Haar gaya Fouji beta - 3 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | हार गया फौजी बेटा - 3

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हार गया फौजी बेटा - 3

हार गया फौजी बेटा

- प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 3

सुबह साढ़े पांच बजे ही जाग गया। नर्स पूरे वार्ड के मरीजों का शुगर, बी.पी. चेक करने आ गयी थी। मेरे असाधारण रूप से बढ़े बी.पी. और शुगर को देखकर नर्स ने ताना मारा ‘अरे बाबा किसी बेटी की शादी करनी है क्या?जो रात भर में बी.पी., शुगर इतना ज़्यादा बढ़ा लिया।’ मैंने उसकी बात को अनसुना कर दिया। मेरा मन बस यह जानने को बेचैन था कि क्या हुआ फौजी बेटे का? मैंने समय का ध्यान न देते हुए नर्स के जाते ही उसके बहनोई को फ़ोन मिला दिया। बेहद उनींदी आवाज़ में वह बोला ‘ऑपरेशन चौदह घंटे चला था। हालत गंभीर है इसलिए वह वेंटीलेटर पर रखा गया है।’ मेरी घबराहट और बढ़ गयी। मैंने अपने अंदर हताशा सी महसूस की। बढ़ती तकलीफ नर्स को बताने के बजाय मैं आंख बंद कर लेट गया। दवा वगैरह दिन भर चढ़ने के बाद मेरी हालत कुछ कंट्रोल में आ गई। अगले कई दिन मैंने अपनी मोहग्रस्तता का कारण ढूढ़ने और उसके सेहतमंद हो जाने के लिए प्रार्थना करने में बिता दिए। दो दिन वेंटीलेटर, फिर आठ दिन आई.सी.यू. में रहकर फौजी बेटे ने ज़िंदगी की जंग जीत ली और वार्ड में आ गया।

मुझे ऐसी खुशी मिली मानो खोया खजाना मिल गया हो। मगर इस बीच में मेरा शुगर और बी.पी. असाधारण रूप से फ्लक्चुएट करते रहे और साथ ही ऑपरेशन को लेकर भी कोई पुरसाहाल नहीं था। घर से अब फ़ोन आने भी करीब-करीब बंद ही थे। इन सब से आहत हो मैं भीतर ही भीतर टूटता जा रहा था। दूसरी तरफ फौजी बेटे के प्रति मेरा मोह दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा था तो तीसरी तरफ परिवार और अपने जीवन से मोह करीब-करीब भंग हो चुका था। जीने का कोई कारण नहीं दिख रहा था। रुक्मिणी का चेहरा अब पहले से ज़्यादा सामने आकर रूलाने लगा था, और फौजी बेटे का मोह हॉस्पिटल से जाने देने के लिए तैयार नहीं होने दे रहा था। रह-रहकर उसकी बातें दिमाग में कौंध जातीं। बहनों की शादी, अपनी शादी, ढेरों बच्चे, मां-बाप को तीर्थ पर ले जाना और ऐसी ही तमाम बातें।

