एकलव्य एक बहादुर बालक था, वह जंगल में रहता था, उसके पिता हिरण्यधनु उसे हमेशा आगे बढ़ने की सलाह देते थे। एकलव्य के आसपास हथियारों का बड़ा महत्व था, हरेक को अस्त्र-शस्त्र चलाना आना जरूरी था। एकलव्य को सबसे ज्यादा प्रिय धनुषबाण थे, लेकिन जंगल में उन लोगों के पास न उम्दा धनुष थे न मजबूत बाण। फिर भी उसने हार नहीं मानी थी वह उपलब्ध साधन से धनुष बना कर पूरी लगन से प्रायः अभ्यास में जुटा रहता था।
उस वक्त भी वह बांस के बने एक छोटे से धनुष पर बांस का ही बना बाण चढ़ा कर ताड़ वृक्ष के बहुत लम्बे पेड़ के फल पर निशाना साध रहा था। इन्द्रन नदी के घाट पर नाव से उतर कर खड़े पुलक मुनि ने देखा कि वेषभूशा में आदिवासियां की तरह दीखता आठ नौ साल की आयु का यह बालक बड़े आत्म विश्वास से अपने लक्ष्य में तन्मय है तो वे बालक की हिम्मत पर हंसते हुए रूक कर तमाशा देखने लगे। क्योंकि ताड़ वृक्ष बहुत ऊंचा था और धनुष बहुत छोटा।
एकलव्य ने बड़ी देर तक निशाना साधा और फुर्ती से अपना बाण छोड़ दिया। मुनि ने देखा कि हवा की गति से ऊपर उठता वह बाण सीधा ही अपने लक्ष्य में जाकर लगा और पल भर में ताड़ का एक बड़ा फल जमीन पर धम्म से आ गिरा तो बालक ने खुशी के मारे किलकारी मारी और उछलने लगा।
मुनि को जितना कौतूहल हुआ उतनी ही प्रसन्नता भी हुई । उन्होने गौर से उस बालक को देखा तो पाया कि जंगली पशुओं की खाल के वस्त्र पहने हुए वह बालक अपने माथे पर एक छोटा सा मोरपंख भी धारण करे हुए है। उनसे रहा नहीं गया वे उसके पास गये और स्नेह से बोले- ‘‘ पुत्र, तुम्हारा क्या नाम है, और तुम किन के लड़के हो?’’
एकलव्य अभी तक अपनी खुशी में मगन था, मुनि का सवाल सुन कर वह एक पल को चौंका और उसने ध्यान से मुनि को देखा तो वे एकलब्य की ओर स्नेह से भर कर निहारते हुए मिले। एकलव्य ने झट से उन्हे प्रणाम किया और मीठी आवाज से बोला, ‘‘ हे मुनिराज मेरे पिताश्री का नाम हिरण्यधनु है और मैं उनके मुंह से अपना नाम एकलब्य सुनता आया हूं।’’
‘‘ मैं तुम्हारे पिता से मिलना चाहता हूं, चलो मुझे वहां ले चलो।’’
‘‘ चलिये मुनिराज’’ झुकते हुए एकलव्य न कहा।
फिर आगे - आगे एकलव्य पीछे पीछे मुनि पुलक पहाड़ी की तलहटी में दीख रहे आदिवासी गांव की ओर चल पड़े।
एकलव्य के पिता आदिवासी गांव के सरदार थे, उन को मुनि पुलक ने सलाह दी कि आपका बालक पूरी लगन से तीर चलाने का अभ्यास कर रहा है, इसलिए इसे किसी अच्छे गुरू के पास छोड़ आओ जिससे यह धनुविद्या में निपुण हो जाये। एकलव्य ने जब यह सुना तो उसके मन में लड्डू फूटने लगे। उसकी मन में दबी हुइ्र इच्छा को आज पुलक मुनि ने पहचान लिया था उसके पिता को इस बात के लिए प्रेरित किया था कि एकलब्य को बाकायदा धनुषबाण चलाना सिखाया जाय।
