Ram Rachi Rakha - 3 - 2 in Hindi Moral Stories by Pratap Narayan Singh books and stories PDF | राम रचि राखा - 3 - 2

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राम रचि राखा - 3 - 2

राम रचि राखा

तूफान

(२)

सुन्दर वन की यात्रा कैनिंग घाट से आरम्भ होने वाली थी। जो कि सियालदाह स्टेशन से लगभग पैंतालीस किलोमीटर दूर था। सौरभ के पास कैनिंग तक जाने के दो विकल्प थे। एक टैक्सी और दूसरा लोकल ट्रेन। उसने ट्रेन चुना। सौरभ सदैव ट्रेन की यात्रा को वरीयता देता है। यहाँ तो एक बड़ा कारण यह भी था कि स्थानीय लोगों के साथ यात्रा करने को मिलेगा। यहाँ की संस्कृति और संस्कारों से साक्षात्कार हो सकेगा।

ट्रेन में भिन्न-भिन्न तरह के लोग मिलते हैं। तरह-तरह की चीजें बिकती हैं। फेरीवालों के विलक्षण तरीके और आवाज बहुत मनोरंजक होते हैं। ट्रेन के भीतर होने वाले भिन्न-भिन्न क्रिया-कलापों से स्थानीय जीवन की एक पूरी झाँकी देखने को मिलती है।

सियालदाह स्टेशन से सवा सात बजे की लोकल ट्रेन पकड़कर वे लोग साढ़े आठ बजे तक कैनिंग पहुँच गए। कैनिंग स्टेशन से घाट तक जाने के लिए ऑटो रिक्शा था।

रास्ते में दूर तक धान के पौधों की हरियाली फैली हुई थी। बीच-बीच में झुंड के झुंड केले के पेड़ और कदम-कदम पर छोटे-बड़े पुकुर (जलाशय) दिख रहे थे। इतने जलाशय शायद भारत के किसी और क्षेत्र में नहीं होंगे।

घाट पर लोग कतार में खड़े हो गए। टूर वाला सभी से बुकिंग की अग्रिम राशि के बाद का बचा हुआ टूर का किराया लेने लगा। किराया चुकाने के बाद लोग एक -एक करके बोट की ओर बढ़ने लगे।

"डैडी ! कितनी ढेर सारी बोट हैं। हमारी कौन सी है?" घाट पर अनेक बोट लगी हुई थीं। सब यात्रियों को घुमाने वाली थीं।

"अभी नीचे उतरने पर पता चलेगा। शायद वह ऊँची वाली है। हमारी लाइन से लोग निकलकर उधर ही जा रहे हैं।"

सौरभ ने भी अपना किराया चुकाया और तीनों बोट की ओर बढ़ गए। कुछ लोग बोट में पहले ही पहुँच गए थे। बोट के बीचोबीच चालाक का केबिन था। उसके आगे लकड़ी का चबूतरा बना हुआ था। जिस पर गद्दा और चादर बिछा हुआ था। बोट के किनारे रेलिंग से लगाकर प्लास्टिक की कुर्सियाँ रखी हुई थीं। जो रैलिंग के साथ बँधी हुई थीं। पिछले हिस्से में काफी खुला जगह था। वहाँ चार-पाँच प्लास्टिक के मेज थे जिनके किनारे पर कुर्सियाँ लगी हुई थीं। पहले पहुँचने वाले सामने के बने चबूतरे पर बैठ रहे थे। फिर सामने वाली कुर्सियों पर। नाव चलने पर सामने से अच्छा दृश्य दिखाई देगा। सौरभ से पहले आठ लड़के-लड़कियों का समूह चबूतरे पर बैठ चुका था। वह पीछे जाकर बैठना चाहता था। लेकिन अंश चबूतरे पर चढ़ गया। लड़कियों ने उसका प्रेम से स्वागत किया।

"मैं यहीं बैठूँगा।" अंश ने एक नवयुवती से कहा।

"ठीक है, आप यहीं बैठ जाइए।" एक लड़की ने उसे पकड़कर पास बिठाते हुए कहा। फिर उन्होंने सप्तमी के बैठने के लिए भी जगह बना दी। सौरभ पास में ही रेलिंग के किनारे पर लगी कुर्सी पर बैठ गया। उनमें बातें आरंभ हो गईं।

"तुम लोग पढ़ते हो कि जॉब करते हो?" सप्तमी ने बांग्ला में पूछा।

"नहीं, हम सब टीसीएस में जॉब करते हैं।" लिपि ने कहा। फिर उसने सबका परिचय करवाया, "ये है अचिंत...ये बासुदेब...ये आशी... हृदयांशु...मोनिश...लोपा और संचरी।"

"ग्रेजुएशन कब किया?"

