एक बूँद इश्क
(23)
चुल्लु में नदी का पानी भर कर उसके छीटें मार रहा है..परेश उसके चेहरे को थपथपाते हुये आवाज़ लगा रहा है- "उठो रीमा...देखो कौन आया है?? तुम किसको पुकार रहीं थीं??? उठो..आँखे खोलो....देखो बैजू आ गया रीमा.."
और फिर, अचानक रीमा ने आँखें खोल दीं....इन आँखों में किसी की तलाश है....जिसे वह आँखें खोलते ही ढूँढने लगी है....परेश और गणेश बिल्कुल उसके नजदीक ही बैठे हैं उन्हे समझ नही आ रहा इस गुत्थी को कैसे सुलझायें? आखिर कब तक यूँ ही वह रीमा को बार-बार बेहोश होते देखते रहेगें???
अचानक ही सूखे पत्तों पर किसी के कदमों की आहट से वोह चौंक गये। गणेश ने पहचान लिया- "अरे ये तो बोगी बाबा हैं इन्हींं जंगलों में रहते हैं,,,जब मन होता है तो इस नदी पर आ जाते हैं...आज हमने भी अरशे बाद देखा हैं इन्हें..."
लम्बे उलझे जटाओं से बाल.....चेहरे के सूखेपन को व्यान करती हड्डियां गहरा गेहुँआ रंग....पैरों में गहरी बिबाइयाँ जो दूर से दिख रही हैं..आँखों में झुर्रियों की परतें..बाँयें हाथ में लाठी पीठ पर बड़ा सा झोला...कपड़ों का लबादा ओढे....ऐसा लग रहा है जैसे बरसों से नहाये नही हैं......वोह भयानक आकृति वाला शख्स करीब आकर रूका है...परेश की आँखें फटी हैं और रीमा की आँखें शून्य में टिक गयी हैं..वह किसी को देख कर भी नही देख रही है....
वह एकदम पास आकर सबको देख रहा है बारी-बारी से......
गणेश ने हाथ जोड़ कर कहा - "बाबा,,, क्या चाहिये आपको????"
"इस दुनिया में सब खाली हाथ आये हैं और खाली हाथ ही जायेगें.......तू क्या दे सकता है हमें????"बाबा के सूखे होठों से निकले शब्दों में इतना भारीपन है कि वहाँ का पूरा माहौल गूँज उठा। फिर उसने रीमा की तरफ देखा और अपनी लाठी धम्म से नीचे घास में गिरा दी...." क्या हुआ है इसे???"
"कहानी तो लम्बी है बाबा,,,,,, न कहते बनती है और न सहते..." गणेश ने बगैर परेश की सहमति के कह डाला।
"कहानी वो होती है जो कल्पना से गढ़ी जाती है...ये कहानी नही है...." बाबा ने रीमा के माथे पर हाथ फेर कर कहा।
परेश को उसका रीमा को इस तरह छूना जरा भी पसंद नही आया ...न ही उसकी बातों में उसका कोई रुझान ही है... वह तिलमिला गया..." यह मेरी पत्नी है,,, बीमार है प्लीज आप दूर रहें तो अच्छा होगा....।।"
गणेश को भी परेश की ऐसी बेरुखी थोड़ा अखरी..मगर वह चुप रहा...आखिर वह रीमा का पति है....फिर,, बोगी बाबा की हालत देख कर कोई भी दूरी बनाना चाहेगा।
अब बोगी बाबा की आँखें एकदम लाल हो गयी हैं...जिनमें शायद पानी भी है....बावजूद परेश के मना करने के वह रीमा के और करीब आ गया है एकदम सामने....उसका स्वर भरभरा रहा है- " दूरियाँ तो तभी बनती हैं बबुआ, जब वोह चाहता है" उसने आसमान की तरफ ईशारा करते हुये कहा...".सब उसके हाथ में है...."
