पूर्णता की चाहत रही अधूरी
लाजपत राय गर्ग
उन्नीसवाँ अध्याय
तीन दिन हो गये थे कैप्टन प्रीतम सिंह को शिमला आये हुए। पहले दिन तो शिमला पहुँचने के बाद होटल-रूम लिया। कमरे में ही खाना मँगवा लिया और फिर रज़ाई में घुसते ही नींद ने ऐसा घेरा कि उसे पता ही नहीं चला कि कब चार घंटे बीत गये। दूसरे दिन नाश्ता करके जाखू मन्दिर देखने निकल गया था। तीसरे दिन सुबह से ही वह मॉल रोड पर टहलने के लिये निकल आया था। मार्च का दूसरा पखवाड़ा आरम्भ होने पर भी अच्छी-खासी ठंड थी। इक्का-दुक्का पर्यटक ही घूमते नज़र आ रहे थे। समय काटने के लिये उसने फ़िल्म देखने का मन बनाया। रिट्ज थियेटर में ‘गुनाहगार कौन’ फ़िल्म लगी हुई थी। राज बब्बर के साथ संगीता बिजलानी, सुजाता मेहता तथा परेश रावल मुख्य कलाकार थे। कैप्टन के लिये इसका कोई अर्थ नहीं था कि फ़िल्म कैसी होगी, उसे तो टाइम पास करना था। फ़िल्म समाप्ति पर रिज पर आकर उसने चाय पी और उसके बाद पीसीओ से कुलविंदर को फ़ोन मिलाया। कुलविंदर ने बताया कि आज उसे पता चला है कि एफ़आइआर दर्ज हो गयी है। कैप्टन ने पूछा - ‘एफ़आइआर में मेरे अलावा भी कोई और नाम है, मसलन दार जी, बी जी का?’
‘प्रीतम यार, मैं किसे दे थ्रू पता कित्ता है। ऐनां तां ओह् नहीं पता कर सक्या। हाँ, ओह् दस रअेया सी कि मेन सेक्शन 498 ऐ लगाया है। ऐस लई तूँ दार जी होरां नूं सारी गल्ल दस के अगाह कर देवीं। किते बेचारे हनेरे च ही ना दबोचे जान। दुजी गल्ल, मैं अग्रवाल वकील नाल सलाह कित्ती ऐ। प्री-अरेस्ट बेल वास्ते वकालतनामे ते तेरे दस्तखत ज़रूरी हन। ऐदां कर, इक्क बार तूँ चण्डीगढ़ आ जा। बस स्टैंड ते मिलके वकालतनामे ते तेरे दस्तखत करवा लऊंगा, फेर तूँ कुझ दिनां लई ऐदर-उद्दर हो जायीं।’
‘मैं कल सुबह तुझे बताता हूँ। वकील से वकालतनामा ले आना।’
‘ओह तां मैं लै आंदा ऐ।’
कुलविंदर से बात करने के बाद कैप्टन विचार करने लगा कि दार जी को किस तरह से सूचित करूँ। थोड़ी देर बाद फिर उसने पीसीओ की ओर रुख़ किया। तीन-चार कोशिशों के बाद फ़ोन मिल गया। फ़ोन कैप्टन के पिता सरदार सज्जन सिंह ने उठाया था। उसने जो कुछ हुआ था, उसमें से नीलू के साथ किये गये अपने बर्ताव को ज्यों-का-त्यों न बताकर जीजा-साली के हँसी-मज़ाक़ के रूप में पेश करते हुए बाक़ी लगभग वैसा ही बता दिया जैसा कि हुआ था। दार जी को यह सुनकर कि नीलू मीनाक्षी की बेटी है, एक बार तो झटका लगा, लेकिन कैप्टन द्वारा मीनाक्षी को पहुँचाई चोट की बात ने उस झटके को दबा दिया। एफ़आइआर को लेकर कैप्टन की बात के जवाब में उन्होंने कहा - ‘प्रीतम, जो तूने किया है, सुनकर मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ। जहाँ तक एफ़आइआर में हमारे नाम की संभावना की बात है तो मेरा दिल यह मानने को तैयार नहीं कि मीनाक्षी बेटी ने तुझे सजा दिलवाने के लिये हमें भी घसीटा होगा। इस केस में मैं ‘गेहूँ के साथ घुन पिसने वाली’ कहावत से सहमत नहीं। मैं तेरी माँ से बात करता हूँ। यदि वह मेरी बात से सहमत हुई तो कल सुबह हम मीनाक्षी का पता लेने जायेंगे।’
‘दार जी, ऐसा हरगिज़ न करना। आप दोनों का एफ़आइआर में नाम न भी हो तो भी मीनाक्षी के पास आपका जाना उचित नहीं।’
‘तूने जो कर दिया, कर दिया। हमें क्या करना है, वह हम देखेंगे। लेकिन यह तो बता, तू बोल कहाँ से रहा है?’
