ek muththi ishq - 2 in Hindi Love Stories by Saroj Verma books and stories PDF | एक मुट्ठी इश्क़--भाग(२)

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एक मुट्ठी इश्क़--भाग(२)


गुरप्रीत ,मां की बातों को अनसुना करके अपनी ही दुनिया मे मगन रहतीं, सहेलियों के साथ खेंतों में दिनभर घूमती तो कभी बकरियों के झुंड के साथ,कभी कभी सैर करने नहर के किनारे टहलने चली जाती लेकिन उसे पानी से बहुत डर लगता था,इसलिए पानी से हमेशा दूरी बनाकर रहती,सहेलियां नहर में नहातीं और वो दूर से ही उन्हें देखती,घर गृहस्थी के किसी काम को हाथ नहीं लगाती,मां कहते कहते थक जाती लेकिन वो तो एकदम चिकना घड़ा हो गई थी,मां की बातों का उस पर कोई भी असर ना पड़ता लेकिन सहेलियों के साथ कभी कभार कुएँ पर पानी जरूर भरने चली जाती।।
वहां भी जाती तो पानी तो कम भरती,बस सहेलियों के साथ घंटों बातें करती रहतीं, मां वहां घर पर इंतजार इंतजार करते करते थक जाती और गुरप्रीत तो कभी कभी खाली घड़ा या कलश लेकर चली आती उसे बातें करने मे याद ही नही रहता कि पानी भी भरना हैं और मां अपने माथे पर हाथ रखकर रह जाती,शाम को जब खेंतों से बलवंत घर लौटता तो सुखजीत शिकायतों का पुलिंदा लेकर बैठ जाती लेकिन बाप बेटी सुखजीत की बातों को नजरअंदाज कर देते।।
शाम का समय ,डूबते हुए सूरज की लालिमा,खेंतों के उस पार पहाड़ों पर बिखर रही हैं,पंक्षी भी अपने अपने घोसलों को लौट रहें हैं, बैलों के गलें में बंधी घंटियाँ शोर करके कह रहीं लो हम आ गए, पनिहारिनों का कुएँ पर जमघट सा लगा हैं पानी भरने के लिए,घरों से उठता धुआं बता रहा हैं कि शाम के खाने की तैयारी के लिए चूल्हे बाल दिए गए हैं, वहीं बलवंत के घर का हाल___
शाम को सुखजीत ही चूल्हा बालती,खाना बनाती और साथ साथ बड़बडाती भी जाती कि___
जब से मां बाप का घर छोड़ा है सारी उम्र काम करते ही बीत गई, सालों के इंतजार के बाद एक बेटी हुई थीं तो सोच रही थी कि बेटी बड़ी होकर मेरा हाथ बटाएगीं,बेटी के हाथ की गरम रोटी नसीब होगी लेकिन क्या करूँ मेरे ही नसीब खोटे हैं,मेरे नसीब मे ही नही कि किसी के हाथ की बनी रोटी मिलेगी, बहु होती तो दो चार खरी खोटी सुनाकर मन हल्का कर लेती लेकिन बेटी से कुछ कहते भी तो नहीं बनता।।
सुखजीत ऐसे ही बड़बडाते बड़बड़ाते बाप बेटी को खाना परोसती और दोनों बाप बेटी खाते खाते खी..खी..हंसते रहते, तब सुखजीत कहती___
हां...हां..हंस लो हंस लो,उड़ा लो मेरा मजाक बाप बेटी,मै हूं तभी,नहीं तो मक्खियाँ भिनभिनाती रहें इस घर में, ये तुम्हारी लाड़ली बेटी किसी काम काज की नहीं हैं, तुमने बिगाड़ रखा हैं जी,मुझे क्या करना है पराएं घर जाएगीं तो उलाहने आएंगे ससुराल से तब तुम ही निपटना, मैं तो कह दूंगी की भाई,मै तो कुछ नहीं जानती जो कुछ कहना हैं उसके बाप से जाकर कहो।।
बाप बेटी के खाने के बाद सुखजीत ने भी खाना खतम किया,फिर रसोई समेटी,बरतन धोएँ, इतना काम निपटाते निपटाते गुरप्रीत के पास पहुंची तब तक गुरप्रीत सो चुकी थीं, उसे चादर ओढ़ाई और उसके माथे को चूमकर उसके बगल मे लेट गई, आखिर मां हैं, मां को अपना सोता हुआ बच्चा बहुत प्यारा लगता हैं और ऐसी लेटे हुए बच्चे को देखकर हर मां का मन बच्चे को प्यार करने के लिए हो जाता हैं वहीं सुखजीत ने भी किया।।
सुखजीत, गुरप्रीत के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली___
मेरी बात का बुरा मत माना कर,मेरी सोनचिरैया!,मैं तो तेरे भले के लिए ही कहतीं हूँ, आगें बस यहीं घर-गृहस्थी ही काम आने वाली हैं, इस गांव तुझे पढा़ने की जितनी सुविधा थी,उतना ही तुझे पढ़ा सकें, पराएँ घर जाएगीं तो ससुराल वाले ये ना कहें कि मां ने कुछ नहीं सिखाया।।
हांं, मुझे पता हैं इसलिए तो कभी भी दिल पर नहीं लेती!!
