Chand ke paar ek Chabi - 7 in Hindi Moral Stories by Avadhesh Preet books and stories PDF | चाँद के पार एक चाबी - 7

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चाँद के पार एक चाबी - 7

चांद के पार एक कहानी

अवधेश प्रीत

7

पिन्टू की इच्छा हुई, पूछे, ‘देर न होती तो कुछ देर और रुकती क्या?’

तारा कुमारी जा चुकी थी। प्रश्न प्रश्न ही रह गया था।

खुद से प्रश्न करते, खुद ही उत्तर देते पिन्टू का मन किसी काम में नहीं लग रहा था। यहां तक कि कोई किताब उठाने की भी इच्छा नहीं हो रही थी। बस दो दूनी चार आंखें, आंखों में तिर-तिर जातीं और वह आंखें मूंदकर उस सिहरन को महसूस करता। इसी मनःस्थिति के बीच ही रजवा की आवाज आयी, ‘भइया हो, मुखिया जी आपको बुला रहे हैं।’

पिन्टू ने अचकचाकर आंखें खोलीं। सामने खड़ा रजवा हांपफ रहा था।

‘क्या हुआ, रे? काहे इतना हांपफ रहा है?’

‘भइया, मुखिया जी का आदमी आपको खोजते टोला में आया था।’ रजवा की सांसंे तेज चल रही थीं। आवाज भी उतनी ही तेज थी, ‘आप नहीं मिले, तो हमको बुलाने के लिए भेजा है। जल्दी चलिए।’

पिन्टू को कुछ समझ नहीं आया। मुखिया जी काहे बुलाये हैं? ऐसा क्या अरजेंट काम आ गया? किराया तो बाकी ना है, पिफर मुखिया जी हमको काहे खोज रहे हैं?

जो भी हो, जाना तो पड़ेगा ही। मन मारकर दुकान बंद किया। ताला लगाकर रजवा के साथ चल पड़ा।

रमेश बाबा और नेटवर्क गायब

मुखिया दिगंबर मिश्रा की दुआरी पर भीड़ जमा थी। वहां मौजूद बेकली किसी अनहोनी की तस्दीक कर रही थी। वातावरण में इस कदर तनाव व्याप्त था कि पिन्टू का दिल जोर-जोर से ध्ड़कने लगा। उसे यहां क्यों तलब किया गया है? कहीं तारा कुमारी से उसे बतियाते किसी ने देख तो नहीं लिया ? इस आशंका के साथ ही उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। वह कठुआया-सा जहां का तहां थम गया था।

उस पर नजर पड़ते ही भीड़ में मरमरी उठी। एक साथ कई जोड़ी आंखें उसपर आ टिकीं। उन आंखों के बीच से बगैर किसी भूमिका के मुखिया दिगंबर मिश्रा का सवाल सीध्े उसके सीने पर ध्क्क से आकर लगा,‘अरे पिन्टुआ, तोरा तो जरूर पता होगा कि रमेश पांडे कहां लुकाया है?’

सवाल रमेश पांडे से जुड़ा है, यह जानकर पिन्टू की जान में जान लौटी। भीड़ उसकी तरपफ देख रही थी। उसने खुद को संयतकर जवाब दिया, ‘ना! हमको कुछ ना पता है,मुखिया जी।’

‘झूठ बोल रहा है, मुखिया जी, झूठ।’ भीड़ के बीच बैठा बौखलाया-सा रामधरी पासी चीखा। यह राजकुमारी पासिन का बाप था। उसके मुंह से झाग निकल रहा था, ‘दिन-रात इसी के साथ बैठते थे रमेश बाबा । इसको सब पता है। चार जूता मारिए सब बक देगा।’

‘इसको जूता काहे मारिएगा, भाई? तुमरी बेटी भागी है रमेश पांडे के साथ, तो इसमें इसकी क्या गलती है?’ यह विशंभर मिश्रा थे। उनका चेहरा तमतमा रहा था। वह एकबारगी हत्थे से ही उखड पड़ेे थे, ‘बाभनटोली को नास के रख दी तुमरी बेटी और सान रहे हो सगरे गांव को?’