‘दार जी, अभी मैं यह नहीं बता सकता। मेरा एक मित्र प्री-अरेस्ट बेल की कोशिश कर रहा है। अगर बेल मिल गयी तो मैं फ़ॉर्म पर आऊँगा।’
फ़ोन सुनने के बाद सरदार जी सोच में पड़ गये। थोड़ी देर बाद उन्होंने वीरांवाली को आवाज़ दी। उसने आकर पूछा - ‘कुछ चाहिये था दार जी?’
सरदार सज्जन सिंह - ‘वीरां, अभी प्रीतम का फ़ोन आया था। उसने बहुत बड़ा काण्ड कर दिया है, उसने अपनी बहू का सिर फाड़ दिया है।’
सुनकर वीरांवाली हैरान-परेशान। उसने कहा - ‘यह आप क्या कह रहे हैं? कुछ खुलकर बताओ ना।’
कैप्टन ने जितना फ़ोन पर उन्हें बताया था, सरदार सज्जन सिंह ने ज्यों-का-त्यों वीरांवाली को बता दिया और फिर उसकी प्रतिक्रिया जानने के लिये नज़रें उसके चेहरे पर गड़ा दीं। वीरांवाली भी सारी बात सुनकर सोच में पड़ गयी। कुछ देर बाद उसने कहा - ‘कोई भी आदमी प्रीतम की तरह ही बर्ताव करता उन हालात में। लेकिन, हमें अब देखना है कि आगे क्या किया जाये। प्रीतम और मीनाक्षी ने पक्की उम्र में शादी की है। नीलू मीनाक्षी की बेटी है तो इसका मतलब यह हुआ कि जब नीलू का जन्म हुआ, उस समय मीनाक्षी अल्हड़ अवस्था में थी। किन परिस्थितियों में यह सब हुआ होगा, वह तो मीनाक्षी को ही पता है। फिर भी मैं उसकी तथा उसके माँ-बाप, परमात्मा उनकी आत्मा को शांति बख्शें, की हिम्मत के आगे नतमस्तक हूँ कि उन्होंने एक नन्हीं जान की हत्या का पाप ना करके उसे पाला-पोसा।’
सरदार सज्जन सिंह - ‘वीरां, तुम्हारी बात से मैं भी सहमत हूँ। हमें मीनाक्षी का पता लेने चलना चाहिए, यद्यपि प्रीतम ने हमें ऐसा करने से मना किया है।’
‘हम कल सुबह ही चलते हैं।’
..........
अगले दिन जब सरदार सज्जन सिंह और वीरांवाली अम्बाला पहुँचे तो दरवाज़ा सुरभि ने खोला। सुरभि ने उन्हें आदरपूर्वक नमस्ते की, क्योंकि वह तो उन्हें पहचानती थी, उसी ने तो विवाह में मीनाक्षी की ओर से घर का सारा प्रबन्ध सँभाला हुआ था, किन्तु दोनों बुजुर्ग उसे नहीं पहचान पाये, फिर भी उसके सम्भ्रांत व्यक्तित्व को देखकर उन्होंने उसे आशीर्वाद देते हुए पूछा - ‘मीनाक्षी घर पर ही है बेटा?’
