Aadhi duniya ka pura sach - 29 - last part in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | आधी दुनिया का पूरा सच - 29 - अंतिम भाग

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आधी दुनिया का पूरा सच - 29 - अंतिम भाग

आधी दुनिया का पूरा सच

(उपन्यास)

29.

लाली ने शिकायत करते हुए रानी से कहा -

"हर दम तेरे ही साथ रहती हूँ ! थोड़ी देर के लिए भी तू मुझे चन्दू-नन्दू के साथ नहीं जाने देती है ! बच्चों के साथ स्कूल भी नहीं भेजेगी !"

लाली की शिकायत सुनते ही उसका उत्तर देने की बजाय रानी की आँखें नम हो जाती थी । एक दिन लाली हठ करके बैठ गयी -

"सारे दिन बस तेरे साथ बैठी रहूँ ? बच्चों के साथ भी ना खेलूँ ? चन्दू-नन्दू के साथ ना जाऊँ ? क्यूँ ? जब तक मेरी बात का जवाब नहीं मिलेगा, मैं ना कुछ खाऊँगी, न कुछ पीऊँगी !"

लाली की बालहठ के आगे हथियार डाल दिये । रानी ने निश्चय किया कि लाली जहाँ जाना चाहेगी, वह उसको जाने देगी, लेकिन इससे पहले वह लाली को इस दुनिया का कडुवा सच दिखाने के लिए अपने जीवन के कड़ुवे अनुभव जरूर बताएगी ।

उसी समय रानी ने दृढ़तापूर्वक अपने निर्णय को कार्यरूप में परिणित करने के लिए अपने भोगे हुए दुनिया के काले-उजले पक्षों और अपने अनुभवों को अपनी चार साल की नन्ही-सी बच्ची लाली को सुनाना आरम्भ कर दिया । नन्हीं-सी लाली के लिए जहाँ एक ओर ये कहानियाँ मनोरंजन का साधन थी, वहीं दूसरी ओर लाली को मानवीय संवेदनाओं की भूमि पर टिके सत्यं-शिवम-सुन्दरम् समाज को समझने-सीखने और विकृतियों के छद्म रूपों से भरे क्रूरतम समाज को पहचानकर उससे बचने का एक रास्ता भी दिखाती थी ।

माँ के दिशानिर्देशों-कहानियों को सुनकर, टेलीविजन देखकर तथा अपने छोटे-से निम्नवर्गीय समाज के कार्य-व्यवहारों के बीच रहते हुए लाली की सीखने की प्रक्रिया अनवरत चल रही थी । सीखने के इसी क्रम में जब लाली अपनी आयु के मात्र सात वर्ष पूरे किये थे, तब महाशिवरात्रि के पावन पर्व के दिन एक ऐसी घटना घटित हुई, जिसने चंचल बुद्धि की स्वामिनी लाली को सभ्य-शिक्षित समाज के जिम्मेदार नागरिकों के समकक्ष प्रतिष्ठित कर दिया ।

हुआ यह कि पिछले दो-तीन दिन से पूरे उत्तर भारत में बम-बम के स्वर की गूँज अपने चरम उत्कर्ष पर.थी । गाजियाबाद में भी महाशिव रात्रि का पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा अथा । सड़क भोले की भक्ति में झूमते-नाचते हुए शिव-भक्तों और काँवडियों से भरी थी उनकी सूविधा के लिए जी टी रोड को वन-वे कर दिया गया था ।

लाली अभी मात्र सात वर्ष की थी । पिछले तीन वर्षों से वह सड़क पर जाते हुए काँवडियों को देखकर आनंन्दित होती रही थी । इस बार उसकी रानी ने महाशिवरात्रि के पर्व पर उसको बड़े मंदिर पर लेकर चलने का आश्वासन दिया था । लाली ने रुआँसी मुद्रा बनाते हुए कहा -

"माँ, जल्दी चल ना बम-बम-भोले देखने !"

रानी ने बेटी को दुलारते हुए मुस्कुराकर कहा -

"चल, चलती हूँ ! तेरे बहाने मुझे भी काँवड़ देखने का पुण्य मिल जाएगा, नहीं तो सारा दिन इस घर की धन्ध करते निकल जाता है !" कहते हुए माँ ने घर का दरवाजा बंद किया और लाली का हाथ पकड़कर चल दी ।

दूधेश्वरनाथ मंदिर पर भक्त-जनों की भीड़ थी। भक्तों की सुरक्षा व्यवस्था में बड़ी संख्या में पुलिस बल को लगाया गया था । सुरक्षा की दृष्टि से शिवजी का अभिषेक करने हेतु काँवड़ियों के लिए और सामान्य भक्तों के लिए अलग-अलग पंक्तियाँ बनायी गयी थी। कुछ अकिंचन भक्तगण महाशिवरात्रि के महान पर्व पर प्रसाद पाने की आकांक्षा में मंदिर के बाहर ही पंक्तिबद्ध बैठे थे। उन्हीं में लाली को लेकर उसकी माँ खड़ी हो गयी । लेकिन लाली की चंचल उपस्थिति उसके वहाँ खड़े होने में क्षणे-क्षणे बाधा बन रही थी। लाली बार-बार मंदिर की ओर दौड़ती और माँ हर बार उसको पकड़कर समझाते हुए अपने पास शान्त खड़ी होकर बम-बम देखने का आग्रह करती। कुछ क्षणों तक माँ की मजबूत पकड़ में रहने के बाद लाली मंदिर के प्रांगण की ओर संकेत करके माँ से कहती -

"माँ, जाने दे ना ! एक बार वहाँ देखके जल्दी-से लौट आऊँगी !"

"चुपचाप यहीं खड़ी होकर शान्ति से देख ले, नहीं तो आगे से कभी तुझे साथ लेकर यहाँ नहीं आऊँगी !"

