stri tu sabse badi achhut in Hindi Women Focused by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | स्त्री तू सबसे बड़ी अछूत

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स्त्री तू सबसे बड़ी अछूत

'तू अछूत है मेरे घर मत आना ...|’

--आखिर तूने खानदान की नाक कटा दी न ....|

‘’मुझे तो पहले से मालूम था ये लड़की कोई न कोई गुल खिलाएगी |’’

‘अरे,किया भी तो कहाँ...कोई ढंग का लड़का नहीं मिला क्या इसे ...?’

तमाम विष बुझे तीरों को झेलती मैं सिर झुकाए उस दहलीज पर खड़ी थी ,जिसे कल तक मैं अपना घर समझती रही थी |पर कब था यह मेरा घर ?इस घर के सदस्यों ने तो कभी मुझे समझने का प्रयास नहीं किया था ,फिर आज कैसे करते ?आज तो मैंने ऐसा काम कर दिया है,जिसे बड़े से बड़े प्रगतिशील भी सिर्फ भाषणों तक सीमित रखते हैं |

मैंने एक अछूत लड़के से विवाह कर लिया है और माँ का आशीर्वाद लेने घर की दहलीज पर आ खड़ी हुई हूँ |पिता जिंदा होते तो मैं घर आने को सोचती भी नहीं |वे तो जाति-धर्म के मामले में बिलकुल ही पुरातन पंथी थे |माँ भी छूत-अछूत का ध्यान रखती थी |हाँ ,वह उतनी कट्टर नहीं थी|पर परिवार के सामने उसकी बोलती बंद थी |मैंने सोचा ,अच्छा हुआ कि जरूरी काम औचक आ जाने के कारण राम मेरे साथ नहीं आ पाए ,वरना जाने क्या होता ?|मैं तो खुद भी नहीं आना चाहती थी ,पर राम ने जबरदस्ती मुझे यहाँ भेजा था |राम का अपने ऊपर अतिरिक्त आत्मविश्वास मुझे हमेशा संकट में डाल देता है|वे कहते—मुझमें कमी ही क्या है ,जो तुम्हारे घर वाले मुझे स्वीकार न करेंगे |पढ़ा-लिखा हूँ, अफसरों के परिवार से हूँ |ठीक है सुंदर नहीं दिखता और ढंग की नौकरी भी नहीं करता,पर तुम्हें इसकी कोई जरूरत भी तो नहीं |
अब मैं उन्हें क्या बताती कि इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने के बाद भी हमारा मध्यवर्गीय समाज जाति-धर्म के मामले में पंद्रहवीं सदी में ही जीता है |
मैं विचारों में खोई खड़ी थी कि भाई दुकान से आ गया |मुझे देखते ही गुस्से से बोला—अरे,तुम यहाँ कैसे चली आई ?चल भाग यहाँ से !कुलबोरनी कहीं की !हमारे लिए मर चुकी है तू |पहले ही क्या कम गुल खिलाए थे कि अछूत से विवाह कर हमेशा के लिए हमारा सिर नीचा कर दिया ?
अपमान के घूंट पीती मैंने आँसू -भरी आँखों से माँ की तरफ देखा |माँ के भारी चेहरे पर ममता की कंपकंपाहट थी ,पर भाइयों से टकराने का साहस न था ...और ,मैं वापस अपने घर लौट आई थी |
घर ...हाँ घर ही कहती थी मैं उसे |किराए का एक कमरा,जिसका किराया देते समय अक्सर मैं गुस्से से भर उठती थी |मेरी छोटी -सी नौकरी थी ,जिसकी तनख्वाह मात्र दो हजार थी |पहले पाँच- सौ किराया और हजार के लगभग खाना -खर्चा व बाकी खर्च करके मैं लगभग पाँच -सौ प्रतिमाह तो बचा ही लेती थी पर जब से राम साथ हैं कुछ नहीं बचता |उनके खर्चे भी उसमें जुड़ गए हैं |