पिन्टू सन्न। विशंभर मिश्रा उसका पक्ष ले रहे हैं, सहसा उसे विश्वास नहीं हुआ ।आज सूरज पश्चिम से उगा क्या? सामने जो सुन-देख रहा था, उसे झुठलाये भी तो कैसे? कहीं विशंभर मिश्रा की चाल तो नहीं है, मुखिया दिगंबर मिश्रा के खिलापफ? इस खयाल के साथ ही पिन्टू असहज हो आया।

‘सुनिए, जो हुआ, गलत हुआ । इससे गांव की नाक कटी है। दोनो मिल जाये, इसके बाद ही सब हिसाब होगा।’ मामला बेहाथ होते देख मुखिया दिगंबर मिश्रा लगे हाथ अपने गोतिया विशंभर मिश्रा की काट पर उतर आयेे, ‘अभी तो रजकुमरिया और रमेश पांडे का अता-पता लगाना जरूरी है।’

लहजा म्ुखिया दिगंबर मिश्रा का जितना ठंडा था, उससे कहीं ज्यादा सुननेवालों का कलेजा दहशत से कांपाा।

चैतरपफा तने सन्नाटे के बीच रमेश पांडे के बाबू जी कैलाश पांडे की मिमियाती-सी आवाज उभरी, ‘ससुरा पासिन के पफेरा में सब ध्रम नास के रख दिया। मिलियो जाय तो भी हमरा लिए रमेसवा मर गया, समझिए।’

‘कोई मरे चाहे, जिये। हमरी बेटी ना मिली तो हम केस करेंगे, केस।’ रामधरी पासी तड़प उठा। उसने पूरी पंचायत को खुली चुनौती दे डाली थी।

सभा क्षणभर को सनाके में आ गई। लेकिन अगले ही क्षण विशंभर मिश्रा अगिया बैताल-सा गरज पड़े, ‘स्साला पासी, बेटी से ताड़ी बेचवाता था, तब ना कुछ सोचा। अब केस-मुकदमा बतियाता है। हम लोग क्या यहां चूड़ी पहिनके बैठे हैं, रे मादर...!’

इससे पहले कि स्थिति बिगड़े मुखिया दिगंबर मिश्रा झटके से उठ खड़े हुए। झटका इतना तेज था कि उनकी कुर्सी डगमगाती हुई पीछे जा गिरी, जिसे लपककर उनके बराहिल ने उठाया। मुखिया दिगंबर मिश्रा का दीप्त गोरा चेहरा लाल भभूका हो आया था। उन्होंने निहायत आक्रामक स्वर में रामधरी पासी को आड़े हाथों लिया, ‘तोरा जब केस ही करना है, तो जा थाना। यहां पंचायत करने की क्या जरूरत है? लेकिन एक बात कान खोल के सुन ले। पंचायत के बाहर जो जायेगा, उसको गांव में वास ना मिलेगा।’

यह न घोषणा थी, न ध्मकी। सीध पफैसला था। पूरी सभा को सांप सूंघ गया ।

अचानक इस सन्नाटे को तार-तार करती पिन्टू के मोबाइल की घंटी बज उठी। तमाम आंखें उसकी तरपफ आ लगीं। घंटी लगातार बज रही थी। उसने निरुपाय-सा स्क्रीन पर चमकता नाम देखा-रमेश पांडे। उसका चेहरा पफक पड़ गया । दिल डूबने लगा। बेचैनी से इध्र-उध्र देखा। सभी की आंखें उसी पर लगी थीं। उसकी समझ में कुछ नहीं आया । काॅल रिसीव करने के अलावा और कोई उपाय नहीं था उसके पास । अकबकाहट में रिसीव बटन दबा दिया।

‘हल्लो, बाबा, कहां हैं आप?’

दूसरी ओर से कोई जवाब नहीं मिला।

‘हल्लो... हल्लो, रमेश बाबा, कहां हैं आप?’ पिन्टू व्यग्रता में पूछता चला जा रहा था। लेकिन दूसरी ओर से कोई आवाज नहीं आ रही थी। बेबसी में मोबाइल को घूरा। नेटवर्क जवाब दे गया था।

हताश पिन्टू, सपफाई देने की गरज से, स्वगत-सा बोल पड़ा, ‘रमेश बाबा का पफोन था। बात ना हो पाई। नेटवर्क गायब हो गया।’

