Tere Shahar Ke Mere Log - 16 in Hindi Biography by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | तेरे शहर के मेरे लोग - 16

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तेरे शहर के मेरे लोग - 16

( सोलह )

सोशल मीडिया पर अब मेरी सक्रियता कुछ बढ़ने लगी थी। दुनिया के मेले में कई लोग आपकी निगाहों के सामने आते थे, आपके दायरे में आते थे, आपके सोच में भी आ जाते थे।


कुछ वैसे ही "हाय - हैलो" कहते हुए आगे बढ़ जाते थे, कुछ ठहर कर आपसे बात भी करते थे और कुछ आने वाले दिनों में संभावना भी जगाते थे।


जब मैंने अपना नया उपन्यास लिखना शुरू किया तो आरंभ में पहले इसका नाम "रजतपट" था। किन्तु पूरा होते- होते इसका नाम जल तू जलाल तू हो गया।


वैसे भी, मैं उपन्यास लिखते समय दो- तीन नाम जेहन में रख लिया करता था और फिर लिखने के दौरान ये भांपने की कोशिश किया करता था कि मेरे कथानक की नाव आगे बढ़ते हुए ज़्यादा किस किनारे से टकरा रही है, वही आगे चल कर उसका नाम हो जाता था।


इस उपन्यास का फ़िल्म जगत से कुछ लेना- देना नहीं था। मैंने रजत पट नाम केवल ये सोच कर दिया था कि मैं "चांदी का पर्दा" हिंदी में नहीं देना चाहता था। क्योंकि चांदी की दीवार शीर्षक से एक अत्यंत सफ़ल उपन्यास हिंदी में पहले ही आ चुका था। लेकिन मैं तुरंत ही समझ गया कि रजत पट से लोग "फ़िल्म स्क्रीन" का ही तात्पर्य लेंगे, इसलिए ये नाम जल्दी ही मेरे दिमाग़ से उतर गया।


बाद में मेरे शीर्षक में "पानी" का दख़ल भी हुआ जिसकी फिसलन में मैं "जल" लफ़्ज़ पर पहुंच गया।


सोचते सोचते अकस्मात खड़ा- खड़ा मैं गिर गया, जैसे किसी गीली सतह पर कोई रपट जाता है। और मेरे उपन्यास का नाम भी फ़ैल कर "जल तू जलाल तू" हो गया, जैसे कोई सीधा खड़ा आदमी फिसल कर लमलेट हो जाए और सिर से पांव तक फर्श पर आ जाए!


लेकिन फ़िर इस उपन्यास के अर्श पर पहुंचने की कहानी मैं बाद में सुनाऊंगा।


इसे दिल्ली के दिशा प्रकाशन ने ही छापा। मधुदीप की टिप्पणी थी, " अच्छा है पर "देहाश्रम का मनजोगी" से आगे नहीं जाता।"


अपने अंतिम दिनों में मेरी पत्नी को एक दुख और था। वो अपनी व्यस्तता को लेकर कभी - कभी परेशान हो जाती थीं। और तब मुझे भी लगता था कि सच में, बड़े और ज़िम्मेदार पदों पर पहुंच कर चीज़ें अपने हाथ में नहीं रह जाती थीं।


एक बार तो उन्होंने अपनी व्यस्तता को लेकर सनक भरा व्यवहार तक किया था। मुझे भी लगा कि ये इन्हें क्या हुआ है?


उस दिन हमारी बेटी और दामाद आए हुए थे। दामाद की इच्छा थी कि राजस्थान के एक बहुत ख्यात प्रसिद्ध मंदिर में दर्शन कर के आया जाए। दो - तीन घंटे का रास्ता था।


मैंने अगली सुबह आने के लिए ड्राइवर को कह दिया।


बेटी ने अपनी मम्मी से भी चलने के लिए कहा।


उन्होंने जवाब दिया कि उन्हें सुबह ही पता चल सकेगा कि वो चल सकेंगी या नहीं। क्योंकि सुबह बाहर से किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति को विश्वविद्यालय में आना था। यदि वो आ जाते तो फ़िर एक ज़रूरी मीटिंग होनी थी और उनका चल पाना संभव नहीं था।


ऐसा ही हुआ। वो आ गए। पत्नी का चल पाना रद्द हो गया और वो अपने दफ़्तर जाने की तैयारी करने लगीं। यूनिवर्सिटी की उनकी गाड़ी आ चुकी थी।


हम लोग जाने लगे। बाहर खड़ी अपनी गाड़ी में जैसे ही हम तीनों बैठे तो ध्यान आया कि रास्ते के लिए रखे गए पानी का एक थरमस घर में ही छूट गया है।


