साहित्य और लोकप्रियता की कसौटी
साहित्य के मूल्यांकन के अनेक मानदण्ड रहे हैं। सौष्ठववादी मूल्यांकन में कृति की आन्तरिक संरचना ही उसके विमर्श का आधार है। इसके अन्तर्गत साहित्यिक रचना अपने आप में स्वायत्त है। इसके विपरीत समाजशास्त्रीय समीक्षा-दृष्टि साहित्य को सामाजिक परिवेश से जोड़कर देखती है और उसकी सार्थकता का मूल्यांकन व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ही करती है। इस मूल्यांकन में साहित्य का कलागतपक्ष सर्वथा उपेक्षित तो नहीं होता लेकिन कृति को जीवन से विभक्त न मानकर उससे संपृक्त माना जाता है।
साहित्य के प्रयोजन और उसके सरोकारों के गम्भीर चिन्तन के बीच यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि लोकप्रियता या व्यापक संप्रेषणीयता साहित्य की सार्थकता का एक स्वीकृत मानदण्ड है लेकिन साथ ही यह सतर्कता भी जरूरी है कि लोकप्रियता इतना सरलीकृत शब्द नहीं है कि उसे सामान्य आशय में साहित्य का निरपेक्ष प्रतिमान मान लिया जाये। लोकप्रियता में व्यापक स्वीकार का भाव निहित है और यह स्वीकृति प्रायः किसी लेखक की रचनात्मक सफलता की ही परिणति है फिर भी लोक प्रियता अपने आप में स्वतंत्र मूल्य नहीं है। रचना के मूल में यदि लोक प्रियता का विचार लेखक की प्रेरणा हो तो उसकी रचनात्मक जिम्मेदारी अवश्य प्रभावित होती है। लोकप्रियता के सम्बन्ध में यह विचारणीय है कि उसमें कितना और कौनसा लोक समाहित है, उसका आयतन कितना है।
किसी भी समाज में सामाजिक आर्थिक स्तरों की ही तरह शिक्षा, बौद्धिकता और वैचारिकता के भी स्तर होते हैं। प्रतिक्रिया और जीवन दृष्टि के निर्धारण में इनका पर्याप्त प्रभाव भी होता है। रूचियों, बौद्धिक स्तर तथा संस्कारों के अनुसार पाठकों के भी कई स्तर होते हैं। विभिन्न स्तरों के पाठकों के आस्वाद के धरातल भी इसीलिये भिन्न होते हैं। फिर भी स्तरों की भिन्नता को इतना अतिरंजित भी नहीं किया जाना चाहिए कि उनमें किसी समान भावभूमि का सर्वथा निषेध हो। इसलिये लोकप्रियता के स्वरूप में एक ओर अलग स्तरों का भी अस्तित्व है तो दूसरी ओर उनकी समान भावभूमि का भी महत्त्व है। धर्मवीर भारती का ’’गुनाहों का देवता’’ उपन्यास अपनी रोमानी संवेदना के कारण उस समय के युवा पाठक वर्ग में बहुत लोकप्रिय रहा है। अज्ञेय और निर्मल वर्मा के प्रशंसक पाठकों का एक अलग वर्ग है। रीतियुगीन लक्षण काव्य का एक विशिष्ट सीमित वर्ग था जिसे काव्य सिद्धान्तों की समझ थी और उसी युग में पùाकर, पजनेस और भूषण के काव्य का अधिक व्यापक पाठक वर्ग रहा है। तुलसी और प्रेमचन्द जैसे रचनाकार विरल ही होते हैं जिनका प्रभाव सभी स्तरेां के पाठकों पर है भले ही आस्वाद की अभिव्यक्ति भिन्न हो। यह एक रोचक तथ्य है कि वर्तमान शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में रीति शैली के कवित्त सवैया काव्य का भी काफी बड़ा पाठक वर्ग था और उसी समय छायावाद तथा खड़ी बोली की नयी काव्य संवेदना का भी एक पाठक वर्ग बन रहा था।