‘पता कर... पता कर। कौन बिल में लुकाया है कुलबोरन, पता लगाना जरूरी है।’ मुखिया दिगंबर मिश्रा ने आदेश के साथ ही उसे खुलेआम ध्रिाया, ‘पता ना चला, तो बूझ जा, तुमरा भी खैर ना है। स्साला, तोरा दुकान पर क्या-क्या खेला होता है, हमको सब पता है।’

पिन्टू का जिस्म कांप गया। एक साथ कई आशंकाओं ने सिर उठाया और उसे सापफ महसूस हुआ कि वह एकबारगी तमाम शत्राु-आंखों के निशाने पर है।

विशंभर मिश्रा ने मुखिया दिगंबर मिश्रा की ओर मुखातिब हो जैसे आजिजी में जानना चाहा, ‘तब क्या करना है?’

‘करना क्या है? दोनों जहां मिले पकड़कर लाना है।’ मुखिया दिगंबर मिश्रा ने सबको उनका आदेश सापफ सुनाई पड़े इस अंदाज में दो टूक एलान किया, ‘तब तक रामधरी पासी और कैलाश पांडे का हुक्का-पानी बंद।’

सभा में सहमति के सारेे सिर हिले । नीति-अनीति बतियाते लोग धूल झाडते़ उठने लगे। विशंभर मिश्रा भी भीड़ को चीरते हुए तीर की तरह तन्नाते निकले। उनके पीछे भिनभिनाता शोर गाली, गम, गुस्से में लिथड़ने लगा।

प्यार किया तो डरना क्या?

पिन्टू भारी मन, बोझिल पांव, लगभग घिसटता हुआ, कुछ दूर चलकर रुक गया। साथ-साथ लगा रजवा, उसके ठिठकते ही पूछ बैठा, ‘भइया, क्या हुआ? मुखिया जी, क्या बोले?’

मासूम रजवा के चेहरे पर उलझन थी। रजवा को पंच-प्रपंच कुछ नहीं पता। क्या कहे रजवा से?

‘रजवा, तू घर चला जा!’ पिन्टू ने बोझिल मन रजवा को पुचकारा, ‘मन ठीक ना है,बाबू । आज दुकान ना खोलेंगे।’

रजवा कुछ समझा, कुछ नहीं समझा-सा अचकचाया खड़ा था। पिन्टू बगैर उसकी ओर देखे, भुतहा बगइचा की ओर लपक पड़ा। बस एक ही खयाल,गझिन भुतहा बगइचा में आमद-रफ्रत कम रहती है। वहीं किसी ओट में पड़ा रहेगा, तो शायद मन कुछ स्थिर हो।

भुतहा बगइचा में बरगद पेड़ के नीचे गुमसुम पड़े पिन्टू की आंखों में रमेश पांडे और रजकुमरिया के चेहरे उभरते, तो कभी तारा कुमारी की छवि मुस्कराती। मुखिया दिगंबर मिश्रा का ध्रिाना याद आता,तो उनके गोतिया विशंभर मिश्रा का बदला हुआ रूप चकित करता। इन लुकाछिपियों के बीच कब उसकी आंख लग गई कुछ याद नहीं। वह तो मोबाइल की घंटी बजी, तब पता चला कि अंध्ेरा घिर आया है। मोबाइल स्क्रीन पर देखा-रमेश पांडे।

हड़बड़ाकर पफोन कान से सटाया और बौखलाया हुआ बोल पड़ा, ‘हल्लो।’

‘पिन्टुआ, क्या खबर है, रे?’ दूसरी ओर से रमेश पांडे की आवाज आई।

‘खबर क्या पूछते हैं, बाबा? बवाल मचा है, बवाल!’ चारों ओर निगाह दौड़ाते पिन्टू ने भरसक अपने आवेग पर काबू रखने की कोशिश की, ‘बाबा, रजकुमरिया के साथ काहे भागे हैं?’

