virasat - 4 in Hindi Thriller by श्रुत कीर्ति अग्रवाल books and stories PDF | विरासत - 4

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विरासत - 4

विरासत

पार्ट - 5

सुबह-सवेरे ग्लोरिया के कमरे की साफ-सफाई, उनके हाथ-पैरों के घावों की मरहम-पट्टी, फिर कुछ पका कर उन्हें खिलाते हुए उसे महसूस हो रहा था जैसे वह अपने पिता के किये पापों का प्रायश्चित कर रहा हो। ग्लोरिया भी उससे काफी खुश थीं।

"मैन, तुम बहौत अच्छा सुभाव का आदमी है, अब हमको छोड़ कर कहीं मत जाना। गौड ने तुमको गिरधारी लाल को मारने के लिये ही भेजा है। वो सूअर किसी भी टाईम चला आएगा! आ गया तो तुम उससे जीत तो जाओगे ना? मैं बताती हूँ, वह बस देखने भर का मर्द है... ताकत नहीं है उसमें। तुम बिल्कुल भी डरना नहीं, वो तुम्हारा जवानी के आगे दस मिनट भी नहीं टिक सकेगा। हम भी मदद करेगा तुमको... देखो, हमारे पास एक छूरा भी है, बहुत तेज है यह, इसको तुम रख लेना!"

"कहाँ रहता है वह गिरधारी लाल?" उसने पूछा तो वह लापरवाही से बोलीं... "अरे यहीं रहता है, और कहाँ जाएगा? जब तक मरेगा नहीं, ये कोठी छोड़कर जाने वाला आदमी नहीं है वह!"

"पर पूरी कोठी तो बंद पड़ी है। रहते-सोते कहाँ थे वह?"

"इसी पलंग पर, और कहाँ?"

चक्कर सा आ गया उसे... तो यह था उनका तीसरा संबंध? अब इस औरत में उन्हें कौन सी खूबसूरती दिखाई दी भला?

क्या इसे बता देना चाहिए कि वह, उन्हीं गिरधारी लाल का बेटा है? पर इससे फायदा क्या होगा? नौकरी माँगनी थी, वह तो अपने-आप मिल रही है। गिरधारी लाल से लड़ने की शर्त थी, सो वह भी अब कभी आने वाले नहीं... फिर क्या जरूरत है बताने की?
सँभल-सँभल कर बोला, "देखिए मैं एक स्टूडेंट हूँ। अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए मुझे नौकरी की बहुत ज्यादा जरूरत है, और इसीलिए मैं यहाँ आया था। क्या आप मुझे नौकरी दे सकती हैं?"

"हाँ, हम तो तुमको पहले ही काम दे दिया। मगर उस गिरधारीलाल को काबू करना तुम्हारा काम, क्योंकि वह यहाँ किसी को घुसने नहीं देता। मुझे कहीं बाहर आने-जाने नहीं देता..."

"पगार कितनी देंगी आप मुझे?"

"पैसा नहीं है हमारे पास, सब उसी राक्छस ने छीन लिया... पर तुम चिंता मत करना, हम उससे एक न एक दिन अपना सबकुछ फिर से ले के रहेगा। तब हम तुमको हर महीने का एक भरी सोना के हिसाब से दे देगा। बस तुम यहाँ से कहीं जाना मत!"

एक भरी सोना? ग्यारह ग्राम से कुछ ज्यादा... तीन-साढे तीन लाख? बहुत पैसे थे इनके पास, और शायद इन्हीं पैसों के लिए बाऊजी ने इन्हें कैद करके रखा है। कहाँ छिपा रखे हैं उन्होंने इसके पैसे-गहने, क्या सलमा के पास? पर वे तो ऊपर से और पचास लाख की माँग ही कर रही हैं! दौलत का अपना गोरखधंधा होता है.. जब तक पास में नहीं होती, इसका आकर्षण इंसान को दुःखी करता रहता है और हाथ आ जाने के बाद इसकी पेचीदगियाँ नींदें उड़ा लेती हैं।

