Purn-Viram se pahle - 9 in Hindi Moral Stories by Pragati Gupta books and stories PDF | पूर्ण-विराम से पहले....!!! - 9

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पूर्ण-विराम से पहले....!!! - 9

पूर्ण-विराम से पहले....!!!

9.

लखनऊ से लौटने के चार दिन बाद प्रणय भी कानपुर पहुंच गया। उसने मुझे स्टेशन लेने आने को मना कर दिया था| स्टेशन से उसने कैब ले ली थी| जैसे ही वो घर में दाखिल हुआ उसने अपना सामान काका से कहकर अपने कमरे में रखवा दिया….और वो सीधे हमारे कमरे में चला आया| कमरे के अंदर प्रविष्ट होते ही प्रणय का जी भर आया था। पहली बार उसको अपनी मां बिस्तर पर लेटी हुई मिली।

ऐसा कभी भी नहीं हुआ था कि वो कहीं बाहर से आया हो और मां उसको कभी बिस्तर में लेटी हुई मिली हो। प्रणय को प्रीति हमेशा ही घर के दरवाजे पर इंतजार करते हुए मिलती थी। प्रीति की यह आदत थी जब प्रणय या मैं शहर के बाहर जाकर लौटते....वो दरवाज़े पर इंतजार करते हुए मिलती थी|

तभी समीर ने शिखा की ओर देखा वो भी तो ऐसा ही करती थी| स्त्रियाँ जब अपने किसी प्रिय की बाट जोहती हैं.. तो कितना प्रेम स्वयं में सँजोकर विशाल कद की हो जाती हैं|..इस भाव को महसूस करने वाले का कद भी तभी विशाल होता है.....जब उसको यह सब महसूस होता हो|

शिखा ने ज्यों ही समीर की आँखों में देखा उसको समीर की अनकही समझ आ गई|

प्रणय को देखते ही प्रीति अपने बिस्तर से तेजी से उठ खड़ी हुई और हाथ फैला कर उसने प्रणय को अपनी बाहों में समा लिया| तब प्रणय ने प्रीति के पैर छू कर आशीर्वाद लिया| प्रणय ने अपनी मां को बीच में ही प्यार से टोकते हुए कहा..

"आप ही के पास आ रहा था मां। इतनी तेजी से मत उठिए। आपको डॉक्टर ने एतिहाद बरतने को कहा है| आपको कहीं चोट लग गई तो बहुत तकलीफ होगी।"

उस रोज प्रीति ने प्रणय को बहुत देर तक अपनी दोनों बांहों में समेटकर रखा था। इससे पहले जब भी प्रणय आता था तो अपनी माँ को गले लगाकर हमेशा गोद में उठाया लिया करता था| जब तक वो शोर न मचाती.....वो उतारता ही नहीं था| पर इस बार उसने कुछ भी ऐसा नहीं किया|

न जाने कितनी देर तक मां और बेटे एक दूसरे के गले लगकर रोते रहे। उसी कमरे में होने के बाद भी समीर मुझ में इतनी हिम्मत नही थी कि दोनो के बीच कुछ बोल सकूं। उस समय अगर में कुछ भी बोलता तो मैं भी अपने आंसुओं पर कंट्रोल खो बैठता|

जिस दिन प्रणय आया था मैंने ऑफिस से छुट्टी ले ली थी। दोनों को इस तरह से रोता हुआ देखकर मेरी भी आंखें भी नम हो गई पर मैंने खुद को मजबूत करते हुए प्रीति और प्रणय से कहा....

“सब ठीक हो जाएगा| हम सबको ईश्वर पर विश्वास रखना चाहिए|”

प्रणय ने आते ही अपनी माँ की सारी ज़िम्मेदारी उठा ली थी। मैं अगर प्रीति का कोई भी काम करने का सोचता तो प्रणय मुझे रोक देता और कहता..

"पापा जब तक मैं हूँ मुझे मां के सभी काम करने दें प्लीज। बीस दिन बाद मुझे एक बार तो वापस जाना ही पड़ेगा। तब आपको ही मम्मा के सभी काम करने हैं। उस ट्रिप के दौरान हमेशा मुझे बोलता.. पापा एक बात कहूँ ..आज मुझे न जाने क्यों बार-बार महसूस हो रहा है कि मुझे यही हिंदुस्तान में काम करना चाहिए था। कम से कम जब भी मौका मिलता....आप दोनो के पास पहुंच जाता|”...

