मेरा स्वर्णिम बंगाल
संस्मरण
(अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा)
मल्लिका मुखर्जी
(4)
फोन पर जब मैंने श्यामल भैया को मोईनपुर के बारे मे पूछा, वे ख़ुशी से उछल पड़े। उनकी आवाज़ में उनकी ख़ुशी झलक रही थी, ‘अरे, जानती हो मल्लिका, हमारे गाँव के पास से पक्की सड़क गुजरती है। हमारे दादाजी का बड़ा नाम था गाँव में! अतुलचंद्र भौमिक के बारे में किसी को भी पूछोगी, बता देंगे उनका घर। पापा, बड़े ताऊजी सभी के बारे में बता देंगे। हमारे घर के पीछे की ओर काली बाड़ी है (माँ काली का मंदिर)। वर्ष 1950 तक मोईनपुर गाँव कोमिल्ला जिले में था। अब ब्राह्मणबाडिया जिले में, कस्बा पुलिस थाना के अंतगर्त पडता है। घर के दक्षिण में चौघरीबाड़ी, पश्चिम में सेन बाड़ी, पूर्व में अमलतास दास का मकान है...।’
मुझे उनकी बातों में अपने वतन के लिए एक दीवानगी महसूस हो रही थी। वे अपने गाँव के उस घर में पहुँच चुके थे। पता बताते हुए वे यह भूल चुके थे कि यह पता करीब त्रेसठ साल पहले का है। मैंने पता लिख लिया। मेरे पतिश्री पार्थ का पासपोर्ट अभी तक नहीं बन पाया था, मैंने तय किया कि मैं सौरभ को मेरे साथ ले जाऊंगी। सौरभ मेरी दूसरी संतान है, जो मेरी छोटी बहन माला के परिवार का हिस्सा है। माला ने उसे गोद लिया है। सौरभ का पासपोर्ट बन चुका था। मैंने सोचा, इस यात्रा के दौरान मैं उसके साथ थोड़ा समय बिता सकूंगी। यह तय हुआ कि मौसी-मौसा जी के साथ हम दोनों जायेंगे। हमने तैयारियाँ शुरू कर दी। मौसी-मौसा जी तो बारह जनवरी को ही कोलकाता के लिए रवाना हो गए। उन्हें वहाँ क़रीबी रिश्तेदारों की तीन शादियों में शरीक होना था। मैंने पहली फ़रवरी की एयर इन्डिया से दो टिकटें बुक करवा ली। हमें कोलकाता पहुँचकर बांग्लादेश के डेप्युटी हाई कमीशन के कार्यालय से वीज़ा लेना था।
मैंने कार्यालय में छुट्टियों की अर्जी दे दी। आम लोगों की यह धारणा है कि सरकारी कार्यालयों में कुछ काम नहीं होता। हक़ीकत तो यह है कि सरकारी कार्यालयों में उतना ही काम होता है जितना किसी भी कार्यक्षेत्र में होता है। फ़र्क सिर्फ इतना है कि कुछ लोग काम नहीं करते और कुछ लोग बहुत ज्यादा काम करते हैं। जो नहीं करते वे ही इस बात को समाज तक पहूँचाते हैं कि सरकारी कार्यालयों में कुछ काम नही होता! उन्हीं की बदौलत कर्मठ कर्मचारियों को दुगना, तीगुना, कभी-कभी चौगुना काम करना पड़ता है। आला अधिकारियों की अपेक्षाएँ भी उन्हीं लोगों से बढ़ जाती है, जो कार्य करते हैं।
मैं हमेशा अपनी जिम्मेदारियों के प्रति समर्पित रही हूँ, चाहे वह घर हो, परिवार हो या मेरा कार्यक्षेत्र हो। कर्तव्यनिष्ठा के पाठ मैंने पापा से ही तो सीखे थे। मैं कार्यालय, प्रधान निदेशक लेखापरीक्षा (व्यय), अहमदाबाद में वरिष्ठ लेखापरीक्षा अधिकारी के पद पर कार्यरत थी। मैंने इकतीस जनवरी को ही केन्द्रीय लेखापरीक्षा (व्यय) स्कंध का वार्षिक ऑडिट प्लान निदेशक महोदय को प्रस्तुत कर दिया। मैं पंद्रह फरवरी को लौटने वाली थी और यह प्लान चौदह फरवरी को मुख्यालय, नई दिल्ली को जाना था। मैंने समय रहते ही यह काम कर लिया। कार्यालय से देश छोड़ने की अनुमति भी मिल चुकी थी।