माँ की चेतावनी सुनकर लाली मासूमियत से कहती -

"ठीक है माँ ! नहीं जा रही मैं ! अब मेरा हाथ तो छोड़ दे, बहुत दुख रहा है !"

रानी जब बेटी की पीड़ा का अहसास करके हाथ छोड़ देती, तो कुछ क्षणोपरांत अवसर पाकर लाली फिर मंदिर के अंदर जाने के लिए दौड़ पड़ती और हर बार वह अपने प्रयास में विफल होकर माँ की पकड़ में फँस जाती । कई घंटे तक यही उपक्रम चलता रहा ।

लाली के मन: मस्तिष्क में यह जानने-देखने की प्रबल इच्छा जाग रही थी कि जिस प्रतिबंधित स्थान पर स्वयं उसको, उसकी माँ को तथा उनके जैसे अनेक लोगों को जाने से रोका जा रहा है, वास्तव में वहाँ क्या है ? लेकिन माँ तथा पुलिस के बार-बार रोकने से उसकी बलवती जिज्ञासा शांत होने की बजाय किसी भारी प्रेशर से दबी स्प्रिंग की भाँति दोगुने वेग से सक्रिय हो रही थी।

लाली का पूरा ध्यान अपने लक्ष्य पर था और उसकी सभी ज्ञानेंद्रियाँ पूर्ण समर्पण-भाव से उसके लक्ष्य प्राप्ति में सहयोग कर रही थी। मात्र एक क्षण के लिए एक समय ऐसा आया, जब उसने अनुभव किया कि उसकी माँ का ध्यान उससे हटकर कहीं अन्यत्र विचरण कर रहा है। उसी समय उसने देखा कि प्रतिबंधित स्थान पर जाने से रोकने वाला पुलिसकर्मी भी अपने स्थान पर उपस्थित नहीं है। चंचल प्रकृति की सात वर्षीय बच्ची लाली ने उसी क्षण को अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए शुभ अवसर के रूप में चुना और अविलंब हिरणी शावक की भाँति उछलती-कूदती मंदिर के प्रांगण में प्रवेश कर गयी । अगले क्षण जब उसकी रानी को बेटी के जाने का एहसास हुआ, तो उसके पीछे- पीछे बेटी को पुकारती हुई दौड़ी-

"लाली ! लाली ! अरी ओ लाली ! रुक बिटिया ! अंदर नहीं जाते ! तुझे पुलिस पकड़ ले जाएगी !"

रानी के देखते-ही-देखते लाली कुछ ही क्षणों में भीड़ को चीरते हुए मंदिर के प्रतिबंधित क्षेत्र में प्रविष्ट हो गयी । जब तक रानी प्रतिबंधित क्षेत्र की सीमा तक पहुँची, तब तक वहाँ ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी भी पहुँच चुका था । उस पुलिसकर्मी ने रानी को बाहर ही रोक दिया। रानी कुछ क्षणों तक उस पुलिसकर्मी से अनुनय-विनय करती रही -

बाबू जी, मेरी बेटी गलती से अंदर चली गई है । बच्ची को बाहर लाने के लिए मेरा जाना बहुत जरूरी है । वह अकेली छोटी बच्ची भीड़ में गुम हो जाएगी ! "

लेकिन पुलिसकर्मी ने उसकी एक नहीं सुनी। लाली विजय-पताका के रूप में अपने होठों पर मुस्कान बिखेरती हुई माँ की आँखों से ओझल हो गयी । रानी के पास अब वहीं पर बैठकर बेटी की प्रतीक्षा करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था। अतः बेटी की शरारतों से परेशान वह वहीं पर सिर पकड़कर बैठ गयी और उसके लौटने की प्रतीक्षा करने लगी।

बेटी के लौटने की राह में रानी बेसब्री से पलकें बिछाए हुई थी। लगभग आधा घंटा पश्चात् रानी की आँखों में चमक दिखाई दी, जब उसको दूर से ही भीड़ में अपनी बेटी वापिस आती हुई दिखाई दी। लेकिन, पास तक आते-आते बेटी के चेहरे पर विचित्र हाव-भाव देखकर रानी की आँखों की चमक फीकी पड़ने लगी।

लाली उस स्थान तक तो आई, जहाँ पर उसकी माँ बैठी थी, लेकिन उसने माँ की ओर देखा तक नहीं। वह आकर सीधी वहाँ पर खड़े पुलिस इंस्पेक्टर की ओर आगे बढ़ गयी और आगे बढ़कर पुलिस इंस्पेक्टर का हाथ पकड़कर खींचते हुए संकेत से अंदर चलने का आग्रह करने लगी। लाली के आग्रह में ऐसा कुछ था कि पुलिस इंस्पेक्टर न चाहते हुए भी उसके साथ-साथ चल दिया।

रानी एक बार पुनः "लाली ! लाली ! ओ लाली !" पुकारती हुई उसके पीछे दौड़ी । लेकिन, एक दूसरे पुलिसकर्मी ने उसको आगे जाने से रोक दिया । रानी तब तक बेटी को वापिस लौट आने के लिए पुकारती रही, जब तक वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गयी, परंतु लाली ने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

लाली के साथ पुलिस इंस्पेक्टर के जाने के कुछ क्षणोंपरान्त ही मंदिर के चप्पे-चप्पे पर पुलिस की सक्रियता बढ़ने लगी। पुलिसकर्मी को बुलाकर ले जाते समय के अपनी बेटी के हावो-भावों का स्मरण करके और अब पुलिस की परिवर्तित बढ़ती सक्रियता को देखकर रानी समझ गयी कि दाल में कुछ काला अवश्य है। उस दाल के कालेपन में फँसी हुई अपनी बेटी के विषय में सोचकर ही रानी की धड़कनें बढ़ने लगी। वह मन ही मन उस क्षण को कोसने लगी, जब उसका ध्यान अपनी बेटी से इतर कहीं अन्यत्र भटक गया था, जिसका लाभ उठाकर बेटी उसके नियंत्रण से मुक्त हुई और शीघ्रतापूर्वक प्रतिबंधित क्षेत्र के अंदर प्रवेश कर गयी थी।