"अभी तो मुझे जाना ही होगा, मेरी माँ वहाँ पर अकेली है।"

" नहीं' तुम हमको अकेला छोड़कर यहाँ से नहीं जा सकता।"

"पर ऐसा कैसे हो सकता है?" वह परेशान हो गया था, "तब आप मेरे साथ चलिए! मैं आपको यहाँ से निकाल कर, जहाँ आप कहेंगीं, पँहुचा दूँगा।"

"हम?... हम कैसे? हम यहाँ से कहीं नहीं जा सकता। हम गया, तो कुछ भी नहीं छोड़ेगा वो... हमको तो गिरधारी लाल का इंतजार करना है।"

"यहाँ बैठकर क्यों? बाहर चलिए, पुलिस की मदद लीजिए। कोई भी आपको इस तरह से परेशान करने का हक नहीं रखता है..."

"पुलिस? वो यहाँ क्या करेगा?" उसकी पुतलियां भय से फैल गईं। "खबरदार जो पुलिस को बुलाया!"

उसे पता था कि माँ बहुत परेशान हो जाएगी पर सचमुच अभी घर लौटने का कोई उपाय नहीं बचा था! दोबारा माँ को फोन करना पड़ा... शाम को ऋचा से मिलने न जा पाना भी बहुत कष्टप्रद था। पर उसके वहाँ रुक जाने से ग्लोरिया का प्रसन्न दिखाई देना, उसे आश्वस्त कर रहा था। उनके कमरे का ताला तोड़ना भी जरूरी था कि उतने भारी शरीर के साथ खिड़की से उनका आवागमन भला कैसे संभव होता... और हर काम समय तो लेता ही है। फिर तो पूरे समय वे उसके साथ-साथ घूमती रहीं। उनका रंग, उनका व्यक्तित्व, अब उतना अजीब नहीं लग रहा था... शायद उसने दूसरे हजारों-हजार लोगों की तरह उन्हें भी स्वीकार कर लिया था। हाँ, आश्चर्य जरूर था, कि रासबिहारी ठाकुर ने क्या देखकर इनसे शादी की होगी! कोई तो खासियत देखी ही होगी... रूप-रंग को छोड़ दें तो भी, ग्लोरिया उसे न तो खास बुद्धिमान और न ही व्यवहार कुशल ही दिखाई देती थीं। उत्सुकतावश वह उनसे लगातार बातें करता रहा था पर उसने पाया कि जितनी शिद्दत से वह बाऊजी से नफरत करती थीं, उतनी ही शिद्दत से वह उनका इंतजार भी कर रही थीं। पर क्यों? वह तो रासबिहारी ठाकुर की विधवा थी न, तो कभी एक बार भी, भूले से ही सही, अपने पति की बातें भी तो करतीं?

उस विशाल हॉल का, उसमें सजे कीमती सामानों का, आकर्षण रमेश को खींच रहा था। इतने कीमती सामान उसने फिल्मों के अतिरिक्त और कहीं नहीं देखे थे... मौका मिलते ही वह हॉल की सफाई में जुट गया... स्वभाव से मेहनती और ईमानदार था, तीन लाख रूपये के वेतन के बदले सेवा भी तो उम्दा देनी थी न? ऊँची सीलिंग पर लगे झाड़-फानूस के अतिरिक्त हर तरफ लगी रंगीन लाइट्स, नक्काशीदार फर्नीचर, बड़े-बड़े गावतकिये, दीवारों पर लटकते कीमती कालीन, दीवारों में जड़ी भव्य नक्काशियाँ, बड़े-बड़े इत्रदान, हुक्का, मदिरा की खाली सुराहियाँ... उसने ग्लोरिया से पूछा, यहाँ पर कौन बैठता था? किसने सजाया है यह कुछ? रासबिहारी ठाकुर की कितनी पुश्तें इस हवेली में रही हैं? इतने बंद कमरों में क्या-क्या है? उनके खानदान में और कौन-कौन था? पर ग्लोरिया टाल गईं। या तो रुचि न हो या शायद... पता ही न हो? क्यों नहीं पता हो? पत्नी थीं उनकी! ज्यादा उम्र की तो नहीं लगती... तो क्या ठाकुर साहब की मृत्यु कम उम्र में ही हो गई थी? कैसे मरे वह? क्या हुआ था उनको? पूछा, बाकी कमरों की चाभियाँ कहाँ हैं? सब गिरधारी लाल के पास! कहाँ रखी होंगी उन्होंने?

