bulldozer in Hindi Moral Stories by Priyadarshan Parag books and stories PDF | बुलडोज़र

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बुलडोज़र

बुलडोज़र

प्रियदर्शन

कहानी तब शुरू हुई जब सिर्फ सात महीने पहले ली गई गाड़ी ख़राब हो गई। इंजन बिल्कुल रूठा हुआ था- स्टार्ट होने को तैयार नहीं। गाड़ी के सेंसर तक काम नहीं कर रहे थे। दोस्तों को बुला कर धक्के लगवाए, कुछ नहीं हुआ। एक जानकार ने बताया कि दूसरी गाड़ी की बैटरी से तार जोड़ कर इसे स्टार्ट किया जा सकता है। यह कोशिश भी नाकाम रही। इसके बाद कंपनी का मेकैनिक आया। वह भी नाकाम रहा। उसके बाद उसने बताया कि गाड़ी को वर्कशॉप ले जाना होगा।

कहानी में यहीं से आलम भाई दाखिल हुए- एक भारी-भरकम क्रेन लिए हुए। यह अमूमन सड़कों पर दिखने वाली वह क्रेन नहीं थी जिसमें गाड़ियां पीछे बांधकर ले जाई जाती हैं। यह उससे कहीं ज्यादा बड़ी क्रेन थी जिसमें गाड़ी को ऊपर चढ़ाकर ले जाने का इंतजाम था। इसे देखकर मुझे कुछ राहत मिली। क्योंकि यह सोचकर मुझे कुछ अजीब लग रहा था कि मेरी नई गाड़ी इस तरह क्रेन से खींची जाएगी। लेकिन मुझे मालूम नहीं था कि इस गाड़ी को क्रेन पर चढ़ाना भी कितने कौशल का काम है। क्रेन जब रुकी तो उससे दो बड़े-बड़े फट्टे जैसे पीछे निकल आए। वे नीचे जमीन छूते हुए रास्ता सा बना रहे थे। फिर क्रेन से ही एक बड़ी सी ज़ंजीर निकली जो मेरी गाड़ी से बांध दी गई। आलम साहब ने कहा कि मैं अपनी गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर बैठ जाऊं, वे उसे क्रेन से खींचेंगे और मुझे सावधानी से उन फट्टों से गाड़ी को क्रेन पर चढ़ाना होगा।

मेरी तरह के खुद को एक्सपर्ट मानने वाले ड्राइवर के लिए भी यह खासा मुश्किल इम्तिहान साबित हुआ। बंद पड़े इंजन की वजह से कभी मेरी स्टीयरिंग ठीक से काम न करे और कभी मैं घबरा‌ कर ब्रेक लगा दूं। पूरे दस मिनट मुझे गाड़ी को क्रेन पर चढ़ाने में लग गए।

और इन दस मिनटों में आलम साहब लगातार मुझ पर झल्लाते रहे। उन्होंने मेरी समझ, मेरे आत्मविश्वास- सब कुछ पर सवाल खड़ा कर दिया। दफ़्तर की पार्किंग में यह तमाशा देख रहे दूसरे लोग हैरान होते रहे कि एक मामूली सा क्रेन वाला उनके बहुत सख्त, समझदार और गंभीर लगने वाले बॉस की कैसे ऐसी-तैसी कर रहा है। मेरे लिए भी यह सकुचाए रहने की घड़ी थी। इसी दौरान मैंने आलम साहब को ठीक से देखा। वे भले एक मामूली से क्रेन ड्राइवर हों लेकिन अपने काम को लेकर उनके भीतर एक अलग सा गुरूर और आत्मविश्वास था- वैसा गुरूर और आत्मविश्वास जो किसी पद की अहमियत से नहीं बल्कि इस एहसास से पैदा होता है कि आप अपना काम अच्छे से जानते हैं और उसे बहुत लगन और सावधानी से करते हैं। मैं ठीक-ठीक समझ पा रहा था कि यही वजह है कि आलम साहब मेरी हैसियत से आतंकित हुए बिना मुझे यह सब कह-सुन पा रहे थे। उनके चेहरे पर दूसरी खास बात जो मुझे दिखी, वह उनके चश्मे से बनती थी- खिचड़ी बालों वाला एक गोल-गंभीर चेहरा जिस पर चढ़ा चश्मा यह एहसास नहीं होने देता था कि वह एक मामूली ड्राइवर हैं।

जब गाड़ी क्रेन पर चढ़ा ली गई और आलम साहब ने वह सारे कागज भर लिए जिनसे पता चलता कि वह मेरी गाड़ी ले जा रहे हैं तो उन्होंने सिर हिलाया- कि अब वे जा रहे हैं।

लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि मैंने उनको रोककर कहा कि पहले हम लोग साथ चाय पी लेते हैं। वे एक लम्हे को हिचके और फिर उन्होंने हामी भर दी। उनके साथ उनका सहयोगी बादल भी था। दोनों वहां से चलते हुए, मेरे दफ्तर की भव्यता को निहारते हुए मेरे कमरे में दाखिल हुए। अपने कुछ मुड़े-तुड़े और कुछ मैले कपड़ों से बेपरवाह आलम साहब मेरे कमरे की चमचमाती साफ़-सफ़ाई से आतंकित हुए बिना चाय सुड़कते रहे और गपशप करते रहे। उनका सहयोगी बादल बेशक कुछ अभिभूत दिखाई पड़ रहा था। मैंने पूछा, 'इतनी भारी क्रेन कैसे चला लेते हैं। कहीं से ट्रेनिंग ली है क्या?'