सुबह एकलब्य ने देखा कि उसके पिता हिरण्यधनु ने अपने आदिवासी कबीले की पहचान वाला मोरपंख से बना मुकुट धारण किया, सिंह की खाल से बना अपना लम्बा कुरता पहना और अपने सेवक को रास्ते के लिए सूखे फल व खाद्य पदार्थ सोंप कर अपने बेटे को चलने का इशारा किया । प्रसन्न मन एकलव्य चल पड़ा।
नाव से इन्द्रन नदी के रास्ते वे एक बस्ती तक पहुंचे और वहां से पैदल ही आगे को चल पड़े।
एकलव्य को ज्यादा पैदल चलने की आदत न थी। वह बार बार थक रहा था और पिता से पूछ उठता था कि अब हमे कितना और चलना है? पिता कोई जवाब न देते, मुस्करा के रह जाते। जब एकलव्य ने आठवीं बार यही सवाल तनिक गुस्से से पूछा तो हिरण्यधनु भी तमक उठे, उन्होंने डांटते हुये कहा, ‘‘ यदि तुम्हे अपना मनचाहा ज्ञान प्राप्त करना है तो मेहनत और कठिन संघर्ष से हो कर ही सफलता प्राप्त कर सकोगे। हर सफल आदमी को संघर्ष करना पड़ता है, कष्ट झेलना पड़त़ा है तब ही वह कुछ बन पाता है, फिर तुम ठहरे वन में रहने वाले आदिवासी, तुमसे तो कोई सीधे मुंह बात भी न करेगा, तुम्हे अपनी मंजिल पाने के लिए बहुत कुछ झेलना पड़ेगा। यदि तैयार हो तो आगे चलं नही तो चलो घर के लिए लौटते हैं।’’
एकलव्य ने पिता की बात ध्यान से सुनी और पल भर में ही समझ गया कि इस तरह मेहनत करना भी एक तरह का पाठ है। फिर वे लोग मीलों चलते रहे, बीच में रूककर बिश्राम करते रहे मगर एकलव्य ने एक शब्द भी नहीं बोला।
नन्हे से एकलव्य के कोमल पांव में पेैदल चलने के कारण छाले ही छाले हो गये थे और वे खूब पीड़ा दे रहे थे लेकिन उसने हौसला बांधा था कि बहुत बड़ा धनुषधारी बनकर रहेगा सो बेचारा अपनी इच्छा के पूरा होते देख कर और अपने पिता के डर से मन ही मन रोता हुआ चुपचाप चल रहा था बल्कि ऊपर से तो वह खूब हंस कर पिता से बात कर रहा था।
राजकुमार के गुरू होने के कारण द्रोणाचार्य जी को एक खूब बड़ा महल बना कर दे दिया था जिसके समीप वह जगह थी जहां सुबह-शाम राजकुमार अपने रथों में बैठ कर आते थे और द्रोणाचार्य जी से शिक्षा प्राप्त करते थे।
हिरण्यधनु ने एक यात्रीगृह में रात बितायी फिर बड़े भोर उठ कर नहाधो कर तैयार हुए और एकलव्य को भी तैयार कर द्रोणाचार्य से मिलने को चल दिये। सेवक ने संदेश दिया तो गुरू द्रोण ने उन्हे अपने पास बुलवा लिया । हिरण्यधनु समेत उनके बालक एकलव्य का प्रणाम स्वीकार कर उन्होंने पूछा ‘‘ कहो वीर नायक, तुमने इस छोेटे से बालक के साथ जंगल से यहां तक की यात्रा किस कारण की?’’
