Chand ke paar ek Chabi - 5 in Hindi Moral Stories by Avadhesh Preet books and stories PDF | चाँद के पार एक चाबी - 5

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चाँद के पार एक चाबी - 5

चांद के पार एक कहानी

अवधेश प्रीत

5

पिन्टू के पास कुल जमा-पूंजी सौ का यही नोट था और इसे वह दिगंबर मिश्रा को दे दे, ऐसा सोचना ही कष्टकर था। तब? कहां से लाये वह सौ रुपए? ठीक इसी वक्त उसकी छठी इंद्री जागृत हुई और उसने अंधेरे में तीर दाग दिया,‘ए बाबा, लाइए न सौ रुपया उधर1 एकाध् दिन में दे देंगे।’

पिन्टू के लहजे में निहोरा था। रमेश पांडे ने मन ही मन मजा लेते हुए चुटकी ली,‘स्साला, कहां तो दारू पिला रहा था, कहां उधर मांगे लगा। तुमरा कौनो भरोसा ना है।’

‘बताइए, दीजिएगा कि नहीं?’ पिन्टू ने बेसब्री से दो टूक पूछा।

‘रजकुमरिया को देने के लिए रखे थे।’ रमेश पांडे शर्ट की जेब से सौ का नोट निकालते हुए बोले, ‘अभी काम चला देते हैं, काहे से कि दिगंबर मिश्रा कसाई हंै। उनका पैसा देवे में देरी किये तोे दुकानदारी बंद करा देंगे। लेकिन एक बात कान खोल के सुन ले,जल्दिए लौटा देना।’

पिन्टू की आंखें चमकीं। चेहरे पर रौनक लौटी। झपटकर रमेश पांडे से नोट लिया और आवेग की रौ में लगभग चीख पड़ा, ‘बाबा की जय हो । सूद समेत लौटा देंगे।’

पिन्टू तारा कुमारी का नोट किसी कीमत पर खरचना नहीं चाहता था, लेकिन मुश्किल यह थी कि कल वह तारा कुमारी के पचास रुपए लौटयेगा, तो किस तरह? उसके पास रमेश पांडे का दिया सौ का नोट था,जिसे वह मुखिया दिगंबर मिश्रा को दे देगा। लेकिन तारा कुमारी को पचास रुपए कैसे लौटाएगा? पिफलहाल, कोई राह नहीं सूझ रही थी। लेकिन जो भी हो वह तारा कुमारी का सौ वाला नोट किसी को नहीं देगा, यह तय हैै।

उस शाम दुकान बढ़ाते-बढ़ाते अचानक सिमेंट दुकानदार राजनाथ यादव का बुलावा आ गया। पिन्टू लपककर सड़क पार राजनाथ यादव की दुकान पर पहुंचा। राजनाथ यादव उसे देखते ही बोला, ‘अरे पिन्टुआ, देख तो हमरा मोबाइल काहे बार-बार बंद हो जा रहा है।’

पिन्टू के भीतर चालाकी ने सिर उठाया। उसने राजनाथ यादव से मोबाइल लेकर मुआयना किया, टप-टप ‘की बटन’ दबाकर मर्ज जानने की कोशिश की पिफर बोला, ‘आपका मोबाइल तो हंग हो जा रहा है। लगता है वायरस लग गया है।’

‘तब? कैसे होगा?’ राजनाथ यादव ने बचैनी से पहलू बदला, ‘हमरा तो सब काम ही ठप्प हो जायेगा, पिन्टुआ । कुछ उपाय कर न रे तू।’

‘अरजेंट है तो सौ रुपया लगेगा!’ पिन्टू जानता था कि राजनाथ यादव का सारा बिजनेस मोबाइल पर निर्भर है, लिहाजा उसने शुष्क लहजे में उसकी तरपफ पांसा पफेंका।

‘सौ रुपया?’ राजनाथ यादव ने रौब में लेने की कोशिश की, ‘लूट है, क्या रे?’

‘आपको लूट बुझाता है तो जाने दीजिए।’ पिन्टू चलने को उ(त हुआ, ‘समस्तीपुर-पटना भेज के बनवा लीजिए। रेट पता चल जायेगा।’

राजनाथ यादव हड़बड़ाया। पिन्टू को रोकते हुए बोला, ‘स्साला, बहुत भाव खा रहा है। बता, कब तक बना देगा?’

