाराज़ मत हो. मैं तुम्हारे लिए भी ढेर सारे खिलौने बना दूँगी बस.” वर्षा ने विभु को गोद में लेते हुए प्यार से कहा.
अगले दिन वर्षा ने भी अलमारी खंगाली. अरुमिता ने तो थैली पहले ही ढूँढ रखी थी. जल्दी ही मिल गयी. वर्षा ने उसमें से सामान निकालकर टेडी बनाना शुरू किया. लेकिन टेडी के लिए चश्मा नहीं था. वर्षा ने छोटा सा टेडी बना दिया और एक रँग-बिरँगी तितली भी. जब विशु और विभु स्कूल से वापस आये तो खिलौने देखकर बहुत खुश हुए. लेकिन विभु जिद पर अड़ा रहा कि उसे टेडी के लिए चश्मा चाहिए.
“ठीक है बेटू कल बाज़ार से ले आऊँगी जाकर.” वर्षा ने कहा.
“तो मेरे लिए बड़ी वाली गिलहरी का सामान भी ले आना.” विशु ने झट अपनी फरमाइश रख दी.
काम निपटने के बाद वर्षा ने अरुमिता से बाज़ार चलने को कहा तो वह ख़ुशी से खिल गयी. तुरंत ही उसने विद्या को भी बाज़ार पहुँचने को कहा. सालों बाद तीनों उन्मुक्त पंछी सी बाज़ार पहुँची और उस दुकान पर गयीं जहाँ से वर्षा चार बरस पहले तक खिलौने बनाने का सामान लेती थी. शादी की खरीददारी करने आई वर्षा अब ढाई-तीन साल बाद बाज़ार आई थी. कोर्ट-कचहरी के बाद उसने आज जाकर बाहर की दुनिया का मुँह देखा था. दुकान एक बुजुर्ग अंकल की थी. वर्षा हमेशा उन्ही से सामान लेती थी. वो अंकल वर्षा को बहुत अच्छे से पहचानते थे. लेकिन आज अंकल की जगह एक युवक दुकान पर था. पता चला अंकल की तबियत ठीक नहीं थी तो उनका बेटा आज दुकान पर बैठा है. वर्षा ने टेडी के नाप का फर और गिलहरी का फर खरीदा. युवक को वर्षा के बनाये टेडी का डिजाइन बहुत पसंद आया. उसने वर्षा से पूछा की यदि वह ज्यादा मात्रा में खिलौने बना सकती है तो वह अपनी दुकान में सॉफ्ट टॉय की बिक्री का काउंटर शुरू करना चाहता है. वर्षा कुछ कहती इससे पहले ही विद्या ने हाँ कह दिया. युवक ने कन्सेशन रेट पर विभिन्न प्रकार का फर और एसेसरिज दे दिए.
अब तो वर्षा का भी मन लग गया. रूट-केनाल ट्रीटमेंट तो विद्या की बातों से उसी दिन हो चुका था. कार्तिक नाम की सड़ी हुई नर्व वह निकालकर फैंक चुकी थी. अरुमिता सतत उसके लिए पेनकिलर का काम कर रही थी. आरुष भी बहुत खुश थे अपनी बहन को सामान्य होता
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देखकर, वर्षा घर के कामों में हाथ बंटाकर फिर खिलौने बनाने बैठ जाती. दोपहर को अरुमिता भी उसके साथ फर की कटिंग या सिलाई कर देती. कभी विद्या भी आ बैठती. फिर तीनों की खिलखिलाहटों से घर खिलने लगा. वर्षा फिर से विभु और विशु को पढाने लग गयी थी. बच्चे भी खुश थे. महीने भर में ही उसने पर्याप्त खिलौने बना लिए. एक दिन तीनों मार्केट में जाकर खिलौने दिकान पर दे आई और नया फर ले आई. अब तो अक्सर ही वर्षा, अरुमिता और विद्या का मार्केट में फेरा लगने लगा. छह-आठ महीने बीत गये. वर्षा के बनाये खिलौने लोगों को खूब पसंद आ रहे थे. खूब बिक रहे थे. वर्षा भी खूब व्यस्त रहने लगी थी. इधर कुछ दिनों से विद्या देख रही थी कि दूकान वाला नवयुवक नितिन उन्हें आने के लिए दिन और समय खुद देता था ताकि उस समय वह खुद दुकान पर उपस्थित रह सके. फर और अन्य सामान दिखाने में और बातें करने में काफी समय उन लोगों के साथ बिताता. स्पष्ट था वह वर्षा को पसंद करने लगा था. उसके नम्र और सभ्य स्वाभाव ने उन तीनों को भी प्रभावित किया ही था. विद्या ने अरुमिता को इशारा किया तो वह मुस्कुराकर फुसफुसाई-
“ईश्वर करे ऐसा ही हो. लेकिन वर्षा के बारे में जानने के बाद क्या वह...?”
विद्या उसे खींचकर दूकान से बाहर ले आई-“उसे वर्षा के बारे में सब पता है. एक दिन किसी काम से मैं अकेली ही मार्केट आई थी तो नितिन से मुलाक़ात हो गयी थी तभी वर्षा के बारे में बात हुई. वह वर्षा को बहुत पसंद करता है, अच्छा लड़का है. शादी करना चाहता है उससे.”
“सच? ईश्वर करे वर्षा मान जाए.” अरुमिता का गला ख़ुशी के मारे रुंध गया.
दोनों ने वर्षा और नितिन की ओर देखा. दोनों एकदूसरे में खोये थे. वर्षा के चेहरे पर एक सलज्ज अरुणिम आभा छाई हुई थी, आँखों में नितिन के प्रति स्वीकृति के स्पष्ट भाव थे.
“बधाई हो! पेनकिलर ने अपना काम कर दिया. सारे दर्द दूर करके जीवन को फिर से स्वस्थ कर दिया.” विद्या ने कहा और दोनों ईश्वर का धन्यवाद करती हुई ख़ुशी से मुस्कुरा दी.