हिरण्यधनु बोले‘‘ गुरूदेव, इस बालक की इच्छा है कि यह बहुत बड़ा धनुषधारी बने, इस कारण मैं आपके आश्रम पर लेकर गया था, और वहां से यहां लेकर आया हूं कि आप इसे अपने संरक्षण में लेकर इसे धनुर्विद्या सिखाइये।’’
हिरण्यधनु की बात सुन कर द्रोणाचार्य हंस पड़े और बोले ‘‘तुम भील और आदिवासी लोग हो, तुम लोगों को धनुष चलाने को मौका सिर्फ तब मिलेगा जब दूर भागते हुए किसी शिकार पर तुम्हे वार करना होगा। किसी युद्ध में तो तुम लोगों को कभी भाग नहीं लेना है इस कारण मुझ जैसे जानकार गुरू से इस नन्हे से बालक को तुम किस कारण धनुर्विद्या की शिक्षा दिलाना चाहते हो मेरी समझ में नही आ रहा।’’
‘‘गुरूदेव, यदि आप हम जंगलवासियों में से एकाध बालक को भी शिक्षा दे देंगे तो आपकी यह परंपरा हम जंगलवासियों तक फैला देंगे । फिर जरूरत पड़ने पर हम लोग इस देश के राजा की भी मदद करने हमेशा तैयार रहेेगे। इस िलये दया करें...’’ हिरण्यधनु ने अपनी बात पूरी नहीं कर पाई कि गुरू द्रोणाचार्य ने उन्हे डांट कर रोक दिया....‘‘ अपनी सीमा का उलंघन मत करो जंगली किरात !ऐसा कभी नहीं हो सकता...’’
हिरण्यधनु अब भी झुके हुए थे, वे बोले, ‘‘आप जैसा विद्वान व्यक्ति छुआछूत और भेदों की बात करता है तो हम लोग डर के चुप रह जाते हैं गुरूदेव। ये तो बीच में बनाये गये ढोंग हैं,आप ही कहें कि वेदों में छुआछूत का जिक्र कहां आया है।....क्षमा करिये महाराज आप तो इस बच्च को अपनी शरण में लीजिये...’’
‘‘ देखो हिरण्यधनु, मैंने भीष्म जी के सामने सौगंध खाई है कि मैं केवल कुरू वंश के राजकुमारों को अस़्त्र-शस्त्रों की शिक्षा दूंगा, इस लिए तुम्हारे बच्चे को मैं शरण में लूंगा तो सेवा कार्य के लिए लूंगा, शिष्य में रूप् में नही । अगर तैयार हो तो इसे छोड़ जाओ।’’
एकलव्य ने पिता को इशारा किया कि वे हां कर दें,तो मजबूर हो कर हिरण्यधनु ने एकलव्य को उसके वस्त्रों की पोटली सोंपी, द्रोणाचार्य को प्रणाम कर अपने स्थान पर मुड़े और वापस चल दिये। एकलव्य का सहसा लगा कि वह तो एकदम अकेला पड़ गया है, उसकी इच्छा हुई कि वह आवाज लगा कि पिता को रोक ले लेकिन उसके भीतर दबी इच्छा ने उसे एकाएक रोक दिया। उसने सोचा कि बड़ी मुश्किल से यह मौका हाथ आया है कि वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में बढ़ रहा है और यहां से लौट जाने का मतलब है दुबारा ने आदिवासियो की उसी गांव में जंगली जानवरों का आखेट करना, पत्थर के हथियार चलाना और नदी में से मछली पकड़ कर अपना जीवन बिता देना।
द्रोणाचार्य ने एकलव्य के रहने हेतु सेवक के लिए बनी एक झांपड़ी में व्यवस्था कर दी थी और उसको सिर्फ इतना काम दिया गया था कि जब राजकुमार लोग धनुष बाण का अभ्यास करें तो वह अभ्यास के अन्त में वे सारे बाण उठा कर तरकश में सजा कर रखदे जो उस दिन राजकुमारों ने चलाये।