लोकप्रियता के संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या लोकप्रियता साहित्य की महत्ता निरूपित करने की एकमात्र या प्रमुख कसौटी हो सकती है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि क्या हर अच्छी साहित्यिक कृति लोकप्रिय होती ही है और क्या हर लोकप्रिय रचना साहित्यिक दृष्टि से भी उत्कृष्ट होती है। ज़ाहिर है कि यह अनिवार्य नहीं है। हालांकि सामान्यतः एक अच्छी कृति लोकप्रिय भी होती है फिर भी लोकप्रियता के सीमित या विस्तृत होने के पीछे अन्य कारण भी हैं। कभी कभी एक ही लेखक की एक रचना उसकी अन्य कृतियों से अधिक लोकप्रिय होती है। रेणु को ’’मैला आँचल’’ ने जितनी लोकप्रियता दी उतनी ’परती परिकथा’ या अन्य उपन्यासों ने नहीं दी जबकि ‘‘परती परिकथा’’ औपन्यासिक दृष्टि से बहुत सशक्त कृति है। ‘‘नदी के द्वीप’’ की तुलना में ‘‘शेखर एक जीवनी’’ का भी यही हाल है। गुप्त जी की ’’भारत भारती’’ सम्पूर्ण पाठक वर्ग में अपने समय की प्रतिनिधि कृति बन गयी। ‘‘कामायनी’’ की साहित्यिक महत्ता निर्विववाद है किन्तु वह प्रबुद्ध साहित्यिक वर्ग में अधिक प्रशंसित हुई। दिनकर की ’’उर्वशी’ सशक्त काव्य-रचना है पर व्यापक पाठक वर्ग में दिनकर की लोकप्रियता उनकी राष्ट्रीय भावनापरक कविताओं तथा ’’कुरूक्षेत्र’’ और ’’परशुराम की प्रतीक्षा’’ पर अधिक आधारित है। शरत के अनूदित उपन्यास जितने लोकप्रिय हुए उतना टैगोर का कथा साहित्य नहीं किन्तु उनकी ’’गीताजंलि’ विशाल पाठक वर्ग में प्रशंसित हुई।
इसी तरह हर लोकप्रिय साहित्य साहित्यिकता की शर्तें पूरी करे यह भी जरूरी नहीं है। इसके उदाहरण अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाले बैस्टसैलर और हिन्दी में गुलशन नन्दा जैसे लेखकों के उपन्यास हैं। कुशवाहा कान्त बहुत पढ़े गये पर साहित्य में उन्हें कभी महत्त्वपूर्ण लेखक नहीं माना गया। हैरॉल्ड रॉबिन्स और सिडनी शेल्डन के भले ही लाखों पाठक हों पर उनकी किताबें ‘‘बार एण्ड पीस’’, ‘‘मदर’’, ‘‘गुड अर्थ’’, ‘‘ऑफ ह्यूमन बांडेज’’ या ‘‘द मैन एण्ड द सी’’ के साथ कभी नहीं रखी जायंेगी। एक बैस्टसैलर और ‘‘गोदान’’ की लोकप्रियता में फर्क है।
आज यह सामान्य चिन्ता है कि साहित्य का पाठकवर्ग तेजी से सिमटता जा रहा है और तथाकथित साहित्य का आधार मरता जा रहा है। सही अर्थों में इसे पठनीयता का संकट माना जा सकता है। दृश्य माध्यम में समाचार भी देखे जाने लगे हैं, सुने नहीं जाते। पाठक या श्रोता दर्शक में बदलता जा रहा है। शब्द का दृश्य में यह परिवर्तन सम्प्रेषण की कलात्मकता को बढ़ाने का माध्यम हो तो सराहनीय है। ऐसे परिवेश में साहित्य वास्तव में अपनी मूल्यवत्ता के साथ जीवित रहने के संकट से गुजर रहा है। उपभोक्ता समाज में साहित्य का प्रकाशन भी व्यापार है।