‘एक घंटा लगेगा!’ राजनाथ यादव को रास्ते पर आते देख पिन्टू नरम पड़ा।

‘ठीक है। बना दे।’ राजनाथ यादव ने मोबाइल पिन्टू के हवाले किया।

पिन्टू जानता था कि राजनाथ यादव का मोबाइल ‘हंग’ नहीं कर रहा, बल्कि बैटरी को टच करनेवाला क्लिप ढीला हो गया है और उसे बनाने में दस मिनट से ज्यादा समय नहीं लगेगा। लेकिन इस काम के लिए राजनाथ यादव से सौ रुपए झींटना संभव नहीं था। ‘हंग’ ‘वायरस ‘और ’ एक घंटा’ ही वह तरीका था, जिससे मोबाइल की बीमारी की गंभीरता को राजनाथ यादव समझ सकता था। और पिन्टू की जरूरत ने उसे यह गुर सिखा दिया था।

मुखिया दिगंबर मिश्रा को रुपए दे देने के बाद उस रात पिन्टू की शर्ट की जेब में तारा कुमारी का दिया सौ का नोट था, तो पैंट की जेब में राजनाथ यादव से मिले पचास-पचास के दो नोट थे। वाकई तारा कुमारी का नोट उसके लिए सौभाग्यशाली साबित हुआ था , तभी तो राजनाथ यादव के रूप में उसे तत्काल एक ग्राहक मिल गया था, लिहाजा तारा कुमारी का दिया सौ का नोट साबुत बच गया था। उस रात उसने सौ के उस साबुत नोट को कई-कई कर चूमा, गोया तारा कुमारी के अहसास को चूम रहा हो।

दूसरे दिन, वह दुकान पर बैठा बेसब्री से तारा कुमारी के आने का इंतजार कर रहा था। बार-बार घड़ी देखता। बार-बार सड़क को निहारता। ब्लू कुर्ता, ह्वाइट सलवार और दो चोटियों वाली साइकिल से आती हर लड़की उसे तारा कुमारी जान पड़ती। उसकी उम्मीद टूटती। प्रतीक्षा का ध्ैर्य टूटता। आखिरकार तूपफानी गति से आती तारा कुमारी की साइकिल ठीक उसकी दुकान के सामने आकर लगी । तारा कुमारी जब तक साइकिल स्टैंड पर खड़ी करके काउंटर तक आती कि इसी बीच एक साथ दो लड़के आ टपके । दोनों के हाथ में मोबाइल थे। दोनों के मोबाइल में कोई गड़बड़ी थी। पिन्टू को लगा तारा कुमारी के आने के साथ ही दो-दो ग्राहकों के टपकने का मतलब है, तारा कुमारी का पैर उसके लिए बहुत शुभ है। लेकिन मलाल इस बात का हुआ कि ऐन इसी वक्त उन दोनों लड़कों के आने से मिलने वाला एकांत भंग हो गया था। मन मारकर उसने लड़कों को जवाब दिया, ‘मोबाइल छोड़ जाइए। शाम तक बन पायेगा।’

उसकी बात खत्म होते न होते तारा कुमारी काउंटर के पास आ खड़ी हुई। उसने जेब से पचास का नोट निकाला और तारा कुमारी की ओर बढ़ा दिया।

तारा कुमारी नोट लेते हुए टनक आवाज में बोली, ‘खुदरा रखा करिए। बेमतलब न आना पड़ा।’

‘जी ।’ बेहद संकोच से भरे पिन्टू ने जैसे अपनी गलती स्वीकार की।

तारा कुमारी उलटे पांव लौटी और साइकिल पर सवार हो पफुर्र हो गई ।

एक लड़के ने आह भरी, ‘बड़ी टपारा है हो!’

इससे पहले कि दूसरा लड़का कुछ बोलता, पिन्टू की भौंहें तन गईं, ‘स्टूडेंट हैं और लड़की पर घटिया टोंट कसते हैं। शरम नहीं आती?’

