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मंगला की सहारनपुर वाली या जिठानी उर्फ अफ्रीका वाली उर्फ पार्बती यानी सब की अम्माजी । वे मेरी पड़नानी की जेठानी थी। सामान्य मंझोला कद । दुबला पतला फुर्तीला शरीर । कुछ कुछ सांवला कहा जा सके ऐसा गेहुँआआ रंग, चेहरा मोहरा साधारण सा सिवाए बड़ी बङी चमकदार आँखों के जिनमें कील देने की शक्ति थी । आधे सफेद, आधे काले बाल कुल मिला कर एक सामान्य भारतीय महिला पर इसके बावजूद कुछ तो था जो उन्हें भीड़ से अलग बनाता था ।
उनके चेहरे पर एक अलौकिक तेज था जो देखने वाले को अभिभूत कर देता । एकदम रिन की चमकार वाली सफेद साड़ी, पफ वाली बाहों और बन्द गले का कुर्तीनुमा ब्लाउज उनकी पसन्दीदा पोशाक थी । वे अक्सर इसी पोशाक में नज़र आती । कलाई में तुलसी की माला लिपटी रहती और गले में सोने के मटरों से जङी रुद्राक्ष की माला । चौङे माथे पर चन्दन की गोल बिंदी। मैंने जब भी उन्हें देखा, इसी सज- धज में देखा।
वे नौ साल की थी कि दुल्हन बनकर ससुराल आ गयी । उनके पति तब मैट्रिक कर रहे थे । उर्दू, फारसी और अंग्रेजी फर्राटे से पढते और तीनों भाषाएँ धुंआधार बोलते । खुद को पति के काबिल बनाने के लिए उन्होंने कुछ पति से सीखा तो कुछ सास से । थोड़े ही दिनों में रामचरित मानस, गीता, भागवत का शुद्ध पाठ भी करने लगी और लगे हाथ आठवीं की परीक्षा भी पास कर ली । इस बीच पड़नाना फकीरगिरि सहारनपुर के स्टेशन मास्टर हो गए । बङे बङे अंग्रेज अफसरों से उनकी दोस्ती हुई । दिन ऐश से बीत रहे थे कि अचानक एक रेल हादसा हो गया । रेल का डिब्बा पटरी से उलट जाने से दो लोगों की मौत हो गयी । अंग्रेज सरकार का जमाना था । कोर्ट में केस चला । स्टेशन पर तैनात सातों लोगों को काले पानी की सजा मिली। वह भी अफ्रीका के जंगल में । नाना को पानी के जहाज में बिठाकर अफ्रीका भेज दिया गया । पीछे रह गई पड़नानी अपने दो किशोर लड़कों के साथ।
जितना पैसा हाथ में था, उससे मुश्किल से पांच महीने निकले। उसके बाद गुजारे की समस्या सामने थी । बच्चों को पालने के लिए उन्होंने पर्दा उतार कर फैंक दिया । कमर कस ली, किसी से मदद नहीं लेंगी न मायके से, न ससुराल से। घर के ठाकुर जी को ही अपना सहारा बनाया। और अपनी हँसुली बेच जन्माष्टमी का आयोजन किया । झांकी सजाकर आस पास वालों को दर्शन के लिए आमन्त्रित किया। लोगों ने दर्शन किये तो झांकी में खो गए और लोग बताते हैं कि जन्माष्टमी वाले दिन तक तो कतारें लग गयी थी। लोगों ने दर्शन किए । चढावा इतना हो गया कि आराम से दो महीने निकल जाते ।
नानी ने कथा कहना शुरु किया । शाम को पाँच बजे से छ: बजे तक पार्बती भागवत बांचती फिर कीर्तन होता । उसके बाद आरती । नानी भागवत बांचती तो लोग निहाल हो जाते। बीच बीच में आज़ादी की जरुरत पर भी चर्चा होती रहती । पर मुख्य बात ये कि बच्चों के खाने कपङे के साथ साथ उनकी इंटर तक की पढ़ाई भी हो गई। इस तरह बारह बरस बीत गए।
और एक दिन देश आज़ाद हो गया। साथ ही आई विभाजन की आंधी । लोग धड़ाधड़ पाकिस्तान वाली धरती छोड़ हिंदुस्तान आने लगे । नानी की हवेली जो अब अफ्रीका वालों की हवेली कही जाने लगी थी, उसमें सात परिवारों ने शरण ली थी जिनका एक महीने तक खाने रहने का खर्च पड़नानी ने ही उठाया। इसी बीच अंग्रेज सरकार ने अपने सभी आदेश वापिस ले लिए । सजायाफ्ता कैदियों को रिहा कर दिया। पड़नाना को अंग्रेज सरकार ने यह अधिकार दिया कि अब वे आजाद हैं । वे चाहे तो भारत लौट जाएँ अथवा तंजानिया में बसना चाहें तो जहाँ उन्होंने जंगल साफ़ करवा कर समतल जमीन बनवाई है, वहां खेती कर सकते हैं। पड़ नाना अफसरमिजाज के व्यक्ति थे । तंजानिया के स्थानीय लोग उनके सेवक हो गये थे । उनकी तथा भारत से लाये गये गिरमिटिया मजदूरों की मदद से उन्होंने उस क्षेत्र को साफ करवा कर रहने लायक बस्ती में बदल दिया था ।
उन्होंने अफ्रीका में रहना चुना तो अंग्रेज सरकार ने एक विशाल भूखण्ड उनके नाम कर दिया । वे पत्नी को लेने भारत आये पर पड़नानी ने देश छोड़कर कहीं और बसने से इंकार कर दिया। पड़नाना बोझिल मन से बड़े बेटे को लेकर लौट गए पर पत्नी को नहीं मना सके। इसके बाद वे हर साल भारत आते रहे। दोनों बेटे तंजानिया और इंग्लैंड में बसा दिए ।
एक पङपोते और एक पङपोती के साथ पड़नानी भारत में ही एक सौ दस साल तक जीवित रही। एकदम स्वस्थ, चैतन्य, जिंदगी से भरपूर। जो तान से पाँच बजे वाली चोपड़ की महफ़िल उन्होंने बीस साल की उम्र में शुरू की थी वह उनके मरने वाले दिन तक बदस्तूर जारी रही और उनके ठाकुर जी की पूजा आरती भी। एक दिन सन्ध्या आरती के बाद प्रसाद ग्रहण करते हुए उन्होंने बिना किसी कष्ट के देह त्याग किया ।
पूरी जिंदगी जीवट से जीने वाली यह महिला क्या साधारण औरत थी ।