वे हंसने लगे। बताया कि उन्होंने इससे भारी-भारी गाड़ियां चलाई हैं। 'जब जवान था तब ट्रक चलाता था। रात-रात भर ऐसे-ऐसे ट्रक- जिनमें टनों माल लदा रहता। अब भी तरह-तरह की गाड़ियां चला लेता हूं।' उन्होंने बताया कि वे बुलडोज़र भी चलाते हैं, हालांकि यह काम पसंद नहीं करते। अमूमन तोड़फोड़ का होता है। इसके बाद वे लगभग दार्शनिक हो गए- ‘साहब, अभ्यास से सब आसान हो जाता है। आदमी बहुत बड़ी शै है। उसके आगे बड़े से बड़े पहाड़ छोटे हैं।‘

मुझे शक हुआ कि यह ड्राइवर कहीं लेखक या कवि तो नहीं? फिर अपने ओछेपन पर कुछ शर्म आई। हम ऐसा क्यों मान लेते हैं कि सुंदर और आदर्श वाक्यों पर सिर्फ कवियों-लेखकों का हक है? वैसे आलम साहब सिर्फ ड्राइवर ही थे, कवि या लेखक नहीं- यह बात जल्द ही साफ़ हो गई।‌ वे‌ देश-दुनिया में जो कुछ चल रहा है उससे लगभग बेखबर या बेपरवाह थे। शाहीन बाग में महीने भर से चल रहे आंदोलन की उन्हें खबर थी, मगर यह आंदोलन क्यों चल रहा है यह ठीक-ठीक नहीं मालूम था। किसी ने उन्हें जरूर बताया था कि उनकी‌ नागरिकता छीनने की बात चल रही है- उनकी यानी उनकी कौम की। लेकिन यह बात भी उनकी समझ में ठीक से नहीं आई। आखिर नागरिकता का उन्हें क्या करना है? वैसे भी उन्हें यह तो पता भी नहीं था कि उनके पास नागरिकता है या नहीं है। तो वे‌ छीन‌‌ भी लें तो कैसे पता चलेगा? इससे क्या फर्क पड़ेगा? इसलिए वे बेफिक्र रहें, रास्ते में रुक जाने वाली गाड़ियों को इसे ठिकाने तक पहुंचाते रहे और आराम से जिंदगी जीते रहे।

'यह जो माहौल है उससे आपको डर नहीं लगता?' पता नहीं क्यों मैंने उसे कुछ और कुरेदने की कोशिश की। वह‌ हंसने लगे- 'यह सब फालतू डर हैं साहब, जिनको कुछ नहीं करना, वही डरते और डराते हैं।' मैंने पाया कि एक बार फिर उसकी सादगी मेरे सयानेपन पर भारी पड़ रही थी। क्या मैं वाकई दुनिया से कटा हुआ हूं? क्या वाकई किताबी ढंग से सोचने लगा हूं? क्या वाकई हमने लोगों को अपनी ओर से हिंदू मुसलमान में बांट रखा है जबकि वह अपनी तरह से इंसान बने हुए हैं?

'आप निश्चिंत रहिए सर। आधे घंटे में आपकी गाड़ी‌ सर्विस सेंटर में पहुंचा दूंगा।' उठते-उठते उसने आश्वस्त किया। मैं आश्वस्त था। मेरी गाड़ी एक सही और कुशल आदमी के हाथ है। वह ठीक जगह पहुंचा देगा।

वह अब क्रेन की सीट पर बैठ रहा था। इस दौरान बादल ने गाड़ी को क्रेन के चारों कोनों से इस तरह बांध दिया था कि वह जरा भी हिले डुले नहीं।

क्रेन अपनी खरखराती आवाज के साथ बैक हो रही थी। फिर धीरे-धीरे वह गेट की ओर बढ़ी और सड़क से निकल चली। उस पर लदी अपनी गाड़ी को मैं देखता रहा। मैंने घड़ी देखी। रात के दस बज रहे थे। वह साढ़े दस बजे तक शायद सर्विस सेंटर तक पहुंच जाएगा। मैंने एक ओला बुक की और अपने घर चला आया। इस वक्त रात के ग्यारह बज चुके थे और मुझे मालूम था कि सर्विस सेंटर में गाड़ी पर सुबह ही काम शुरू होगा।

घर पहुंच कर मैं सोया हुआ था कि अचानक मेरा मोबाइल बजने लगा। फोन देखकर मैं हैरान रह गया- दफ़्तर से था। इतनी रात गए दफ़्तर से क्यों फोन? ऐसी क्या इमरजेंसी आ पड़ी है?

मैंने कुछ धड़कते दिल से फोन उठाया- 'हेलो!'