‘जी, आप आइए, मैं दीदी को बताती हूँ।’
उनको ड्राइंगरूम में बिठा कर उसने बहादुर को पानी लाने के लिये कहा और स्वयं बेडरूम की ओर चली गयी।
थोड़ी देर में मीनाक्षी सुरभि के साथ ड्राइंगरूम में आयी। उसने अपने सास-ससुर के पाँव छूकर प्रणाम किया। उसकी हालत देखकर वीरांवाली बोल उठी - ‘हाय मैं मर जावां! कंज़र ने बहू की क्या दुर्दशा की है! बेटा, तू क्यों उठ कर आयी, हम ही तेरे पास आ जाते।’
‘बी जी, आपको कैसे पता लगा?’
मीनाक्षी उत्सुक थी जानने के लिये कि कैप्टन कहाँ है। वीरांवाली की बजाय सरदार जी ने उत्तर दिया - ‘बेटे, कल शाम को प्रीतम का फ़ोन आया था। उसने यह तो नहीं बताया कि कहाँ से बोल रहा है, किन्तु अपनी करतूत की वजह तथा अरेस्ट होने के डर से वह लुक्ता-छिपता फिर रहा है। उसने तो हमें भी यहाँ आने से रोका था, किन्तु तुम्हारे लगी चोट का सुनकर हमसे रहा नहीं गया। वह तो कह रहा था कि हो सकता है, एफ़आइआर में हमारा नाम भी हो। लेकिन मैंने कहा - मेरा दिल यह मानने को तैयार नहीं कि मीनाक्षी बेटी ने तुझे सजा दिलवाने के लिये हमें भी घसीटा होगा - इसलिये बेटे, हम तो अपने मन की बात मानकर आ गये हैं। हमें बहुत शर्मिंदगी महसूस हो रही है।’
पहले वीरांवाली द्वारा अपने पुत्र के लिये ‘कंजर’ शब्द का प्रयोग करना कहा तथा फिर सरदार जी के उपरोक्त कथन को सुनकर मीनाक्षी के मन को राहत का अनुभव हुआ। अत: उसने कहा - ‘दार जी, आप मेरे लिये पूजनीय हैं। आपका इसमें क्या दोष है, सिवा इसके कि कैप्टन आपका बेटा है। आप और बी जी जैसे देवता-स्वरूप लोगों को क़ानूनी लड़ाई में घसीटने का विचार तो मेरे सपने में भी नहीं आ सकता था। रही बात कैप्टन की, उसे तो उसके किये की सजा दिलवा कर ही रहूँगी।’
मीनाक्षी की बात सुनकर सरदार सज्जन सिंह ने कहा - ‘मीनाक्षी बेटे, हम उसकी तरफ़दारी नहीं कर रहे और ना ही उसकी हरकत मुआफ़ी लायक़ है, फिर भी तुझसे विनती है कि उसे मुआफ़ कर दे, क़ानूनी पचड़ों में सब कुछ तबाह हो जाता है।’
बुजुर्ग ससुर की दयनीय दशा देखकर एक बार तो मीनाक्षी भी द्रवित होने लगी, लेकिन तुरन्त ही उसने स्वयं को सँभाल लिया और कहा - ‘दार जी, यह जो ज़ख़्म आपको दिखायी दे रहे हैं, ये तो देर-सवेर भर जायेंगे, लेकिन जो ज़ख्म मेरे अन्तर्मन को छील गये हैं, उनको मैं अंतिम साँसों तक नहीं भूल सकती। केवल यही नहीं, पिछले पाँच-छ: महीने से कैप्टन ने जिस तरह से मुझे मानसिक और शारीरिक तौर पर प्रताड़ित किया है, वह तो मैं आपके सामने बयान भी नहीं कर सकती। इसलिये कैप्टन को माफ़ करना मेरे लिये सम्भव नहीं है। दार जी, इसे मेरी धृष्टता समझ कर माफ़ कर देना।’
अब सरदार सज्जन सिंह के पास कहने को कुछ बचा न था, बेबस दशा में उन्होंने वीरांवाली की तरफ़ देखा। उसने उठते हुए कहा - ‘मीनाक्षी बेटे, कुपूत की निरभाग माँ चलते-चलते एक बार फिर विनती करती है कि हो सके तो अपने फ़ैसले पर दुबारा विचार कर लेना।’
मीनाक्षी ने बिना कुछ कहे सिर नीचा किये उनके आगे हाथ जोड़ दिये।
क्रमश..