Rishto ki dorr in Hindi Short Stories by Kusum books and stories PDF | रिश्तों की डोर

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रिश्तों की डोर

तीनो बहनों से राखी बंधवाकर, मेरे अंदर असीम सुख का अनुभव होता है।
मेरी तीनों छोटी बहनें राखी से पहले ही शुरू हो जाती हैं, कि, किसको क्या चाहिए।

मुझे भी उनकी छोटी-छोटी फरमाइशें पूरी करना अच्छा लगता है।
किसी को नई ड्रेस चाहिए तो किसी को नए झुमके।
बस ऐसी ही चीजें मांगती थीं। कभी कोई बड़ी फरमाइशें नहीं की थी तीनों ने।

मुझे भी तीनों से बहुत अधिक प्यार है। हम लोग छोटे ही थे जब हमारी मां हमें रोता हुआ छोड़कर, दुनिया से विदा लेकर चली गई।

कुछ समय तक समझ ही नहीं आया, कि क्या करें। पापा ने दूसरे शहर तबादला करवा लिया। और नए शहर में आने के बाद बहनें नए स्कूल में बिज़ी, और
पापा अपने काम में व्यस्त हो गए। और मां के जाने के बाद तो जैसे उन्होंने खुद को काम में ही डुबो लिया।

मेरे सबसे बड़े होने के कारण, तीनों बहनों की जिम्मेदारी मेरे उपर आ गई थी। तो मैंने अपने दर्द को दिल के एक कोने में धकेल दिया। और अपनी बहनों की जिम्मेदारी लेने के साथ-साथ अपनी पढ़ाई पूरी की। क्योंकि पैसे की ऐसी कोई खास दिक्कत नहीं थी, जिसके कारण मुझे अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़े।
मुझे करियर के नाम पर सब कुछ मिल गया, जिसकी मुझे चाहत थी। कुछ सालों बाद पापा का तबादला फिर से उसी पुराने शहर में हो गया।

मैं, यानि सुहासिनी, अपने घर में सबसे बड़ी हूं। मां के जाने के बाद सबको सम्भालने की कोशिश की थी मैंने। काफ़ी हद तक सम्भाल भी लिया था।

लेकिन कुछ कमियां कोई भी पूरी नहीं कर सकता।
कुछ ऐसा ही हमारे साथ भी था। हम चार बहनें ही हैं। हमारा कोई भाई नहीं है। तो हम लोग अपने मौसी और मामा के बेटों को ही राखी बांधते आए थे बचपन से।

हमें कहीं न कहीं कुछ ग़लत महसूस होता था।
जैसे उन लोगो के लिए यह कोई मजबूरी या बोझ हो।
जब हम छोटे थे तो ये सब इतना समझ नही आता था। परन्तु अब, जब हम समझदार हो गए, तो हमारी समझ में उनकी बेरूखी आने लगी।

और एक राखी पर तो हद ही हो गई। हम दो बहनें मामा के घर उनके बेटे को राखी बांधने चली गई।
सबसे छोटी बहन पापा के साथ घर पर रुक गई।
क्योंकि बुआ ने भी आना था।

दिपाली ( तीसरे स्थान की बहन) राखी लेकर मौसी के घर चली गई। हम दोनों बहनें मामा के घर पहुंचे तो वहां हमें ताला मुंह चिढ़ा रहा था। हम दोनों एक दूसरे की शक्ल देखने लगे। फ़िर मैंने मामा को फोन किया, मामा ने कहा कि , "उन्हें इसके बारे में कुछ नहीं पता, काम की अधिकता के कारण मैं, इस बार आ नहीं पाया।'

मामी का नया नम्बर हमारे पास नहीं था। मामा से नम्बर लेकर उन्हें फोन किया। वहां से उनका जवाब सुनकर मेरी आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई।
मेरी बहन के पूछने पर मैंने उसे बताया कि, " उन्होंने कहा, की आगे से राखी लेकर मत आना। हमारा फिजूल खर्च होता है। और अब तो उसकी बहन भी आ गई है राखी बांधने के लिए।"

मेरी आंखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।
अनिका ( मुझसे छोटी) कहने लगी कि, चलो दी यहां से। अब हम यहां कभी राखी बांधने नहीं आएंगे।
हम दोनों मौसी के घर चल दिए। कि वहां पर राखी बांधकर अपना त्योहार मनाएंगे ‌।

