हाहाकार चारो तरफ विध्वंस , हर जगह खून ही खून ऐसा लग रहा था मानो आसमान से खून की बारिश हो रही है। अपनी आंखो से देखा हुआ ये नजारा कोई मरते दम तक नहीं भुला पाएगा।
बात है भयंकर दिखने वाले कद्दावर हाथी पे बैठे पूरे विश्व को अपनी मुठ्ठी में करने का स्वप्न देखने वाले तुर्की के शहंशाह अल जजीरा की, जो कई लोगो के लिए ये जल्लाद तो कहीं ओ के लिए वैशी दरिंदा।
उसके नाम मात्र से बड़े बड़े राजा अपना सबकुछ उसके हवाले करने को तैयार थे। आधे विश्व पर हुकूमत करने के बावजूद अल जजीरा का मन अशांत था। चिंता बस दो ही बातो की रहती थी।
पूरी दुनिया जितना और गद्दी संभालने वाला वारिश।
सौ से ज्यादा बेगमों के साथ निकाह के बाद भी पुत्र की अप्राप्ती उसके मन को अंदर ही अंदर खाएं जा रहा था। इसी वजह से दिन भ दिन और ज्यादा क्रूर हो रहा था। जिस बेगम से उसको संतान नहीं होती वो उस बेगम को जिंदा दीवाल में चुनवा देता।
एक दिन उसके गुप्तचर से उसे सूचना मिली , अनेक समंदर पार एक देश भरतखण्ड जो सप्तऋषियों की भूमि अजेय भूमि जहां महान से महान शासक और विश्वगुरु पैदा हुए। वहा अनेक ऋषिओ के पास ऐसा ज्ञान है जिससे उसे संतान कि प्राप्ति हो सके।
इतना ही सुनने के बाद वह भारत की पवित्र भूमि पर अपने नापाक कदम रखने और उसे जितने के लिए निकल गया। वह रास्ते में आने वाले सभी नगरो , शहरों को ऐसे रोंधने लगा मानो खुद महादेव अपने काल भैरव रूप में दुष्टों को मार रहे है। चारो तरफ भूमि खून से लथपथ , हर तरफ से मरे हुए लोगो के परिवारजनों का विलाप , उसे मिलती बद्दुआ ओ से आगे बढ़ते भारत को जितने की आश से आगे बढ़ता रहा।
महान राजाधिराज चंद्रगुप्त का शासन पूरे उत्तर भारत में पश्चिम में गांधार से लेकर पूर्व में अंग प्रदेश तक फैला हुआ था। शान शौकत से मशहूर , विद्या से श्रेष्ठ , वैभव , खुशहाली इस पूरे राज्य में मानो हर कोई खुश है हर कोई अपने राज्य की प्रगति में अपना हिस्सा दे रहा है। इस काल को सुवर्ण काल कहा जाने लगा और भारत को सोने की चिड़िया। कई प्रदेशों को जितने के बाद राजा चंद्रगुप्त ने युद्ध को छोड़ धर्म को प्राथमिकता दी थी (धर्म याने कर्म) आने वाले वक्त का किसीने अंदाज़ा तक नहीं लगाया था कि कुछ ही वक्त में युद्ध के जयघोष और शंख के शंखनाद से पूरा राज्य रक्तरंजित होने वाला था।
अल जजीरा जो कि अंत्यंत क्रूर और निर्दय आक्रांता था वो हर समय सिर्फ भारत के खजाने और वैभवता की बात सुन रहा था। भारत की अपार सम्पत्ति को लूटने के लिए उसके साथ उसके तकरीबन दो लाख से ज्यादा सिपाही थे। जो कि हर वक़्त बदबूदार कीचड़ में पड़े रहते ना कोई धर्म ना ही कोई सभ्यता बस आता था तो उनको सिर्फ विनाश। कुछ ही दिनों में ये लुटेरों की फौज पर्सिया को पार करके गांधार से तकरीबन एक सौ माइल की दूरी पर थे।
इस तरफ राजा चंद्रगुप्त को सूचना मिलते ही तुरंत उन्होंने अपनी अजेय सेना को अल जजीरा से युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा।पश्चिम गांधार की सीमा पर दोनों सेनाओं के बीच अतिभयंकर युद्ध का आरंभ हुआ। बत्तीस दिनों तक चलने वाले इस युद्ध में राजा चंद्रगुप्त की सेना ने अल जजीरा के ४०००० से ज्यादा लोगो को मौत के घाट उतार दिया वहीं राजा चंद्रगुप्त के तक़रीबन १६००० के आसपास सैनिक वीरगती को प्राप्त हुए। वहा का नज़ारा देख अल जजीरा समझ गया कि हिंदुस्तान पर फतह हासिल करके के लिए केवल लड़ाई से कुछ नहीं होगा और उसने अपने ४०००० से ज्यादा साथी गवाने के बाद अपने कदम वापिस हटा लिए। पर वो उस धरती पर खड़ा रहकर सबको ललकारता गया कि वह एक दिन फिर से आएगा और पूरे हिन्दुस्तान को अपने पैरो तले कुचल देगा।