बेटी उसे लेने जाने लगी तो मैंने उसे रोकते हुए ड्राइवर से कहा कि वो भीतर जाकर उसे लेे आए।


ड्राइवर जब पानी का थरमस लेकर आया तो आकर मुझसे बोला कि आपको मैडम बुला रही हैं, कह रही हैं कि ज़रूरी काम है, ज़रूर आएं।


मैं तुरंत ये सोचता हुआ चल पड़ा कि आख़िर ऐसा क्या ज़रूरी काम आ गया।


हमारा फ्लैट तीसरी मंज़िल पर था। लिफ्ट से ऊपर पहुंच कर मैंने देखा कि दरवाज़ा खुला ही है, घंटी बजाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी।


मैं "क्या हुआ" कहता हुआ भीतर दाख़िल हुआ। वो दफ़्तर के लिए तैयार हुई खड़ी थीं।


बोलीं- मैं भी चलूंगी!


- अरे, मीटिंग कैंसल हो गई? मैंने पूछा।


- नहीं। वो बोलीं।


- फ़िर, कैसे चलोगी, दफ़्तर जाना नहीं है क्या?


- जाना तो पड़ेगा। उसने मायूसी से कहा।


- ओहो, तो फ़िर? मैंने बौखला कर कहा।


वो एकदम से बोलीं - क्या मुसीबत है, मैं भगवान के घर भी नहीं जा सकती क्या?


मैं आश्चर्य से देखता हुआ बोला- अरे जब ज़रूरी मीटिंग है तो जाना ही पड़ेगा ना? काम क्या था, मुझे क्यों बुलाया? कहते हुए मैं वापस लिफ्ट की ओर आने लगा।


मैंने कहा - क्या करें, हम लोग भी प्रोग्राम कैंसिल कर दें क्या? फ़िर कभी चले चलेंगे।


- अरे नहीं, कल तो बिटिया को वापस ही जाना है। उन्होंने बुझे स्वर में कहा।


लेकिन जैसे ही मैंने लिफ्ट में प्रवेश किया और उसका दरवाज़ा बंद होने लगा, उन्होंने वापस आकर जबरन दरवाज़े को हाथ से रोक लिया।


कुछ देर दरवाजा थरथराया, फ़िर उनके हाथ हटाते ही बंद हो गया और लिफ्ट चल पड़ी।


मैं अचंभित होकर सोचता रहा कि ये वो महिला है जिसने अपनी स्कूल परीक्षा में सारा प्रदेश टॉप किया था, फ़िर यूनिवर्सिटी टॉप करके वैज्ञानिक बनी, अधिष्ठाता बनी, कुलपति बनी...मुझे लगा जैसे उस दिन उन्होंने लिफ्ट का दरवाज़ा नहीं, बल्कि भगवान के किसी मंदिर के कपाट खोलने की कोशिश की थी।


कुछ दिनों के बाद उन्होंने दुनिया छोड़ दी। और जैसे हम लोग उन्हें उस दिन अकेला छोड़ गए थे, वैसे ही एक दिन वो हम सबको अकेला छोड़ गईं।


मेरे उपन्यास "जल तू जलाल तू" का एक और संस्करण जल्दी ही छपा।


जयपुर के प्रेसक्लब में हुए इसके विमोचन समारोह में मुंबई और चंडीगढ़ से आए मेरे मित्र साहित्यकार उपस्थित हुए।


इन्हीं दिनों मुझे एक सम्मेलन में महाराष्ट्र जाने का अवसर मिला। एक पत्रिका में मेरे उपन्यास "जल तू जलाल तू" की समीक्षा पढ़ने के बाद मेरे एक मित्र ने इसमें काफ़ी रुचि दिखाई और इसकी कुछ प्रतियों की मुझसे मांग की।


वो मित्र दिल्ली के मेरे उस समय के मित्र थे जब हम वहां काम किया करते थे। मुझे बहुत समय से उनकी कोई खबर नहीं थी पर वर्षों बाद कहीं से संपर्क नंबर मिल जाने के बाद जब हमारी बात हुई तो मुझे उनसे पता चला कि वो किसी प्रतिष्ठित अनुवाद अकादमी से जुड़े हैं।


उन्होंने मुझसे स्पष्ट कहा कि अनुवाद के लिए किताबें चुनने के लिए अकादमी का अपना एक स्वतंत्र पैनल है जो तय करता है कि किन किताबों का चयन किया जाना है, वे केवल किताब वहां सबमिट करवा सकते हैं, बाक़ी चयन प्रक्रिया तो विशेषज्ञों की अपनी ही है।


प्रकाशक ने जो प्रतियां मुझे दी थीं उनमें से चार - पांच प्रतियां मैंने मिलने पर उन्हें दे दीं।