कुछ ही मिनट पश्चात् रानी ने देखा कि पुलिस की बढ़ती सक्रियता के बीच कुछ विचित्र वेशधारी लोगों का एक विशिष्ट समूह तेज कदमों से उधर ही बढ़ा जा रहा है, जिधर उसकी बेटी लाली पुलिस इंस्पेक्टर को लेकर गयी थी। वास्तव में वह विचित्र वेशधारी समूह 'बम निरोधक दस्ते' की टीम थी।

बम निरोधक दस्ते की टीम को देखते ही वहाँ पर उपस्थित भक्तगणों एवं दर्शकों के हृदय में भय अपनी जगह बनाने लगा था। सभी लोग अपने परिचितों-अपरिचितों से इस विषय पर जानकारी जुटाने का प्रयास करने लगे थे। चूँकि अभी तक पुलिस भगदड़ के संकट से बचने के लिए ऐसी कोई चेतावनी अथवा सूचना देने से बच रही थी, इसलिए इस विषय में किसी को कहीं से कोई जानकारी नहीं मिल पा रही थी।

लगभग आधा घंटा बीतने के पश्चात् बम निरोधक दस्ते की टीम उसी रास्ते से वापस लौट गयी । लाली की माँ ने अनुभव किया कि भक्तजनों के चेहरे पर अब भय की जगह राहत का भाव लौट आया था। अभी तक रानी वहीं पर खड़ी हुई अपनी बेटी लाली के लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी और पंजों के बल उझक- उझक कर भीड़ में बेटी को तलाशने की असफल चेष्टा कर रही थी। उसी समय माँ के कानों में लाली का कोमल मधुर स्वर सुनाई पड़ा -

"माँआआ !" रानी ने अपनी बाँईं ओर मुड़कर देखा, जिधर से लाली ने माँ को पुकारा था । रानी ने देखा, पुलिस इंस्पेक्टर लाली को अपनी गोद में उठाए हुए उसकी ओर स्नेह-आभार और शाबाशी भरी मिश्रित दृष्टि से देखकर उसकी पीठ थपथपा रहा था और लाली के होठों पर वही चिर-परिचित निश्छल, बालसुलभ गर्वित मुस्कान फैली थी, जो वह सहज ही आकर्षण का केन्द्र बनी हुई थी ।

माँ के निकट आते ही लाली पुलिस इंस्पेक्टर की गोद से उछलकर नीचे उतर गयी और जाकर माँ की बगल में खड़ी होकर खिलखिलाती हुई हँसकर बोली- "यह मेरी माँ है ! मैं अपनी माँ से थोड़ी-सी देर, पल-भर को भी अलग हो जाती हूँ, तो माँ का दिल जल्दी-जल्दी और जोर-जोर से धक-धक करने लगता है ! है न माँ ?" कहते हुए लाली माँ के सीने से लिपट गयी ।

रानी को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहें ? उसने लाली के सिर पर स्नेह की हल्की-सी चपत लगाते हुए मात्र इतना ही कहा-

"चुप कर, पगली ! कितनी बोलती है री तू ?"

"बहुत समझदार है आपकी यह बच्ची ! इसीलिए थोड़ी चंचल है ! अपनी इसी चंचलता के चलते आज इसने कई हजार लोगों के प्राण बचाए हैं ! इसका धन्यवाद और आभार शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है ! कहाँ रहते हैं आप लोग ?"

"वहाँ ! फ्लाईओवर के नीचे !" लाली ने संकेत से बताया ।

"बहन जी, मैं इंसपेक्टर आर्यन हूँ ! मुझे अपने घर का पता नोट करा दीजिए, एक-दो दिन में हम वहाँ आएँगे !"

लाली की माँ ने पुलिस इंसपेक्टर को फ्लाईओवर की भौगोलिक स्थिति बता दी । इंस्पेक्टर पता लिखकर वहाँ से चला गया। पुलिस इंस्पेक्टर के जाने के पश्चात् माँ ने अपनी बेटी लाली से कहा -

"लाली, ऐसा क्या किया है तूने ? कि पुलिस तुझे अपनी गोद में उठाकर लायी और प्यार से तेरी माँ को सौंपकर तेरी बड़ाई कर रही थी !"

"अरे माँ, मैंने कुछ बड़ा नहीं किया ! पर हाँ, मैं व्हाँ ना जाती,तो उस घड़ी को ना देखती और फिर पुलिस अंकल को ना बताती, तो पता है क्या हो जाता ?

"मेरी माँ, क्या हो जाता ? क्या हुआ ? कुछ बताएगी भी या बस ऐसी ही बोलती रहेगी !"

"माँ, बताती हूँ, बताती हूँ ! .... सभी काँवड़िये शिवजी के दर्शन करने जा रहे थे । मैंने सोचा, मैं अपने कंधे पर काँवड़ नहीं लाई, तो क्या हुआ ! बम-बम-भोले तो मैंने भी बोला है ! मैं भी भोले की भगत हूँ ! हूँ कि नहीं ?"