अब बांग्लादेश की भौगोलिक परिस्थिति जानने में मेरी रुचि बढ़ रही थी क्योंकि मुझे मेरे माता-पिता की जन्मभूमि की तलाश थी। बांग्लादेश की उत्तर, पूर्व और पश्चिम सीमाएँ भारत से मिलती है। दक्षिण-पूर्व सीमा म्यांमार देश से मिलती है। दक्षिण में बंगाल की खाड़ी है। बांग्लादेश को छह उपक्षेत्रों में बाँटा गया है, जिनके नाम राज्यों की राजधानी के नाम पर रखे गए हैं। बारिसाल, चटगाँव, ढाका, खुलना, राजशाही और सिल्हट। बांग्लादेश का अधिकतर हिस्सा समुद्र की सतह से बहुत कम ऊँचाई पर स्थित है। ज़्यादातर हिस्सा भारतीय उपमहाद्वीप में नदियों के मुहाने पर स्थित है जो सुंदरवन के नाम से जाना जाता है। ये मुहाने गंगा (स्थानीय नाम पद्मा नदी), ब्रह्मपुत्र, यमुना, और मेघना नदियों के हैं जो बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में अवस्थित हैं। बांग्लादेश की मिट्टी बहुत उपजाऊ है लेकिन बाढ़ और अकाल दोनों से काफ़ी प्रभावित होती रहती है। बांग्लादेश में कुल मिलाकर 700 नदियाँ बहती है इसलिए देश प्रतिवर्ष मौसमी उत्पात का शिकार होता है। चक्रवातीय तूफ़ान यहाँ सामान्य है। अक्टूबर से मार्च तक जाड़े का मौसम होता है। मार्च से जून तक उमस भरी गर्मी होती है और फिर वर्षा।
देखते ही देखते पहली फरवरी आ गई। सुबह चार बजे ही घड़ी के एलार्म ने नींद उड़ा दी। आठ- पाँच की एयर इन्डिया के हवाई जहाज से हमारी अहमदाबाद से, वाया दिल्ली, कोलकाता की टिकटें थी। उस दिन ज़ीरो विज़ीबिलिटी की वजह से सभी उड़ानें देर से चल रही थी। काउंटर पर जाकर पता चला कि दिल्ली से फ्लाइट नंबर 817 सुबह समय से उड़ान नहीं भर सकी थी। वही फ्लाईट अहमदाबाद से आठ-पाँच को चलने वाली थी। यह फ्लाइट ग्यारह-दस को अहमदाबाद पहुँची, क़रीब बारह-चालीस को उड़ान भरी। दो बजे हम दिल्ली पहूँचे। हमारा बोर्डिंग पास दिल्ली तक का ही था।
दिल्ली से कनेक्टिव फ्लाइट दो बजकर तीस मिनट पर थी, आधे घंटे में हमें बोर्डिंग पास भी लेना था। बोर्डिंग पास की प्रक्रिया से गुज़रने के बाद जब हम गेट नंबर चौदह पर पहुँचे, फ्लाइट उड़ान भर चुकी थी। उसके बाद दूसरी फ्लाइट में जगह पाने के लिए काफ़ी मुशक्कत करनी पड़ी। रात के करीब एक बजे हम कोलकाता पहुँचे। मेरे जेठ जी और जेठानी जी हमें एयरपोर्ट पर लेने आए। क़रीब तीन बजे हम घर पहूँचे। बातें करते-करते सुबह हो गई। दोपहर का खाना खाकर, हम मौसा जी की फुफेरी बहन सपना के आवास पर जाने के लिए रवाना हुए। मौसी-मौसा जी तो पहले ही वहाँ पहूँच चुके थे।