सफाई करने के क्रम में एक तरफ धूल और जाले साफ करने पर मिले दीवारों पर लगे दो विशाल तैलचित्र... तो यह थे रासबिहारी ठाकुर!... पर साथ में ग्लोरिया तो नहीं? यह तो कोई बहुत गरिमामयी और खूबसूरत महिला थीं... ठाकुर साहब की पत्नी और इस हवेली की मालकिन का सा भव्य व्यक्तित्व! थोड़ा दबाव डालने पर ग्लोरिया ने स्वीकार किया कि वही थीं असली ठकुराईन... तो ग्लोरिया कौन थी? ठाकुर साहब की बेटी की केयरटेकर, उसने बताया। बेटी जब चार साल की थी, तभी ठकुराइन की मृत्यु हो गई थी। उसके पश्चात ही ग्लोरिया का आगमन हुआ था इस हवेली में! रहस्य अब कुछ-कुछ सुलझने लगा था। उस समय दुबली-पतली, सहमी सी लड़की रही होगी ये, हो सकता है ठाकुर साहब की बेटी उससे काफी घुल-मिल गई हो! ऐसी वफादार केअर टेकर एक दिन कहीं चली ही न जाए, इस डर से, बेटी के पालन-पोषण के लिये उसपर अपनी निर्भरता के कारण... ऐसी ही किसी मजबूरी के चलते ठाकुर साहब ने ग्लोरिया से ब्याह करने का निर्णय ले लिया होगा। या फिर कुरूपता उम्र से हार गई होगी और घर में हर समय मौजूद उस जवान लड़की पर ठाकुर साहब का दिल ही आ गया हो! पूछा, वह बेटी अब कहाँ है? पता चला, गिरधारी लाल के पास है!

ग्लोरिया का कमरा ठीक करने के क्रम में बाऊजी का मोबाइल मिला, पूरी तरह डिस्चार्ज! लगता है उस दिन इसे साथ लेना वह भूल गए थे। चार्ज करके देखा, लास्ट काॅल माँ का था, कुछ दो-चार और लोगों से बातें की थीं... इनमें सलमा तो कहीं नहीं थीं? हाँ, सबसे ज्यादा बातें हुई थीं किसी वकील बाबू से... कौन हैं यह? एक बार इनसे मिलने पर ही शायद कुछ पता चले कि बाऊजी कर क्या रहे थे और किस तरह के आदमी थे वह?

**********

पार्ट - 6

ऋचा की बहुत याद आ रही थी। लगा, इन झमेलों में फँसकर तो वह उसे सचमुच में खो देगा। पूरे तीन दिन बीत चुके हैं, आज उससे कोचिंग में जाकर मिला जा सकता है... पर क्या उससे ज्यादा जरूरी माँ से मिलना नहीं है, जो हर आधे-एक घंटे पर फोन कर रही है उसे घर बुलाने के लिए... गुस्सा करने, डाँटने के बाद, अब तो वह उसके साथ भी उसी तरह दयनीय हो, अनुनय-विनय पर उतर आई है जैसे कभी बाऊजी के साथ रहा करती थी। अपने आज्ञाकारी बेटे के इस बदले व्यवहार से अचंभित है और लगातार परेशान भी कि पिता की मृत्यु होते ही, उनके अवगुणों का ऐसा अनुयायी वह कैसे बन गया? अपनी कोई भी परेशानी वह माँ को बता भी तो नहीं पा रहा है... न समय ही मिल रहा है और न ही अपनी अनुभूतियाँ इतनी सामान्य लग रही हैं जो किसी को समझाई जा सकें। बल्कि अब तो उसे माँ के इस व्यवहार से एक अजीब सी चिड़चिड़ाहट भी महसूस होने लगी थी... कुछ समय उसको अकेला छोड़ क्यों नहीं देतीं?

