कुकुर
किसी युद्ध का मैदान है! ... टैंक ही टैंक दिख रहे हैं। दोनों तरफ सेना अपने-अपने मोर्चे लिये हैं। बमबारी जारी है। बन्दूकें धाँय-धाँय करके अट्टहास कर रही हैं.! चारों ओर लाशें ही लाशें...,खून ही खून ...। बाकी सैनिकों की तरह जगराम का भी गला प्यास से सूख रहा है। लेकिन पानी का कहीं भी नामो निशान नहीं। युद्ध का उद्देश्य आतंकवाद, नस्लवाद या देश पर शासन की भावना नहीं वरन् समुद्र पर आधिपत्य ही युद्ध का कारण बना। पानी की समस्या इसकी मूल जड़। पानी के सारे स्रोत यानी कुंआ,बावड़ी, नदी,तालाब और नलकूप का सारी पानी खींच लिया गया था, शेष बचा एकमात्र स्रोत था ‘समुद्र’ जिसे लड़ रहे दोनों देश हथियाना चाहते थे। जगराम के देश के सैनिक दूसरे देश के सैनिकों को खदेड़ रहे थे। तभी कोई घायल सैनिक चिल्ला उठा- लानत है ईश्वर की दी हुई चीज यानी पानी के लिये युद्ध...पानी के लिये...युद्ध ।
युद्ध अभी जारी था। दोनों तरफ की तोपें बम उगल रहीथींे। एक बम जगराम के बिल्कुल करीब आकर गिरा। जगराम भय से सफेद हो गया। वह जोर से चीखा। चीखने के साथ ही उसकी नींद खुल गयी। देखा, सारा बदन पसीने से तरबतर था। वह सोचने लगा ये कैसा सपना था... ? आगत के चिन्ह या अवचेतन में बैठी कोई धारणा...।
जगराम की निगाहें घड़ी पर स्थिर हो गयीं जैसे क्षण भर को जिंदगी स्थिर हो गयी हो। घड़ी का छोटा कांटा सात पर और बड़ा कांटा बारह पर देख वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। मन में उथल-पुथल शुरू हो गयी... अब तक तो बहुत भीड़ हो गयी होगी... आज तो पानी मिलना मुश्किल है... पाजामा और टी शर्ट हाथ में ले झल्लाते हुए उसने अपनी पत्नी को आवाज लगायी , ‘‘सुभद्रा तुमने जगाया क्यों नहीं ?’’े
... नदारद था। वह रसोईघर की ओर चल दिया। कुल्ला करने के लिये तमहड़ी(चरी) में गिलास डाला तो खन्न ऽ......ऽ........ऽ... की आवाज के साथ गिलास उसकी तली से जा टकराया। दूसरी गगरी को हिलाया तो वह भी खाली टनटना उठी।
जगराम एक कारखाने में काम करता है। वह बी. ए. पास है। उसने घड़ोंची(घिनौची-पानी रखने का स्थान) के पास रखे पुराने घी, तेल, डालडा के पीले खाली डिब्बों को समेटना शुरू कर दिया। पाया कि प्रिया तेल का डिब्बा, मालती घी का डिब्बा, अपूर्व डालडा का डिब्बा तो मिल गया, लेकिन न्यूट्रल्स और गोल्डी सरसों के डिब्बे दिखायी नहीं दे रहे थे। दो डिब्बे कहाँ गये ? क्या घर में कहीं छिपा के पानी बचा कर रख लिया गया है या पानी के कारण डिब्बे चोरी हो गये ?