उधर रिसेप्शन पर बैठा कर्मचारी था, माफी मांगते हुए बोला, 'सर, बादल नाम का एक लड़का आया हुआ है। रो रहा है। बता रहा है कि आपकी गाड़ी बॉर्डर पर पकड़ ली गई है। उसके ड्राइवर को भी पकड़ लिया गया है।'

एक लम्हे के लिए मेरी समझ में कुछ नहीं आया। लेकिन अगले ही पल सारी बात समझ में आ गई। अब घबराने की बारी मेरी थी। मैंने कहा, वह मेरी बादल से बात कराए। बादल ने रोते-सुबकते जो बताया, उसका सार यह था कि पुलिस ने गाड़ी चेक पोस्ट पर रोकी, आलम से उन लोगों की बहस हुई, आलम को दो-तीन थप्पड़ लगाए गए, पहले कहा गया कि वह चोरी की गाड़ी ले जा रहा है और फिर पुलिस वालों ने धमकाया कि उसे आतंकवादी बताकर गोली मार देंगे। उन्होंने बादल की भी पिटाई की है और उसे भेजा है कि गाड़ी के मालिक से रुपए लेकर आए तब गाड़ी छूटेगी।

मैं बिल्कुल स्तब्ध था। उस आदमी का चेहरा याद कर रहा था जिसने सिर्फ कुछ ही घंटे पहले मुझे फटकारा भी था और मेरे साथ चाय भी पी थी। वह आत्मविश्वास भरा चेहरा अब कैसा होगा?

यह सवाल नहीं मेरे भीतर का डर था। ‌मुझे अचानक बहुत सारी समाजशास्त्रीय सच्चाइयां याद आने लगी थीं।‌ लेकिन मेरे भी तरह उलझन बनी हुई थी कि आलम जैसे संजीदा आदमी ने पुलिस वालों से उलझने की गलती क्यों की? इससे बड़ी उलझन यह थी कि मैं अभी तुरंत थाने जाकर आलम को छुड़वाने की व्यवस्था करूं या सुबह तक का रास्ता देखूं? आखिर मेरा काम करते हुए ही वह इस मुसीबत में पड़ा है। मैंने तय किया कि मैं जाऊंगा। मुझे फिर से कपड़े पहनते देख पत्नी हैरान हुई। मैंने उसको पूरी बात बताई और कहा कि मेरा जाना जरूरी है।

थाने पहुंचकर समझ में आया, यहां आना वाकई जरूरी था। यह तो वह दुनिया है जो अब तक मैंने देखी नहीं थी। हर किसी को अपराधी की निगाह से देखने का अभ्यास क्या होता है, वह कैसी सिहरन पैदा करता है, यह मुझे समझ में आ रहा था।

मैंने जैसे ही आलम साहब के बारे में दरियाफ्त की, वहां मौजूद पुलिस वाले की आंखों में एक अजब सी वहशत आ गई- 'तो आप भी उनके साथ हो'। उसका अंदाज बता रहा था जैसे उसके मान लिया हो कि आलम कोई अपराधी ही है। यही नहीं, उसका लहजा बता रहा था कि वह मुझे भी अपराधी मान रहा है। कुछ देर के लिए मैं भी सहम चुका था। समझ नहीं पा रहा था कि मैं क्या करूं। लेकिन फिर मैंने खुद को संभाला, लहजा कुछ सख्त किया- उसे याद दिलाया कि वह एक शरीफ शहरी से बात कर रहा है। यह भी कि अगर मैं चाहूं तो उसके ऊंचे अफसरों तक पहुंच सकता हूं। वह कुछ दबा, लेकिन शायद उसे यकीन नहीं हो रहा था कि आधी रात को यह आदमी वाकई उसके किसी अफसर को फोन कर सकता है। उसने एक तरह से चुनौती उछाली- 'जिसको चाहो फोन कर लो, मैं तो गाड़ी नहीं छोड़ने वाला।‘

मैंने घड़ी देखी- रात के बारह के ऊपर हो रहे थे। मैंने थोड़ी हिम्मत की, अपने एक पत्रकार दोस्त को फोन मिलाया। वह जगा हुआ था। मेरी बात सुनते ही जोश में आ गया। उसने पूछा कि किस थाने का मामला है। फिर कहा कि वह तुरंत एसपी को फोन लगा रहा है। मैंने जान-बूझ कर दुहराया- हां. एसपी से पूछो कि उनकी पुलिस क्या-क्या करती है। थाने पर मौजूद सिपाही या दारोगा यह बातचीत सुन रहा था। पहली बार वह कुछ असमंजस में पड़ता दिखा- ‘वह आपकी गाड़ी है जो यह आदमी क्रेन पर लाद कर ले जा रहा था?’

‘जी हां,- आपको कोई शक?’

‘जी नहीं, तो आप अपनी गाड़ी ले जाइए. बाक़ी हम देख लेंगे।‘

धीरे-धीरे मेरा आत्मविश्वास लौटने लगा था। मैंने लहजा और सख़्त किया- ‘आपको समझ में नहीं आ रहा कि गाड़ी चल नहीं पा रही थी इसलिए क्रेन पर गई थी? आपको आलम ने नहीं बताया कि वह गाड़ी सर्विस सेंटर लेकर जा रहा था? आपने उसके कागज़ नहीं देखे?’