राम के घरवालों ने भी इस शादी को स्वीकार नहीं किया |वहाँ जाति का नहीं, जायजाद का मामला था |शायद उन्हें लगता था कि राम के कारण मैं उनकी संपत्ति की हिस्सेदार बन जाऊंगी | विशेषकर तब ,जब इस विवाह से कोई संतान हुई |इसलिए उनकी डाक्टर बहन ने मेरे बीमार होने पर जाने कौन- सी दवा खिलाई कि मेरा मिस कैरिज़ हो गया| राम ने नाराजगी में मेरे साथ अपना घर छोड़ दिया |वे अपने घर वालों को धन-पिपासु कहा करते थे |पिता को धृतराष्ट और बहन को स्वार्थी |उन्होंने घर आना-जाना बिलकुल छोड़ दिया |अब रात-दिन मशक्कत करके मैं गृहस्थी की गाड़ी खींचने लगी |विवाह से पूर्व की सहानुभूति मैं खो चुकी थी |मुझे याद है राम खुद रहने के लिए किराए का मकान नहीं ढूंढ पाए थे |उनकी जाति सुनते ही लोग बहाना बना देते |जब मैंने खुद मकान ढूँढा तो सिर्फ यही बताया कि अपने पति के साथ रहूँगी| मकान मालिक मेरी जाति जानता था,इसलिए मकान दे दिया |यह बात मैंने राम को नहीं बताई ,नहीं तो वे मकान मालिक से झगड़ पड़ते |ये सिर्फ कम पढे-लिखों व सनातनी लोगों से प्राप्त अनुभव नहीं था |कई पढे-लिखे लोगों ,यहाँ तक कि कई साम्यवादी विचारधारा वालों ने भी मुझसे कहा-आपने यह अच्छा नहीं किया |मित्रता तक ठीक था ,पर विवाह!यह सामाजिक चीज है |इसमें जाति,कुल,गोत्र का ध्यान रखना जरूरी है |
मुझे आश्चर्य हुआ था कि मंच से ये ही लोग कितनी बड़ी-बड़ी बातें करते हैं |जाति ,धर्म से बाहर विवाह करने का आह्वान करते हैं ,पर बात जब अपने पर आती है,वे घोर पारंपरिक हो जाते हैं |मैंने लड़की होकर इसे सच कर दिया था,इससे वे खुद को अपमानित महसूस कर रहे थे |सभी अजीब नजरों से मुझे घूरा करते |एक बार माँ मुझसे मिलने आई और बोली –तू चाहे तो अकेले कभी-कभार घर आ सकती है,पर इस शादी की बात छिपाना |नहीं तो तुम्हारे भतीजे-भतीजियों की शादियाँ नहीं हो पाएगी |मान लो राम की जाति छिपाकर हम इस शादी के बारे में रिश्तेदारों को बता दें ,पर यह छिप नहीं पाएगा क्योंकि राम की शक्ल-सूरत से ही उसकी जाति लोग जान जाएंगे |वैसे भी तूने शादी का फोटो अखबार में छपवा दिया था ,एकाध लोगों ने पहचान लिया था तुम्हें |मुझसे पूछा तो मैंने साफ मना कर दिया |होगी कोई लड़की मिलती –जुलती |तुम भी एक से एक बुद्धिमानी करती ही रहती हो | क्या जरूरत थी फोटो छपवाने की ?
अब मैं माँ को क्या बताती कि राम के एक पत्रकार मित्र ने अपनी मर्जी से ये कर दिया था और इसमें बुराई क्या है ?जब विवाह किया है तो छिपाना क्यों ?पर माँ की बात भी ठीक थी |मेरे कारण माँ के अन्य बेटे-बेटियों के परिवार के सामने सामाजिक समस्याएँ आ सकती थीं |समाज तो नहीं बदला था विशेषकर उसका वर्णिकों का समाज-जहां आज भी धन की पूजा होती है |जहां आडंबर और दिखावा ज्यादा है |मैंने माँ से कह दिया –आपको जो ठीक लगे ,कर लीजिएगा |जो छिपाना-बताना हो ,अपने परिवार के भले की दृष्टि से कर लीजिएगा |
मैंने माँ को आश्वस्त किया कि मैं राम के साथ कभी उनके घर नहीं आऊँगी |फिर भी जाते-जाते माँ ने एक सलाह दी—वैसे ही उसके साथ रह लेती ,वह फिर भी ठीक था |तुम्हें शादी नहीं करनी चाहिए थी |पर आगे एक बात गाँठ बांध लेना कि कोई बच्चा न हो |नहीं तो जिंदगी भर ताना सुनोगी ‘..अछूत ... के जनमल ....|’बच्चे की भी जिंदगी बरबाद हो जाएगी |उसकी शादी होनी मुश्किल हो जाएगी ....|
मेरा मुख विवर्ण हो गया |माँ द्वारा भविष्य के खींचे गए चित्र इतने भयावह थे कि एक पल को मुझे लगा –क्या सच ही मुझसे कोई बड़ी भूल हो गयी है ?