... चलो लौट के देखेंगे। उसने डिब्बों को टांगने वाले (टंगने) कैरियर उठाये और सायकिल निकालने लगा। एस की शेप में लोहे की छड़ से बने टंगनों को उसने सायकिल के कैरियर के दोनों ओर टांगकर उनमे डिब्बों के हत्थे फँसा दिये और चल पड़ा। अपनी पत्नी सुभद्रा और सात वर्षीय बेटी राधा के साथ जिस कॉलोनी में रहता है, वह शहर की फ्यूजनमय बस्ती है। फ्यूजन इस मामले में कि यहाँ शहर एवं ग्राम्य परिवेश का मिला जुला रूप है। शहरीकरण की परम्परा में अटैच लैट-बाथ बनने लगे थे लेकिन आंगन व घड़ोंची की परम्परा बरकरार रही। महिलायें सीधे पल्ले की साड़ी पहन , लम्बा घंूघट काढ़तीं... होठों पर लिपिस्टिक भी लगातीं। विवाह के अवसर पर घर की दीवारों पर बेलबूटे काढ़े जाते और रिसेप्शन भी होते...। लड़कियाँ जीन्स-टॉप के साथ बड़ी-बड़ी पायजेब पहनतीं और महावर से पैर सजातीं;....टैटू भी लगातीं।
वर्ग वैषम्य पर निराला की पंक्तियाँ - ’वह तोड़ती पत्थर’ में चित्रित वर्ग के समतुल्य ही इस बस्ती में भी शोषक और शोषित वर्ग विद्यमान हैं। कुछ खपरैल से ढंके घर हैं.... कुछ छोटे तथा पक्के घर हैं। आधुनिक सुविधाओं से लैस एक विशालकाय अट्टालिका भी है जिसके पास पंचायती (सार्वजनिक) बोरिंग है। इस बस्ती के मध्यमवर्गीय एवं निम्नवर्गीय परिवार इस बोर से पानी भरने आते।
जगराम बोरिंग स्टेशन पहुँचा जो बोरिंग कतई न था। देश की जमीन से जुड़ी जनता अपनी मूल संस्कृति एवं भाषा के साथ वहाँ मौजूद थी। अब तक चालीस-पचास डिब्बों की लाइन लग चुकी थी। हर डिब्बे पर दो नाम दिख रहे थे। एक उस कम्पनी का नाम जिसका उत्पाद डिब्बे के साथ बिका था तथा दूसरा उस डिब्बे के वर्तमान मालिक का, जो अनगड़ अक्षरों मंे पेन्ट से लिख दिया गया था। दो मालिकों के समान नाम होने पर नाम के साथ मूल गाँव या काम का नाम अंकित था। जैसे कमल सिरसौद वाले और कमल कैसेट वाले।
पंचायती बोरिंग का चलना जबसे शुरू होता तभी से अट्टालिका में भी बोरिंग चलना शुरू हो जाती। यहाँ बीस-पच्चीस घर पानी भर लेते , वहाँ एक ही घर के लिये पानी-भरा जाता। जाने कितना बड़ा पेट था उन लोगों का। अट्टालिका में नेतराम जी रहते हैं। राजनीति में दबदबा होने के कारण लोग उन्हें ’नेताजी’ पुकारते हैं। मुहल्ले के लोगों को पोस्टल एड्रेस लिखवाना होता या शहर में पता बताना हेाता तो कह दिया जाता ’नेताजी की हवेली के पास’।
नेताजी जगराम के ही गाँव के थे। जगराम उन्हें पालागन (पैर छूना) कर लेता। वे भी घनी मूछों के बीच फड़फड़ाते होठों से बोल ही देते-खुश रहो, ...कभी कोई काम हो तो बताना।
जगराम ने अपने डिब्बे कतार में लगा दिये और दूर खड़े लोगों के पास जाकर खड़ा हो गया। इन्सान की जगह डिब्बे लाइन में लगकर , व्यक्तियों के प्रतीक बन गये थे। जितने डिब्बे उतने व्यक्ति और उतने ही अटेंडर जो उन डिब्बों को घर तक पहँुचाने का काम करते। खालिदा बी, सिलकारी चाची, हल्की ताई, जुम्मन चाचा, सुरेश सक्सैना, मिश्रा अंकल, महावत दादाजी, दतिया वाली, सिरसौद वाली, सब वहाँ खड़े थे।
सुरेशजी का नम्बर आया। चार डिब्बे भरने के बाद वे दो डिब्बे और उठाने लगे तो खालिदा बी गरज पड़ी ,‘‘ ऐे.... ऐसा नहीं चलेगा.....तुम्हारा नम्बर है इसका मतलब यह नहीं कि तुम पूरे घर का पानी भर लो। एक बार मे चार डिब्बे पानी ही मिलेगा।’’
सबने हाँ में हाँ मिलाई। तभी धनकिया नमूदार हुयी। वह विनती के स्वर में महाबतजी से बोली , ‘‘अरे भैया दो डिब्बा मोय भर लेन देऊ, मौड़ा को अस्पताल दिखावे जाने है।’’
हल्की बाई अपने पोपले मुँह से बोल उठी, ’’अच्छा बिना लम्बर के कैसे भर लेगी।’’