दो चार दिन तक एकलव्य बड़े प्यार से उन बाणों को छू कर अपना मन बहलाता रहा फिर एक दिन मौका पड़ने पर उसने धूल साफ करने के बहाने वे धनुष भी छुए जो राजकुमारों के लिए खास तौर पर बनबाये गये थे। फिर एकलव्य का पूरा ध्यान उन शब्दों पर जाने लगा जेा धनुष पर बाण चलाते समय गुरू द्रोणाचार्य शिष्य राजकुमार को सुनाया करते थे। वे प्रायः कहते, ‘‘ न धनुष का कोई महत्व है न बाण का। असली चीज है आपके धनुष पकड़ने का अंदाज। बांये हाथ की मुट्ठी मे धनुष होना चाहिए और दांये हाथ की मुट्ठी मे धनुष की डोरी की बीचोंबीच उलझा हुआ बाण का पिछला हिस्सा । बस धनुष आड़ा करके अपनी आंखों कै सामने ले आओ और बाण को अपनी आंख की सीध में लक्ष्य पर तान लो फिर मनही पांच तक गिनो और दांये हाथ से खींची गयी डोरी और बाण को झटके से छोड़ दो।’’
सारी बातें एकलव्य मन ही मन रट लेता।
एक दिन की बात है। गुरू ने अपने शिष्य की परीक्ष लेने की ठानी। सामने एक पेड़ पर रूई की बनी चिड़िया रख कर गुरू ने अपने पास एक धनुष रखा और बारी बारी से एक एक राजकुमार को बुलाने लगे। राजकुमार धनुष उठा कर बाण चढ़ाता तो गुरू उसे लक्ष्य बताते और कहते कि एक आंख दबाकर अपना निशाना साधो और बताओं तुम्हे क्या दिख रहा है?
सबसे पहले युधिश्ठिर आये उन्होने गुरू से कहा कि उन्हे चिड़िया द्वारा डर के ली जाती सांसे और उसके बदन में होती कंपकंपी दिख रही है, गुरू ने हंस कर उन्हे बाण चलाने से मना कर दिया। फिर आया दुर्योधन। उसे चिड़िया की जगह मांस का एक लोथड़ा रखा हुआ दिखा तो गुरू ने उसे भी रोक दिया। भीम को चिड़िया की जगह मिठाई का एकगोला रखा हुआ दिखा तो दुशासन , नकुल, सहदेव वगैरह को पूरा पेड़ उसके पत्ते और आसपासकी वनस्पति तक दिखी। अन्त में आया अर्जुन , उसने धीरज के साथ धनुष उठाया और बाण चढ़ाकर निशाना साधा। गुरू ने पूछा तो उसने बताया कि उसे सिर्फ चिड़िया की आँख दिखाई दे रही है। अर्जुन ने डोरी खींची, क्षण भर को रूका और बाण छोड़ दिया। देखते ही देखते रूई की चिड़िया की आंख में वह तीर जा धंसा और चिड़िया जमीन पर आ गिरी। गुरू ने अर्जुन की खूब तारीफ की और सबसे कहा कि लक्ष्य का सबसे खास हिस्सा इसी तरह दिखने पर सफलता हाथ लगती है। बाकी लोगों ने तो पता नहीं कितना सीखा और रटा लेकिन एकलव्य ने इस सबक को खूब रट डाला।
धनुष हाथ न लगता एकलव्य सीधा बाण ही हाथ मे लेकर किसी पत्ते को लक्ष्य मान कर निशाना साधता और मार देता, आश्चर्य की निशाना तनिक सा ही चूकता।
कभी ऐसा भी होता कि जल्दबाजी में गुरू के साथ सारे शिश्य अभ्यास स्थल से चले जाते तो एकलव्य किसी धनुष को उठा कर बड़ी तेजी से बाण चढ़ाता डोरी खींचता और कहीं भी दे मारता।
अभ्यास करते समय गुरू द्वारा राजकुमारों को बताने पर पीछे खड़े एकलव्य ने चुपचाप सुनकर सीखा कि धनुष पिनाक, चाप, धनु आदि एक हजार तरह के होते हैं और बाण तो शर, नाराच, सायक आदि दस हजार से भी ज्यादा तरह के होते हैं।