सपना की माता जी भी सपना के वहीं रुकी हुई थीं। उनसे बातचीत के दौरान हमें ढाका शहर के एक होटल का पता मिला। माता जी ने बताया उनके आवास में एक किराएदार रहते थे। महिला का नाम कल्पना शाहा था, जिनके दूर के रिश्ते के जेठ श्री अनूप शाहा अब भी ढाका शहर में रहते हैं। कल्पना जी को बुलाया गया, वे नज़दीक में ही रहती थी। वे आईं, काफ़ी देर तक बातें हुई। उन्होंने ‘होटल फार्मगेट’ का पता दिया और यह भी कहा कि अच्छी होटल है, हिन्दू इलाके में है। ‘हिन्दू इलाका’ शब्द मेरे मन में खटक गया। मैं चूप रही, पता संभालकर रख लिया। मौसा जी ने अनुप शाहा जी से फ़ोन पर बात भी कर ली। तय हुआ, हम ढाका में ‘होटल फ़ार्मगेट’ में ही ठहरेंगे।
दो और तीन फरवरी छुट्टी थी। वह दो दिन हम कोलकाता शहर घूमें। चार फरवरी को सुबह हम ठीक सात बजे बांग्लादेश के डेप्युटी हाई कमीशन के कार्यालय के सामने खड़े थे। लाइन में आठ-दस लोग खड़े थे। हम भी खड़े हो गए। हमारे साथ मदद के लिए दूर के रिश्ते के एक मामा जी थे। उन्होंने अपने परिचित एक एजंट को बुलाया, बातचीत की। हम इंटरनेट से डाउनलोड किया हुआ फॉर्म भरकर ले गए थे, पर उसने कहा, ‘यह फॉर्म नही चलेगा।’
मैंने पूछा, ‘क्यों?’
‘इस फॉर्म पर बांग्लादेश का “लोगो” नही है।’
उसकी बात सही थी। “लोगो” नहीं था। मैं तो ईमानदारी से लाइन में खड़े रहकर वीज़ा लेना चाहती थी, पर दो घंटे लाइन में खड़े रहने के बाद हमें यही कारण से वीज़ा न मिले और नया फॉर्म भरना पड़े तो? हमारे पास समय कम था।
मामाजी ने कहा, ‘यह काम हमें एजंट से ही करवाना आसान होगा।‘
मुझे असहायता महसूस होने लगी। आख़िर यही तय हुआ। नए फॉर्म भरे गए। एक व्यक्ति के 800/- रुपये एजंट कैसर भाई को देना तय हुआ। एक मुश्किल और खड़ी हो गई। मौसा जी का पासपोर्ट रिन्यू किया हुआ था। वे पुराना पासपोर्ट नहीं लाये थे।
कैसर भाई ने कहा, ‘पुराना पासपोर्ट हर हाल मेँ चाहिए वर्ना वीज़ा नहीं मिलेगा।’
मौसा जी ने तुरंत बेटे सुमित को फोन लगाया, DTDC कुरियर में पुराना पासपोर्ट भेजने के लिए कहा। वे भी चाहते थे कि सही तरीके से वीज़ा मिले। सुमित ने कहा कि पासपोर्ट पाँच तारीख रात को नौ बजे तक ही पहूँच पाएगा क्योंकि दिल्ली से आनेवाली कोई फ्लाइट ज़ीरो विज़ीबिलिटी की वजह से समय पर नहीं चल रही थी।
एजंट ने कुछ सोचा फिर कहा, ‘अगर आप को जल्दी है तो 1500/- रुपये देने से काम चल जाएगा।’
‘वाह!’ मैंने मन ही मन कहा। भ्रष्टाचार का जन्म क्या इन्सान की असहाय परिस्थिति का तकाजा था? कोई भी समस्या का समाधान इतनी आसानी से सिर्फ रुपयों के बल पर खोजा जा सकता है!
मैंने उनसे जानना चाहा, ‘अभी तो आप कह रहे थे कि हर हाल में पुराना पासपोर्ट चाहिए। रुपयों से इसका हल कैसे निकलेगा, आप बतायेंगे?’
उसने बिना किसी झिझक के कहा, ‘मैडम, यहाँ के उप हाई कमिश्नर को यह सर्टिफ़ाई करना होता है कि उन्होंने पासपोर्ट चेक किया, अगर पुराने पासपोर्ट है तो वह भी चेक किए। आप तो जानती हैं कि लोग पासपोर्ट के साथ छेड़खानी करते हैं, ऐसे में उप हाई कमिश्नर साहब अगर रिस्क लेते हैं तो कुछ तो देना पड़ेगा न?’