जगराम की निगाहें कलाई पर बंधी घड़ी की सुईयों पर पड़ती तो उसकी व्यग्रता बढ़ जाती। उसे कारखाने पहुँचना था।उसे लग रहा था आज वह लेट हो जायेगा और एक दिन का हाफ वेतन कट जायेगा। अगर अभी वापस चला गया तो घर के लोग बिना पानी ेबेहाल हो जायेंगे। पानी की किल्लत के चलते वह तो अपने रिश्तेदारों से भी कह देता - भई गर्मियों में मत आना। पानी लगता ज्यादा है और मिलता कम है ,बहुत परेशानी होती है। रोज-रोज पानी की किल्लत.... पर कोई हल नहीं था। बिन पानी सब सून। नल तो हाथी के दांत......खाने के और दिखाने के और ! डिब्बों की कतार पाँच डिब्बे आगे खिसक गयी थी।
सिलकारी चाची की आवाज ने उसे चौंका दिया । वे मुरैना वाली के नाती से कह रही थीं , ’’ऐ मौड़ा, घर से धोकर लाया कर बर्तन... ,यहाँ मत धो... ,ऐसे ही भर लेने हो तो भर ले....।’’
ऐसा रोज ही होता... आपस में खूब तकरार होती।
बोर के घेरे में आते ही लोगों की एक-दूसरे के लिये की गयी अच्छाइयाँ और भलाइयाँ सब भुला दी जाती थीं। पानी के आगे सब सम्बन्ध फीके थे...।
पानी तो यों भी मानव सभ्यता के विकास का बहुत जरूरी अंग रहा है, दुनिया की सारी सभ्यतायें पानी के किनारे ही पुष्पित पल्लवित हुयी हैं।.... चाहे रुस का मास्को हो या अमेरिका का न्यूयार्क , ....इंग्लैंड का लन्दन हो या भारत के दिल्ली और आगरा... । हर शहर पानी के किनारे ही तो आगे बढ़ा। पानी मानव जीवन का ही नहीं समस्त ब्रह्माण्ड का आधार है। पानी ही प्राण है, पानी ही सम्मान है... ,पानी ही आब है, पानी ही आबरू है...। लाज-हया को भी पानी ही कहते हैं। अभिमान खत्म होने के बाद की स्थिति भी पानी-पानी होने की होती है। जिनका तेज, जिनकी वाणी और जिनका पौरुष दुनिया में चर्चित हुआ उन्हें पानीदार कहा गया...और जो अपमान में जिये, कायर बने रहे उनकी स्थिति चुल्लू भर पानी में डूबने की रही...। रहीम कवि ने लिखा है ‘ रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून ! ’
सब लोग अपने नम्बर की ताक मंें थे...टारगेट केवल नल। अचानक बिजली का फ्लक्चुएशन हुआ और मोटी धार पतली धार में तब्दील हो गयी। सुमावली वाली बिजली की गति से उठी और चौथे नम्बर पर रखे अपने डिब्बे उठाकर नल के नीचे लगाने लगी...। उसे देख धनकिया ने अपने डिब्बे उठाये और सुमावली वाली के डिब्बों के ऊपर लगा दिये। सुमावली वाली चिल्ला उठी, ’’मेरे मंजे मंजाये डिब्बे खराब कर दिये...।’’
धनकिया आँखें मटकाकर बोली , ‘‘ उस दिन डिब्बे खराब नहीं हुए थे जब लाइट जाने पर मैंने अपने डिब्बों का पानी तेरे खाली डिब्बों में भरा था।’’
सुमावली वाली ने उसे चेतावनी दी , ‘‘देख अपने डिब्बे हटा ले’’ पर धनकिया न मानी... अपनी हार होते देख पानी से आधा भरा डिब्बा उसने उठाया और धनकिया पर पानी उडेल दिया। धनकिया कैसे सहन कर पाती। पानी ने जितना शरीर को ठण्डक पहुँचायी थी , उतना ही दिमाग गरम हो गया था।
जगराम को सहसा याद आया कि यदि यही स्थिति बनी रही तो सपने में आयी युद्ध की विभीषिका अधिक दूर नहीं थी। वैसे भी अपने देश में कृष्णा और गोदावरी नदी के पानी को लेकर दक्षिण भारत के कई प्रदेश लड़ रहे थे... ,गंगा के पानी को लेकर भारत और बंग्ला देश में विवाद जारी था , जो कभी भी विस्फोट के साथ युद्ध में बदल सकता था।
आवाजें सुनकर नेताजी ने अट्टालिका के गेट से झांका। उन्हें देखते ही सब शान्त हो गये जैसे सांप सूंघ गया हो आखिर उनका दबदबा था।
जगराम के मन में विचार कौंधा, क्यों न नेताजी के यहाँ से पानी भर लिया जाये। वह सोचने लगा - कहीं मना कर दिया तो ....तो क्या हुआ उन्हें परखने का सबसे अच्छा मौंका है... वे मना ही तो करेंगे कुछ छीन तो न लेंगे। यदि भर लेने दिया तो मैं समय से कारखाने पहुँच जाऊँगा। एक दिन की छुट्टी लगने से बच जायेगी... अपनी ही उधेड़बुन में वह अट्टालिका के गेट पर पहुँच गया।
नेताजी बगीचे में बैठे अखबार पढ़ रहे थे। जगराम ने पालागन की और संकोच में खड़ा रहा ।
नेताजी उसकी ओर मुखातिब होकर बोले , ‘‘और सुनाओ जगराम क्या हाल है ?’’