"हआँ बाबा, आप ठीक कह रहे हो.....दर असल शाब शहर से हैं और बहुत परेशान हैं..यह रीमा बिटिया इन्ही की पत्नी है...बहुत बीमार है...इशलिये ऐशा बोल गये...वरना तो आप लोग बहुत ही अच्छे लोग हैं....."
"अच्छा बुरा सब ऊपर वाला जानता है....अच्छों को पटखनी देता है और बुरों को मौका......अच्छों की पटखनी से परीक्षा और बुरों को मौकें देकर उसके सब पाप चुकता कर देता है.....उसकी लीला से कौन बच पाया है???" बाबा को गहरी चोट लगी है उनके स्वर में उसकी पीड़ा साफ दिख रही है....फिर भी उसका शान्त रवैया आश्चर्यजनक है......इस बार उसने रीमा को बगैर छुये ही टकटकी लगा कर देखा है और टूटी- फूटी सी आवाज़ में कहा- "उठ जा चन्दा..."
"चन्दा........????????"
सभी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं......मौत जैसा सन्नाटा छा गया......"बोगी बाबा....कैसे जानते हैं??? "
गणेश और परेश का एक जैसा हाल है। दोनों एक दूसरें से बगैर बोले मौन वार्तालाप कर रहे हैं....रीमा आँखें खोली हुई मृत जैसी अवस्था में पड़ी है....
"उठ जा चन्दा.....अब बस कर......" बाबा ने आँखों में भरे आँसुओं को पीते हुये रीमा से आग्रह की मुद्रा में कहा.....जैसे उसकी अवस्था गिड़गिड़ाने वाली है.......
रीमा अभी भी बेसुध है...परेश उसके पास होकर भी कहीं दूर विचर रहा है...गणेश बाबा को लगातार देख रहा है...
"बाबा,,,,,, ये कैसी पहेली है??? आप क्या जानते हैं इनके बारे में शाफ-शाफ बताइये..तो बड़ी कृपा होगी...हम शब जाने कब से आग की लपटों में घिरे बैठे हैं....अगर आप कुछ मद्द करदें तो बहुत अहशान होगा आपका" गणेश ने बाबा के आगे हाथ जोड़ कर आग्रह किया।
"आग की लपटें तो चारों ओर हैं बबुआ.....कोई पाप की लपटों से घिरा है कोई दुख की तो कोई बिरह की लपटों में जीवन काट रहा है...."
मूक द्रष्टा बन कर देखना परेश की मजबूरी भी है और नियती भी....उसको बाबा का व्यवहार सन्देहास्पद लग रहा है..वह चाह कर भी निशब्द है...फिर भी उसे उम्मीद जागी है कि शायद यह बाबा ही कोई मद्द कर सकें। जब वह रीमा का पुराना नाम लेकर पुकार सकता है तो जरुर बैजू का कोई जानकार होगा? या फिर इनकी कहानी से वाकिफ होगा....ऐसे में नाराजगी जताना हानिकारक हो सकता है।
बाबा रीमा की चेतना लौटने का इन्तजार कर रहा है......उसकी देह भाषा में अधीरता है......ओर चहल-कदमी में फिक्र है....परेश ने हथियार डालते हुये माफी माँगने वाले अंदाज में कहा- "अन्जानें में कुछ कह दिया तो माफ करना बाबा....अगर आप रीमा के बारे में जानते हैं तो कुछ मद्द कीजिये.....मुझसे अब सहा नही जाता।"
"चन्दा को देख, कितना प्रेम करती है वह अपने बैजू को? प्रेम के सिवा और कुछ नही जानती है वोह.....प्रेम जीती है ....प्रेम बुनती है......और प्रेम की उलाहना सहती भी है.....सह तो यह रही है....और कितना सहेगी???? "
"बाबा,,,, अब देर न करो.....हमारी मद्द करो...रीमा बिटिया को आप ही ठीक कर सकते हो....." गणेश ने पुजोर आग्रह किया तो बाबा कुछ नरम पड़ गये। पलट कर जमीन पर बैठ गये और रीमा को देखा-