‘जी देखे थे, लेकिन कागज तो कोई भी फ़र्जी बनवा सकता है। गाड़ी दिल्ली से गाज़ियाबाद जा रही थी- बोर्डर पर बहुत सतर्क रहना पड़ता है।‘

‘फ़र्ज़ी तो किसी भी गाड़ी के कागज़ हो सकते हैं? फिर आपने इसे क्यों रोका? सुना है, आपने उसके साथ मारपीट भी की है?’ मुझे याद आया कि बादल ने कहा था कि उसे थप्पड़ लगाए गए हैं। मैं पैसे वाली बात पर अभी आना नहीं चाहता था।

इसी दौरान मेरे पत्रकार दोस्त का फोन आ गया। उसने बताया कि एसपी ने उसका फोन नहीं उठाया है, उसने मेसेज छोड़ा है। इसके अलावा वह पुलिस में जान-पहचान के दूसरे लोगों को भी फोन कर रहा है।

एक लम्हे के लिए मेरा दिल बैठ गया। लेकिन यह वापस लौटने की घड़ी नहीं थी। मैंने फोन पर कहा- अच्छा, अच्छा, बात हो गई न? इतना भी काफ़ी है। नहीं, नहीं, यहां जिनसे मेरी बात हो रही है, वे कुछ समझदार आदमी लग रहे हैं।‘

पुलिस वाला अपनी तारीफ़ से प्रभावित नहीं हुआ। उसे अब लगने लगा था कि इस मामले में वह अपने साहब की डांट न सुन जाए। उसने अब नरमी से कहा, ‘देखिए साहब, हमारी ड्यूटी बहुत अजब है। हर आदमी को शक से देखना पड़ता है। मुझे लगा कि आधी रात को कौन सी गाड़ी ठीक होती है? कौन सी मरम्मत की दुकान खुली रहती है? यही पूछा तो वह चिल्लाने लगा।

अपना नाम भी बताने से मना कर रहा था। कहने लगा कि कागज तो देख लिया- नाम जान कर क्या करेगा? फिर पता चला कि इसका नाम आलम है। तो लगा कहीं कुछ गड़बड़ न हो।‘

मैं फिर सन्नाटे में था। तो क्या जड़ में यह वजह थी? उसका नाम? उसका मुसलमान होना? यह सही है कि आलम कुछ जल्दी झल्ला जाता था- जो क्रेन पर गाड़ी चढ़ाने की मेरी कोशिश के दौरान दिखा भी था, लेकिन पुलिसवाले ने तो उसे मुसलमान होने की वजह से पकड़ लिया। क्या इस देश में अब मुसलमान होना भी जुर्म है?

अब मेरा गुस्सा और तीखा हो रहा था- ‘नाम आलम है तो क्या? आप मज़हब देखकर कार्रवाई करेंगे? या क़ानून के हिसाब से चलेंगे?’

पुलिसवाला समझ गया कि वह यह केस हार रहा है। उसके साथ तीन और पुलिसवाले थे जो चुपचाप यह तमाशा देख रहे थे। उसने तत्काल पलटी मारी- ‘अरे साहब, इतना गरम मत होइए, अरे, इनके लिए कुर्सी और चाय लाओ। अरे नहीं, काम तो हम क़ानून के हिसाब से ही कर रहे थे। अभी तक कोई केस नहीं लगाए हैं। बस ज़रा तस्दीक कर रहे थे कि मामला सही है या नहीं?’

मैंने कहा कि चाय-वाय की ज़रूरत नहीं है। वह ड्राइवर को जल्दी छोड़े। मेरी गाड़ी अगर रात को सर्विस सेंटर नहीं पहुंची तो सुबह ठीक नहीं हो पाएगी। जो भी कागज़ी कार्रवाई करनी है तत्काल करे।

पुलिसवाला भी अब इस मामले को रफ़ा-दफ़ा करने के मूड में था। उसने बड़ी तत्परता से कहा- अरे, अभी किसी कागज का काम ही नहीं है। अभी कोई रिपोर्ट थोड़े लिखे थे। काम तो हम लोग सब देख-समझ कर ही करते हैं। बस यही बोले थे कि सबूत ले आओ तो छोड़ देंगे। जाओ जी, भीतर से लाओ उसको बाहर। जाने दो। देखिए साहब, आपके कहने पर छोड़ रहा हूं।‘

इत्तिफ़ाक़ से फिर मेरे दोस्त का फोन आ गया। वह जानना चाह रहा था कि क्या मैं अब भी थाने में हूं। मैंने फिर इस अवसर का लाभ उठाया- बताया कि हां, अभी थाने में ही हूं। लेकिन जाने दो, ये लोग आलम को छोड़ रहे हैं। बस दस मिनट मे निकल जाऊंगा।