पर माँ के जाते ही मैं सामान्य हो गयी |मैंने राम से माँ से हुई वार्ता के बारे में कुछ नहीं बताया |वे विश्वास भी नहीं करते |वे तो बड़े प्रसन्न थे |सबसे कहते फिर रहे थे कि उनके ससुराल पक्ष ने इस शादी को स्वीकार कर लिया है |अपने ऊपर उन्हें गर्व हो रहा था |वे तो अति उत्साह में दूसरे ही दिन ससुराल जाने को तैयार थे,पर मैंने मना कर दिया कि अभी नहीं |अभी नहीं का मतलब 'कभी नहीं' था |क्योंकि मैं जानती थी कि यह असंभव था |
अब मैं चाहती थी कि राम के घर की ही सदस्य बन जाऊँ ,पर वे लोग भी मुझे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे |उनके अनुसार राम ने मुझसे शादी करके गलत कार्य किया है |राम की माँ ने कहा-वैसे ही रह लेते साथ ।शादी की क्या जरूरत थी ?मैं सोचने लगी –क्या सारी माएँ एक ही तरह सोचतीं हैं ?राम अपने घर आते-जाते ,उनकी स्थिति में कोई फर्क नहीं आया था, पर मैं दोनों परिवारों द्वारा उपेक्षित थी ,जैसे सारी गलती मेरी ही हो |हर गलती का ठीकरा लड़की के सिर पर फोड़ने की परंपरा जो है |दोनों कुलों की लाज निभाने की ज़िम्मेदारी जिसके कंधे पर हो ,वही इस तरह के कदम उठाए तो भुगतना तो उसे ही पड़ेगा |
राम मेरी परेशानियों को छोटी-मोटी बात कहकर टाल दिया करते |वे कम्युनिस्ट थे |देश व समाज को बदलने का सपना देखते थे |उन्होंने लंबा पार्टी जीवन जिया था |अच्छी-अच्छी नौकरियाँ छोड़ दी थीं |पूरा समाज ही उनका घर था |निजी संपत्ति के वे विरोधी थे और स्त्री ,दलितों के पक्षधर |भाषण देने में उनका कोई जबाव नहीं था |उनके प्रगतिशील विचारों से ही मैं प्रभावित हुई थी पर विवाहोपरांत उनकी समाज सेवा मुझे खलने लगी |दोनों परिवारों ने मुझे छोड़ दिया था और मैं अकेले ही सब -कुछ झेल रही थी |राम का झोला हमेशा तैयार रहता |देर रात तक बाहर रहते |सुबह होते ही चल पड़ते |मैं अकेलेपन से त्रस्त रहती |राम को इस बात की कोई चिंता नहीं रहती थी कि मैं गृहस्थी की व्यवस्था कैसे कर रही हूँ?घर चलाने के लिए मुझे कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं ?कैसी-कैसी नजरों का सामना करना पड़ता है ?कैसी-कैसी अपमानजनक स्थितियों से गुजरना पड़ता है |राम थके हुए घर आते ,खाना खाते और सो जाते और मैं रात भर करवटें बदलती रहती |मुझसे बातें भी नहीं करते |कभी नहीं पूछते कि सब कुछ कैसे चल रहा है ?मैं तनावग्रस्त रहने लगी |जब तनाव ज्यादा बढ़ जाता ,मैं राम से लड़ पड़ती ...बहुत कुछ कह जाती |राम चुपचाप सुनते ...कुछ न कहते पर उस दिन रात को लौटते ही नहीं |फोन भी नहीं करते |मेरी परेशानी और बढ़ जाती |रात आँखों में काट देती |कई निर्णय लेती,पर उनके लौटते ही उस पर अमल नहीं कर पाती |वे बड़े सामान्य ढंग से बातें करते और रात न लौट पाने का कोई बहाना बना देते |मैं चुप रहती |मुझे लगने लगा था कि वे मेरी कमजोरी बन गए हैं |अकेले रहने की कल्पना से भी मुझे डर लगता |कम से कम वे रात को तो घर में रहते हैं |जिस दिन वे रात को बाहर रहते मेरी हालत पागलों –सी हो जाती |
कभी-कभी मैं सोचती स्त्री पुरूष के सामने इतनी कमजोर क्यों हो जाती है ?मैं आत्म-निर्भर थी ।गृहस्थी मेरी अपनी थी |इसका तिनका-तिनका मैंने खुद जोड़ा था |राम ने तो इसे बनाने में हाथ तक नहीं लगाया था ,फिर राम के सामने मैं इतनी कमजोर क्यों पड़ जाती हूँ ?जिस अकेलेपन से बचने के लिए मैंने विवाह किया था,वही दूर नहीं हो पा रहा था |इस विवाह से सिवाय उदासी,उपेक्षा,टूटन और बदनामी के कुछ हाथ न आया था |
राम को मेरे साथ देखकर कोई भी चौक जाता |कई लोग अकेले में यह पूछने से बाज नहीं आते कि आखिर आपने क्या देखा उनमें ?उच्च शिक्षिता,सुदर्शना,आत्मनिर्भर व उच्च जाति की थीं|आपको तो एक से एक वर मिल सकते थे |फिर क्यों एक बेहद सामान्य ,बेरोजगार दलित युवक को चुना ?क्या आपको इनसे प्यार हो गया था ?