दूसरा लड़का सकपकाया, लेकिन पहला लड़का ढिठाई पर उतर आया था, ‘मोबाइल बना, मोबाइल । मुशहर स्साला, उपदेश झाड़ता है।’

पिन्टू के भीतर गहरे तक कुछ ऐसा करका कि उसका वजूद चटखकर रह गया। दोनों लड़के उसकी औकात बताकर जा चुके थे।

जिन्दगी मनहूस रिंगटोन

पिन्टू सन्नाटे में डूबा काउंटर पर खड़ा कसमसाता रहा। मन में कई-कई सवाल मथ रहे थे-इस लड़के की बद्तमीजी से वह इतना आहत क्यों है? तारा कुमारी ने ही कौन-सा पफूल बरसाया था? जिस दुराव से वह पेश आई थी, उसमें उसका घमंड नहीं तो क्या था? बाभन की बेटी है, अपनी जाति का दर्प कैसे भूल सकती है? लेकिन वह, अपनी औकात कैसे भूल गया? कैसे भूल गया कि ढिबरी बाजार का बच्चा-बच्चा जानता है कि वह मुशहर है?

पिन्टू के सिर की नसें टभकने लगीं। आंखों के सामने बेशुमार ख्याल भरभराकर गिर रहे थे । वह उस मलबे में गर्क हुआ जा रहा था, जिसमें एक लंबी रात की अकुलता थी। अनखुली-अनकही बातों के सिरों में उलझी बेचैनी थी। सौ के नोट पर चस्पां स्पर्श-गंध् को रोम-रोम में महसूसने का उल्लास था। एक स्वप्न जिसे आंखभर देखने की इच्छा पहली बार जागी थी।, उन्हीं आंखों के सामने सब ध्वस्त हुआ दिख रहा था।

अचानक उसके मोबाइल की घंटी बजी। बेमन से स्क्रीन पर नजर डाली। नंबर ध्ुंध्ला दिख रहा था। एकदम रिसीव करने की इच्छा नहीं हुई। बजते-बजते घंटी चुप हो गई। उसने एक गहरी सांस ली। आंखों की नमी को पोंछा और काउंटर पर रखे दोनों लड़कों के मोबाइल उलट-पुलट कर देखने लगा। मोबाइल की घंटी पिफर बजी। बजती रही। आजिजी में मोबाइल उठाकर कान से सटाया, ‘हल्लो।’

‘हम राजकुमारी बोल रहे हैं।’ दूसरी ओर राजकुमारी पासिन थी, ‘रमेश पांडे को देखे हैं?’

‘ना। आज तो ना दिखाई दिये हैं।’ पिन्टू ने बेमन से पूछा, ‘क्या बात है?’

‘ना। बस ऐसे ही पूछ रहे थे।’ राजकुमारी की आवाज में मायूसी थी।

पिन्टू चुप रहा, इस प्रतीक्षा में कि शायद राजकुमारी कुछ और कहे। लेकिन दूसरी ओर से काॅल कट गई थी। उसने एक बार अपने मोबाइल को घूरा, पिफर ठंडी सांस खींचते एक आह-सी उभर गई-अभागी को नहीं पता कि रमेश पांडे उसे छल रहा है। बाभन सब दुआरी मुंह मारेगा, अपने दुआरी झांकने भी ना देगा।

डूबते-उतराते दिन की शाम चार बजे, पिन्टू ने उत्क्रमित राजकीय उच्च मध्य विद्यालय की छुट्टी की घंटी को अपने सीने पर टन्न, टन्न, टन्न बजता महसूस किया। एक नामालूम उम्मीद से आंखें सड़क पर टांक दीं। भीड़ में एक पहचाना-सा चेहरा तलाशने की तमाम सावधनी के बावजूद, वक्त हाथ से पिफसल चुका था।

पिफसलते वक्त के बीच, कई दिन निकल गये।

इस दौरान पिन्टू ने कई कविताएं लिख डालीं। ‘चुनी हुई शायरी’ के कई पन्नों पर अपने हाले दिल की तस्दीक करते शेरों को ‘अंडर लाइन’ किया। अपने मोबाइल में एक उदास ध्ुन वाला गाना डाउन लोड किया, ‘मैं तेरा कल भी इंतजार करता था, मैं तेरा अब भी इंतजार करता हूं।’

इस रिंगटोन को सुनकर एक दिन रमेश पांडे ने टोका, ‘यही मनहूस गाना एक ठो मिला था तुमको?’

‘हमारी जिन्दगी का तो ‘रिंगटोन’ ही मनहूस है, बाबा।’ पफीकी-सी हंसी होंठों पर पसरी, ‘जनमजात मनहूस!’