"पिछले साल ही। हम सब कैंपस से चुने गए थे।"

"बहुत बढ़िया। कैम्पस से सेलेक्शन न होने पर जॉब की बहुत टेंशन होती है।" सप्तमी ने कहा।

"आप भी कोलकता में रहती हैं?' आशी ने पूछा।

"नहीं, हमलोग दिल्ली रहते हैं।"

जल्दी ही सप्तमी और अंश सबसे घुल मिल गए। थोड़ी देर में नाव भर गई।

उस नाव के दो हिस्से थे। एक ऊपर का भाग जिसपर हमलोग बैठे थे। वह चारों ओर से खुला था। उसके ऊपर खंभों के सहारे प्लास्टिक की छत पड़ी हुयी थी। जिससे धूप और बारिश से बचाव होता था। दूसरा हिस्सा उसके नीचे था, जिसमें नाव की रसोईं थी। नाव के आगे के भाग में सीढ़ियाँ थीं, जिनसे उतरकर नीचे रसोई में जाया जाता था। निचला हिस्सा भी लम्बाई-चौड़ाई में ऊपरी हिस्से के बराबर था। वह चारों ओर से लकड़ी और टिन की दीवारों से बंद था। उसके पीछे का थोड़ा सा भाग खुला हुआ था। जिससे रोशनी और हवा अंदर आती थी। सामने के सीढ़ियों से होकर भी प्रकाश और हवा आती थी।

यात्रा के संयोजक का नाम भौमिक था। जो कि हॉलिडे टूर कंपनी का एक कर्मचारी था। जब सबलोग बैठ गए, तब भौमिक ने सबको सम्बोधित करते हुए कहा, "अभी सबको नाश्ता दिया जाएगा। फिर हम यहाँ से निकलेंगे और गोसाबा में रुकेंगे। वहाँ घूमने के बाद नाव पर ही लंच मिलेगा। उसके बाद हम पखिरालय जाएँगे। रात में वहीं रुकेंगे।"

दो अठारह बीस साल के लड़के फटापट सबको कागज के प्लेट में रखकर लूची (पूरी) और आलू-दम देने लगे। सामूहिक भोज सौरभ को बहुत पसंद है।

नाव चल पड़ी। कुल लगभग पचास लोग रहे होंगे। सामने वाले चबूतरे के ठीक पीछे चालक की केबिन थी। जिसकी खिड़की से वह सामने देखते हुए नाव चला रहा था। केबिन में जाने का बगल से रास्ता था। दो नाविक थे। एक चालीस-पैंतालीस साल का अधेड़ था और दूसरा अठारह-उन्नीस साल का लड़का। उनके संबोधनों से पता चला कि वे बाप-बेटे थे। अंश कौतूहलवश बार-बार खिड़की के पास जाकर खड़ा हो जाता। लड़के से कुछ पूछता। वह उसका जवाब देता। अंश उससे भी घुल-मिल गया। एक पाँच-छह वर्ष का चंचल बच्चा दस-पंद्रह लोगों का एक साथ मनोरंजन कर देता है।

सौरभ के पास में कुर्सी पर एक लगभग साठ-बासठ वर्ष के व्यक्ति बैठे थे। उनके पास उनका ढाई-तीन वर्ष का पौत्र था। उनके बेटे और बहू उनके बगल में बैठे थे। दूसरी ओर एक और परिवार था। अधेड़ दम्पत्ति के साथ उनके दो बच्चे, एक लड़का दस-बारह साल का और उसके एक-डेढ़ साल छोटी एक लड़की थी। बातों-बातों में पता चला कि उनका नाम रामकिशोर था। वे किसी सरकारी विभाग में कार्यरत थे और इस बात का उन्हें बहुत गर्व था, जो कि उनकी बातों में स्पष्ट लक्षित हो रहा था।