प्यार ......!मैं हँसकर टाल जाती |अब कैसे बताती मैं कि किस प्यार ने मुझे राम के करीब किया |वह प्यार ही तो था ,जिसकी असफलता ने मुझे इस भंवर में डाल दिया था |
युवा....सजीला ...भव्य व्यक्तित्व का स्वामी....प्रगतिशील विचारों वाला दुष्यंत ....कितना चाहती थी मैं उसे |उसके कारण ही तो मैंने आजीवन विवाह न करने का निर्णय लिया था |वह भी तो मुझसे प्यार का दम भरता रहा पर वह छली था ...अंदर से खोखला था |जाति-धर्म का विरोध करने वाले उसके दुष्यंत ने अंतत:अपनी ही जाति की कमउम्र लड़की से विवाह कर लिया |इस आघात से मैं टूट गयी |शायद आत्मघात कर लेती पर राम मेरी ढाल बन गए |उन्होंने ही मुझे उस भंवर से निकाला और भंवर से चकराई मैं उनकी बाँहों में जा गिरी|राम राम मेरे मित्र ...राजदार और हमदर्द थे और धीरे-धीरे मेरी जरूरत भी बनते गए |उन्हीं से मैं दुष्यंत की बातें करती थी |
राम से मुझे प्यार नहीं था और उनसे विवाह की कभी कल्पना तक नहीं की थी मैंने |बस अपना दोस्त मानती थी उन्हें |इसलिए जब राम ने मेरे साथ रहने की इच्छा जाहिर की तो मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी |अब मैं दुष्यंत की जगह थी और राम मेरी जगह पर खड़े थे |दुष्यंत जाति,कुल,पद ,प्रतिष्ठा,रूप-रंग में मुझसे बढ़कर था और मैं राम से |
'तो....क्या ....मैं भी वही करूं ,जो दुष्यंत ने मेरे साथ किया |'
मैंने महसूस किया राम भी मेरी ही तरह बिलकुल अकेले हैं और सब कुछ जानते हुए भी मुझसे प्रेम करते हैं |मुझे उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिए पर मैं खुद से ही भयभीत थी |मैं जानती थी कि राम से मुझे सहानुभूति तो है ,मगर प्यार नहीं |पता नहीं मैं उन्हें प्यार कर भी पाऊँगी या नहीं |मैंने यह दुविधा राम से कह भी दी ,पर राम ने मुझे आश्वस्त किया कि वे मुझे बदल देंगे ...मेरे मन में अपने लिए प्यार जगा देंगे और तब तक मेरे प्यार का इंतजार करेंगे |उनमें बहुत अधिक सब्र है |मैं सोच में पड़ गयी थी |दुष्यंत मेरी जिंदगी से सदा के लिए जा चुका था और मेरे मन में दूर-दूर तक अंधेरा फैला हुआ था |मुझमें और ज्यादा अकेलापन झेलने की हिम्मत नहीं थी |अकेले ही दुनिया का सामना करने की शक्ति नहीं थी |नींद की गोलियों के सहारे रातें कट रही थीं |मैं इस स्थिति से उबरना चाहती थी |मैं डूब रही थी |डूबने से बचने के लिए मैंने यह सोचकर अपना हाथ राम के बढ़े हुए हाथों में दे दिया कि शायद वे ठीक कह रहे हैं |साथ रहने से प्यार हो ही जाएगा |राम अपनी अच्छाइयों से मुझे फिर से प्यार करने के लिए मजबूर कर देंगे |
पर कितनी गलत थी मैं ?उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया |मेरी देह को पाते ही बदल गए |शायद मुझे पाने के लिए ही उन्होंने आदर्श का मुखौटा पहन लिया था,जिससे मैं भ्रमित हो गयी थी |न तो मेरा अकेलापन दूर हुआ और ना ही समस्याएँ कम हुईं|वे और भी बढ़ गयी थीं ,विशेषकर दोनों परिवार से बहिष्कृत किए जाने के कारण |फिर भी मैं अपने स्त्री -धर्म का पालन करती रही ,पर कभी-कभी मुझे लगता –यह विवाह एक समझौता है |तब दुष्यंत आँसू बनकर मेरी आँखों में लरज़ उठता |मैं बिलख पड़ती-तुमने ऐसा क्यों किया दुष्यंत?देखो न तुम्हारे कारण मैं किस दलदल में आ गिरी हूँ!
फिर मैं अपने को धिक्कारती-यह गलत है ,दुष्यंत अब पराया पुरूष है |मैं राम के कंधे पर सिर रखकर खुद को संभालना चाहती ,पर वहाँ सिर्फ तकिया होता या फिर एक ऐसा पशु ,जो मेरे शरीर पर टूट पड़ता |मैं आहत हो जाती |राम सिर्फ एक देह की तरह मेरे साथ रह रहे थे ,जिसमें मन बिलकुल गायब था |उन्हें मुझसे कोई सहानुभूति नहीं थी ,न ही कोई लगाव |बस यंत्रवत सब कुछ |यही कारण था कि दुष्यंत मेरी स्मृतियों से कभी गायब नहीं हुआ |पर जितनी जल्दी वह दिल में आता, उतनी ही जल्दी दिमाग उसे दूर फेंक देता |फिर मुझे राम याद आने लगते |राम ने मुझे बताया था कि महीप जैसे बड़े लोगों के लिए लड़कियां महज भोग की वस्तु होती हैं |वे कभी उसे अपनाते नहीं |राम को अपने पर गर्व था कि उन्होंने उसे अपनाया था |चाहते तो भोगकर छोड़ सकते थे |मैं आश्चर्य से राम के चेहरे को देखने लगती कि वे तो विवाह से पूर्व उसकी अंगुली भी छूने की हिम्मत नहीं जुटा सकते थे और अब कितना बढ़-बढ़कर बोलते हैं |राम को खुद पर कितना आत्मविश्वास है !