हाँ-बाबा-हाँ, तू भी भोले की भगत है !" माँ ने लाली का समर्थन करते हुए उह पर अपना.मातृत्व बरसाते हुए कहा ।

"फिर, मैं मंदिर में भोले के दर्शन क्यों नहीं कर सकती ? बस, इसीलिए मैं पुलिस से छिपकर अंदर की ओर भाग गयी, जहाँ सब लोग भोले को जल से नहला रहे थे !" लाली ने अपनी शरारत से माँ को हुए कष्ट के लिए सफाई देते हुए कहा।

लेकिन लाली के प्रति पुलिस इंसपेक्टर के व्यवहार को देखकर लाली की शरारत को लेकर माँ की शिकायत का स्वत: निराकरण हो गया था। पुलिस इंसपैक्टर आर्यन के कथन - "इसने कई हजार लोगों के प्राण बचाए हैं" को सुनने के पश्चात् से माँ का हृदय बार-बार अपनी बेटी को देखकर गर्वित अनुभव कर रहा था। इसी गर्व की अनुभूति से उत्साहित माँ ने पुन: लाली से कहा -

"अच्छा, लाली ! यह तो बता, तूने कई हजार लोगों की जान कैसे बचाई ?" वह पुलिस वाला कह रहा था न !"

माँ की उत्सुकता देखकर लाली के होंठ फैल गये और श्वेत कमल-सी उसकी दंत-पंक्ति चमक उठी। अपने साहस और बुद्धिमत्ता का प्रस्तुतीकरण करते हुए उसने कहना आरंभ किया -

"माँ, मैं यहाँ खड़ी हुई पुलिस से बचकर अंदर तो चली गयी थी, पर आगे फिर एक पुलिस खड़ी थी । उससे बचने के लिए मैं वहाँ पर रखे हुए कूड़े के डिब्बे के पीछे छिपने लगी। जब मैं कूड़े के डिब्बे के पीछे बैठी, तो उसके अंदर से मुझे घड़ी की टिक-टिक-टिक सुनाई दी। मैंने डिब्बे के अंदर झाँका और कूड़ा हटाकर देखा, तो वहाँ मुझे कोई घड़ी नहीं दिखायी दी । फिर मैंने डिब्बे के नीचे देखा, तो एक बड़ी घड़ी ...!" कहते-कहते लाली क्षण-भर के लिए मौन हो गयी ।

"फिर ... !"

"माँ, अभी याद करके बता रही हूँ ! एक पल को मुझे साँस तो लेने दे !" लाली ने कृत्रिम क्रोध प्रकट करके अगले क्षण पुनः बताना आरम्भ किया -

"मैंने एक दिन टेलीविजन में देखा था, बम फटने वाली घड़ी भी ऐसी ही थी ! वह बम-घड़ी भी ऐसे ही टिक-टिक-टिक की आवाज कर रही थी। मैं समझ गयी थी, जरूर यहाँ किसी ने बम लगाया है ! टेलीविजन में बताया गया था - " किसी सार्वजनिक जगह पर ऐसी कोई चीज देखें, तो तुरन्त पुलिस को सूचना दें ! बस, बम-घड़ी देखते ही मैंने वहाँ से दौड़ लगायी और जल्दी से पुलिस को बता दिया कि कड़े के डिब्बे के नीचे बम है ! माँ, तुझे पता है ? मैं उस बम के बारे में पुलिस को नहीं बताती, तो यहाँ सब मर जाते ! मैं भी और तुम भी !" लाली ने अपनी बुद्धिमत्ता और निर्णय पर गर्व करते हुए कहा।

रानी ने भी बेटी की अपेक्षानुरूप भावमुद्रा में उसका समर्थन करते हुए उसके सिर पर हाथ फेरा और उसके ललाट को चूमते हुए कहा -

"भूख नहीं लगी आज तुझे ? सारे दिन इधर से उधर और उधर से इधर भागी फिरती है !"

"लगी है ना ! बहुत जोरों से भूख लगी है ! पेट में चूहे दौड़ रहे हैं ! कह रहे हैं, लाली खाना खिलाओ, खाना खिलाओ !" कहते-कहते लाली ने माँ के आँचल से एक मुट्ठी-भर प्रसाद लिया और वहीं पर खड़ी होकर खाने लगी। माँ ने लाली की बाँह पकड़कर एक सुनिश्चित दिशा में लगभग धकियाते हुए कहा-

"चल ! घर चलते हैं ! सवेरे से अब तक दौड़ते-भागते तेरे ये छोटे-छोटे पाँव थक गए होंगे !"

"अरे माँ, मेरे छोटे-छोटे पाँव नहीं थके हैं! यह क्यों नहीं कहती कि तेरे बड़े-बड़े पाँव थक गये हैं !" लाली ने मुस्कराकर कहा।

"ठीक है, मेरी माँ ! मेरे ही पाँव थक गये है ! अब घर चलें ?" माँ के उत्तर पर लाली खिलखिला कर हँस पड़ी और माँ का हाथ पकड़कर मंदिर से अपने घर की ओर बढ़ चली।

महाशिवरात्रि का पर्व शांतिपूर्वक संपन्न होने के एक सप्ताह पश्चात् लगभग ग्यारह बजे फ्लाईओवर के नीचे, जहाँ लाली रहती थी, एक मोटरसाइकिल आकर रुकी । रानी ने देखा, उस मोटरसाइकिल से उतरकर एक पुलिसमैन उनकी ओर बढ़ा आ रहा है । यह देखकर रानी थोड़ी सशंकित हुई । उसकी बेटी लाली ज्वर से पीड़ित बेसुध लेटी थी। अतः रानी शीघ्रतापूर्वक चिंतित मुद्रा में लाली कै पास पहुँची और उसे गोद में उठाकर भय मिश्रित आशंका से पुलिसमैन को देखने लगी। क्षण-भर में ही रानी ने उसको पहचान लिया कि यह वही पुलिस इंस्पेक्टर है, जो महाशिवरात्रि के पर्व पर मंदिर में लाली को बड़े स्नेह से गोद में उठाए हुए था ! अतः रानी ने अपनी चिंता को व्यर्थ अनुभव करके लाली को पुनः लिटा दिया और झेंपते हुए कहा -

"आज लाली की तबीयत बहुत ही खराब है ! इसलिए ...!"