यहाँ मुझे एक और बात खटक गई, मैं भी सरकारी अफसर हूँ यह जानकर क्या उसने यह बात आसानी से नहीं कही? उसके मन में यह बात तो पक्की नहीं है कि हर सरकारी काम ऐसे, पैसों से ही होता है? जबकि सच्चाई तो यह है कि मैं कार्यालय में मेरा हर कार्य सम्पूर्ण ईमानदारी से करती आई हूँ और करती रहूँगी। ओह..! यह तो असहायता की पराकाष्ठा थी! उसे कहाँ पता था कि मैं जो 800/-रुपये देने वाली थी वह भी मेरी पसीने की कमाई के थे।
मौसा जी ने भी जीवनभर स्टेट बैंक ऑफ़ इन्डिया में ईमानदारी से नौकरी की थी। उन्होंने तो बेटे को फ़ोन पर कह ही दिया था, पुराना पासपोर्ट कुरियर से भेजने के लिए। सुमित ने यह काम कर भी दिया। बात यह तय रही कि पुराना पासपोर्ट आने पर ही वीज़ा लेंगे, इस काम के लिए 1500/- रुपये नहीं देगें। मुझे थोड़ा तनाव महसूस होने लगा था क्योंकि छुट्टियाँ कम थी। कुरियर के लिए एजंट क़ैसर भाई का पता दिया गया ताकि देरी न हो, पर दूसरे दिन रात तक भी पासपोर्ट नहीं पहूँचा। हमें इंतज़ार करना था।
मैं और सौरभ मझले जेठ जी, जयंत भैया के घर सेंट्रल कोलकाता चले गए। नौ बजे के बाद मौसेरे भाई अमित का फोन आया। उसने कहा, ‘दीदी, आप कैसर भाई को 1500/- रुपये दे दो और कल सुबह ही वीज़ा बनवा लो। मैं जानता हूँ, पापा इसमें सहमति नही जतायेंगे, पर कभी-कभी प्रेक्टिकल बनना पड़ता है।’
मैंने कहा, ‘ठीक है।’
उसका अगला सवाल था, ‘आप लोग बांग्लादेश कैसे जायेंगे?’
मैंने कहा, ‘वैसे तो बस से जाने का सोच रहे हैं। पश्चिम बंगाल सर्फेस ट्रांसपोर्ट कोर्पोरेशन की बसें चलती है। कोलकाता से ढाका तक तथा बांग्लादेश रोड ट्रांसपोर्ट कोर्पोरेशन की बसें भी चलती हैं। कोलकाता से ढाका का अंतर 380 कि.मी. है, भारत की सीमा तक 80 कि.मी., वहाँ से क़रीब 300 कि.मी. बांग्लादेश के भीतर ढाका तक का अंतर है। बसें सप्ताह में तीन दिन चलती है। कैसर भाई ने कहा है कि अंतर के हिसाब से समय ज्यादा लगता है, बारह घंटे भी लग सकते है क्योंकि बीच में पद्मा नदी पर फेरी में बस जाती है, जहाँ अगर बसें ज्यादा है तो इंतज़ार करना पड़ता है|’
अमित ने कहा, ‘दीदी आप और मम्मी, दोनों को घूटनों की तकलीफ है, आप इतनी देर तक बस में नहीं बैठ सकोगे। मैं एयर टिकट करवा देता हूँ आप प्रिन्ट वहीं से निकलवा लेना।’
मैंने हामी भर दी। उसने कुछ ही देर में एयर इंडिया से टिकट बुक करवा दी। कोलकाता से ढाका, सात फरवरी शाम की। कैसर भाई का फ़ोन नंबर मुझसे लेकर उनसे भी कह दिया कि 1500/- रुपये मिल जाएँगे, वे किसी भी हाल में कल, यानि छह फरवरी को ही वीज़ा करवा दें। कैसर भाई तैयार हो गए। छह को दोपहर ही हमें वीज़ा मिल गया। पुराना पासपोर्ट भी क़ैसर भाई के पास पहुँच गया था, लेकिन उन्होंने कहा कि वीज़ा की सारी कार्रवाई होने के बाद ही उन्हें पासपोर्ट मिला है और हमें सहमत होना पड़ा। हमारे देश में मुश्किल से मुश्किल काम रिश्वत देकर इतनी आसानी से हो सकता है जानकर मन खिन्न हो गया। सरहदों पर घुसपैठ ऐसे ही होती होगी। खैर, अब हम कल की तैयारी में जुट गए।