पर कितना झूठा है यह आत्मविश्वास !मैं सोचती -मर्द चाहें कितना भी अपढ़,मूढ़ ,कुरूप ,दलित और निर्धन हो ,उसका अहंकार बड़ा होता है|वह हर हाल में खुद को स्त्री से श्रेष्ठ समझता है |पर वह नहीं जानता कि इस अहंकार में वह क्या खो रहा है ?वह स्त्री का मन खो देता है,उसका प्रेम खो देता है |विश्वास और सम्मान खो देता है |
मैंने दुष्यंत को मन से निकाल दिया था,पर राम को वहाँ स्थापित नहीं कर पा रही थी |मैं चाहती थी ऐसा ,कोशिश भी करती रहती थी |राम दुष्यंत की तुलना में ज्यादा ईमानदार व बेहतर इंसान थे ,पर जब से वे साथ रहने लगे थे ,वे सिर्फ नर-पशु की भूमिका में आ गए थे और मुझे सिर्फ मादा बना देना चाहते थे |
फिर भी मैं राम का साथ चाहती थी |जब राम घर में नहीं होते थे, तो मुझे बड़ी तकलीफ होती थी |राम बिलकुल अराजक थे |कभी मेरी किसी बात का बुरा मानकर ,तो कभी विशिष्ट दोस्तों के साथ दारू -पार्टी का आनंद लेने लिए वे घर नहीं लौटते थे |उनकी नशे की लत मुझे नहीं भाती थी |कई बार इस बात को लेकर उनसे लड़ाई हो गयी |वे हर बार कसम खाते पर मित्रों के उकसाने पर कसम तोड़ डालते और रात को नहीं लौटते |जब मैं शिकायत करती तो कहते –तुम घर में ही ऐसी पार्टियाँ अरेंज करती तो बाहर क्यों जाना पड़ता ?पर तुम तो कंजूस हो |
मैं फिर टूटने लगी थी |राम खुद तो गंभीरता से कोई काम करते नहीं |दिन-रात घूमते हैं |मैं दाल-रोटी भर का इंतजाम कर पाती हूँ |कुछ पैसे भविष्य के लिए रखती हूँ ,यह राम को नहीं भाता |वे कहते कि चाहे घर ही न क्यों बेच दो,शराब-कबाब का इंतजाम जरूर करो,वरना या तो वे अपने घर वापस चले जाएंगे या दोस्तों के साथ रातें गुजारेंगे |
मैं सोच नहीं पा रही थी कि मैं कहाँ गलत थी ?यह सच था कि जिंदगी के उतार-चढ़ावों और तकलीफ़ों ने मुझे कुछ कठोर बना दिया था |मैं फूँक-फूँक कर कदम रखती थी |राम पर भी इतना भरोसा नहीं था कि घर-फूंक तमाशा देखूँ |आर्थिक मुद्दों पर मैं ज्यादा सतर्क रहती थी |मैंने अभाव देखे थे और यह भी जानती थी कि स्त्री के पास पैसा न हो तो क्या हश्र होता है उसका ?
राम को साथ रखने के लिए मैं उनकी ज़्यादतियों को भी सह रही थी |वे मेरी कमजोरी जान गए थे कि मुझे अकेलेपन से डर लगता है ,इसलिए मुझे सता रहे थे|जब मैं उन्हें समझाती तो कहते –क्यों बेकार की बातें सोचती हो?खुश रहा करो |मैं तुम्हारे पल्लू से बंधा तो नहीं रह सकता |मुझे और भी तो काम है |उनका काम मैं जानती थी |वे सबकी मदद करते और यह अच्छी बात थी पर क्या मेरी मदद करना ,गृहस्थी में सहभागी बनना उनका काम नहीं था ?घर-गृहस्थी क्या सिर्फ मेरी ज़िम्मेदारी थी ?घर उन्हें बस भूख के समय याद आता था |भूख चाहे पेट की हो या देह की !वाह री किस्मत !मैं सोचती-- जीने और खुश रहने के लिए मैंने कितना बड़ा समझौता कर डाला है !
मेरा सौंदर्य -प्रेमी मन राम में कोई भी और कहीं भी सौंदर्य न पाकर पहले ही बुझ गया था ,फिर भी मैंने मन को समझा लिया था–पुरूष का सौंदर्य नहीं, चरित्र देखना चाहिए |राम में गुणों का भंडार है ...उनका मन सुंदर है ...कार्य सुंदर है ...उससे प्यार करते हैं |उसके अतीत को जानकर भी उसे अपनाया |सबसे बड़ी बात की उनके चरित्र पर कोई दाग नहीं है |समाज में एक प्रतिष्ठा अर्जित की है उन्होंने |