"कोई बात नहीं !" कहते हुए पुलिस इंस्पेक्टर रानी के साथ ही लाली के पास खड़ा होकर उसको देखने लगा । रानी ने पुनः कहा -

"आग-सी तप रही है ! कल से बच्ची ने ना कुछ खाया है, ना पिया है ! बेसुध पड़ी है !"

पुलिस इंस्पेक्टर ने मुस्कुराते हुए लाली की गर्दन की त्वचा को छूकर उसकी आँखों में झाँककर कहा -

"क्यों, क्या हाल है हमारे बहादुर जवान का ?"

पुलिस इंस्पेक्टर का स्वर कानों में पड़ते ही लाली ने अपनी आँखें खोली और प्रतिक्रियास्वरूप सूखे होठों से मुस्कुराकर पुन: आँखें बंद कर ली। पुलिस इंस्पेक्टर ने अनुभव किया कि अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया देने के लिए आँखें खोलने और मुस्कुराने में लाली को पर्याप्त कष्ट उठाना पड़ा था।

"बच्ची को तेज फीवर है ! इसको तुरन्त डॉक्टर के पास ले जाना होगा !" पुलिस इंस्पेक्टर ने रानी से मुखातिब होकर कहा। रानी चुप खड़ी रही। तभी वहाँ से एक रिक्शा गुजरा। पुलिस इंस्पेक्टर ने रिक्शे वाले को पुकारा और लाली की माँ से विनम्रतापूर्वक आग्रह किया-

"बच्ची को लेकर आप रिक्शे में बैठ जाइए ! यह आपको अस्पताल तक पहुँचा देगा !"

"मैं कल सरकारी अस्पताल से लाली को दवाई दिलवाकर लाई थी ! अभी थोड़ी देर पहले ही मैंने इसको दवाई दी है !" रानी इंसपेक्टर ने बताया ।

"उस दवाई से बच्ची को कुछ फायदा नहीं हो रहा है ना ! कल से बच्ची को जो दवाइयाँ दी है, उनका पर्चा भी साथ ले लेना, डॉक्टर को दिखाने के लिए !" इंस्पेक्टर ने आत्मीयता और अधिकार-भाव से कहा।

इंस्पेक्टर का आदेश सुनकर रानी असमंजस में फँस गयी कि तीव्र ज्वर में तपती बच्ची को लेकर आगे बढ़कर रिक्शा में बैठ जाए ? या घर में बैठकर बेटी के स्वस्थ होने की ईश्वर से प्रार्थना करे ? बेटी की गंभीर हालत को देखकर उसका मन कहता था कि ईश्वर ने ही इंस्पेक्टर को उसकी सहायता करने के लिए भेजा है, इसलिए बेटी का इलाज कराने के लिए इंस्पेक्टर की सहायता ले लेनी चाहिए ! लेकिन, वह समाज में कुत्सा के इतने रूप देख चुकी थी कि किसी पर भी विश्वास करना उसके लिए सहज नहीं रह गया था । रानी अपनी दुविधा से बाहर भी नहीं आ पायी थी, तभी उसके कानों में पुनः पुलिस इंस्पेक्टर का स्वर सुनाई पड़ा । इंस्पेक्टर रिक्शे वाले से पूछ रहा था -

"यशोदा हॉस्पिटल चलोगे ?"

"जी बाबू जी ! जरूर चलेंगे !" रिक्शा वाले ने चलने के लिए 'हाँ' कहा, तो इंस्पेक्टर ने पुन: रानी से मुखातिब होकर कहा -

"जल्दी करो !"

इस आत्मीयता निमज्जित संरक्षण और देखभाल के लिए रानी बहुत तड़पी थी । किंतु, उसके भाग्य ने कभी उसका साथ नहीं दिया । वह ऐसी बुलबुल थी जो जिस बगीचे की डाल पर भी बैठी, वह बगीचा ही उजड़ गया।

अंततः वह इंस्पेक्टर के आत्मीय संरक्षण का लोभ संवरण नहीं कर सकी और चुपचाप रिक्शा में जाकर बैठ गयी । रानी के रिक्शे में बैठने के पश्चात् इंस्पेक्टर ने रिक्शा वाले को निर्देश दिया-

"मैं तुम्हें अस्पताल के गेट पर मिलूँगा ! जल्दी पहुँचना !"

"जी बाबू जी !" रिक्शा चालक ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया और रिक्शा आगे बढ़ा दी। जिस समय रिक्शा वाला लाली और उसकी माँ को लेकर अस्पताल के मुख्य द्वार पर पहुँचा, उसने देखा इंस्पेक्टर पहले से ही खड़ा हुआ उनकी प्रतीक्षा कर रहा था -

"बड़ी देर कर दी यहाँ तक पहुँचने में !"

इंस्पेक्टर ने रिक्शा वाले पर देर से आने का आरोप लगाकर अस्पताल के बाहर ही लाली का स्वागत किया और अपने साथ आने का संकेत करते हुए अस्पताल-भवन में प्रवेश कर गया।

इंस्पेक्टर ने चिकित्सक के परामर्श से लाली की यथावश्यक एक्सरे, रक्त जाँच आदि परीक्षण कराये । चिकित्सक के परामर्श अनुसार लाली के लिए सभी आवश्यक दवाइयाँ खरीदी और अंत में रानी को डॉक्टर के पर्चे के साथ दवाइयाँ देते हुए दवाई देने का समय और मात्रा बताकर कहा -

"बच्ची को समय पर दवाइयाँ देना है ! तीन दिन बाद दोबारा यहाँ आकर इन्हीं डॉक्टर साहब को दिखाना होगा ! बीच में यदि लाली की तबीयत बिगड जाए, तो भी तुम्हें यहीं आना है !"