बहुत मुश्किल से, ग्लोरिया को समझा-बुझा कर, उनके बहुत सारे काम निबटा कर, अब वह हवेली से निकल सका था। मन में संतोष सा था.. कितने दिनों से एक कमरे में कैद हैं बेचारी! अब साफ-सुथरे घर में थोड़ा घूम-फिर तो सकेंगीं। पर इस प्रक्रिया में समय बहुत लग गया था और अब वकील बाबू के घर के अतिरिक्त कहीं और जा सकने की स्थिति ही नहीँ बची थी।

"अच्छा, तो आप हैं रमेश बाबू? परमात्मा की कृपा से अपने पिता से बढ़कर खूबसूरत हैं आप, दूल्हे की शेरवानी खूब खिलेगी आपके ऊपर!"

ये क्या बोल रहे हैं वह? वो भौंचक्का सा उनका चेहरा देख रहा था।

"मैं रमेश हूँ, गिरधारी लाल जी का बेटा! शायद आप किसी और से कंफ्यूज कर रहे हैं मुझे!"

"बिल्कुल नहीं जनाब, खूब पहचान रहे हैं आपको हम! बिल्कुल उन्हीं का चेहरा जवान होकर सामने आ गया है। तो बताइए, आज वह खुद क्यों नहीं आए?"

रमेश ने बताया उनकी अकस्मात मृत्यु, अधूरी जानकारियाँ... उनके फोन से वकील बाबू का लिंक मिलना... वकील बाबू अब स्तब्ध थे।

" यह तो बहुत बुरा हुआ! वह तो बहुत काम अधूरा छोड़ कर गए हैं... बहुत गलत समय पर उनका इंतकाल हो गया... अब कैसे सँभलेगा ये सबकुछ?" वह गहन चिंतन में लीन थे... "आपको तो सब छोड़कर इसी में लगना पड़ेगा रमेश बाबू!"

"वह तो ठीक है, पर मैं तो अपनी पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त था, उनके कार्य-कलापों पर समय रहते ध्यान ही नहीं दिया... मुझे ठीक से मालूम नहीं है कि बाऊजी करते क्या थे! अब आपको ही समझाना होगा सबकुछ!" पिता से अपना वैमनस्य सबको बताने की इच्छा नहीं थी, इसलिए वह थोड़ा सा झूठ बोल गया।

" दास्तान तो बहुत लम्बी है। हम आपको सिलसिलेवार बताएँगें, आप इस इतवार, सवेरे आठ बजे हमसे मिलिए। उस समय हम कुछ ईजी रहते हैं... पर एक बात समझ लीजिए, आपकी शादी की तारीख आगे नहीं बढ़ सकेगी। वह तो अठारह मई को ही करनी पड़ेगी। हम लोग रजिस्ट्रार के ऑफिस में अर्जी दे चुके हैं।"

"मेरी शादी? मई में? क्या बात कर रहे हैं आप? अभी तो मैं अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हुआ हूँ।"

वकील बाबू को अब धीरे-धीरे उसकी अनभिज्ञता समझ में आने लगी थी।

"क्या गिरधारी बाबू ने आपको कुछ बताया ही नहीं है? ग्लोरिया और राॅबर्ट से मिले हैं या नहीं आप?"

"ग्लोरिया से तो मिला हूँ, पर रॉबर्ट कौन है, मुझे नहीं पता!"