और मैं पछताने लगती कि क्यों भला-बुरा कह देती हूँ उन्हें?समाज में इज्जत से जीने के लिए मुझे उनकी अधिक आवश्यकता है |मुझे याद आता कितनी मुश्किलों से मैं आत्मनिर्भर हुई ...नाम कमाया ...और सब कुछ पाकर खुश हुई कि बिना किसी पुरूष के सहारे मैंने ये सब किया है पर एक दिन जब मैंने अपने बारे में समाज की सोच का पता किया तो पता लगा कि लोग मेरे बारे में कई तरह की गलत बातें करते हैं |मेरे सामने मेरे संघर्षशील व्यक्तित्व की सराहना करने वाले भी पीठ पीछे कुछ और ही कहते हैं |मेरी सारी सफलताओं का श्रेय किसी अनाम पुरूष को दिया जाता है ,वह अनाम पुरूष जिसे मैं भी नहीं जानती थी |लोगों की दृष्टि मेरे यौवन के साथ मेरे पैसों पर हैं ,यह मैं जान गई थी|मेरा सबसे कमजोर पक्ष था शहर में अकेला होना ,जिसका मनमाना अर्थ लगाया जाता |कई कहानियाँ भी गढ़ ली गयी थीं |मैं विवाहिता ,परित्यक्ता ,विधवा ,महत्वाकांक्षिणी और जाने क्या-क्या थी ? मैं हैरान थी कि बिना पुरूष की स्त्री को समाज में मात्र एक चीज की दृष्टि से देखा जाता है |उसकी मेहनत ,त्याग ,संयम का कोई मूल्य नहीं होता |मैं आहत हो गयी थी।
उच्च -शिक्षा के बाद भी मुझे कोई सरकारी नौकरी नहीं मिली |प्राइवेट संस्थानों की नौकरी के अपमान -जनक उतार-चढ़ावों से मैं ऊब चुकी थी |मैनेजर अकारण भी मुझे डांट-फटकार देता |जब तब अपमानित कर देता और मैं खून का घूंट पीकर रह जाती |नौकरी करना मेरी विवशता थी |उसी के कारण मेरे सिर पर छत और पेट को रोटी थी |पिता के न रहने पर भाइयों के यहाँ दो दिन के लिए भी गुजारा न था |गनीमत थी कि इस नौकरी में यौन -शोषण न था |दुष्यंत को भी मेरी इन परेशानियों से कोई सरोकार न था |
दुष्यंत से मेरे रिश्ते की बात कम ही लोग जानते थे |जब दुष्यंत ने पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण कभी -भी और किसी से भी विवाह न करने का निर्णय लिया था ,तो मैंने भी सोच लिया था कि मैं भी विवाह नहीं करूंगी |पूरी उम्र दुष्यंत के साथ रिश्ते में काट दूंगी ,भले ही हम देह से हमेशा साथ न रहे |तब भी मैं अकेली थी ,पर मुझे अकेलापन नहीं डराता था क्योंकि दुष्यंत का आभासी प्यार मुझे हर क्षण पूर्णता का अहसास देता था |
विवाहोपरांत भी मेरी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया |वही कार्यस्थल पर अपमान ,वही हर पल नौकरी छूट जाने का खौफ ...वही अकेलापन ,जिसमें मन का अकेलापन भी शामिल हो गया था |अब तो कोई आभासी प्रेम भी दिल को नहीं बहला पाता था |प्रेम की असलियत मेरे सामने थी |दुष्यंत और अब राम ...दोनों ने मुझसे प्रेम के नाम पर खेल किया था |उनकी जाति से कोई फर्क नहीं था |स्त्री के लिए सभी मर्द एक ही जाति के होते हैं |
जीवन के सारे संघर्ष ज्यों के त्यों ही थे |वही काम से थककर लौटना ,साग-सब्जी लाना ,पकाना ,जोड़-घटाना करना |अब तो राम का देर रात तक इंतजार करना भी उसमें शामिल हो गया था |पहले तो काम खत्म कर कम से कम चैन से सो तो लेती थी |अब तो नींद भी पूरी नहीं होती थी |
रात –रात भर जाग कर राम की प्रतीक्षा मेरे सब्र की परीक्षा थी |इतना सब कुछ करने के बाद जब वे मुझे सीमित दायरे में कैद ,अवसरवादी व धनाग्रही स्त्री कहते और चाहते कि मैं भी उनके अभियानों में धन खर्च करूं, तो अक्सर तो मैं चुप सुनती ,पर कभी-कभी उबल पड़ती ,जिसका नतीजा फिर कुछ दिनों का वियोग होता |मैं एक समर्थ स्त्री पति- वियोग में तड़पती -रोती रहती और वे किसी दोस्त के साथ बैठकर शराब-कबाब के मजे लूटते और कहीं भी पड़ रहते |
कुछ समय पहले उनकी माता जी बीमार पड़ीं थीं ,तब मैं खुद बिना बुलाए राम को साथ लेकर उन्हें देखने गयी |तभी से राम घर आने-जाने लगे थे |मेरे साथ उनके घर वालों का व्यवहार हमेशा उपेक्षापूर्ण रहा था ,फिर भी माता जी के बीमार पड़ने पर मैं जाने लगी और जब भी जाती ,उनकी खूब सेवा करती |उनकी पसंद की चीजों को घर से बनाकर ले जाती |वे जो कहतीं,उनकी रसोईघर में बना देती|उन्हें तेल लगाती,नहलाती |वे खुश होतीं और आशीर्वाद देतीं ,पर वे एक बार भी नहीं कहतीं कि यही आकर रहो |इतना ही नहीं ,वह जब तक वहाँ रहती ,वे आरामकुर्सी से ही रसोईघर के रास्ते वाले कमरों पर नजर रखतीं |अपने जेवर उतारकर बेटी को दे दिया था कि एकाएक उनके कुछ हो जाने पर मैं ले न लूँ |मैं सब समझती थी|उनकी इस सोच पर दुखी होती थी पर धर्म समझकर अपना कर्तव्य कर रही थी |दरअसल इस समय मैं मानवता के लिए उनकी सेवा कर रही थी |उनकी जगह कोई दूसरी बूढ़ी या बीमार औरत होती तो भी मैं उतना ही करती |दिन -भर नौकरी में खटकर लौटती तो उनकी पसंद की चीजें बनाती ,फिर लगभग तीन-चार मिल पैदल चलकर उनके पास पहुँचती।वे बच्ची की तरह मेरी हाथ से चीजें छीनकर जल्दी-जल्दी खातीं और उनके चेहरे पर असीम संतोष होता|यह दृश्य मुझे तृप्त कर देता|मैं अपनी थकान भूल जाती |