’’सब कृपा है मालिक’’ कहते हुए जगराम ने हाथ जोड़ दिये। नेताजी ने अखबार में अपनी नजरें गढ़ा दीं। जगराम ने खंखारकर गला साफ किया जैसे कुछ कहने के पूर्व की प्रक्रिया कर रहा हो।
नेताजी ने प्रश्नवाचक निगाहों से उसे देखते हुए पूछा , ‘‘कहो कैसे आना हुआ ?’’ इस प्रश्न की जगराम को कतई संभावना नहीं थी। वह हकलाते हुए बोला, ’’जी मालिक... जी बस यूं ही...’’ कुछ देर चुप्पी छायी रही फिर वह हिम्मत करके बोला, ’’जी हुजूर, ...आपके यहाँ से चार-छह डिब्बे पानी भर लेते तो...।’’
’’हूँ’’- नेताजी ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा फिर कहने लगे ,’’ठीक है....भर लेना।’’
अगले दिन से जगराम नेताजी के यहाँ से पानी भरने लगा। धीरे-धीरे अट्टालिका के काम नेताजी ने जगराम से कराना शुरू कर दिये। रात बेरात भी...।नेताजी को कभी भी जरूरत पड़ती वे जगराम को बुलवा लेते... जैसे बंधुआ मजदूर। गेंहूँ-चावल और दाल-दफार की बीना-फटकी, छाना-बीनी के लिये जगराम की पत्नी सुभद्रा को भी अट्टालिका जाना पड़ता। कभी महरी नहीं आती तो सुभद्रा और उसकी बेटी काम करतीं।
इस साल बर्षा कम हुयी तो नेताजी के बोरिंग का पानी चला गया। एक दो बार तो उन्होंने नगरपालिका के टंेंकर मंगा लिये। लेकिन कब तक काम चलता। पंचायती बोरिंग घिसटते हुए सबके गले तर कर रही थी। जगराम का अट्टालिका से पानी भरना तो बंद हो गया लेकिन अट्टालिका के काम लदना बदस्तूर जारी रहे। जगराम पर भी जिम्मेदारी आ गयी दस-बारह डिब्बे भरकर अट्टालिका में डालने की।
पहले वह अट्टालिका से पानी भर लेता तो समय निकल आता था काम करने के लिये, पर अब तो बोरिंग पर भी समय लगता और नेताजी के काम भी करने पड़ते। पत्नी भी वहाँ जाने में आना-कानी करने लगी थी। वहाँ के काम बढ़ते जा रहे थे। जगराम परेशान हो गया, पानी तो नम्बर से भरना होता था। वह कारखाने के लिये लेट होने लगा। लेकिन मना करने की हिम्मत उसकी नहीं थी।
अलस्सुबह सबने देखा कि नेताजी की लेझम मय टिल्लू पम्प के पंचायती बोर पर लग गयी है और अट्टालिका में पानी भरा जा रहा है। एक घण्टे तक उन्होंने पानी भरा। तब तक काफी लम्बी लाइन लग चुकी थी। लोगों के चेहरे तमतमा रहे थे। अन्दर उबाल आ रहा था। सब अन्दर ही अन्दर भुनभुना रहे थे। लेकिन उन सबको पानी एक धण्टे बाद ही मिला, सबने अपने आपको नियंत्रित किया बस दो-दो डिब्बा पानी लिया।
अब तो रोज का नियम बन गया। सुबह पहले नेताजी के घर पानी भरा जाता तब जनता को पानी मिलता। सब लोग मन ही मन बड़ी-बड़ी योजना बनाते पर सब फेल। कोई उस पर अमल करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। नेताजी कुकुरमुŸाा की तरह प्रगट हो गये थे। कुकुरमुŸाा को उगने और पनपने के लिये किसी जड़ या किसी आश्रय का मोहताज नहीं होना पड़ता। वह किसी भी जगह सिर्फ पानी की उपस्थिति में उगता है। यहाँ तो नेताजी पानी की अनुपस्थिति में उग आये थे।