सात फरवरी, सुबह से ही एक अजीब-सी अनुभूति का अहसास हो रहा था। दोपहर ढाई बजे ही हम चारों टेक्सी लेकर निकल पड़े। कोलकाता में ट्राफिक की बड़ी समस्या है। क़रीब पाँच बजे हम नेताजी सुभाष चंद्र बोस अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुँचे। इमिग्रेशन चेक की प्रक्रिया से गुजरकर कुछ देर हॉल में बैठे, सेन्डवीच-समोसे खाए। हमने क़रीब साढ़े छह बजे एयर इन्डिया की फ्लाइट नंबर ए-आई-230 में अपना स्थान ग्रहण किया। उड़ान भरने का समय सात बजे का था, पर सात बजकर पंद्रह मिनट पर हवाई जहाज ने उड़ान भरी। कोलकाता से ढाका का हवाई सफर सिर्फ चालीस मिनट का है। बांग्लादेश का समय भारतीय समय से आधा घंटा आगे चलता है। इतने कम समय में भी हमें लाइट रिफ्रेशमेंट दिया गया।
खाना समाप्त होते न होते, ढाका शहर की रोशनी दिखाई देने लगी। उस समय की अनुभूति का चित्रण शब्दों में नहीं किया जा सकता। समयानुसार, सात बजकर पचपन मिनट पर हवाई जहाज ढाका के हजरत शाहजलाल अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरा। एयर होस्टेस की सूचनानुसार सभी ने घड़ी में वक्त मिलाया, आठ बजकर पच्चीस मिनट। एयरपोर्ट पर अच्छी खासी भीड़ थी बड़ी देर तक हमें इमीग्रेशन क्लीयरन्स की लाइन में खड़े रहना पड़ा। पासपोर्ट में बांग्लादेश एन्ट्री का स्टेम्प लगा, फोटो भी खिंची गई तब जाकर हम बाहर की ओर आए।
सब से पहला काम था मनी एक्सचेंज (money exchange) का। कोलकाता से हमें कहा गया था कि ढाका एयरपोर्ट पर ही बांग्लादेशी टाका मिल जायेंगे। बाहर आते ही हमें दो करन्सी एक्सचेंज के काउंटर दिखे। दोनों काउंटर पर हमें भारतीय 100 रुपये के बांग्लादेशी टाका का विनिमय दर 120 बांग्लादेशी टाका बताया गया, जबकि करन्ट रेट था 142 टाका।
दूसरे काउंटर पर मौसा जी ने जब कहा, ‘भैया, मैं भारत से आया हूँ। बैंक कर्मचारी हूँ, कुछ सही रेट बताइए।’
तब काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने कहा, ‘फिर तो आप कुछ ही दूरी पर इम्पीरीयल बैंक का काउंटर है, वहाँ चले जाइए, हो सकता है वहाँ आप को कुछ ज्यादा रेट मिल जाए। वैसे यह बात हम सब को नहीं बताते, धंधे का सवाल है। आप बैंक कर्मचारी है इसलिए बता रहा हूँ।’
भारतीय होने के नाते उन्होंने थोड़ी हमदर्दी जताई। हम लोग थोड़ी दूरी पर स्थित इम्पीरियल बैंक के काउंटर पर पहुँचे। वहाँ पर हमें 130 टाका का दर बताया गया, आख़िर 135 टाका पर बात तय हो गई। मनी एक्सचेंज (money exchange) कर लेने के बाद हम टेक्सी के लिए एक प्री-पेइड काउंटर पर पहुँचे। होटल फार्मगेट तक पहुँचने का किराया 1200 टाका बताया। मौसा जी ने दर-दाम किया पर वे नहीं माने। आख़िर हम बाहर मुख्य मार्ग पर आ गए ताकि बाहर से कोई टेक्सी मिल जाए। काम मुश्किल था, पर मौसा जी की ज़िद थी। थोड़ी दूरी पर खड़े ट्राफिक पुलिस से वे बात करने चले गए। ट्राफिक पुलिस ने एयरपोर्ट से बाहर थोड़ी दूरी पर खड़ी एक टेक्सी वाले से बातचीत कर 1000 टाका में बात तय की।
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