वे कहतीं-तुम जो मेरे लिए लाती हो न ,सब आकर खा जाते हैं|मुझे नहीं देते |
जबसे वे बीमार पड़ी हैं |कोई उनके पास नहीं रहता |बेटी शहर के ही मेडिकल कालेज में एम एस कर रही है |जब तक माँ ठीक थीं और उसके मुँह में निवाला डालती थीं ,वह रही | उनके बीमार पड़ते ही हास्टल में रहने लगी ,जबकि उनके बीमार होने की वजह भी वही थी | एक दिन उसके लिए खाना लेकर आते समय उनके हाथ से थाली छूटकर उनके पैर पर गिर पड़ी थी और उनका पैर कट गया |वे शुगर की मरीज थीं |घाव लाइलाज हो गया |वे धीरे-धीरे चलने-फिरने में असमर्थ हो गईं |एक और बहू थी,वह बाहर रहती थी |कभी-कभार आती ,तो नौकर साथ लाती |रूपए-पैसे देकर चली जाती |पति देखभाल करते पर अपने मनोरंजन की भी व्यवस्था करते थे |वे अकेली कमरे में कुढ़ती रहतीं |न कोई बोलने-बतियाने वाला ,न सेवा करने वाला |जब मैं उन्हें देखने पहली बार गयी तो उन पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं |शायद कई दिनों से उन्हें नहलाया तक नहीं गया था |राम को देखते ही रो पड़ीं |राम उनसे ज्यादा जुड़े थे,पर पिता को पसंद नहीं करते थे |माँ को इस हालत मे देखकर रो पड़े और मुझसे कहा—थैंक्स कि तुम जबरन मुझे यहाँ ले आई ,वरना मैं कभी नहीं आता |मैं बोली-एक बेटे को माँ से अलग करना मैंने कभी नहीं चाहा |आप ही घर छोड़कर गए और मुझे भी साथ लेते गए ,वरना मैं हर हाल में यहीं रहती |
माता जी हमारी बात सुनकर घबरा गईं –नहीं ...नहीं तुम यहाँ मत रहना...कभी-कभी आना ,फिर चली जाना ,नहीं तो वे सब मुझे.....|मैं समझ गईं थी कि माता जी की यहाँ नहीं चलती |वे महज एक कठपुतली हैं |
बाद में माता जी ने मुझे अपने बारे में कई -सारी बातें बताईं –जानती हो वह जो तुम्हारा ससुर है ,अच्छा आदमी नहीं है |बुढ़ापे में रंगीन टी- शर्ट और जींस पहनकर किसी से मिलने जाता है |बहुत औरतों से इसके रिश्ते रहे हैं |मैं रोकती थी तो मुझे टार्चर करता था| जिंदगी भर मैं सबकी सेवा करती रही ,बदले में क्या मिला ?
दलित के यहाँ भी स्त्री दलित है ,यह पहली बार मैंने जाना था |
माता जी कई बार आई सी यू गईं और फिर कुछ दिन बाद ठीक होकर लौट आईं |उस बार जब वे भर्ती थीं |राम मुझे लेकर इलाहाबाद गए थे |मेरा नौकरी के लिए साक्षात्कार था |हालांकि वे चाहते तो किसी और के साथ भी मुझे भेज सकते थे या फिर मैं अकेली जा सकती थी |इलाहाबाद में राम के कई मित्र तथा रिश्तेदार थे पर संयोग ....|रात को हम पहुंचे थे |दूसरे दिन सुबह साक्षात्कार था |रात -भर मैं पढ़ती रही थी कि भोर के समय राम आए और बोले –दोपहर के बाद ही कोई ट्रेन पकड़ कर वापस चलेंगे ,माता जी की तबीयत ज्यादा खराब हो गयी है |मैं समझ गयी कि माता जी चल बसी हैं |किसी तरह हम वापस लौटे |शहर पहुँचते ही राम बोले --पहले पिता जी के घर जाऊंगा |मैंने कहा –पहले अपने घर चलकर सामान रख देते हैं ,फिर चलेंगे |रूकना पड़ सकता है |पर वे नहीं माने |हम वहाँ पहुंचे तो घर के बारामदे में हवन हो रहा था |दाह -संस्कार उसी दिन दुपहर में हो चुका था |एक कोने सामान रखकर हम भी वहाँ बैठ गए |घर के लोगों ने बड़े गुस्से से मुझे देखा |हवन के बाद सब एक कमरे में चले गए |मैं भी पीछे गयी तो उन लोगों ने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया |मैंने राम से कहा –अब घर चलें |कल फिर आ जाएंगे |कल ही मृतक भोज है तो वे बोले –तुम जाओ ,मैं बाद में आऊँगा |मैं घर आई ,पर राम नहीं लौटे |दूसरे दिन मैं फिर गयी |माता जी की पसंद की चीजें बनाई जा रही