ऊँघते-ऊँघते, कुनमुनाते हुए गुरप्रीत बोली।।
तू अभी तक जाग रही हैं, सुखजीत ने गुरप्रीत से पूछा।।
नहीं सो रही हूँ और इतना कहकर गुरप्रीत ने सुखजीत की ओर करवट ली और सुखजीत से लिपटकर फिर सो गई।।
और सुखजीत ने गुरप्रीत का माथा चूमकर सोने के लिए आंखे बंद कर लीं।।
सुबह हो चुकी थीं, सुखजीत को सुबह सुबह बहुत काम हो जाते हैं,जानवरों की साफ सफाई, फिर उनका दाना पानी, गोबर उठाना, दूध दुहना,घर को लीपना,कुएँ से पानी लाना,स्नान ध्यान करके ,नाश्तें की तैयारी करना।।
सुखजीत... ओय सुखजीते,कित्थे हैं, ला भाई! रोटी पाणी,खेतों को निकलना हैं, बलवंत ने आंगन से ही सुखजीत को आवाज़ लगाते हुए कहा____
लाती हूँ... लाती हूँ, कुछ सबर कल लो जी,मेरे दस दस हाथ नहीं हैं, इत्ते सारे काम हो जाते हैं सुबह से और पीतल की थाली में,कुछ गोभी के परांठे, आम का आचार ,थोड़ा गुड़ और पीतल के बड़े से गिलास मे लस्सी लाते हुए, सुखजीत बोली____
लो जी,आपका नाश्ता।।
नाश्ता करते समय बलवंत ने पूछा, गुरप्रीत कहाँ हैं?
आ गई बाबूजी, लो मैं भी तैयार होकर आ गई और मां मेरा नाश्ता, गुरप्रीत ने अपनी मां सुखजीत से पूछा।।
अभी लाती हूँ और इतना कहकर सुखजीत रसोई से गुरप्रीत के लिए नाश्ता लेने चली गई,नाश्ता लेकर आई ही थी गुरप्रीत के लिए कि बाहर से किसी ने बलवंत को आवाज दी___
ओय...बलवंत....बलवंते,कित्थे हैं तू?
बलवंत नाश्ता छोड़कर बाहर आया तो देखा उसका बहुत पुराना दोस्त जोगिंदर उससे मिलने आया हैं___
अरे,जोगिंदर! तू,कैसा हैं यारा,बड़े दिनों बाद दोस्त की याद आई ,बलवंत जोगिंदर से बोला।।
हां! यारा,शहर गया था,व्यापार में मुनाफा हुआ और देख ये बग्घी खरीद ली,सागौन से बनी हैं, बचपन से अरमान था कि मेरी खुद की खूबसूरत नक्काशी वाली लकड़ी की बग्घी हो और देख मेरा सपना पूरा हो गया, जोगिंदर ने बलवंत से कहा।।
ओय,यारा तू भी क्या? इस मोटरकार के जमाने में बग्घी खरीद लाया, बलवंत ने जोगिंदर से कहा।।
सच,बताऊँ बलवंते! तूझे तो पता हैं, मेरे दादा परदादा, राजे-रजवाड़ों के यहाँ काम किया करते थे और मेरे दादाजी तो बड़े जमींदार साहब के मुनीम हुआ करते थे,उस जमाने के सबसे पढ़े लिखे इंसानों में उनका नाम गिना जाता था,उन्हें जमींदार साहब ने खास़तौर पर एक बग्घी दे रखें थीं जिससे हवेली मे जाने में उन्हें कोई दिक्कत ना हो,वो बड़े शान से उस बग्घी की सवारी किया करते थे,बस उन्हीं को देखकर मुझे भी ये शौक चढ़ गया और आज मैने भी अपना सपना पूरा कर लिया, जोगिंदर ने बलवंत से कहा।।
तभी घोड़ो की हिनहिनाहट सुनकर गुरप्रीत भी बाहर आ गई और बग्घी देखकर बोली___
अरे,चाचाजी आपकी बग्घी हैं।।
हां,पुत्तर, जोगिंदर बोला।।
क्या? मैं इसमें सैर कर आऊं, गुरप्रीत ने जोगिंदर से पूछा।।
हां...हां.. पुत्तर, क्यों नहीं, जोगिंदर बोला।।
ना यारा,इसे कहाँ चलाना आता हैं बग्घी,खामख्वाह अभी घोड़े बिदक जाएगें तो आफ़त आ जाएगी, बलवंत बोला।।