‘भागते ना तो क्या करते? गांव वाला सब बिआह करे देता?’ रमेश पांडे के स्वर में जिरह करता अपफसोस था।

‘बाबा, आप हैं कहां?’ विकल पिन्टू ने टोह लेने की कोशिश की।

‘पटना में हैं, पिन्टू ।’ रमेश पांडे बिना हिचक के बोले, ‘हम दोनों मंदिर में बिआह कर लिये हैं।’

‘पटना में?’ पटना में कहां हैं, बाबा?’ पिन्टू के भीतर घुमड़ती जिज्ञासा ने सिर उठाया।

कोई उत्तर मिलता, इससे पहले ही नेटवर्क गायब हो गया। पिन्टू ने झल्लाकर मोबाइल स्क्रीन को घूरा और बेबसी में मोबाइल शर्ट की जेब में डालते हुए ठसुआया-सा ठिठका रहा। इस बीच मन में उठती उथल-पुथल के बीच तय किया कि जो हो रमेश पांडे के बारे में जितना जानता है, मुखिया दिगंबर मिश्रा को बता देने में ही भलाई है।

भुतहा बगइचा से मुखिया दिगंबर मिश्रा के घर की दूरी ज्यादा नहीं थी। लेकिन इतनी ही दूरी तय करने में पिन्टू का मन बेतरह आगा-पीछा कर रहा । अभी वह बमुश्किल आध्ी राह में ही था कि मोबाइल पिफर बजा। स्क्रीन पर देखा, तो तारा कुमारी का नंबर नजर आया। कलेजा मुंह को आ लगा। कांपते हाथ से पफोन कान से सटाया, ‘हल्लो।’

‘क्या बात है, आज दुकान बड़ा जल्दी बंद कर दिये?’ तारा कुमारी की आवाज में चिंतानुमा कुछ था।

‘हां!’ पिन्टू बड़ी कठिनाई से बोल पाया।

‘हां। हां क्या?’ तारा कुमारी की झिड़की आई, ‘क्या बात है, बोलते काहे नहीं हैं?’

‘गांव में पंचायत थी। मुखिया जी बुलाये थे।’ दबी जुबान में बोला पिन्टू ।

‘क्या हुआ? कौन बात की पंचायत?’ तारा कुमारी के स्वर में उतावलापन था।

‘रमेश पांडे, रजकुमरिया पासिन के संगे कहीं भाग गये हैं।’ पिन्टू ने हिचकते-हिचकते बताया, ‘इसी बात पर पंचायत थी।’

‘ठीक किया, जो दोनों भाग गया।’ तारा कुमारी के स्वर में गजब की उत्तेजना थी, ‘प्यार किया तो डरना क्या?’

किसी साज के तार से निकली झन्न-झन्न जैसे हवा में तिरने लगी ।

‘हल्लो! चुप काहे हैं?’ तारा कुमारी ने पिन्टू की चुप्पी को लक्ष्य किया, ‘कुछ बोलते काहे नहीं?’

‘जी...जी! आपको सुन रहे हैं।’ पिन्टू ने सपफाई दी।

‘पंचायत में क्या हुआ?’ तारा कुमारी जैसे सब कुछ जानने की उत्सुकता से भरी थी।

‘बहुत बवाल हुआ। सब हमसे रमेश पांडे के बारे में पूछ रहा था। हमको कुछ पता ही नहीं था, हम क्या बताते?’ पिन्टू का मन छलछलाने को हो आया। बड़ी कठिनाई से खुद को जज्ब कर पाया।

‘पता हो, तब भी मत बताइएगा।’ हिदायत-सी देती तारा कुमारी का स्वर अचानक किसी गहरे कुएं से आती प्रतीत हुई, ‘कसाई सब दोनों को कहीं का नहीं छोड़ेगा।’

पिन्टू सिहर गया। हड़बड़ाकर आवाज लगाई, ‘हल्लो...हल्लो! हल्लो!!’

‘बाद में बात करेंगे।’ घबराई हुई-सी जान पड़ी तारा कुमारी । पफोन टक से कट गया था ।

पिन्टू ध्क्क रह गया । मोबाइल को हसरत से देखता जड़ हो गया ।

उस रात पिन्टू की आंखों को नींद छका रही थी। आंखें मूंदते ही रमेश पांडे, रजकुमारिया पासिन और तारा कुमारी की स्मृतियां आवाजाही करती रहीं । बेचैनी से करवटें बदलते रात और नींद के बीच समय कितना सरक गया, कुछ पता ही नहीं चला।

अचानक दरवाजे पर ध्म्म-ध्म्म की आवाज हुई। जब तक कुछ समझ पाता, किसी ने जोर की हांक लगाई, पिन्टुआ। पिन्टुआ है क्या, रे? दरवाजा खोल। खोल दरवाजा।’

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