"बाबा, फिर से आपसे माफी मँगताा हूँ मद्द कीजिये हमारी" परेश गिड़गिड़ाया।
बाबा बेहद उदास और गंभीर हो गये...उन्होनें एक-एक राज को खोलना शुरु किया- " आज से करीब साठ बरस पुरानी बात है..इसी गाँव में एक बैजू नाम का लड़का रहता था ...बेहद हठीला और मजबूत....दिमाग से भी और शरीर से भी..कच्चा था तो बस दिल का..एकदम नरम और सच्चा.....प्यार लुटाना और बदले में प्यार पाना ही उसका जीवन था....माँ और बाप दोनों बचपन में ही चल बसे....अकेला जीना कठिन होता है सो एक चचेरा भाई था सत्तू जिसको उसने अपने साथ रख लिया था...थोड़ी सी जमीन थी और कुछ भेड़ें....उसी से गुजर-बसर हो जाती थी..... यही छोटी सी दुनिया थी जो न रंगीन थी और न ही नीरस......उसे ईश्वर से कोई शिकायत नही थी न ही लालच...उसने अपने चाचा से कह दिया था...आधी जमीन और बारह भेड़ें सत्तू की हैं मैं क्या करूँगा इन सब का? इसी लालच में चाचा ने सत्तू को उसके पास रख तोड़ा था...वह बाँसुरी खूब अच्छी बजाता इतनी कि जो सुनता सुध-बुध खो देता...
एक दिन की बात है वह इसी नदी के किनारे बैठा बाँसुरी बजा रहा था। उसी गाँव के पटवारी की बेटी चन्दा भी बाँसुरी की आवाज़ से खिचीं चली आई...बैजू उसके रूप रंग से ज्यादा उसके भोलेपन पर मर मिटा...वह भी बैजू की दीवानी हो गयी....यह सिलसिला लम्बा चला.....अब रोज दोनों नदी पर आते घण्टों बैठ कर बातें करते.....ब्याह के सपनें देखते...जानवरों..पक्षीयों के संग खेलते...और इठलाते.....धीरे-धीरे..पूरा जंगल ही उनका मित्र बन गया था।
एक दिन उनके प्रेम की भनक पूरे गाँव को लग गयी..पटवारी ने चन्दा पर लगाम कस दी...वह नही चाहता था कि भेड़ें चराने वाला चरवाहा चन्दा से मिले.....चन्दा भी दीवानी थी तो अड़ गयी- "मैं ब्याह करूँगी तो बैजू से...नही तो जान दे दूँगीं.....यह प्रेम प्रसंग भी हमेशा से चलते आ रहे प्रेम कहानियों जैसा ही था...वैसा ही विरोध...वैसा ही आकर्षण....और वैसी ही दुनिया की नजर...।
एक चीज थी जो सबसे अलग थी..दोनों को अटूट विश्वास था कि वोह जरुर मिलेगें...कोई उन्हें कभी अलग नही कर सकता मौत भी नही.....अगर मौत आ गयी तो भी वह जीतेगें...वह दोनों ईश्वर से प्रार्थना करते..' हम मर भी जायें तो भी हमें दोबारा मिला देना...।'
पटवारी का विरोध सत्तू को अच्छा लगता था वह चाहता था कि बारह नही सारी भेड़ें और जमीन उसे मिल जाये और फिर वह किसी सुन्दरी से ब्याह कर खूब सारे बच्चे पैदा करे....बड़ा परिवार बनाये और ऐश करे। वह अक्सर बैजू को उकसाता- "चन्दा तुझे नही मुझे भी चाहती है....आज वह मेरे लिये खैचू बना कर लाई थी...न मानों तो देख लो रसोई में खैचूं की डेकची पड़ी है."
बैजू नर नही नारायण सा था....उसे सत्तू की बातों से कोई गुरेज ही नही हुआ...वह चन्दा की अथाह मोहब्बत जानता था....सो हंस कर टाल देता.......इस बात से सत्तू के आग लग जाती...किये कराये पर पानी फिरता सो अलग।
क्रमशः