लगभग चार माह बीते होंगे कि मुझे इस उपन्यास के पंजाबी भाषा में अनूदित हो जाने की खबर मिली। इससे पहले भी मेरी दो किताबें पंजाबी भाषा में आ चुकी थीं।


मेरे एक मित्र ने मेरा परिचय उनके एक परिचित अनुवादक से करवाया जिन्होंने मुझसे पढ़ने के लिए उपन्यास मांगा। कुछ ही महीनों में ये सिंधी भाषा में भी छप गया।


इसी बीच मुझे पता चला कि पुस्तक का अनुवाद उर्दू और असमिया में भी शुरू हो चुका है।


मेरे लिए ये अनुभव बिल्कुल नया था। देश के अलग - अलग शहरों में रहते इन अनुवादकों से मेरा परिचय फ़ोन पर ही हुआ और इनसे लंबी- लंबी बातचीत होती। किसी शब्द या वाक्यांश को लेकर ये अपनी शंका, जिज्ञासा या सलाह प्रकट करते और फ़िर अवधारणा के आधार पर परस्पर परामर्श से हम अन्य भाषा में शब्द के मूल तत्व को पकड़ने की कोशिश करते। मुझे भी बहुत कुछ सीखने को मिलता।


उर्दू भाषा में ये एक साथ पेपरबैक और हार्डबाउंड संस्करण के रूप में छपा। इस पर एक उर्दू टीवी चैनल ने लगभग बीस मिनट का आकर्षक कार्यक्रम भी प्रसारित किया जो बाद में अनुवादक के इंटरव्यू के साथ हिंदी चैनल पर भी पुनः प्रसारित हुआ।


इस कार्यक्रम का ही नतीजा था कि जल्दी ही मुझे इसके ओड़िया और अंग्रेज़ी में भी शुरू हो जाने की उत्साहजनक खबर मिली।


एक समारोह में एक पुरस्कार लेने के लिए जबलपुर जाने पर मुझे वहां इस उपन्यास की बहुत चर्चा सुनने को मिली और वहां आए एक विद्वान ने इसे तेलुगु भाषा में लाने का बीड़ा उठाया।


सोशल मीडिया पर अपने मित्रों के बीच इसकी चर्चा सुनने पर मेरा भी उत्साह बढ़ा और मैंने स्वयं इन अनुवादों का व्यापक प्रचार करने का प्रयास किया।


इस प्रयास में मेरा इरादा ख़ुद अपना प्रचार करने का नहीं, बल्कि अन्य भाषा- भाषी उन लोगों का काम और नाम सामने लाने का रहता था जिन्होंने मेहनत करके हिंदी साहित्य को अपनी भाषा की परिधि में लेे जाने का महत्व पूर्ण काम किया।


लगे हाथ आपको एक ऐसी बात और बता दूं जिस पर आप हरगिज़ विश्वास नहीं करेंगे, फ़िर भी मैं बताऊंगा।


दरअसल मेरी एक ख़राब आदत ये है कि मैं फ़ोन नंबर या संपर्क लंबे समय तक सहेज कर नहीं रख पाता। जब जिससे काम पड़ा, नंबर ढूंढा, और काम होते ही डिलीट।


मेरी इस आदत ने मेरे कई अच्छे संपर्क हमेशा के लिए गुम कर दिए।


एक तो मैं तकनीक के इस्तेमाल में बहुत कच्चा हूं, इसलिए अभिलेख का प्रॉपर रख- रखाव नहीं कर पाता। दूसरे, थोड़ा स्वार्थी भी हूं, अगर मुझे किसी के लिए ज़रा भी ऐसा लगता है कि अब इससे मेरा क्या काम पड़ेगा, तो उसका नंबर सुरक्षित रखने के प्रति लापरवाह हो जाता हूं। और इस आदत के कारण कभी - कभी काम पड़ने पर भी मुझे बगलें झांकनी पड़ती हैं, जब मुझे नंबर नहीं मिलता।


अपनी ख़राब आदतें और भी कई समय- समय पर आपको बताऊंगा पर पहले ये बता दूं कि कई मित्र ये समझते हैं कि कम से कम उन लोगों के नाम पते फ़ोन नंबर आदि मेरे पास होंगे ही जिन्होंने मेरी किताबें अनूदित की हैं, या छापी हैं।


पर मैं आपको कसम खाकर कह रहा हूं कि किताब छप कर मेरे हाथ में आ जाने के बाद मैं उनके नंबरों व पतों को सुरक्षित नहीं रख पाया। और बाद में वो किताबें भी मेरे पास नहीं रहीं, तो मैं उनके लिए अजनबी सा बन कर रह गया।