एकलव्य अपने कबीले का राजकुमार था लेकिन यहां वह एक सेवक की तरह हर वक्त काम में लगा रहता था। उसके द्वारा चमकाये गये बाण और धनुष देखकर गुरू बहुत खुश होते , कभी वे उसे भी बताते, ‘‘तुम भील लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण है बिना फल यानि बिना नोक का बाण चलाना सीखना। क्योंकि तुम लोग सिर्फ हिंसक जानवरों को डराने या आखेट करने के लिए ही तो यह काम सीखते हो। इसलिए बिना फल का बाण चलाते वक्त डोरी को पूरा मत खींचा करो बस्स आधी दूरी तक खींचा और छोड़ दिया । तुम चाहो तो एक ही लक्ष्य में ऐसे सौ बाण तक मार सकते हो और शिकार को दर्द तक न होगा।’’
लगभग एक बरस बीत चुका था, एकलव्य को अपने पिता और मां की बहुत याद आने लगी थी , लेकिन अभी तो उसने अपने लक्ष्य की ओर कदम तक नहीं बढ़ाए थे यानि कि फुरसत से कभी उसे इतने समय के लिए धनुष नहीं मिला था कि मन भर के तीरंदाजी करता। गुरूदेव के इस युद्ध-गुरूकूल के शस्त्रागार के कई तरह के धनुष एकलव्य को ललचाते मग रवह धीरज धरके उचित समय का इंतजार कर रहा था। इसलिए उसे घर लौटने में कोई बुद्धिमानी महसूस नहीं हो रही थी।
तभी एक हादसा घट गया । एक दिन की बात है...उस दिन गुरू ने अभ्यास के लिए अवकाश रखा था, न कोई शिश्य था न स्वयं गुरू। शस्त्रागार में केवल एकलव्य था। वह धनुष की झाड़-पांेछ कर रहा था कि एकाएक उसे ख्याल आया कि आज कोई देखने वाला नहीं है क्यों न जी खोल कर तीरंदाजी कर ले...।
फिर क्या था उसने तेजी से एक धनुष उठाया कुछ बाण लिए और बाहर चला आया । अभ्यास स्थल पर आ कर उसने लक्ष्य बनने वाले पेड़ के तने पर कोयले से एक निशान बनाया और अभ्यासवाली जगह पर बैठ गया। फिर उसने जी खोल कर लक्ष्य पर बाण बरसाये। कुछ ही देर में उसको यह भय सताने लगा कि गुरूदेव न आ जायें , सो उसने धनुश बाण समेटे और भीतर ले चला कि अचानक ही एक आवाज हुई । उसने मुड़कर देखा, सामने ही राजकुमार दुर्योधन खड़े थे। उसके हाथ में धनुष बाण देख कर वे चकित हुूये।
फिर क्या हुआ उसे पता नहीं, बस इतना पता है कि अगले दिन सुबह सुबह गुरूदेव ने एकलव्य को बुलाकर डांटा और कहा कि तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम यहां से वापस चले जाओं। एकलव्य को रोना आ गया। अपना सम्मान, सुख और मां-बाप का प्यार भूल कर वह जो सीखने आया था उसे सीख ही न पाया कि वापसी की तैयारी हो गई। उसने बहुत निवेदन किया लेकिन गुरूदेव न माने। दुःखी मन से एकलव्य वापस चल पड़ा।
वह राजधानी से बाहर ही निकला था कि उसके मन ने कहा कि अब वह अपने कबीले में जाकर क्या करेगा,,। लेकिन यहां रूक कर भी क्या करेगा, उसने सोचा। फिर उसे लगा कि उसने एक बरस में राजकुमारों को शिक्षा देते वक्त जो कुछ गुरू के मुंह से सुना है यदि उसी का अभ्यास करे तो भी वह अच्छा धनुरधारी बन सकता है। एकाएक उसके कदम रूक गये। उसने आसपास देखा। दूर घने पेड़ दिख रहे थे। वह उधर ही चल दिया।
पस जाने पर पता चला कि यह आदिवासियों की एक बस्ती है। वह सीधा कबीले के सरदार के पास गया और अपना परिचय दिये बिना उसने सिर्फ इतना सा निवेदन किया िक बस्ती के किसी बगीचे मंे तीरंदाजी का अभ्यास करना चाहता है, अनुमति मिले। सरदार ने उसे बड़ी खुशी से अनुमति दे दी।