लेकिन वहां पर एक और झटका हमारा इंतजार कर रहा था।

जैसे ही हम मौसी के दरवाजे पर पहुंचे, अंदर से दीपाली के चिल्लाने की आवाज़ आई। हमने ज़ोर ज़ोर से दरवाजा खटखटाया। बदहवास हालत में दीपाली ने दरवाजा खोला। और आकर मुझसे लिपट गई।

उसकी हालत इतनी खराब थी, कि उसके मुंह से आवाज़ ही नहीं निकल रही थी। इतने में मौसी भी वापिस आ गई। उसनेे जो हमें बताया उससे तो हमारा रिश्तों से भरोसा ही उठ गया।

रोते हुए बोली, " जब मैं यहां पहुंची तो मौसी , मौसाजी के साथ उनकी ननद के घर के लिए निकलने वाली थी उनकी बेटी नर्मदा भी उनके साथ ही जा रही थी। (क्योंकि वह अपनी बुआ के बेटे को राखी बांधती थी।) मैं अपने घर जैसा समझकर बैठ गई, और मौसी को बोली,' आप चिंता मत करो, चिंतन के लिए खाना मैं बना दुंगी। "
" मौसी निश्चिंत होकर चली गई। उनके जाने के बाद। मैंने चिंतन से कहा कि, ' आओ राखी बांध दूं, उसके बाद तुम्हारे लिए खाना बनाती हूं।'

लेकिन, उसने मुझसे अपने कमरे में चलने को कहा।
'मैं भी राखी की थाली लेकर उसके पीछे-पीछे चल दी।' कमरे में जाकर उसने मुझसे कहा, " दीपाली, हम तुम सगे भाई-बहन तो है नही।

मैं हैरान रह गई, फिर भी मैंने खुद को संभालते हुए कहा, " तो क्या हुआ।"
दीपाली आगे बोली, " फिर चिंतन ने कहा कि वह मुझे प्यार करता है।" मैं उसके ऊपर चिल्लाने लगी कि, " तुम्हें पता भी है कि, तुम क्या कह रहे हो।"
लेकिन उसके उपर तो जैसे एक जूनून सवार था।

वह मेरे पास आने लगा तो मैंने भागना चाहा।
पर इसने मुझे पीछे से पकड़ लिया, और मेरे साथ जबरदस्ती करने की कोशिश करने लगा।

मैं रोती गिड़गिड़ाती रही। हमारे रिश्ते की दुहाई देती रही। लेकिन इसके बावजूद इसके ऊपर कोई असर नहीं हुआ।
इतना बताते हुए वह गुस्से से कांपने लगी। मैंने उसे पानी पिलाया और शांत कराने की कोशिश की।

थोड़ी देर बाद दीपाली सुबकते हुए बोली," लेकिन इसके ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ा।" दीपाली आगे बोली, " उस समय जो वहशीपन चिंतन की आंखों में मैंने देखा। उसे मैं जिंदगी भर नहीं भूल सकती।"

मेरी आंखों में गुस्सा मेरी मौसी ने देख लिया था। और वो जानती थी कि, मैं बिना कुछ किए मानूंगी नहीं।
वह मुझसे बोली, " बेटी मैं तेरे आगे हाथ जोड़ती हूं, मुझे पता है जो कुछ भी चिंतन ने किया है वह माफी के लायक नहीं है। फ़िर भी उसे छोड़ दे मेरे लिए।
वह मेरा इकलौता बेटा है।

मैंने गुस्से से मौसी की तरफ़ देखा, और वहां से हम तीनों चले आए।

घर पहुंचे तो पापा ने जल्दी आने का कारण पूछा तो अनिका ने रोते हुए सारी बातें पापा को बता दी।

पापा भी गुस्से में आ गए बोले, " ऐसे कैसे हिम्मत हो गई, उस चिंतन की, कि मेरी बेटी , जोकि उसकी बहन भी लगती है। उसकी इज्जत पर हाथ डालने की।

मैं पापा को समझाते हुए बोली, " पापा बहन लगती है, है तो नहीं। और आजकल तो रिश्ते दिन ब दिन अपनी मर्यादा खोते जा रहे हैं।" पापा को बड़ी मुश्किल से पुलिस के पास जाने से रोका।

फ़िर उस दिन मैंने निर्णय लिया कि, ' अब हम भाई के लिए घर से बाहर नहीं जाएंगे, और मेरी तीनों बहनों को अपने इस फैसले के बारे में बताया।'

वो तीनों तो खुशी से झूम उठी। और फिर उन तीनों ने मुझे राखी बांधी।

और हम तीनों ने जीवन भर एक दूसरे का साथ देने का वादा किया।