बोर चलवाने का टाईम फिक्स कर रखा था सब लोगों ने। ताकि मशीन को भी आराम मिल जाये। सुबह शाम तीन-तीन घण्टे चलती थी लेकिन अब तो देर रात गये भी अट्टालिका के लिये बोर मशीन चलती। वह मशीन भी कब तक घिसटती। हाँफ तो पहले से ही रही थी , अचानक खराब हो गयी। कॉलोनी में त्राहि-त्राहि मच गयी। सबको लग रहा था नेताजी ने बोर मशीन का पानी नहीं खून पी लिया। इसलिये उसकी मौत हो गयी। जगराम को हिन्दी के कवि निराला बहुत याद आ रहे थे और उनकी पंक्तियाँ भी - ’’अबे सुन बे गुलाब, गर पायी खुशबू रंगो आब। खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, डाल पर इतरा रहा केपीटलिस्ट’’।
सब लोग अन्दर ही अन्दर नेताजी से क्रोधित थे। अरसे पहले की बात है गांव में विधायक आये थे तो बूंद-बूंद को मोहताज गाँव वालों ने मिलकर बड़ी मुश्किल से विधायक निधि से बोर की अनुमति ले पायी थी, जिसमंे कुछ जन सहयोग की राशि भी मिलाई जाना थी। गाँव में चन्दा हुआ तो लोग नेताजी से सहयोग मांगने गये थे ,तब उन्होंने कोई सहयोग तो दिया नहीं अलबŸाा उन्हेाने जियोग्राफीकल हाइड्रोलाजिस्ट से अपने घर के पास पानी बताने का जोर डाल कर, यह बोर अपनी हवेली के पास लगवा लिया था। अब जब वह बोर नेताजी के कारण ही बिगड़ा है , उनसे क्या उम्मीद की जाये। बोर सुधरने के लिए सबने पैसे इकट्ठे किये। नेताजी के यहाँ रुपये लेने गये तो कह दिया एक दो दिन में दे देंगे।
जगराम को पता था कुकुरमुŸाा किसी काम का नहीं होता , उससे किसी का लाभ भी नहीं होता।यूं तो एक खूबसूरत छत्री के साथ वह खड़ा होता है, पर किसी का आश्रयदाता नहीं बनता।
आखिरकार बोर मशीन में लम्बे-लम्बे पाइप डाले गये। डेढ़ दिन काम चला। तब जाकर मशीन सुधरी तो रात में ही खबर फैल गयी कि सुबह से पानी मिलने लगेगा।सब लोग खुश थे। कुछ लोग तो रात भर इसी इन्तजार में करवटें बदलते रहे।
नीम अंधेरे लोग उठे। अपने - अपने बर्तन उठाये और बोर मशीन की ओर चल दिये। वहांँ का दृश्य देखकर लोगों का खून जल गया। पहले से टिल्लू पम्प लगा कर लेझम लगी हुयी थी। नेताजी के यहाँ पानी भरा जा रहा था।
आज लोगों का गुस्सा चरम पर था- यह शोषण नहीं चलने देंगे।
जगराम सोच रहा था जब दो दिन बोर मशीन नहीं चली तो नेताजी ने टंेंकर मंगाकर अपनी हवेली में पानी भर लिया, और आज चली तो सबसे पहले वे ही उस पर काबिज हो बैठे, जबकि उसे सुधरवाने के नाम पर कन्नी काट गये। उनका तो रौब है, दबदबा है। शहर में तूूती बोलती है। वे जितने चाहें टेंकर मंगा सकते हैं। उनकी एक आवाज में दस टेंकर खड़े हो जायेंगे। फिर क्यों जनता के हिस्से का पानी डकार रहे हैं। इनकी तो आदत ही है जनता के हक पर कुंडली मारकर बैठने की। नेताजी के प्रति भरा हुआ क्रोध का लावा जगराम के अन्दर उफान मार रहा था उसका चेहरा लाल भभूका हो रहा था-जैसे फटने को आतुर हो।