प्रखर की बात सुनकर अचानक समीर और शिखा को लगा कि प्रणय दूर रहने के बाद भी पास है| अपनी मां के बीमार होने का सुनकर वो मात्र चार दिन में प्रोग्राम बना कर पहुंच भी गया। एक उनका बेटा सार्थक है जिसको फ़ोन करने तक की फुर्सत नही। जब भी शिखा को हफ्ते दस दिन में उसका खयाल आता है वही लगाती। शुरू-शुरू में हर दूसरे या तीसरे दिन लगाती थी पर सार्थक की प्रतिक्रिया देखकर उसने फोन करना कम कर दिया था|

एक सी बात सोचते-सोचते जैसे ही शिखा की नज़र समीर की तरफ गई वो भी उसी की तरफ देख रहा था। दोनो को एक दूसरे के मन के भाव बहुत अच्छे से समझ आ गए थे....तभी एक-सी पीड़ा को महसूस कर दोनो की आंखों में आंसू आ गए।..

अचानक प्रखर की नज़र उन दोनों पर पड़ी तो उसने समीर और शिखा की तरफ देख कर कहा..

"मत सोचो बहुत ज्यादा तुम दोनो। एक सार्थक के न करने से सब रुक नही जाता। हम आपस में एक दूसरे का ख़्याल रखेंगे।" बोलकर उसने अपनी बात वापस जारी रखी..

जिस दिन प्रणय की वापसी थी उसने भारी मन से हम दोनों से विदा ली और शीघ्र ही वापस लौटने का वादा करके उसने अपनी मां के पैर छुए और मुझे गले लगा कर कहा..

“पापा आप जब भी कहेंगे मैं तुरंत वापस लौट आऊंगा| आप कभी भी अपने आप को अकेला मत महसूस करिएगा|”

समीर उस दिन मुझे अपने बेटे पर बहुत नाज हुआ क्योंकि हमको कभी भी उससे कुछ भी कहने की जरूरत नहीं पड़ी| उसने हम दोनों के लिए वही सब कुछ किया जो एक बेटे को अपने मां-पापा के लिए करना चाहिए|

समय धीरे-धीरे गुजर रहा था| शुरू के तीन-चार महीने प्रीति की बीमारी में हार्मोन ट्रीटमेंट का अच्छा असर दिखाई दे रहा था पर अचानक ही उसको सांस लेने में तकलीफ होने लगी| एक-दो कदम चलते ही उसको बैठना पड़ता था| इस तरह की तकलीफ बढ़ने से प्रीति को बाथरूम जाने और अपनी ही काम करने में बहुत परेशानी होने लगी थी|..

इस समय मुझे प्रीति के लिए एक नर्सिंग स्टाफ रखना पड़ा क्योंकि मुझे ऑफिस भी जाना होता था| मेरे ऊपर कुछ बड़ी जिम्मेदारियां थी जिनकी वजह से मैं ऑफिस जाना भी नहीं छोड़ सकता था| पर जब भी घर लौट कर आता तो अपना शेष सारा समय प्रीति के साथ गुजारने की कोशिश करता|

प्रीति ने कभी भी मुझसे कोई शिकायत नहीं की| उल्टा वो मुझसे बोला करती थी कि उसकी वजह से मेरा बहुत काम खराब हो रहा है|

जबकि समीर मैंने हमेशा ही प्रीति को यह समझाने की कोशिश की.....पति-पत्नी के रिश्ते में अगर किसी को भी किसी की जरूरत हो तो समय खराब नहीं होता है| अगर तुम्हारी जगह मैं होता तो तुम भी तो यही करती| मेरी बात को सुनकर प्रीति चुप रह जाती|..

अक्सर रात को सोते-सोते जब प्रीति की नींद उचट जाती.. तो वह मेरे सीने से कसकर चिपक जाती| कई-कई बार सारी-सारी रात सिसकती रहती| मैं उसको चुप करने की कोशिश करता| पर सच तो यही है वो अपनी बेचैनी को मेरे से नहीं कहती तो किस से कहती| अपने पति, बच्चे और घर को छोड़कर जाना इतना आसान नहीं होता|

यही वजह थी कि रात के अँधियारे में प्रीति की बेचैनी उसको सोने नहीं देती थी| डॉक्टर ने उसको दिन और रात को खाने के लिए नींद की गोली थी दे रखी थी| पर दवाईयों का असर कभी आता था तो कभी नहीं आता था|

जब प्रीति को सांस लेने में बहुत दिक्कत होने लगी.. हम डॉक्टर के पास दिखाने लखनऊ गए| उन्होंने जब वापस से सभी टेस्ट करवाएं तो पता लगा कि प्रीति के लंग्स में भी कुछ पैचिस बन गए थे| जिसकी वजह से उसको चलने-फिरने और सांस लेने में तकलीफ होने लगी थी|

समीर मैं तुम्हें अपने दिल की एक बात बताऊँ.... प्रीति जब उठकर बैठती थी या चलती थी....जिस तरह से उसको सांस लेने में तकलीफ होती थी उसी तरह की तकलीफ मुझे भी अपने अंदर ही अंदर महसूस होती थी| मैं उस समय अपने आप को बहुत लाचार महसूस करता था|

क्रमश..