थीं |ये वे ही चीजें थीं ,जो मैं उनके लिए बनाकर लाया करती थी |चावल के आटे और दाल का फरा,अरबी के पत्ते का रिकवच,बेसन की सब्जी ,लौकी का कोफ़्ता माता जी को बहुत पसंद था ,पर इसे दरिद्रों का भोजन कहकर घर के बाकी लोग मुंह बिचकाते थे |मैंने रसोईघर में जाकर हाथ बँटाना चाहा ,तो मुझे मना कर दिया गया |किसी भी चीज में मुझे शामिल नहीं किया गया,जैसे मैं कोई बाहरी स्त्री होऊँ |मृतक -भोज में सैकड़ों लोग आए थे |मैं उन्हें भोजन कराने में लग गयी |आधी रात हो चुकी थी ,फिर सभी लोग माता जी के कमरे में इकट्ठा हुए |दोनों ननदें,दोनों देवर ,ससुर और कुछ खास रिश्तेदार पर मुझे आते देख दरवाजा ठेल दिया गया |अंदर माताजी के जेवर का बंटवारा होना था |मैंने राम को देखा |राम मुझे लेकर घर आ गए पर ये क्या, वे तो किसी भूखे की तरह मेरे शरीर पर टूट पड़े |मैंने भी उन्हें मना नहीं किया –सोचा ,शायद माँ की मृत्यु का गम भुलाने के लिए ये इस तरह व्यवहार कर रहे हैं |
उस दिन के बाद राम बराबर अपने घर जाने लगे और मुझसे रूखा व्यवहार करने लगे |एक दिन मैंने कारण पूछा ,तो फट पड़े—तुम्हारे कारण मैं अपनी माँ का मुंह तक नहीं देख पाया |उसकी चिता को अग्नि तक नहीं दे पाया ,जबकि मैं उसका बड़ा और लाडला बेटा था |
मैं तो जैसे आसमान से गिरी ,तो इनके घर वालों ने इनके मन में जहर घोल ही दिया |मेरा क्या दोष था ?होम करते मेरे हाथ जल गए थे |अब राम के पास मुझे देने के लिए एक बड़ा –सा ताना भी था |
मैं सोचने लगी –मेरी अच्छी सोच,करूणा और प्रगतिशील विचारों का क्या कोई मूल्य नहीं है ?न दोनों परिवारों की दृष्टि में मैं अच्छी थी ,न समाज के | राम से शादी के करके मैं ‘पर कटी मैना’ बन चुकी हूँ और मेरे साथ कुछ भी किया जा सकता है |मैं कितनी असहाय और बेचारी- सी हो उठी हूँ |सीता को एक ही अग्नि परीक्षा देनी पड़ी ,पर मैं प्रतिदिन एक नयी अग्नि -परीक्षा दे रही हूँ |आखिर क्यों ?क्या इसलिए कि मैं एक स्त्री हूँ और स्त्री होकर भी इतने क्रांतिकारी फैसले लेती रही हूँ |मैं कब तक सहूँगी ?किसी दिन मेरा धैर्य अपनी सीमा तोड़ देगा| आखिर सहने की भी एक सीमा होती है |मैं एक-एक पैसे को दांतों से पकड़ती क्योंकि इसी पैसे के लिए मुझे क्या-क्या नहीं झेलना पड़ता था ?और वे अपनी लापरवाही से सैकड़ों का नुकसान कर देते और माथे पर शिकन तक न लाते |कभी पैसा कमाया हो तो उसकी कीमत समझें |मैं रोती ...जलती कुढ़ती ...छटपटाती,पर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता |साफ कहते- 'मुझे पास रखना है तो मेरी जरूरतें पूरी करो ,वरना मेरे पिता का घर है और यह पूरा समाज है |मुझे कभी कोई कमी नहीं होगी |'
उनका कहना गलत नहीं था |उन्हें कभी किसी अभाव से गुजरना ही नहीं पड़ता था.... न पड़ेगा |पर मैं क्या करूं ,मेरे लिए तो कहीं भी कोई जगह नहीं थी |क्या करूं मैं ?राम को छोड़ती हूँ तो दुनिया जीने नहीं देगी और पास रखती हूँ तो ये जीने नहीं देंगे |क्यों सहना पड़ रहा है मुझे इतना कुछ ?
चलिए मेरा परिवार और पूरा समाज मुझसे इसलिए नाराज है कि एक अछूत से विवाह कर मैं अछूत हो गयी हूँ| पर राम और उनके परिवार के लिए मैं क्यों अछूत हूँ ? राम के परिवार के लोग अमीर हैं इसलिए मुझे अछूत मानते हैं या इसलिए कि अमीर होने से पहले अछूत समझे जाने की जो पीड़ा उन्होंने झेली थी ,उसका बदला मुझसे ले रहे हैं |उनकी बात भी समझ में आती है पर स्वयं राम ,उन्हें क्या परेशानी है ?उनके मन में क्या है ?कहीं वे भी मुझे इसलिए तो अछूत नहीं समझ रहे कि मेरा एक अतीत रहा है पर यह तो वे पहले से जानते थे |
ओह,तो ये बात है ......वे सच ही खुद को राम और मुझे अहल्या मानने लगे हैं|उन्हें लगता है कि उन्होंने मेरा उद्धार किया है |उनके इस अभिमान के साथ तो मैं कदापि नहीं जी सकती |वे ईश्वर नहीं हैं और न ही मैं अहल्या |
पर अब तक मैं इतना तो समझ ही चुकी हूँ कि स्त्री अछूतों की भी अछूत है दलितों की भी दलित है .....क्योंकि स्त्री है |