मेरी कई किताबें और रचनाएं इसी आदत के चलते अनुपलब्ध की श्रेणी में आ गईं।


मेरे उपन्यास "रेत होते रिश्ते" और "वंश" न इनके प्रकाशकों के पास मिलते हैं, न मेरे पास।


एक बार दिल्ली के ही मेरे एक मित्र, जो बाद में प्रकाशक भी बन गए मुझसे बोले कि लेखन का संबंध शरीर की वासनाओं और उनकी तृप्ति से भी है।


उनकी बात को मैंने हल्के में लिया।


लेकिन बाद में एक बार मैंने "आर्ट" पर लिखी एक किताब में पढ़ा कि यदि आप चित्रकार हैं तो आपकी कला में आपके स्ट्रोक्स उस प्रक्रिया पर भी निर्भर होते हैं जिससे आपने अपने शरीर के यौन द्रव से निजात पाई है।


यही कारण है कि हर कलाकार का हर चित्र बढ़िया नहीं बनता।


इस बात को साहित्य पर भी लागू किया जा सकता है अथवा नहीं, इस बात की पड़ताल में मुझे एक आलेख में एक जगह शरीर के "शरारती द्रव" का ज़िक्र मिला। अंग्रेज़ी के आलेखकार ने "नोटोरियस लिक्विड" शब्द का प्रयोग किया था किन्तु जब उसने इस लिक्विड की परिभाषा बताई तो मुझे कुछ भ्रमित कर दिया।


उसने उन अलग - अलग मानसिक स्थितियों का जिक्र किया था जिनमें उस द्रव से शरीर को मुक्त किया गया है। उसने शारीरिक प्रक्रियाओं में विभेद की कोई बात प्रमुखता से नहीं की।


ये तो आपने भी देखा होगा कि कुछ कलाकार अपनी कृति में यौनांगों की प्रस्तुति बेहद नाटकीय रूप में करते हैं और उनकी जटिलता की तह में ही शायद उनकी त्याज्यता को छिपाया जा पाता है।


ये सब मैं आपसे इसलिए कह रहा हूं कि मेरे उपन्यास "जल तू जलाल तू" के दो युवा पात्रों के बीच ये कश्मकश देखी जा सकती है जो सायास नहीं है।


मैं भी इसे देखता हूं, पढ़ता हूं, जांचता हूं और ढूंढ़ता हूं।


कई भाषाओं में इसके शीर्षक भी बदल दिए गए हैं। ये अंग्रेज़ी में "बियोंड द वॉटर" है तो ओड़िया में "तू जल तू अनल"!


इस उपन्यास का राजस्थानी भाषा में भी अनुवाद हुआ। रोचक तथ्य ये है कि राजस्थानी भाषा को अभी मान्यता नहीं मिली है।


अतः जब अनुवादक ने मुझसे पूछा कि अभी भाषा को मान्यता तो नहीं है तो इसमें उपन्यास को अनूदित करना उचित रहेगा क्या?


मैंने कहा- जब तक ऑक्सीजन की खोज नहीं हुई होगी उससे पहले भी लोग उसमें सांस तो लेे ही रहे होंगे। अतः अगर ये आपको पढ़कर अच्छा लगा है और आप इसे राजस्थानी में लाना चाहती हैं तो स्वागत है!


उन्होंने इसे राजस्थानी भाषा में अनूदित करना शुरू कर दिया।


लेकिन संयोग देखिए, उन्हें मेरी कहानी अच्छी लगी, मुझे उनकी!


मतलब उन्हें तो मेरे उपन्यास के कथानक में ताज़गी नज़र आई, पर ख़ुद उनकी दास्तान दिलचस्प लगी।


वयोवृद्ध ये महिल लिख तो कई वर्षों से रही थीं, किन्तु इन्हें पहचान मिलनी शुरू अब हुई।


जानते हैं क्यों। क्योंकि ये एक पुलिस अधिकारी की धर्मपत्नी थीं जो इन्हें लिखने नहीं देते थे। और ये लिखे बिना नहीं रह पाती थीं। लिहाज़ा ये लिखती तो थीं, किन्तु उसे अपने एक भतीजे के नाम से छपवाती थीं।


अब जब पति न रहे तब उन्होंने खुद अपने नाम से लिखना शुरू किया और अपनी पहचान बनाई।


उनके पति कहते थे कि लिखने से तुम्हारा पता अख़बारों में छपेगा, और मैं नहीं चाहता कि मेरे घर का पता अख़बार में छपे।


कोई अख़बार में नाम के लिए कुछ भी करने को तैयार, और कोई अख़बार में नाम न छपने देने को।


जल तू जलाल तू


लेखकों पे अाई बला को टाल तू!