भूख
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आज पिताजी का श्राद्ध है, हर साल की तरह हम अनाथालय में भोजन प्रायोजित करना चाहते थे लेकिन शायद इस बार बुकिंग कराने में देर हो गयी थी और जो तारीख हम चाहते थे उस दिन किसी और ने खाना बुक करा दिया। मेरी आँखों में मायूसी सी छा गयी। पतिदेव से मेरा उतरा हुआ चेहरा देखा नही गया। पति महोदय जेल में जेलर की पोस्ट पर तैनात थे तो उन्होंने भोजन की व्यवस्था अपनी जेल में ही कर दी।
मन अजीब सी स्थिति में था, इस तरह कैदियों से कभी सामना नही हुआ था। गाहे बगाहे जेलर साहेब के मुँह से किस्से जरूर सुनने में आते रहते थे। कभी जेल में आना भी नही हुआ था लेकिन आज समझ नही पा रही थी कि इसे मजबूरी कहूँ या दिवंगत ससुर जी के प्रति मन में श्रधा कि जेल में चली आयी।
खाना यहीं बना था हमने उस दिन का भुगतान जमा करा दिया था। अब बस परोसने के लिए वक़्त की प्रतीक्षा कर रही थी। इधर उधर घूमकर मेरी नज़र एक महिला पर स्थिर हो चुकी थी।
खाने का वक़्त हो चला था, रह रहकर उसकी नज़र रसोई की तरफ घूम जाती।
सभी को पंक्ति में बैठाया जा चुका था। वार्डन थालियां बाटने आ रही थी।
वार्डन के हाथों में खाने की थाली देखते ही वह थोड़ी रुआसीं सी हो गयी।
थाली को पकड़ते हुए उसकी आंखों में चमक तेज हुई और साथ ही धीरे धीरे आंसू टपकने लगे थे।
एक हाथ उसके कंधे पर टिकाकर वार्डन ने दिलासा देने की कोशिश की।
मगर वह बुरी तरह फूट पड़ी।
"मेरा कोई नही इस जहाँ में"- बड़ी बड़ी आँखों में कातर भाव थे। वह लगातार बड़बड़ाती जा रही थी।
"कोई तो आपका अपना होगा" - वार्डन ने शायद जानते हुए भी सवाल दाग दिया क्योकिं कारण जानने की जिज्ञासा वार्डन के चेहरे पर नही थी।
मुझे लगा यह वार्डन नही मैन सवाल किया है।
हाँ, थे न, दो बच्चे मेरे !
पति तो उनके पैदा होते ही छोड़कर भाग गया था।
घर में खाना नही था, बहुत शोर मचाते थे दोनों।
भूख की वजह से उनका बिलखना बर्दाश्त नही होता था।
अपने इन्ही हाथों से , हाँ देखो इन्ही हाथों से पंखे पर लटका दिया दोनो को।
और..और..और..
वह हिचकियाँ लेती हुई मुश्किल से बोल पा रही थी।
मैं खुद लटकने की हिम्मत न कर पाई मैं और भाग आयी अपना देश छोड़कर।
कायर हूँ मैं,
हाँ कायर हूँ।
काश मैं भी हिम्मत कर पाती!
काश कोई मुझे भी मार देता!
कहने के बाद एकदम से ही जन्म जन्मांतर के भूखे की तरह वह बेतरतीब सी खाने पर टूट पड़ी।
बहुत जल्दी जल्दी उसने खाना खत्म किया और थाली जमीन पर रख दी।
अगले ही पल उसके चेहरे पर तृप्त मुस्कान उभर आई।
मैं दूर खड़ी सब सुनकर अंडरतक हिल गयी।
"क्या हक़ था तुम्हे दोनो की जान लेने का" - दूर खड़ी मैं चीखना चाहती थी लेकिन नही चीख पाई, ना जाने क्यों आवाज़ गले में घुटकर रह गयी ?
वो दया की पात्र थी या घृणा की?
मन वितृष्णा से भर उठा।
उस पर पुनः नजर डाली तो वह मुस्कुराते हुए वार्डन की बांह पकड़ रही थी।
उसने कहा - " उनके जाने के बाद भूख बहुत बढ़ गयी। लगता है उनके हिस्से का खाना भी...
विनय...दिल से बस यूं ही