एकलव्य ने सोचा कि जब तक कोई निर्देश देने वाला न हो तब तक अभ्यास कैसा? ..निर्देश भी गुरू द्रोणाचार्य से अच्छी तरह से कौन दे सकता है भला? यकायक उसे लगा कि स्वयं गुरू तो उसे कभी नहीं सिखायेंगे, हां उनके दिये निर्देश उसे कंठस्थ याद हैं, उन निर्देश को याद करते हुए वह अभ्यास करेगा। उसे यह लगा रहे कि गुरू खुद निर्देश दे रहे हैं इसके लिए वह गुरू द्रोणा चार्य की एक मूर्ति बना लेता है। वह खुशी से उछल पड़ा।
अगले दिन से एकलव्य ने बांस के धनुष बाण बनाये, द्रोणाचार्य की मूर्ति बना कर एक ओर रखी और उसके सामने बैठ कर अभ्यास करने लगा। पल-पल वह यही याद करता रहता कि उसकी गलती पर गुरू निर्देश दे रहे है ‘‘ न धनुष का कोई महत्व है न बाण का। असली चीज है आपके धनुष पकड़ने का अंदाज। बांये हाथ की मुट्ठी मे धनुष होना चाहिए और दांये हाथ की मुट्ठी मे धनुष की डोरी की बीचोंबीच उलझा हुआ बाण का पिछला हिस्सा । बस धनुष आड़ा करके अपनी आंखों के सामने ले आओ और बाण को अपनी आंख की सीध में लक्ष्य पर तान लो फिर मन ही पांच तक गिनो और दांये हाथ से खींची गयी डोरी और बाण को झटके से छोड़ दो।’’
धीमे-धीमे समय गुजरने लगा। एकलव्य सबकुछ भूल गया । वह भूख-प्यास भूल जाता, सोना भूल जाता , बस तीरन्दाजी याद रखता। उसका अभ्यास लगातार चलता रहता। उसमें आत्मविश्वास बढ़ने लगा और उम्र भी। उसे इतना अभ्यास हो गया िकवह किसी पेड़ की डाली से कोई एक पत्ता भी अपने बाण से तोड़ कर गिरा लेता , बाकी पत्ते सुरक्षित बने रहते।
एक दिन की बात है, वह अभ्यास में लगा था कि उसे महसूस हुआ कि कहीं से आकर कोई कुत्ता उस पर भोंक रहा है, उसने डण्डे से कुत्ते को भगाया, लेकिन कुत्ता दूर नहीं हुआ। कुछ देर बाद उसे लगा कि कुत्ता साधारण कुत्ता नहीं है, एकलव्य ने ध्यान से देखा सचमुच वह कुत्ता राजसी कुत्ता था। यह वही कुत्ता था जो गुरू द्रोणाचार्य के पास अभ्यास के लिए आये हुए कुरू राजकुमारों के साथ रहता था।
एकाएक एकलव्य को लगा कि क्यों न इस कुत्ते के माध्यम से वह अपनी तीरन्दाजी की निपुणता का प्रमाण भिजवाये। उसने बिना नोक के पतले पतले एक सौ बाण एक तरफ रखे और बड़ी फुर्ती से धनुष पर एक के बाद एक चढ़ाता चला गया। उन सब बाणों को उसने बहुत धीमे से चलाया और उनका लक्ष्य उसने कुत्ते का मुंह बनाये रखा। थोड़ी
ही देर बिना नोक के बाणों से कुत्ते का मुंह भर गया था और उसका भोंकना बंद हो गया था। वह कुत्ता हतप्रभ सा वहां से हटा और दौड़ता हुआ ओझल हो गया।
कुछ ही देर बाद बगीचे का सन्नाटा भंग हो गया । बहुत सारे सैनिकों के बीच गुरू द्रोणाचार्य और उनके प्रिय शिश्य अर्जुन,युधिश्ठिर व दुर्योधन वगैरह वहां आ पहुंचे थे।
एकलव्य उठा और लपक कर उसने गुरू के पेैर छुये। द्रोणाचार्यजी ने उसे पहचाना नहीं। वे गुस्से में थे, ‘‘ राजकुमार के इस कुत्ते के मुंह को किसने कश्ट पहुंचाया ?’’
