केसरिया बालम
डॉ. हंसा दीप
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केसरिया भात की खुशबू
आज बाली घर आने वाला है। सिर्फ अपनी देह के साथ। ऐसी चेतनाविहीन देह जो देह होने का अर्थ भी नहीं जानती। ऐसी देह जहाँ न मन है, न दिमाग। न विचार हैं, न भावना। और ये सब जब न हों तो क्या हम उसे पागल कह दें? वह और कुछ न हो, पर इंसान तो है।
उसी इंसान के आगमन के लिये घर तैयार हो रहा है।
आर्या फिर से बाली को “पापा” कहने लगी थी। ममा की स्फूर्ति देखने लायक थी। उनमें गजब की ऊर्जा आ गयी थी।
“आर्या, ये कर दिया”
“आर्या, वो कर दिया”
“तुम्हारा कमरा जमा लिया कि नहीं”
“आज पूरे दिन का खाना तैयार कर दिया है”
आर्या उसे राहत देने की कोशिश करती – “रिलेक्स ममा, सब हो जाएगा।”
आज बिटिया खुश थी तो बीते कल के लिये दु:खी भी थी। आर्या को नहीं मालूम कि ममा के मन में इस समय कौनसी उथल-पुथल चल रही होगी। इन्हीं क्षणों में महसूस कर रही थी कि अवि के साथ रहते हुए, अवि के प्यार को सहेजते हुए, उससे अलग होने की कल्पना से भी डर लगने लगता है उसे। ममा-पापा और उसका बचपन सामने होता, अवि से उसका अपना रिश्ता भी सामने होता।
लगता, रिश्तों की डोर एक बार बंध जाए तो गाँठ ढीली पड़ सकती है, टूट भी सकती है लेकिन वक्त जोड़ने का साहस कर ही लेता है। पापा के लिये उसके मन में कभी बहुत प्यार रहा, कभी नफरत रही, पर आज सहानुभूति है। वह आदर भी है जो पहले हुआ करता था। अपने ममा और पापा को साथ देखने का यह दिन उसे आशान्वित कर रहा था।
अलगाव में भी जुड़ाव के तंतु छुपे थे जो अब बाहर आ गए।
आज धानी और आर्या दोनों मिलकर, चुपचाप घर की बिखरी चीजों को सँवार रही हैं।
घर के कोने-कोने से पुरानी यादें मिटाती धानी आने वाले कल के बारे में सोच रही है। रोमांच और प्यार से भरापूरा मन अब शांत और सेवाभाव से परिपूर्ण था। बाली को कुछ याद नहीं तो क्या हुआ। धानी को तो याद है। अब ऐसा नि:स्वार्थ स्नेह था जहाँ न शारीरिक आवश्यकताएँ थीं, न मानसिक। अगर कुछ था तो इंसानियत का वह रूप जो इंसान को फरिश्ता बनाता था। प्यार के कई रूपों में से एक।
घने अंधकार से भरी रात के बाद अंतत: सूर्योदय हुआ। सुबह के आठ बजे सेंटर की गाड़ी बाली को लेकर पहुँचने वाली थी।
आज बरसों बाद घर में केसरिया भात बन रहा था। वही खुशबू फैल गयी थी घर में, धानी के तन-मन में, जो बाली की पहली झलक से मिली थी। वे पल जब बाली के आने की खबर सुनकर माँसा-बाबासा ने घर को सजाया था। जब बाली ने पहली बार उनकी देहरी पर कदम रखा था। कितनी चहलपहल थी तब। आज यहाँ शांति है। दोनों में अंतर बस ये है कि पहले किसी को पाने की खुशी थी तो अब किसी की बुराइयों से मुक्ति पा कर उसे फिर से पाने की है।
आर्या सामने से खुशी-खुशी आकर ममा के गले लगी तो धानी समझ नहीं पायी कि क्या हुआ है। उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा – “क्या हुआ बेटा?”
आर्या हँसते हुए बोली – “आप सुनेंगी ममा तो उछल पड़ेंगी।”
“अब भूमिका बांधना बंद करो, कह भी दो।”
“ममा” खुशी के अतिरेक में ममा के गले लगी रही वह।
“कह दो, आर्या”
“ममा, पापा के घर आ जाने के बाद अवि मुझे ऑनलाइन प्रपोज़ करेगा। कोरियर से भेजी अँगूठी डिलीवर होने वाली है। कोरोना की वजह से आ तो नहीं सकता यहाँ।”
धानी के कानों में घंटियाँ बजने लगीं। वही मीठी खुशनुमा बातें फिर याद आ गयीं, जब माँसा-बाबासा ने कहा था कि “बेटा थारे पसंद तो है न छोरो”
“कह दे लाडो”
और लाडो आर्या ने भी ठीक उसी तरह अपनी स्वीकृति दे दी थी। धानी के गालों की वही लालिमा अब आर्या के गालों पर आ गयी थी। आर्या-अवि की बरसों पुरानी दोस्ती अब रिश्ते में बदल रही थी। संतृप्ति की लंबी साँस ली धानी ने। परिवार की चादर के चार कोने, चार पिलर थे वहाँ, आर्या-अवि, धानी-बाली। बच्चों की खुशियों में ममा-पापा साथ थे। उसी घर में थे। इससे बेहतर कोई दिन हो ही नहीं सकता था।
बाली धीरे-धीरे बहुत कुछ सीखने लगा। बोलने भी लगा। हाथ पकड़ कर चलना अच्छा लगता उसे। धानी के हाथ में हाथ देने लगा था। उसकी आँखें बोलने लगी थीं। धानी को देखते ही उसके चेहरे पर खुशी आ जाती।
खुशियों की पुनरावृत्ति हो रही थी। नयी भाषा थी, तूलिका के नये रंग थे। ऐसी अनुभूति जो फिर से जीवंत हो रही थी। अब शरीर कहीं नहीं, बस दो मन थे। बाली के भीतर एक छोटा सा मन फिर से अंकुरित होते देख रही थी उसकी आँखें, उसका मन स्वीकार कर रहा यह रिश्ता।
वासना से दूर प्रकृति के आसपास पारस्परिक राग में बँधे दो इंसान।
धानी का मन धानी चुनरी पहन रेत पर लहराने को कर रहा था। बालक-से बाली के चेहरे को छूती उसकी चुनरी उड़ती नज़र आ रही थी। दूर आकाश में एक पैगाम था हवाओं का। रेत के दाने उसके आसपास बिखरने लगे थे मोतियों की तरह और वह उस लड़ी में अपने बिखरे मोतियों को सँवार रही थी, नयी माला गूँथने के लिये।
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यह मेरी मौलिक, अप्रकाशित एवं अप्रसारित कृति है।
(उपन्यास केसरिया बालम)
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