रानी ने आभार की मुद्रा में सिर हिलाकर इंस्पेक्टर के हाथ से दवाइयाँ ले ली। इसके पश्चात् इंसपैक्टर ने अपनी जेब से सौ रुपए का एक नोट निकालकर रानी की ओर बढ़ाते हुए ने कहा -

"अचानक तबीयत बिगड़ने पर आना पड़े, तो यह रिक्शा वाले को देने के लिए रख लो ! डॉक्टर से मैंने इसके बारे में बात कर ली हैं, तुम्हें फीस देने की जरूरत नहीं होगी ! दवाइयों की जरूरत पड़ेगी, तो मेडिकल स्टोर पर इस पर्चे को दिखा देना, जो मैंने अभी तुम्हें दिया है, बिना पेमेंट किए तुम्हें दवाइयाँ मिल जाएँगी !"

यह कहकर इंस्पेक्टर ने एक रिक्शा वाले को पुकारा और उसे गंतव्य स्थान बताकर उसके पारिश्रमिक का भुगतान करके लाली और उसकी माँ रानी को रिक्शा में बैठने का संकेत किया।

रानी ने अपने हाथ में इन्सपेक्टर के हाथ से सौ रुपए का नोट नहीं पकड़ा । उसके मन में अभी भी बार-बार भय-आशंका के बादल उमड़-घुमड़ रहे थे कि कहीं वह किसी दलदल में तो फँसने नहीं जा रही है ? अपने ही मूक प्रश्न के उत्तर में एक स्वर उसके हृदय में उभर रहा था-

"उस दिन इस छोटी सी-बच्ची ने अपनी समझ-बूझ से हजारों लोगों की जान बचायी थी ! आज इसकी तबीयत खराब है, तो एक अच्छे डॉक्टर से इलाज करवाकर पुलिस अपना फर्ज पूरा कर रही है !" उसी क्षण दूसरा स्वर उसके मस्तिक से उभर रहा था -

"दुनिया के इतने रंग देखने के बाद भी, तू अब भी किसी पर कैसे भरोसा कर सकती है ?"

रानी की भाव-भंगिमा को पढ़कर इंस्पेक्टर ने उसके अंतःकरण में उठने वाले प्रश्नों का कुछ अनुमान करके कहा -

"उस दिन इस बच्ची ने अपनी समझ और साहस से जो काम किया था, उसके लिए हमारे साहब स्वतंत्रता दिवस पर लाली को इनाम देना चाहते हैं, ताकि इस छोटी-सी बच्ची से प्रेरणा लेकर देश के सभी लोग अपने देश-समाज के प्रति अपने कर्तव्य को समझ सकें ! इनाम की घोषणा करने से पहले साहब एक बार लाली से और आपसे मिलना चाहते हैं ! आज साहब ने मिलने के लिए लाली को और आपको ऑफिस में बुलवाया था । लाली की तबीयत बहुत खराब है, ऐसे में साहब से मिलवाना ठीक नहीं होगा, इसलिए डॉक्टर को दिखाना जरूरी था।"

इंस्पेक्टर की भाव-भंगिमा देखकर उसके शब्दों पर लाली की माँ को थोड़ा विश्वास हो रहा था, किन्तु भय और आशंका का क्षीण-सा अस्तित्व अपने मूल रूप में अभी भी उसके हृदय में बना हुआ था।

फ्लाईओवर के नीचे अपने निवास स्थान पर वापस लौटकर रानी ने लाली को दवाई दी और अगले तीन दिनों तक चिकित्सक के परामर्शानुसार समय पर सारी दवाइयाँ खिलाती रही ।

इन तीन दिनों में लाली के स्वास्थ्य में आशा से अधिक सुधार हुआ था। चौथे दिन दोपहर ग्यारह बजे इंस्पेक्टर का पुन: आगमन हुआ। चूँकि रानी ने लाली को बता दिया था कि उसके स्वास्थ्य लाभ के लिए इंस्पेक्टर ने एक बहुत अच्छे अस्पताल में उसका इलाज कराया है और उसको उसकी बुद्धिमत्ता तथा साहसपूर्ण कार्य के लिए इनाम मिलने वाला है, इसलिए लाली अपने घर पर आये हुए इंस्पेक्टर को देखते ही मुस्कुराती हुई अपनी चारपाई से उठी और दौड़कर इंस्पेक्टर के पास आकर मित्रवत खड़ी हो गयी ।

लाली की बाल- सुलभ निश्छल मुस्कुराहट और चेहरे पर दमकते आत्मविश्वास में इतना अधिक आकर्षण था कि इंस्पेक्टर में अनायास ही आत्मीयता और वात्सल्य का स्रोत फूट पड़ा। इंस्पेक्टर ने स्नेह के भावावेग में लाली को गोद में उठा लिया और उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा-

"तुम्हें तुम्हारी बहादुरी के लिए पुलिस की वर्दी पहनकर इनाम लेना है ! इनाम लेने के लिए हमारे साथ चलोगी न ?"

"हाँ, चलूँगी !"

लाली ने उत्साहित होकर चलने की स्वीकृति तो दे दी, किंतु अगले ही क्षण अपनी माँ की आर्थिक दरिद्रता पर दुखी होकर बोली -

"पर मेरे पास पुलिस के कपड़े नहीं हैं !"