इस बीच पुलिसवाले कहीं भीतर से एक आदमी को लेकर निकले। उसे देखकर लगा कि मैं अपनी आंखें मूंद लूं। यह आलम साहब ही थे- लेकिन चेहरा उनका सूजा हुआ था। आंखें जैसे दर्द और शिकायत का समंदर बनी हुई थीं। चलने में भी कुछ लड़खड़ाहट थी। यह समझना मुश्किल नहीं था कि इस बीच उनकी ठीकठाक पिटाई भी हुई है।

पुलिसवाला मेरे चेहरे की प्रतिक्रिया देख रहा था। अब उसकी आवाज़ में कुछ पछतावा चला आया था- ‘कुछ गरमा-गरमी हो गई थी साहब। ये भी हम पर चढ़े जा रहे थे। अब काम में इतना टेंशन रहता है कि कुछ लप्पड़-झप्पड़...।“

इतना कह कर वे चुप हो गए। क्योंकि तब तक मैं लगभग फट पड़ा था- ये लप्पड़-झप्पड़ है? एक शरीफ़ आदमी को आप आधी रात को बेमतलब रोकते हैं। उसके साथ के बच्चे को पैसा लाने भेजते हैं, उसे पीटते हैं और कहते हैं- टेंशन निकाल रहे थे?’

उसने फिर कहा, ‘गलती हो गई साहब। अब जो सज़ा दे दीजिए।‘ मुझे मालूम था कि उसे मालूम है कि मैं कोई सज़ा नहीं दे सकता। मुझे भी समझ में आ रहा था कि पहले आलम को लेकर यहां से निकलूं।

तो मैंने आलम साहब का हाथ पकड़ते हुए कहा,. चलिए आलम साहब। लेकिन उन्होंने मेरा हाथ झटक दिया। बेशक, वे चल पड़े- लड़खड़ाते हुए। थाने के बाहर क्रेन भी खड़ी थी और मेरी गाड़ी भी लदी थी। वे चुपचाप चलते रहे। मैंने दो बार पुकारा- आलम साहब, आलम साहब। लेकिन जैसे वे कुछ सुनने को तैयार नहीं थे। क्रेन के पास पहुंचे, क्रेन का दरवाज़ा खोलते-खोलते रुके- जैसे उन्हें कुछ याद आया हो। फिर उन्होंने पलट कर मुझे देखा। उनकी आंखों में अजब सा रूखापन था- जैसे वे मुझे नहीं जानते हों। 'बादल कहां है?' आंखों का रूखापन आवाज़ में चला आया था। मैं जवाब देता, उसके पहले क्रेन के पीछे खड़ा बादल कहीं से प्रगट हो गया। वह मेरे दफ़्तर से दुबारा कैसे यहां आया- यह मुझे पता तक नहीं चल पाया। आलम साहब ने उसे देखा, अचानक उनकी आंख भरती सी लगी और बादल तो बिल्कुल बादल की तरह फट पड़ा। अट्ठारह-उन्नीस साल का वह लड़का किसी बच्चे की तरह फूट-फूट कर रो रहा था। आलम साहब बिना कुछ कहे बस उसकी पीठ सहला रहे थे। फिर दोनों चुप हुए, दोनों ने एक दूसरे को देखा, दोनों ने मुझे देखा और बिना कुछ कहे क्रेन पर बैठकर चले गए।

मैं कुछ देर असमंजस में खड़ा रहा। अब मुझे आलम साहब पर थोड़ा गुस्सा आ रहा था। ‌मैं उनके लिए आधी रात को आया, ‌उनकी वजह से पुलिस वालों से उलझा, उनको मैंने छुड़वाया, लेकिन उनके तेवर कुछ ऐसे थे कि मैंने ही उनको पुलिस के हाथों पिटवाया हो। मुझे लगा आलम साहब की पिटाई में कुछ हाथ उनके इस अतिवादी रवैये का भी रहा होगा। खैर, मुझे संतोष था कि मैंने यहां आकर आलम को एक बड़े संकट से बचा लिया। अगर पुलिस वालों ने उन्हें किसी झूठे मामले में फंसा दिया होता तो उनके कई दिन जेल में सड़ गए होते। हालांकि यह सोचना भी मेरे लिए तकलीफ़देह था कि एक कमजोर आदमी को पुलिस इस तरह उत्पीड़ित कर सकती है। मैंने फिर ओला मंगाया, घर पहुंचा, कपड़े बदलते हुए पत्नी को पूरा माजरा बताया और सोने चला गया। पत्नी ने भी कहा कि जाने दो तुमसे जो हुआ वह तुमने किया।

अगली सुबह मेरे पास सर्विस सेंटर से फोन आ गया- आपकी गाड़ी पहुंच गई है। लेकिन सुपरवाइज़र हैरान था कि रात दस बजे के आसपास चली गाड़ी रात दो बजे के बाद यहां लाई गई। ‘ये क्रेन ड्राइवर कहां रह गया था? कुछ गड़बड़ तो नहीं कर रहा था?’ मैं चुप रहा। मैंने सुपरवाइज़र को रात की बात नहीं बताई। सुपरवाइज़र ने भी देखा कि गाड़ी मालिक की इस प्रसंग में कोई दिलचस्पी नहीं है तो गाड़ी की गड़बड़ी के बारे में पूछने लगा। उसने बताया कि बस बैटरी का फ़्यूज उड़ गया है, उसको लगा देने से सारी शिकायत दूर हो जाएगी। उसने कहा कि दोपहर तक वह गाड़ी मेरे दफ़्तर भिजवा देगा। मैंने राहत की सांस ली।