‘ए पिन्टू एक बात बोलें।’ रमेश पांडे गंभीर दिखे। रोज की तरह खिलंदड़े भाव से परे उनकी यह मुद्रा अप्रत्याशित थी, ‘तू लुध्यिाना चला जा। तोरा वहीं गुजारा है।’

‘क्या? ऐसा क्यों कह रहे हैं,बाबा ?’ पिन्टू की आंखों में आश्चर्य था।

‘यहां रहेगा, तो जनम-जात तोरा पीछा ना छोड़ेगा। बाभन, बनिया, लाला, राजपूत, यादव, भूमिहार, पासी, मुशहरे से मुक्ति ना मिले वाला है।’ रमेश पांडे के भीतर से जैसे कोई और रमेश पांडे बोल रहा था। आवाज, अंदाज सबकुछ अप्रत्याशित।

‘क्या हुआ बाबा, आज दिने-दोपहरिया चढ़ा लिये हैं, क्या?’ पिन्टू कुमार सचमुच रमेश पांडे के होशो-हवास की पुष्टि करना चाहता था।

‘तुमको पता है, हम नेम के पक्का हैं। दिन में नो दारू!’ रमेश पांडे अभी भी संजीदा थे।

‘बाबा, एक बात बताइए, अपना घर, जमीन, जन सब छोड़ के हम काहे भागें? जैसे सबका नाल यहां गड़ा है, वैसे ही हमारा भी यहीं गड़ा है।’ पिन्टू ने तर्क किया।

रमेश पांडे को तर्क-वर्क में कोई रुचि नहीं थी। उन्होंने इसे विरोध् समझा। झट से पिन्टू को झिड़क बैठे,‘ तो स्साला, मर। तोरा माथा में कुच्छो घुसे वाला ना है।’

पिन्टू मुस्कराकर रह गया।

अभी वह अपनी मुस्कराहट से बाहर भी नहीं निकला था कि उसकी सांसंे टंगी कि टंगी रह गईं। आंखें पफैलीं और जिस्म किसी तिलिस्म की गिरफ्रत में कसता जान पड़ा। एक करिश्मा बिल्कुल सामने था।

तारा कुमारी अपनी एक सहेली के साथ पैदल-पांव आती, ठीक उसकी दुकान के सामने खड़ी हो गई थी। रमेश पांडे ने रहस्यमय मुस्कराहट के साथ पिन्टू को देखा। लेकिन पिन्टू रमेश पांडे को देखे, इतना होश कहां था।

‘देखिए, इसका मोबाइल खराब हो गया है।’ अपनी सहेली की ओर इशारा करती तारा कुमारी बोली।

पिन्टू तारा कुमारी की आवाज और उपस्थिति के जादू में बंध चुप था।

‘शाम तक बना दीजिएगा?’ तारा कुमारी के स्वर में मियाद के बावजूद पिन्टू से आश्वासन की अपेक्षा थी।

‘बना दे रे, पिन्टुआ, बना दे।’ तपाक से बीच में ही टपक पड़े रमेश पांडे ने तेज आवाज में पैरवी-सी की।

पिन्टू को स्थिति का आभास हुआ। चोरी पकड़े जाने जैसा बोध्। झटपट बोल पड़ा, ‘क्या खराबी है?’

‘जब ना, तब अपने आप बंद हो जाता है।’ जवाब तारा कुमारी की सहेली ने दिया।

‘बन जाएगा!’ दो टूक सख्त लहजे में बोला पिन्टू।

तारा कुमारी अपनी सहेली के साथ जाने के लिए मुड़ी कि रमेश पांडे ने टोक दिया, ‘बाबू जी का क्या समाचार है, तारा?’

‘उनका समाचार वही जानें। उन्हीं से पूछिएगा!’ टन्न से जवाब देती तारा कुमारी सहेली का हाथ खींचती आगे बढ़ गई।

पिन्टू समूचा कान हो गया था। तारा कुमारी के अंदाज पर उसके मन में उठा- जियो, तारा, जियो। रमेश पांडे के होंठों पर मुस्कान तिर्यक हो आई थी।

‘जैसा बाप, वैसी बेटी। सबके सब चढ़बांक ।’

‘ऐसा काहे बोलते हैं, बाबा?’

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