जैसे-जैसे नाव आगे बढ़ती जा रही थी, वैसे-वैसे पानी की धारा चौड़ी और किनारे दूर दूर होते जा रहे थे। किनारों पर कहीं-कहीं गाँव बसे हुए थे और कहीं-कहीं छोटे-मोटे जंगल दिख रहे थे। एक विपुल जल राशि, उसके बीच में चलती हुई नाव, किनारों पर हरियाली, सब कुछ बहुत ही मोहक लग रहा था।

नाव चलने के साथ ही लोग फोटोग्राफी में लग गए। कोई रेलिंग के पास खड़े होकर फोटो ले रहा था, तो कोई कुर्सी पर बैठे-बैठे ही। लिपि और हृदयांशु नाव के एकदम आगे पतले भाग में पहुँच गए। बासुदेब उनकी फोटो खींचने लगा। बाकी के लड़के-लडकियाँ भी एक दूसरे का फोटो लेने लगे।

थोदी देर बाद सौरभ को यह अनुमान लग गया कि हृदयांशु और लिपि तथा मोनिश और आशी प्रेमी-प्रेमिका थे। शेष अचिंत, बासुदेब , लोपा और संचरी के बीच मित्रता मात्र थी।

दोपहर तक नाव गोसाबा पहुँच गई। गोसाबा एक गाँव था, जो कि डेल्टा पर बने अनेक छोटे-छोटे द्वीपों में से एक द्वीप पर बसा था। इस तरह के द्वीपों से सुंदरवन भरा पड़ा था। अनेक द्वीपों पर गाँव बसे हुए थे। सुन्दरवन का सघन जंगल अभी आगे था।

सब लोग नाव से उतरकर गाँव में चले गए। गोसाबा का मुख्या आकर्षण बेकोन, हैमिल्टन और रवीन्द्रनाथ टैगोर के बंगले थे। ये बंगले अपने अंदर एक इतिहास सँजोए हुए हैं। गोसाबा में एक छोटा सा बाजार भी था। कुछ लोग बाजार में चले गए। कोई चाय पीने लगा तो कोई नारियल पानी।

वापस नाव में आते-आते दो बज गए। तब तक नाव के पीछे वाले भाग में मेजों पर खाना लग गया था। पंद्रह सोलह लोग एक बार में बैठकर खाने लगे थे। चावल, दाल, आलू-भाँजा और भेटकी मछली थी। भेटकी देखकर सौरभ की बाँछें खिल गईं। सप्तमी उसे व्यंगात्मक दृष्टि से देख रही थी।

भोजन के बाद नाव फिर चल पड़ी।

सौरभ के बगल में भौमिक आकर बैठ गया था। वह अपने बड़े से ज़ूम कैमरे से फोटो ले रहा था।

“भौमिक! यह बताओ इन द्वीपों पर जो गाँव हैं उनमें जीवन बहुत आसान तो नहीं होगा। वहाँ जरुरत की चीजें पहुँचाना भी एक कठिन काम होता होगा।“ सौरभ ने कहा।

“हाँ, सब कुछ नाव से ही जाता है। वैसे इन पर खेती भी होती है। चावल और सब्जियाँ उगाई जाती हैं।“

“पढाई-लिखाई की क्य व्यवस्था है यहाँ?”

“बस प्राईमरी तक के स्कूल होते हैं। उसके बाद पढ़ने के लिए दूसरे गाँव में जाना पड़ता है। चार पाँच गावों के बीच एक मिडिल स्कूल होता है।“

“जाने के लिए तो नाव ही एक साधन है। ढेर सारा समय तो यात्रा में ही नष्ट हो जाता होगा।“

“हाँ, वो तो है। यह एक बड़ी दिक्कत है। लेकिन सबसे बड़ी परेशानी बीमारों को होती है। कोई ज्यादा बीमार हो गया तो नाव बुलाने और अस्पताल तक ले जाने में तीन-चार घंटे लग जाते हैं। अगर कोई इमर्जेंसी हो गई तो, कई बार बचना मुश्किल हो जाता है।“

“हूँ....फिर भी लोग यहाँ रह रहे हैं।“

“ हाँ, लोग कहाँ कहाँ रहते हैं। पहाडों पर चले जाइये तो पाएँगे कि कितने दुर्गम जगहों पर लोग रहते है।‘

“हाँ...सही कहा।“

सूर्यास्त होने तक नाव पाखिरालय पहुँच गई। रात में यहीं ठहरना होगा। गोसाबा की तरह ही पाखिरालय भी एक द्वीप है। जिस पर यात्रियों को रुकने के लिए दो-तीन होटल बने हुए हैं और कुछ हिस्से पर गाँव बसा है। इस द्वीप के एक बड़े हिस्से पर वन है जिसमें अनेक प्रजाति की पक्षियों का वास है।