लेकिन फिर भी कोई फांस थी जो लगातार मेरे भीतर बनी हुई थी। एक आदमी बेमतलब पुलिस थाने में पिटा था। इसकी शिकायत तो होनी ही चाहिए। दिन की रोशनी और दफ़्तर के इत्मीनान में मैं सारे क़ानूनी विकल्पों पर विचार कर रहा था और सोच रहा था कि मुझे यह मामला पुलिस और अदालत तक ले ही जाना चाहिए। लेकिन इसके लिए आलम साहब को तैयार करना होगा।

मैंने दोपहर बाद फिर आलम को फोन कर दिया। इस बार उनकी आवाज़ में रूखापन तो नहीं, एक हिचक जरूर थी- जी साहब। ‘आलम साहब, गाड़ी तो मेरी बन कर आ गई, लेकिन आपका क्या हाल है?’ पूछते-पूछते मुझे लगा कि जैसे मैं उनके किसी ज़ख़्म को कुरेद रहा हूं। मगर वे कुछ कहते, उसके पहले मैंने जोड़ा- ‘आपसे कुछ ज़रूरी बात करनी है। कब आ सकते हैं?’ वे कुछ देर चुप रहे। फिर उन्होंने कहा कि वे फ़ुरसत में हैं, जब मैं चाहूं, आ जाएंगे। मैंने घड़ी देखी- तीन बज रहे थे, पांच बजे के बाद मैं फ़्री हो जाऊंगा। मैंने उनसे कहा कि पांच बजे के बाद वे मेरे दफ्तर आएं, मैं उनको अच्छी चाय पिलाऊंगा।

वाकई आलम साहब समय पर आ गए। उनके चेहरे पर बहुत हल्की सूजन थी, और आंखों में बहुत साफ़ पहचान में आने वाली चुभन। हालांकि कल की कड़वाहट के मुक़ाबले अभी एक अनिश्चितता सी थी- शायद इस सवाल से पैदा हुई कि इस आदमी ने दुबारा क्यों बुलाया है।

मैंने उनको बैठने को कहा और माहौल कुछ हल्का करने की कोशिश में पूछा- ‘आलम साहब, क्रेन से आए हैं।‘ इस मज़ाक ने कुछ काम किया। फ़ीकी हंसी हंसते हुए कहा, क्रेन तो कंपनी की है साहब, जब अपने काम से जाता हूं तो बस से आता-जाता हूं। मेरे यहां से यहां तक की सीधी बस थी, इसलिए और आसान हो गया।

इस बीच मैंने चाय मंगा ली थी। फिर धीरे-धीरे मैंने उनसे सारी बात पूछी। उन्होंने बताया कि रात गाड़ी ठीक से निकल रही थी कि पुलिसवालों ने रोका। उन्होंने कागज़ मांगा तो उन्हें कागज भी दिखाया। ड्राइविंग लाइसेंस पर उन्होंने आलम का नाम देखकर उन्हें नीचे उतरने को कहा। आलम साहब ने कहा कि ये क्या तरीक़ा है तो जबरन क्रेन का दरवाज़ा खोला और उन्हें खींच कर मारने लगे। बादल को भी मारा- ‘वे कह रहे थे, गोली मार कर आतंकवादी बता देंगे।‘

मुझे फिर तेज़ गुस्सा आया। मैंने कहा कि क्या ये इतना आसान है? हंसी-खेल है? मैंने कहा कि इस तरह अन्याय सहना ठीक नहीं। हम लोग पुलिस थाने चलते हैं। जरूरत पड़ी तो कोर्ट भी जाएंगे. लेकिन उन लोगों को सज़ा मिलनी चाहिए जिन्होंने रात को आपके साथ गुंडागर्दी की थी।

वे मुझे कुछ देर देखते रहे- जैसे तौल रहे हों कि यह आदमी कितना वज़नी है, किस क्रेन से उठेगा। फिर कहा- लगता है, ‘आपका कभी पुलिस से पाल नहीं पड़ा है साहब? कोर्ट कचहरी के चक्कर आपने नहीं काटे हैं।‘

उनकी बात सही थी। वाकई अब तक मेरा पुलिस से ऐसा कोई पाला नहीं पड़ा था। लेकिन मैने मज़बूती से कहा- ‘चलिए, इस बार पाला पड़ा लेते हैं। देखते हैं, पुलिस हमारा-आपका क्या बिगाड़ेगी?’

उनके चेहरे पर फिर वही फ़ीकी हंसी थी- ‘आपका तो कुछ नहीं बिगाड़ेगी साहब। आप हर लिहाज से बड़े आदमी हो। मुझे तो पीस डालेगी।‘

‘अरे नहीं, इतना आसान है क्या? मैं हूं आपके साथ?’