"सँभल कर रहिएगा इन लोगों से, आपकी जान के दुश्मन हैं।"

"पर मैंने उनका क्या बिगाड़ा है?" वह फिर से चौंक गया था।

"वो जानती है कि उसके रास्ते का रोड़ा तो बस आप हैं, सादिक उस लायक नहीं है! हमें तो इस बात का डर लग रहा है कि गिरधारी बाबू के इन्तकाल की खबर सुनकर राबर्ट कहीं आपकी जान के पीछे ही न पड़ जाय। अपनी शादी तक, हो सके तो थोड़ा छिप कर ही रहिये।"

रॉबर्ट? सादिक? पर बाहर कई लोग इंतज़ार कर रहे थे और वकील बाबू के पास सचमुच वक्त नहीं था, तो न चाहते हुए भी उसे बाहर निकलना पड़ा। घड़ी देखी, कोचिंग का वक्त कब का खत्म हो चुका था। ऋचा से मिलना तो अब कल ही हो सकेगा तो माँ से भी कल ही मिल लेगा। आज तो वह ग्लोरिया से ही पूछेगा सारी बातें... बहुत सारी बातें!

कोठी लौटा तो दरवाजा खुला हुआ था। अंदर से कुछ लोगों के दबी आवाज़ में बातचीत करने की, कुछ हलचल की, आहट सी मिली तो वह बड़े आबनूसी दरवाजे की ओट में छिप गया। झाँककर देखा तो ग्लोरिया किसी कद्दावर से आदमी के साथ हाॅल की दीवारों पर टँगे कालीन उतारने में व्यस्त थीं। हाॅल में सजे हुए कई कीमती सामान भी अब एक जगह इकट्ठे किए जा चुके थे और एक कमरे का ताला भी खुला नजर आ रहा था। कुछ नहीं सूझा तो एकाएक बचपन वाला वह खेल याद आ गया जब वह बाऊजी की आवाज निकालकर माँ को परेशान किया करता था। उसने दरवाजे के बाहर से, पिता की आवाज में, जोर से खँखारा... "कौन है वहाँ?"

अंदर एकाएक भगदड़ सी मच गई और वह आदमी, सबकुछ जैसे का तैसा छोड़ कर भागने लगा तो उसे निर्विरोध जाने देने के लिये एक तरफ हट कर, छिप जाने के अतिरिक्त रमेश को तुरंत और कुछ भी समझ में नहीं आया। उसने देखा, ग्लोरिया का चेहरा बिल्कुल सफेद पड़ गया था। उन्होंने जल्दी-जल्दी सारी बत्तियाँ बुझा कर हाॅल में अँधेरा कर दिया और अपने कमरे में जाकर लेट गईं। इस पूरे कार्यक्रम से अंजान दिखाई देने के लिये, माहौल सामान्य हो जाने तक, वह बाहर ही छिपा रहा, फिर जो ग्लोरिया के कमरे में प्रवेश किया, ग्लोरिया ने उसे हाथ पकड़ कर खींच लिया... फुसफुसा कर बोलीं, "इधर... इधर... छिप जाओ। ये छूरा हाथ में रखो। वो आ गया है। जैसे ही इधर आए, इससे हमला कर देना उसपर।"

"मैं क्यों?"

"अरे, इसी के लिये न तुम यहाँ आया है।"

ग्लोरिया की इच्छानुसार वह कुछ देर वहीं छिपा रहा, फिर बाहर निकल आया।

"कोई तो नहीं आ रहा है, आपको कुछ गलतफहमी हुई है!"

"हमारा बात समझो, वो आया है। हम उसका आवाज़ कहीं से भी पहचान लेगा। सबसे तेज दिमाग चलता है उसका, खतरा पता चला होगा इसी से सीधा इधर नहीं आया वर्ना आज तो उसको खत्म करके ही रहता हम!"

"वह आदमी कौन था, जो दौड़ते हुए घर के बाहर निकल रहा था?"

"कौन? कोई तो नहीं...! अरे, बस मेरा हालचाल जाने आया था!"

ग्लोरिया ने कहा तो रमेश कुर्सी खींचकर उसके ठीक सामने आ बैठा, "देखिये, मुझसे झूठ बोलियेगा तो फिर मैं आपकी कोई मदद नहीं कर पाऊँगा। पहले मुझे बताइये कि ये सब क्या चल रहा है, तभी रुकूँगा मैं यहाँ।"

वह अचकचा सी गई। "रॉबर्ट था, मेरा पुराना जानने वाला है। वही तो मुझे यहाँ लेकर आया था।"

"हॉल में क्या कर रहा था वह?"