आता हैं,बाऊजी, कभी कभी आपकी बैलगाड़ी भी हांकती हूँ, गुरप्रीत बोली।।
पुत्तर ! वो बैलगाड़ी हैं और ये घोड़ागाड़ी, बहुत अन्तर हैं दोनों मे,बलवंत बोला।।
ले जाने दे यारा,मेरे घोड़े बहुत अच्छे हैं, जोगिंदर बोला।।
बस,बाऊजी, ज्यादा दूर तक नहीं जाऊँगीं,बस यही नहर किनारे तक,गुरप्रीत बोली।।
ठीक है जा और जल्दी आना इतना कहकर बलवंत ने गुरप्रीत को बग्घी ले जाने की इजाज़त दे दी,और गुरप्रीत बग्घी लेकर चली गई।।
चल यारा! तू भी भीतर चलकर लस्सी सस्सी पीले,कुछ खाले,बलवंत ने जोगिंदर से कहा।।
और दोनों जैसे ही भीतर पहुंचे, सुखजीत ने जोगिंदर को नमस्ते की और उसे भी परांठे और लस्सी लाकर दिए और गुस्से से बोली,अब आपकी लाड़ली परसी हुई थाली छोड़कर कहाँ चली गई।।
तू फिकर ना कर,इत्थे ही गई हैं नहर के किनारे तक बग्घी लेकर,बलवंत बोला।।
नहर के किनारे.... बग्घी लेकर,सुखजीत बोली।।
हां...हां..परजाई! तुस्सी फिकर ना करो,अभी आ जावेंगी, मेरी बग्घी लेकर गई हैं, जोगिंदर बोला।।
और आप लोगों ने जाने दिया,मैं तो इनसे हार गई हूँ, सयानी लड़की बग्घी चलाएगीं बताओ तो,जग हंसाई होगी...जगहंसाई,लड़की दिनबदिन हाथ से निकलती जा रही हैं और बाप को कोई चिंता ही नहीं,मैं भी कहाँ तक देखूं, सुखजीत बोली।।
सुखजीते, तू तो नाहक ही परेशान हो रहीं हैं, अभी आ जावेंगी,बलवंत नाश्ता करते हुए बोला।।
और सुखजीत गुस्से से रसोई मे चली गई।।
उधर गुरप्रीत मगन होकर नहर के किनारे वाले रास्ते पर चली जा रही थीं, तभी अचानक बकरियों का झुंड आ गया और बग्घी का संतुलन बिगड़ गया ,बग्घी की रफ्तार बढ़ गई और इसी रफ्तार में गुरप्रीत बग्घी से उछलकर नहर में जा गिरी, घोड़े समझदार थे,गुरप्रीत के गिरते ही घोडा़गाड़ी तो आगे जाकर खड़ी हो गई लेकिन गुरप्रीत डूबने लगी,उसे तो वैसे भी पानी से बहुत डर लगता था,बचाओ....बचाओ....चिल्लाने लगी तभी उस रास्ते से एक नौजवान साइकिल से गुजर रहा था और उसनें गुरप्रीत की आवाज़ जैसे ही सुनी फ़ौरन पानी मे छलांग लगाकर गुरप्रीत को बचाकर किनारे ले आया।।
सिकुडी़ सिमटी सी गीली हालत मे गरदन नीचे करते हुए गुरप्रीत ने उस युवक को धन्यवाद बोला।।
धन्यवाद की कोई बात नहीं हैं,चलिए मैं आपको आपके घर तक छोड़ दूं,उस युवक ने कहा।।
रहने दीजिए, मैं चली जाऊँगीं, मेरी बग्घी वो देखिए खड़ी हैं, गुरप्रीत बोली।।
ये सुनकर वो नवयुवक हंसने लगा,आप और बग्घी...हा..हा..हा..हा..
हां! तो क्या लड़कियां बग्घी नहीं चला सकतीं, मैने तो सुना हैं कि शहर मे लड़कियां मोटरकार चलाती हैं, गुस्से से गुरप्रीत बोली।।
गुरप्रीत का ऐसा मासूमियत भरा जवाब सुनकर, उस नवयुवक ने फिर कुछ नहीं कहा और जाते हुए बोला तो ठीक हैं तो जाइएं आप अपनी बग्घी मे,इतना कहकर वो चला गया, वो जब तक आंखों से ओछल ना हो गया,गुरप्रीत उसे देखती रही।।

क्रमशः___
सरोज वर्मा___