सब खड़े-खड़े बड़बड़ा रहे थे लेकिन किसी में हिम्मत नहीं थी लेझम हटाकर पानी भरने की। आखिर बिल्ली के गले में घण्टी कौन बांधे।
अन्ततः भीड़ को चीरते हुए जगराम आगे बढ़ा। उसके अन्दर का उबाल हाथों में शक्ति बनकर आया। उसने दोनों हाथ बढ़ाकर लेझम खींच दी और टिल्लूू पम्प बंद कर दिया।
सब लोग हतप्रभ खड़े थे। उनकी हिम्मत नहीें हो रही थी बोर के नल के नीचे बर्तन लगाने की । जगराम ने अपने डिब्बे नल के नीचे लगा दिये। सब तरफ शांति थी तूफान के पहले की शांति...। बस घन्न.ऽ.....ऽ...की आवाज के साथ बोर मशीन चल रही थी।
जैसा कि लोग सोच रहे थे हुआ भी वही। अट्टालिका से नेताजी का चेहरा दिख रहा था, तमतमाया हुआ। उन्होंने गेट खोला और मद भरी चाल से वहाँ आ पहँुचे। कड़कती आवाज में उन्होंने पूछा-‘‘ये टिल्लू पम्प किसने बंद किया है ?’’
‘‘.... , .....’’
उत्तर न पाकर वे फिर से गरजे , ‘‘किसकी हिम्मत हुयी लेझम हटाने की ?’’
जगराम की सिट्टी-पिट्टी गुम। उसकी घिग्घी बंध गयी। पीठ पीछे तो हिम्मत दिखा दी थी पर उनके सामने उसकी बोलती बंद थी।
जगराम को पानी भरता देख, उसकी ओर मुखातिब होकर उन्होंने पूछा , ‘‘क्यों लेझम किसने हटाई ?’’
जगराम थोड़ा सहमा फिर हिम्मत करके बोला, ‘‘हुजूर किसी के भी घर में एक बंूद पानी नहीें है.......’’
सब सोच रहे थे जब पानी के बिना मरना है तो पानी के लिये क्यों न मरा जाये ?
‘‘अच्छा...! तो ये तेरी हिमाकत है.....? सा....ला हमारे यहाँ से पानी भरता था तब कुछ नहीं....... आज जुबान चलाता है’’ कहते हुए उन्होंने जगराम का गिरेबान पकड़ लिया और तमाचा मारने को हाथ उठाया ही था कि सुमावली वाली ने चिल्लाकर कहा , ‘‘ऐ नेताजी उसे छोड़ दो.... बहुत हो चुका तुम्हारा नाटक...।’’
सुमावली वाली को बोलते देख महाबतजी, मिश्रा अंकल, सुरेश सक्सैना, जुम्मन चाचा, धनकिया, दतिया वाली सबने हाँ में हाँ मिलायी। अपने-अपने डिब्बे वहीें पर छोड़ सब नेताजी की ओर बढ़ने लगे। आपस में लड़ने वालों को एक होता देख नेताजी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। जो लोग उन्हें देखते ही शान्त हो जाते थे... , जिनकी जुबान पर ताले पड़ जाते थे... आज वे ही लोग उनसे ऊँची आवाज में बात कर रहे हैं। स्थिति बदलती देख उन्होंने तुरत-फुरत जगराम का कॉलर छोड़ दिया। ‘‘ठीक है देख लंूगा मैं सबको.....’’ कहकर फुस्कारा सा छोड़ा ।
वे अपनी अट्टालिका की ओर वापस चल दिये।
थोड़ी देर बाद उनका नौकर आया। उसके भी चेहरे पर हल्की मुस्कान थिरक रही थी। उसने लेझम समेटकर टिल्लू पम्प उठाया और अट्टालिका की ओर चल दिया।
पानी जो आजाद हो गया था उसकी निर्मल धारा झरने सी बहने लगी।... उन्मुक्त-स्वतंत्र। जगराम ने देखा पानी भरने के ठँाव के ठीक नीचे उग आये कुकुरमुŸाा का अस्तित्व भी उस तीव्र जलधारा में ढहता जा रहा था ।
धीरे-धीरे सब मुस्तैदी से कतार में लग गये।...