जितने दिन ये मामले चलते हैं न साहब, उतने दिन कोई साथ नहीं रहता। साथ नहीं रह सकता। आप भी कुछ दिन मदद करेंगे, फिर अपने चक्कर में फंसे रहेंगे। पिटूंगा मैं। पिटेगा मेरा परिवार।‘

इस बात से मुझे उनके परिवार का खयाल आया। मैंने पूछा, परिवार में कौन-कौन है? लेकिन वे मुझसे इतने क़रीब होने को अब भी तैयार नहीं थे। उन्होंने बस इतना कहा, बड़ा परिवार है साहब। फिर जोड़ा, ‘आपने उस दिन पूछा था न साहब? डर लगता है या नहीं? मैंने तब सच नहीं कहा था। सोचने पर डर लगता है। इसलिए बिना सोचे जीता-रहता हूं। आदमी बन कर जीना चाहें तो मेरा क्या, आपका भी रहना मुहाल हो जाए।‘

इस आदमी की समझ कितनी साफ़ है? मैं हैरान था। जैसे उसने न जाने कितनी किताबें घोंट रखी हों। या ज़िंदगी वाकई किताबों से ज़्यादा सिखा देती है? वे धीरे-धीरे बोल रहे थे- ‘मुसलमान हूं साहब, न याद करना चाहूं तो भी लोग याद दिलाने लगते हैं। कभी बहुत प्रेम दिखाने लगते हैं और कभी बहुत शक करने लगते हैं। लेकिन ठीक है। ऐसे ही देश चल रहा है। चलेगा। हम भी यहीं हैं और आप भी यहीं। आपकी कार मैं ही क्रेन पर चढ़ा कर ले जाता हूं।‘ इस बार उनकी हंसी में फ़ीकापन कम और आत्मीयता ज़्यादा थी।

लेकिन मैं अपनी कोशिश यहीं नहीं छोड़ना चाहता था। मैंने फिर उकसाया। “तो क्या करेंगे आलम साहब? ऐसे ही छोड़ देंगे? जो मार पड़ी है, उसे भूल जाएंगे? ‌इससे तो पुलिसवालों की हिम्मत बढ़ेगी? और नाइंसाफ़ी सहना भी कितनी ग़लत बात है? यह भी ज़ुल्म को बढ़ावा देना है न?’

वे मुझे देख रहे थे। उनका चेहरा पहले संजीदा हुआ और फिर धीरे-धीरे सख़्त। कल शाम के बाद पहली बार वे वही आलम लग रहे थे जो मुझ पर झल्ला रहा था। लेकिन अभी वे जैसे अपने-आप से बोल रहे थे- ‘ना एक हद के बाद तो झेला नहीं जाएगा। लेकिन पुलिस-कोर्ट-कचहरी पर मेरा भरोसा नहीं है। कब का उठ गया। एक दिन गुस्सा आएगा तो बदला ले लूंगा। बुलडोजर लाऊंगा और सीधे थाने पर चढ़ा दूंगा। उसके बाद मार दें मुझे वे गोली।‘

मैं स्तब्ध उनको देख रहा था। वे उठे- हंसते हुए बोले- देखिएगा साहब, किसी दिन मिल जाएगी आपको आलम की तस्वीर किसी अख़बार में।“ वे हाथ झुलाते हुए मेरे कमरे से निकल गए।

आलम साहब से इसके बाद मेरी मुलाकात नहीं हुई। फोन पर बात भी नहीं। लेकिन मैं अख़बार रोज़ देखता रहा- कहीं वाकई आलम साहब बुलडोज़र लेकर किसी थाने पर चढ़ा न दें।

इसी दौरान दिल्ली का एक हिस्सा दंगों की गिरफ़्त में आ गया। जो किसी ने कल्पना नहीं की थी, वह सब हो रहा था। सड़कों पर दंगाइयों की भीड़ तोड़फोड़ और आगज़नी में लगी थी। मकान जलाए जा रहे थे। टीवी चैनलों पर रोज़ तरह-तरह के डरावने किस्से। क्या हम आदमी रह गए हैं? यह सवाल मैं अपने-आप से पूछता और इसका जवाब स्थगित कर देता।

इन्हीं दिनों मैंने फिर से टीवी देखना शुरू किया- यानी टीवी के न्यूज़ चैनल। एक चैनल पर ख़बर आ रही थी- दिल्ली में भी राहत शिविर बन गए हैं। लोग राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं।

ऐसे ही एक राहत शिविर में बैठे एक चेहरे को देखकर मैं चिहुंक गया- यह तो आलम साहब से मिलता-जुलता चेहरा है। वे चुपचपा बैठे थे। आंखों में न गुरूर था, न झल्लाहट थी, न गुस्सा था, बस एक सन्नाटा था। मैं इसलिए देख पा रहा था कि राहत शिविर में एक किनारे चुपचाप बैठे इस शख़्स की तस्वीर अनजाने में टीवी चैनल बार-बार लूप कर चला रहा था।