"बस थोड़ी सी साफ-सफाई... और कुछ नहीं!"

"साफ-सफाई तो मैं कल कर चुका हूँ, सच-सच बताइए... उस सारे सामान का क्या करने वाला था वो?"

"वह... वह हाथ में थोड़े भी पैसे नहीं है न, तुमको तनख्वाह भी देनी थी... तो सोंचा कुछ सामान बिकवा कर पैसे मँगा लूँ।"

"आप मेरी तनख्वाह की चिंता मत करिए! वह मैं गिरधारीलाल से ले लूँगा।"

एकाएक ग्लोरिया तन कर बैठ गईं। "तुम गिरधारी लाल से नहीं मिलेगा। तुमको उसको घायल करके, बस में करना है बस!"

"क्यों घायल करूँ मैं उसे? उससे मेरी क्या दुश्मनी है?"

"हमारे लिए करोगे। हम उसके लिए पैसे देगा..."

"आप मुझे ठीक से बताइए, रॉबर्ट यहां कैसे पहुँचा? आपने तो कहा था यहाँ कोई नहीं आता।"

"तो सुनो, हम गया था उसको बुलाने।"

"आप बाहर गई थीं? इस बीच गिरधारी लाल आ जाता तो? वैसे जब आप उसके हाथ से निकल ही गई थीं तो वापस क्यों लौटीं? वह तो आकर आपको फिर बंद करेंगें, बाँध कर रखेंगे! तो आप राबर्ट के पास से लौटीं ही क्यों?'

"चला जाएगा... बराबर चला जाएगा। अपने राबर्ट के साथ ही रहेगा हम... पर पहले गिरधारीलाल से सब हिसाब-किताब बराबर करना है।"

"कौन सा हिसाब?"

"'हम' विधवा है ठाकुर का, 'हम' मालकिन है ठाकुर के सारे माल-मत्ता का, इस कोठी का... वो गिरधारी लाल नहीं! हमको कमजोर जान के वो सबकुछ छीन लेना चाहता है। तुम हमारा मदद करेगा न तो जब हमारे हाथ में आएगा, हम तुमको भी बहुत अमीर बना देगा, प्रॉमिस!"

नए खुले कमरे में घूम रहा था वह। यह शायद रासबिहारी ठाकुर का निजी कक्ष था। विशालकाय आलमारियों में भरे कीमती कपड़े, बड़ी सी शय्या... पर पूरे कमरे में ग्लोरिया का एक भी सामान नहीं! कैसा दाम्पत्य था इनका?

सुबह-सवेरे डरते-डरते ऋचा को फोन लगाया। किस्मत से उसने उठा भी लिया। शिकायतें कीं कि उस दिन पार्क में, फिर कोचिंग के बाद, कितना इंतजार करती रही है वह! क्यों नहीं आया वो? कोचिंग क्यों छोड़ दी? कब मिलने आएगा? कोई जवाब नहीं था उसके पास! ऋचा की आवाज थोड़ी आर्द्र हो आई थी... "तुमने तो बताया था कि तुम्हारे घर में बस तुम और तुम्हारी मदर रहते हो, तो फादर की डेथ की बात क्यों कर रहे थे?"

कितनी लंबी कहानी सुनाएगा अब वह? आठ बजे वकील बाबू के पास पहुँचना है उसके पहले ग्लोरिया को कुछ खिलाने-पिलाने की ड्यूटी है। उन्हें सिर्फ बंद कमरे में छोड़कर जाने से काम चलेगा या बाँध भी देना चाहिए? जब तक सारी बातें समझ में न आ जाएँ, रॉबर्ट को यहाँ घुसने देना सही नहीं होगा... इन सारी उधेड़-बुन में दिमाग इतना व्यस्त था कि उसने ऋचा से अगले दिन सुबह बात करने की बात कहकर फोन काट दिया।

क्रमशः

मौलिक एवं स्वरचित

श्रुत कीर्ति अग्रवाल
पटना
shrutipatna6@gmail.com