तकरीबन पांच साल बीत जाने के बाद भी वो हिंदुस्तान को फतह करने का ख्वाब देख रहा था। इस बार उसने बल के साथ साथ छल का भी साथ लेने का सोचा। उसने गांधार में वासगुप्त को संदेश भेज और मिलने का आमंत्रण दिया , बासगुप्त जो कि राजा चंद्रगुप्त के सेनापति पुष्यमित्र का चचेरा भाई था। वासगुप्त बेहद ही लालचू किस्म का आदमी था जिसकी नजर पूरे गांधार पर राज करने की थी। उसने अल जजीरा का आमंत्रण स्वीकार किया और मिलने चला गया।अल जजीरा ने उसे वादा किया कि वो चंद्रगुप्त की सेना मे बगावत करके उसकी मदद करे तो वो उसे गांधार प्रदेश सौंप देगा। वासगुप्त ने पल भर की भी देरी किए बिना अल जजीरा के साथ संधि कर डाली।
आखिरकार अल जजीरा एक बार फिर हिंदुस्तान जितने के लिए निकल पड़ा और इस बार उसके साथ गद्दार वासगुप्त और उसकी टुकड़ी भी थे।
एक बार फिर अल जजीरा और राजा चंद्रगुप्त के बीच युद्ध हुआ परंतु इस बार वासगुप्त की गद्दारी के कारण राजा चंद्रगुप्त की सेना की हार हुई और राजा चंद्रगुप्त का शासन गांधार पर से हटकर सिर्फ पश्चिम में सिंध तक सीमित रह गया। जैसे ही अल जजीरा वह युद्ध जीता वैसे ही तुरंत उसने वासगुप्त के साथ की हुईं संधि तोड़ गांधार को लूटना प्रारंभ कर दिया, वह इस बात से चौक गया की सिर्फ गांधार को लुटते लुटते उसे पच्चास दिन से अधिक लगे तो पूरे हिन्दुस्तान में कितना सोना होगा। इस बात से उसकी उस्कृत्ता बढ़ती रही। उसने वासगुप्त को भी थोड़े ही दिनों में मौत के घाट उतारा और पूरे गांधार में नर संहार किया। उसने उस समय पूरे गांधार में तकरीबन चार से पांच लाख लोगों की हत्या की। पूरा प्रदेश तबाह हो गया। वह गांधार से मिले बेशकीमती हीरे जवाहरात सब कुछ अपने साथ तुर्क ले गया। औरतों का बलात्कार , क्रूर यातनाएं , आंखे निकालना , जिंदा जला देना ये सब उसके लिए सामान्य बन गया था। इस घटना का विवरण आज भी लोग करते है तो बस यही कहते है कि वह इलाका इतना खून से भर गया था कि समंदर छोटे दिखने लगे। चारो ओर खून कि बदबू और इन सबके बीच वह जल्लाद अपने खुदा को याद कर और जेहाद करने के लिए शक्ति मांग रहा था।
राजा चंद्रगुप्त अपनी हार से ज्यादा प्रजाजनो की हत्या और राज्य की बरबादी से बहोत ही दुखी हुए उन्हें लगा कि कोई इंसान इस हद तक कैसे क्रूर और निर्दई हो सकता है जो गर्भवती स्त्री को जिंदा जला दे। राजा चंद्रगुप्त के भीतर की अग्नि शांत होने का नाम ही नहीं ले रही थी। उन्हें किसी भी प्रकार अल जजीरा का कटा शीश चाहिए था। उस युद्ध के बाद राजा कभी भी चैन से नहीं बैठे वो हर पल अपने सीने में आग लिए अल जजीरा को मारने का ठान बैठे थे। गांधार युद्ध के एक साल बाद राजा चंद्रगुप्त ने तुर्क पर हमला कर दिया और उनके तकरीबन एक लाख से ज्यादा सैनिकों को मौत के घाट उतारा जैसे ही अल जजीरा मारा गया वैसे ही उसकी बाकी सेना युद्ध छोड़ भाग गई। राजा चंद्रगुप्त ने अल जजीरा के शरीर को एक खंभे से लटकाकर भारत लाया। पूरे भारत में उसको खंभे में खोस कर गुमाया। वह जिस जिस जगह से उसके शरीर को ले गए वहा हर जगह के लोग उसे पत्थर मारते गालियां देते। आखिर अंत में राजा ने उसका सर काटकर अपने देश की आखिरी सीमा पे तंगवा दिया। ये वो संदेश था हर लुटेरों को ये वो संदेश था हर विदेशी आक्रांता ओ को की जो कोई भी हमारी पवित्र भारतभूमि की ओर अपने अपवित्र कदम बढ़ाएगा उसका सिर इसके माफिक कट चुका होगा। आखिर में राजा ने यह घटना उस समय के सभी लेखकों से अलग अलग भाषाओं में लिखवाई। और अपने आसपास के हर देश में वह संदेश भिजवाया। उसके बाद भारत उस गांधार युद्ध को भुलाकर प्रगति और न्याय के मार्ग पर आगे बढ़ा। जिसने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।।
देश और देशवासियों की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर करदे वहीं क्षत्रिय।
अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव चः।