इंस्पेक्टर ने उसके उत्साह को बनाए रखने के लिए आश्वस्त करते हुए कहा -

"अरे, तुम जैसे बहादुर जवानों को इनाम में ही पुलिस के कपड़े भी मिलते हैं ! समझी तुम ! इंस्पेक्टर का आश्वासन मिलते ही लाली के चेहरे पर प्रसन्नता लौट आयी।

तीन दिन पश्चात् इंस्पेक्टर ने पूर्व की भाँति लाली को पुनः अस्पताल ले जाकर डॉक्टर से उसकी जाँच करायी और उसको शीघ्र स्वस्थ होने के लिए आवश्यक दवाइयाँ दिलवायीं। अपनी योजना के अनुसार दवाइयाँ दिलवाकर लाली को उसकी माँ रानी के साथ एस.एच.ओ. से मिलवाने के लिए लाया गया।

लाली से कुछ ही मिनट बातें करके उसके आत्मविश्वास और ज्ञान-ग्राहयता ने एस.एच.ओ. को पर्याप्त प्रभावित किया । अब लाली के साथ बात करने में की एस.एच.ओ. की रुचि बढ़ रही थी। एस.एच.ओ. ने लाली से पूछा -

"याद करके बताओ, तुमने किसी व्यक्ति को वहाँ पर बम लगाते हुए देखा था ? या ऐसे किसी संदिग्ध व्यक्ति को कूड़ेदान के आसपास देखा था, जिस पर जाकर तुम्हारे संदेह की सुँई रुक जाए ?"

लाली ने उनके प्रश्न के उत्तर में बताया -

"हाँ ! मुझे याद है ! जब मैं पुलिस अंकल के डर से कूड़े के डिब्बे के पीछे छिपने जा रही थी, एक आदमी ने मुझे वहाँ से भाग जाने के लिए डाँटा था ! मैंने उससे कहा कि वहाँ से जाऊँगी, तो पुलिस मुझे पकड़ लेगी, तब उसने पुलिस को बहुत गंदी-गंदी गाली दी थी और जब मैं टिक-टिक -टिक सुनकर कूड़े के डिब्बे के नीचे झाँक रही थी, तब उसने मुझे कहा था कि मैं वहाँ से नहीं भागी, तो वे मुझे जान से मार देंगे ! उसने पुलिस के कपड़े नहीं पहने थे, इसलिए मुझे उससे जरा-सा भी डर नहीं लगा ! "

"अच्छा, यह बताओ, तुम उसको अब पहचान सकती हो ?"

"हां ! मैं तो उसको आँखें बंद करके भी पहचान सकती हूँ ! उसकी आवाज सुनकर पहचान सकती हूँ !

"हूँऊँऊँ ! अच्छी बात है !" एस.एच.ओ. ने लाली को शाबाशी देने के शैली में कहा।

बातचीत संपन्न होने के पश्चात् एस.एच.ओ. समाज के प्रति लाली के स्पष्ट दृष्टिकोण तथा एक जागरूक नागरिक के रूप में उसकी कर्तव्यनिष्ठा से इतने प्रभावित हुए कि उसी समय सब इंस्पेक्टर आर्यन को आदेश देकर कहा-

"इस केस में अपराधी की पहचान करने के लिए यह हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण कड़ी है ! इनकी सुरक्षा का दायित्व आपका है ! इतना ध्यान रहे, यथाशीघ्र इनके लिए किसी सुरक्षित निवास की व्यवस्था करनी होगी !"

"जी सर !" सब-इंस्पेक्टर आर्यन ने सेल्यूट मारकर आदेश स्वीकार किया।

"सर, क्या नए आवास की व्यवस्था होने तक इन्हें इनके पूर्व निवास स्थान पर पहुँचाया जाए या यहीं पर रखा जाए ?"

"इंस्पैक्टर आर्यन, इनकी सुरक्षा को ध्यान में रखकर यह निर्णय आप कीजिए !"

"जी सर !"

कई हजार शिव भक्तों को हताहत करने के लिए मंदिर में बम धमाका करने के प्रयास में संलिप्त अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस पूर्णतः गंभीर और सक्रिय थी। बम धमाके के प्रयास में विफल एक व्यक्ति की पहचान की कड़ी के रूप में प्रत्यक्षदर्शी लाली थी, जिसे सुरक्षा प्रदान करना अत्यंत आवश्यक था, किंतु एस.एच.ओ. के निर्देश के बावजूद उसको तुरंत सुरक्षा उपलब्ध कराने के बजाय उसको उसी फ्लाईओवर के नीचे पहुँचा दिया गया, जहाँ वह पहले से रह रही थी।

दो दिन पश्चात् थाना परिसर में स्वतंत्रता दिवस के राष्ट्रीय-पर्व का आयोजन होना था । जिले की 'शांति- व्यवस्था तथा संवैधानिक कर्तव्यों के प्रति नागरिक-जागरूकता' में योगदान देने वाले कुछ नागरिकों को सम्मानित और पुरस्कृत करने की योजना भी पुलिस स्टेशन के शीर्ष अधिकारियों द्वारा बनायी गयी थी । सम्मान और पुरस्कार पाने वाले सम्मानीय नागरिकों की सूची में लाली सबसे कम आयु की थी और उसका नाम सबसे ऊपर था ।

चौदह अगस्त की सुबह थाना परिसर में स्वतंत्रता दिवस समारोह की तैयारियाँ चल रही थीं। एस.एच.ओ. ने वहाँ पर उपस्थित पुलिसकर्मियों पर गरजते हुए कहा -

"यह खबर किसने लीक की है कि यह बच्ची बम धमाके की कोशिश करने वालों की चश्मदीद गवाह है ?"

एस.एच.ओ. का प्रश्न सुनते ही सभी पुलिसकर्मियों ने एक स्वर में विषय से अनभिज्ञता प्रकट करते हुए अपनी दृष्टि नीचे कर ली। एक पुलिसकर्मी ने ढीठता से पूछा -

"क्या हुआ सर ?"