यह अनिवार्य तो नहीं है कि हर साहित्यिक कृति सम्पूर्ण पाठक समाज में समान बोध के साथ लोकप्रिय हो। फिर भी विचित्रता, बौद्धिक चमत्कार या कोरी प्रयोगशीलता की दृष्टि से रचे गये साहित्य के आभिजात्य को स्वीकृति नहीं मिल पाती। साहित्य आम नहीं तो अधिकतर साहित्यिक पाठकों की वस्तु तो है ही। इस सन्दर्भ में हिन्दी की प्रयोगवादी कविता को लिया जा सकता है। प्रयोगशीलता के मोह में रचे गये जटिल और वैयक्तिक राग विरागों के प्रयोगवादी काव्य ने कौतूहल तो पैदा किया पर आश्वस्त लेखक के अलावा शायद ही किसी को किया हो। इसी तरह आज उत्तरआधुनिकतावाद, उत्तरसंचरनावाद और विखंडनवाद जैसे विचारान्दोलन भी बहुत ही सीमित वर्ग के बोध में उतर पाये हैं। यह सही है कि बदलते हुए समाज में साहित्य की संवेदना भी बदलती है पर इस बदलाव में व्यापक समाज की संलग्नता तो होनी ही चाहिए। आज की कविता का सन्दर्भ लंे तो यह अनुभव बनता है कि उसके प्रति बेहद स्फुटता और अस्पष्टता की शिकायत एकदम निराधार नहीं है।
दरअसल वही साहित्य साहित्य रहते हुए भी लोकप्रिय होगा जिसमें किसी समाज विशेष और व्यापक रूप से सम्पूर्ण मानव समाज की चिन्ताएँ और अनुभूतियाँ व्यक्त हों। मनुष्य के वे सामान्य अनुभव जिनमें यथार्थ के साथ जीवन के लिये जरूरी आशावादिता का स्वर हो साहित्य को अधिक परिचित और विश्वसनीय बनाते हैं। टॉनी मौरिसन और तसलीमा नसरीन का साहित्य इसी आधार पर सम्पूर्ण मानवीय समाज को प्रभावित करता है। ’’लज्जा’’ और ‘‘औरत के हक में’’ अपने रूप शिल्प में चाहे जैसे हों पर मानवीय संवेदना में अत्यन्त सफल और सार्थक हैं। सिमोन द बोउवा की पुस्तक ‘‘द सेकिण्ड सेक्स’’ की लोकप्रियता भी इसी तरह प्रभावपूर्ण रही। ‘‘गोदान’’ और ‘‘झूठा सच’’ अपने समय और समाज के ही दस्तावेज नहीं बल्कि व्यापक मनुष्य समाज के अनुभवों के इतिहास हैं। कबीर और तुलसी कवि के रूप में जितने प्रासंगिक हैं उतने ही व्यक्ति के रूप में वे हमारे नायक हैं।
साहित्य और लोकप्रियता के विवेचन में यह तथ्य भी प्रासंगिक है कि आज परम्परा तथा जातीय पहचान का वह साहित्य अज्ञात बनता जा रहा है जिसमें बहुत बड़े समाज के अनुभव रचे बसे हैं। विद्यापति, भिखारी ठाकुर और बुन्देली के ईसुरी जैसे अप्रतिम कवियों के काव्य की लोक संपृक्ति बड़े बड़े कवियों से भी अधिक है। इन कवियों के सन्दर्भ से साहित्य और लोकप्रियता का सही रिश्ता समझा जा सकता है । जगनिक का आल्हखण्ड यों तो अन्य रासो ग्रंथों की तरह वीर काव्य ही है पर जितना लोकप्रिय आल्हखण्ड हुआ उतनी पठनीयता या वाचिकता किसी रासो काव्य को नहीं मिली। हर अंचल ने उसे इतना अपनाया कि उसके मूल स्वरूप की पहचान ही कठिन हो गयी।
इस प्रकार साहित्य अपने रचनात्मक स्वरूप के साथ लोकप्रियता की स्वाभाविक परिणति में भी सक्षम हो यह एक सहज निश्पत्ति मानी जा सकती है। न तो लोकप्रियता साहित्य की मूल्यवत्ता की कीमत पर हो न साहित्य केवल सीमित बौद्धिक अथवा शास्त्रीय वर्ग का कला विनोद बनकर रह जाये। वास्तविक रूप में लोकप्रिय साहित्य और पॉपुलर लिट्रेचर के समानार्थी लोकप्रिय साहित्य में अन्तर करना जरूरी है। स्वयं मूल्यवत्ता की कसौटी पर परखी हुई लोकप्रियता ही साहित्य की कसौटी हो सकती है।
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