होटल में जाने के लिए यात्रियों को उतारने से पहले नाव पक्षियों को देखने के लिए वन की ओर चल पड़ी।मुख्य चौड़ी धारा से निकली हुयी अनेक पतली-पतली शाखाएँ वन के अंदर की ओर जा रही थीं। बड़ी नाव उस शाखा में नहीं जा सकती थी। इसलिए छोटी-छोटीपाँच-छह नौकाएँ आ गयीं। दस-दस, बारह-बारह लोग एक-एक नाव में बैठकर वन के अंदर चल दिए।

वह पूरा क्षेत्र पक्षियों की चहचहाहट से भरा हुआ था। जैसे-जैसे नाव अंदर जा रही थी, वैसे वैसे पक्षियों की संख्या बढ़ रही थी। अनेक तरह की रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी चोंच वाली चिड़ियाँ इस शाख से उस शाख पर फुदक रही थीं। सबके लिए वहाँ का समस्त दृश्य नया और आनंददायक था।

सब लोग अँधेरा होने तक होटेल में पहुँच गए। यह होटल बहुमंजिली इमारत नहीं, बल्कि छोटे-छोटे कॉटेज में बनाया गया था। कॉटेज के बीच एक खुला प्रांगण था। अपने-अपने कमरों मे जाकर लोग नहा-धोकर दिन भर का थकान मिटाए और फिर भोजन के लिए भोजनालय में पहुँच गए। भोजनालय कॉटेज से थोड़ी दूरी पर था।

भोजन के बाद जब लोग वापस कॉटेज में पहुँचे तो देखा कि कॉटेजों के बीच के प्रांगण के के एक किनारे पर मंच सज गया था। टूर वालों ने मनोरंजन की व्यवस्था की थी। मंच पर स्थानीय कलाकार बैठे हुए थे।

मंच के आगे कुर्सियाँ रखी हुई थीं। लोग कुर्सियों पर आकर बैठने लगे। जब अधिकांश लोग आ गये तब कलाकारों ने वोनोदेवी (वन देवी) की जात्रा (नौटंकी) का प्रदर्शन आरम्भ किया। कलाकारों में स्त्री और पुरुष दोनों ही थे।

स्थानीय मान्यताओं के अनुसार सुंदरवन क्षेत्र में बसने वाले समस्त मनुष्यों और जीव-जंतुओं की रक्षा वनदेवी करती हैं। जात्रा में उन्हीं वन देवी की महिमा को प्रदर्शित किया जा रहा था। पहले के समय में कैसे वहाँ का प्रजापालक वन देवी की उपसाना करके उनसे शक्ति प्राप्त करता और अपने प्रजा की रक्षा करता। कैसे वन देवी उसके स्वप्न में आकर आने वाले संकटों से उसे अवगत करातीं और उसकी और उसके प्रजा की रक्षा करतीं। इन सब कथाओं का बहुत ही रोचक ढंग से कलाकारों ने मंचन किया।

जब जात्रा खत्म हुआ तो सप्तमी मंच पर चली गयी और कलाकारों से कुछ बातचीत की। उन्होंने उसे माइक पकड़ा दिया। उसने वाद्ययंत्र बजाने वालों को कुछ निर्देश दिया और उसके बाद गाने लगी। उसकी आवाज बहुत ही सुरीली थी। लोग झूम उठे।

जैसे-जैसे पार्टी आगे बढ़ती गयी, दर्शक उसमें भागीदारी करते गए। सप्तमी जब गा रही थी, तब आठों लड़के-लड़कियों का समूह सामने आकर नृत्य करने लगा। धीरे-धीरे और लोग भी उनके साथ सम्मिलित होते गए।

अंश सो गया था। सौरभ उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहता था। इसलिए वह अपने कॉटेज के दरवाजे पर खड़े होकर देख रहा था। उसका कॉटेज पास में ही था। रात के लगभग ग्यारह बजे तक नाच-गाना चलता रहा। फिर सबलोग अपने अपने कॉटेज में चले गए।

“सच में, बहुत ही मजेदार टूर है यह।“ सप्तमी ने सोने से पहले सौरभ से कहा।

क्रमश..