"लो जी कर लो इनसे बात ! यह भी इन्हें मैं बताऊँगा कि शहर में क्या हुआ है ? क्या होने जा रहा है ? और ये बनेंगे दरोगा ! यही होता है, जब सरकार रिजर्वेशन कोटे से भर्ती करती है !" एस.एच.ओ. ने व्यंग बाण छोड़ा।

उसी समय थाना परिसर में सब-इंस्पेक्टर आर्यन की जीप ने प्रवेश किया। जीप से आर्यन के साथ लाली को उतरते देखकर एस.एच.ओ. ने राहत की साँस ली, लेकिन इंस्पेक्टर आर्यन बहुत बुझे हुए प्रतीत हो रहे थे। एस.एच.ओ. द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या स्वास्थ्य ठीक नहीं है ? इंस्पेक्टर आर्यन की आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। कुछ क्षणोंपरान्त वह रुंधे गले से बोले-

"सॉरी सर ! सबकुछ मेरी गलती से हुआ है ! आएम वेरी-वेरी सॉरी सर ! मुझे किसी दूसरे पर इनकी सुरक्षा का भार नहीं छोड़ना चाहिए था ! मेरे कारण ही इस बच्ची ने अपनी माँ को खो दिया है आज !"

ग्लानि में डूबे इंस्पेक्टर आर्यन ने एस.एच.ओ. को बताया -

" सर, यह मात्र दुर्घटना नहीं थी । प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया है कि जिस गाड़ी ने लाली की माँ को कुचला था, उसका लक्ष्य यह बच्ची थी । ईश्वर की कृपा से बच्ची सकुशल है ! दो युवकों को उठा लिया गया है। उनसे ज्ञात हुआ है कि बम-धमाका करने में विफल होने के समय से ही वे लोग इस बच्ची की तलाश में थे, क्योंकि एक तो इस बच्ची ने बम की सूचना देकर हजारों लोगों की जान बचाकर उनके उत्साह पर पानी डालने का काम किया है । दूसरे, वहाँ पर बम लगाने वाले को इस बच्ची ने प्रत्यक्षत: देखा है ! बच्ची उसको पहचानती है ! "

एस.एच.ओ. के मन में यह जानने की उत्सुकता थी कि आखिर हत्यारों के निशाने पर होने के बावजूद बच्ची अपने किस बुद्धि-चातुर्य के बल पर स्वयं की रक्षा करने में सफल हुई ? इंस्पेक्टर आर्यन ने एस.एच.ओ. से कहा -

"सर यह बच्ची का बुद्धि चातुर्य नहीं, चमत्कार है ; प्रभु की कृपा का फल है ! इस बच्ची को खत्म करने के लिए उन्होंने इसको कुचलने की योजना बनायी और रात के अंधेरे में उस जगह को गाड़ी से रौंद डाला, जहाँ पर लाली अपनी माँ के साथ सोती थी । लेकिन, वे लोग यह नहीं जानते थे कि कल रात लाली नन्दू-चन्दू के साथ चली गयी थी और देर होने पर वही सो गयी थी।

सर, लाली की माँ के मृत शरीर को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इनके शरीर में कोई साँस शेष न बची रह जाए, इसलिए उसको कई बार गाड़ी से रौंदा गया है। उसका शरीर इतनी बुरी तरह कुचला गया है कि पहचान कर पाना कठिन है !"

इंस्पेक्टर की सारी बातें सुनने के पश्चात् एस.एच.ओ. कुछ क्षणों तक चिन्तन मनन की मुद्रा में शान्त बैठे रहे। कुछ क्षणोपरान्त उन्होंने इंस्पेक्टर आर्यन से कहा -

"इस बच्ची को इसकी समझ-बूझ और साहस के लिए पुरस्कार देने की अपेक्षा इसको सुरक्षा देना अधिक आवश्यक है।"

"जी सर !" इंस्पेक्टर आर्यन ने सहमति प्रकट की ।

"इसकी माँ की हत्या के बाद उसकी अनुपस्थिति में इस बच्ची को सुरक्षा देना हमारे लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बन गयी है, इंस्पेक्टर ! हम चाहते हैं कि इसको सुरक्षा तो दी जाए ! बम धमाके में संलिप्त अपराधियों के प्रत्यक्षदर्शियों में इस लड़की का नाम गुप्त रखा जाए और जहाँ तक संभव हो, यह भी प्रकाश में न आए कि माँ के साथ हुई दुर्घटना में यह बच्ची सकुशल बच गयी है। ऐसा करने पर अपराधियों का ध्यान इसकी ओर से डायवर्ट होने की संभावना बढ़ेगी !"

"जी सर !" इंस्पेक्टर आर्य ने पुन: आदेश का पालन करने की मुद्रा में अपनी सहमति प्रकट की।

"इंस्पेक्टर आर्यन, आप किसी परिवार में बच्ची के रहने की व्यवस्था कर सकते हैं ? ऐसे परिवार में जहाँ इस बच्ची का जीवन सहजता से व्यतीत हो सके और अपराधियों की पहुँच से परे हो !"

"सर कल बताऊँ, तो चलेगा ?"

"और आज ? आज कहाँ रखा जाएगा इस बच्ची को ?"

"सर, आप अनुमति दें, तो मैं इसको अपने घर ... !

इंस्पेक्टर आर्यन का प्रस्ताव सुनकर एस.एच.ओ. न केवल संतुष्ट हुए, बल्कि बहुत प्रसन्न भी हुए, क्योंकि एक और उनके कंधों पर उसकी सुरक्षा का कर्तव्य-भार था, तो दूसरी ओर उनका मन-मस्तिष्क भी बच्ची के सुरक्षित-सहज जीवन के लिए चिन्तित और बेचैन था ।

समाप्त