तो आलम साहब राहत शिविर में हैं। मुझे लगा कि अभी ही वहां जाऊं। लेकिन रात दस बजे जाने का कोई मतलब नहीं था। मतलब भी था तो हिम्मत नहीं थी। इत्तिफाक़ से यह शुक्रवार की रात थी- यानी शनिवार मेरी छुट्टी है और मैं चाहूं तो राहत शिविर में जा सकता हूं।

तो अगली सुबह दस बजे के आसपास मैं वहां था। जितना टीवी पर नजर आ रहा था, उससे कहीं ज़्यादा बेतरतीबी यहां थी। इधर-उधर छींटा-बिखरा सामान, बदहवास और परेशान लोग और इन्हे के बीच कुछ एनजीओ मार्का टीमैं और कुछ टीवी चैनलों के रिपोर्टर।

मैं देर तक आलम साहब को खोजता रहा। एकाध लोगों से दरियाफ़्त भी की। लेकिन किसी को अपना पता ही नहीं था जो उनका पता देता। फिर अचानक मैंने उन्हें एक कोने में बैठे देखा- उसी तरह टूटे हुए।

मैं लगभग दौड़ता हुआ उनके पास पहुंचा। मेरी सांस फूल रही थी- ‘आलम साहब।‘ मुझे अचानक वहां देख उनकी आंख का सन्नाटा कुछ घटा- जैसे उसमें हरकत लौट आई हो। लेकिन वह हरकत फिर जैसे किसी कुएं में गुम हो गई। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। दंगे, राहत-शिविर सब जाने-सुने थे, लेकिन पहली बार अपने किसी परिचित को राहत शिविर में देख रहा था। मैंने अचानक कहा, ‘उठिए आलम साहब, चलिए मेरे घर।‘

इस बार आंखों का वह बर्फ़ सन्नाटा जैसे कुछ हिला और फिर बह निकला। वे मेरा हाथ पकड़ कर हिचकियों के बीच रो रहे थे। अचानक उनके आसपास कुछ लोग आ खड़े हुए थे। मैं समझ गया- यह उनका परिवार है, वह बड़ा परिवार, जिसकी उन्होंने चर्चा की थी। उनको रोता देख एक और औरत रो पड़ी थी- जो शायद उनकी बीवी हो- और उसके साथ तीन बच्चे चिपके हुए से थे।

मैंने धीरे-धीरे उनको शांत किया। फिर दुहराया- वे मेरे घर चलें। उन्होंने ना में सिर हिलाया। इस बार आंख में फिर वही ठोस इनकार था जिसे बदलना मुश्किल था। मेरे भीतर की तकलीफ गुस्से में बदल रही थी- ‘आलम साहब, वाकई एक बुलडोजर चाहिए जो इन सब पर चढ़ जाए।‘

उन्होंने बस ठंडी सांस ली- मुझे देखा। फिर धीरे-धीरे कहने लगे- ‘जानते हैं साहब, बुलडोज़र कैसे काम करता है? मैंने चलाया है इसलिए मैं जानता हूं। जब आपके हाथ में बुलडोज़र होता है तो आप अपने-आप को बहुत ताकतवर महसूस करते हैं। जैसे आप सबकुछ चुटकियों में ढेर कर देंगे। लेकिन जब बुलडोज़र चलाने वाला किसी बस्ती में घुसता है तो पहले कमज़ोर घरों को निशाना बनाता है- झुग्गी-झोपड़ियों को। उसे लगता है जो आसान है, पहले उसे निबटाओ। पक्के मकानों की बारी बाद में आती है। सबसे मज़बूत मकान सबसे अंत में टूटते हैं।‘

वे मेरी ओर अब अपनी चुभती हुई नज़रों से देख रहे थे। उनका बोलना जारी था, ‘लेकिन टूटते सब हैं साहब। बचता कोई नहीं है। मैं कहां बुलडोज़र चलाता, मुझ पर बुलडोजर चल गया। ये बुलडोजर ही है- आज हमारे ऊपर चला है, कल आप लोगों पर चलेगा, बचेगा कोई नहीं।‘

मैंने पाया कि हमारी बातचीत ‘मैं’ और ‘आप’ से ‘हम’ और ‘आप लोगों’तक पहुंच गई है। यानी जो वर्गीय अंतर है, उसे आलम साहब मुझसे ज़्यादा बेहतर ढंग से समझ रहे थे।

किसी एनजीओ का कार्यकर्ता इसी दौरान वहां चला आया- नाश्ते का पैकेट लिए। उसे आलम साहब ने एक झटके से हटने और जाने का इशारा किया। दरअसल वह इशारा मेरे लिए भी था- कि आप हमदर्दी जता चुके, आप जाइए। उन्हें मालूम था कि मैं पलट कर दूसरों पर बुलडोज़र नहीं चढ़ा सकता, बुलडोजर चढ़ाने की बात जितनी भी कर लूं। इस बात से न उनकी भूख मिटनी थी और न उनका जला हुआ घर लौटना था।

उनके सम्मान के लिए मैं यह अधूरी कहानी वहीं छोड़ आया। इस उम्मीद में कि कभी उनका घर बसेगा, और इस याद के साथ कि बादल नाम का एक लड़का उनकी अंगुली थामे हुए है- या वे उस बादल की अंगुली थामे हुए हैं।

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