‘‘ इसे बिलकुल भी कष्ट नहीं हुआ गुरूदेव ! इसका मुंह मैने आपके द्वारा बताये तरीके से बंद किया है गुरूदेव।’’ एकलव्य झुकते हुए बोला।
‘‘ मुझे गुरूदेव क्यां कहते हो तुम? मैने तुम्हे कब सिखाया इस तरह बाण चलाना’’
‘‘ आप भले ही मुझे शिष्य न मानें लेकिन मै आपको ही गुरू मानकर यहंा अभ्यास करता हूं गुरूदेव। वो देखिये आपकी मूर्ति बैठी है उधर, और आपने अपने शिष्य को समय समय पर जो बताया वहीसीखा है। एक बार आपने ही बिना नोक के बाण चलाना बताया था।’’
‘‘ तो तुम एकलव्य हो’’ गुरू भौंचक्के थे। लेकिन ज्यादा देर चुप न रहे सके वे, पीछे से अर्जुन ने उन्हे टोका, ‘‘गुरूदेव आप कहते थे कि मैं दुनिया का सबसे बड़ा धनुषधारी हूं, लेकिन झूठ निकला वो। ये चमत्कार तो मै भी नहीं कर सकता। इस भील के सामने मेैं कैसे बड़ा धनुषधारी हो सकता हूं।’’
‘‘ तुम ही बड़े धनुषधारी रहोगे अर्जुन ’’ कहते द्रोणाचार्य का चेहरा सख्त हो गया। वे मुड़े और एकलव्य से बोले ‘‘तुम मुझे गुरू मांनते हो तो मेरी गुरूदक्षिणा दो एकलव्य।’’
‘‘हुकुम करिये गुरूदेव’’ एकलव्य खुशी से उछल रहा था।
‘‘तुम दांये हाथ से तीर पकड़ते हो न, बस मुझे दांये हाथ का अंगूठा दे दो।’’
एकलव्य हैरान रह गया, फिर उसने एक पल विचार किया अचानक ही बिना ज्यादा सोचेविचारे उसने झपट कर एक सैनिक की कमर में खोंसी गई छुरी निकाली और बांये हाथ में लेकर खच्च से दांये अंगूठे पर चला दी। अंगूठा जमीन पर गिरे उसके पहले ही उसने अंगूठा बीच में झेल लिया और दांये हाथ की हथेली पर उसे रख गुरू के समक्ष पेश किया।
कंपते हाथ से द्रोणाचार्य ने खून से सना अंगूठा उठाया और वहां से चुपचाप चले गये।
गुरू़ऋण यानी गुरू के कर्जा से अपने आपको मुक्त मानता हुआ एकलव्य मन ही मन विचार कर रहा था कि बिना दांये हाथ के अंगूठे के वह किस तरह तीर चलाने का अभ्यास ज्यों का त्यां रख सकता है।
द्रोणाचार्य का स्वार्थ न तो उस वीर और लगनशील भील बालक का गुण देख सके, न त्याग औऱ न ही उन्हें खुद का अत्याचार दिख रहा था। गुरुओं की चर्चा जब भी चलती है द्रोणाचार्य को आज भी लोग बहुत बुरे रूप में देखते है
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