उसके घर की हालत और अब उसके शरीर की हालत देखकर मैं सहम गया था। फौजी बेटा अब शरीर से फौज की नौकरी के लायक नहीं रह गया था। बल्कि अगले कई साल तक किसी भी नौकरी के लायक नहीं रह गया था। ऐसे में उसकी इच्छाएं तो पूरी होने की बात बहुत दूर की कौड़ी है। खाना खर्च और बहनों की शादी ही किसी तरह हो जाए यही बहुत बड़ी बात होगी। इन सबसे बड़ी बात तो यह कि अब उसके घर का लंबा-चौड़ा खर्च कैसे चलेगा। इस उधेड़बुन में अचानक ही दिमाग में यह बात घुस आई कि मैं इसके लिए क्या कर सकता हूं ? यह तो हम देशवासियों के लिए अपनी जान दांव पर लगा आया। इसका उत्तर ढूंढनें के लिए मैंने पूरा जोर लगा दिया। अगली सुबह होते-होते मुझे उत्तर कुछ-कुछ सुझाई भी देने लगा। सोचा अब मेरी ज़िन्दगी बची ही कितनी है। बैंक में कुल जमा-पूंजी सात लाख से ऊपर ही होगी। जो रुक्मिणी और कई मित्रों की सलाह के चलते पिछले आठ-नौ साल में जमा कर ली है। इसमें बड़ा योगदान दिया छठे वेतन आयोग और फिर एरियर और बोनस आदि ने। मियां-बीवी के खर्चे बड़े सीमित रहे जिससे पेंशन भी काफी बचती रही। एक मामले में तो सौभाग्यशाली हूं कि लड़के सब अच्छी स्थिति में हैं। भले ही हमें न पूछें कभी लेकिन सेल्फ डिपेंड होने के बाद कभी कुछ मांगा भी नहीं। हां बहुएं जरूर फिराक में रहती हैं। रुक्मिणी के गहनों को लेकर आज भी सब दबी जुबान कहती ही रहती हैं। रुक्मिणी ने अपने जीते जी किसी को अपने गहने नहीं दिए थे। उसे जान से प्यारे थे गहने, यही कारण था कि उसके पास ढेरों गहने इकट्ठा थे। जो अब बैंक लॉकर की शोभा बने हुए हैं। क्यों न यह सब गहने और रुपये फौजी बेटे को दे दूं। इससे उसकी बहनों की शादी में बड़ी मदद मिल जाएगी। बेटों के लिए तीन खंड का इतना बड़ा मकान बनवा ही दिया है। ये अलग बात है कि इस चक्कर में अपने हिस्से के सारे खेत बेच दिए। जिससे घर के लोगों ने संबंध खत्म कर दिए। नहीं तो आज की स्थिति में अपनी जड़ अपनी मातृ-भूमि में कितनी शीतल छाया मिलती। जरूरत ही न थी किसी की। लेकिन मैं तो कटी पतंग हूं। मेरे बाकी जीवन के लिए पेंशन बहुत है। ऐसा करके चल चलता हूं किसी मंदिर किसी बाबा के आश्रम में। वहीं ईश्वर आराधना करूंगा। पेंशन दे दूंगा आश्रम को तो कोई भी आश्रम लेने से मना नहीं करेगा।

अंततः मैंने बड़ी उधेड़बुन के बाद यह फैसला कर लिया कि अगले एक सप्ताह में यह सब करके निकल लूं अपनी नई यात्रा पर। जहां जी का जंजाल सताएगा नहीं। इस फैसले के बाद मैंने बड़ी राहत महसूस की। लगा कि सिर से कोई बोझ उतर गया। बेचैनी जैसी चीज जाने कहां चली गयी। हॉस्पिटल में उस रात मैं सबसे अच्छी नींद सोया था।

अगली सुबह मेरे जीवन की दूसरी सबसे काली सुबह थी। पहली वह जिस दिन रुक्मिणी छोड़कर चली गयी थी और दूसरी वह जब उस दिन सुबह फौजी बेटा छोड़कर चला गया। उसके परिवार का करुण क्रंदन हर किसी को भीतर तक हिला दे रहा था। मैं हक्का-बक्का हतप्रभ था। जैसे रुक्मिणी के जाने के वक्त था। पल में जैसे मेरी दुनिया ही छिन गई थी। कुछ घंटों में काग़जी कार्यवाही के बाद रोता बिलखता फौजी बेटे का परिवार उसके पार्थिव शरीर को लेकर चला गया। आर्मी के कुछ लोग थे। अपने तरीके से मैंने भी अपने फौजी बेटे को सलामी दी थी। जो चंद दिनों में ही मेरे जीवन में आया भी और चला भी गया किसी छलावे की तरह। बहुत कोशिश की थी, कि फौजी को सलामी देते वक्त आंखों में आंसू न आए लेकिन आंसू थे कि वह बह ही चले मानो पीछे-पीछे उन्हें भी वहां तक जाना ही है।

दोपहर होते-होते खून खौला देने वाली एक बात सामने आई कि रात को ढाई बजे उसकी तबियत बिगड़ी थी। पड़ोसी मरीज ने उसकी तेज़ी से बिगड़ती हालत देखकर स्टाफ रूम में जाकर नर्स को बताया था। क्योंकि परिवार का कोई व्यक्ति वॉर्ड में रह नहीं सकता था। इसलिए पड़ोसी मरीज जो उस वक़्त जाग रहा था, वह नर्स को बताने गया था। मगर नर्स ने उसे झिड़क कर भगा दिया। घंटा बीतते-बीतते उसका सांस लेना मुश्किल हुआ तो वह पेशेंट अंधेरे में डूबे स्टाफ रूम में सोई पड़ी नर्सों के पास फिर गया तो उसे बुरी तरह डांट कर फिर भगा दिया। इससे वह पेशेंट विवश हो चुप हो गया। फिर करीब आधे घंटे बाद नर्स ने आकर

उसे ऑक्सीजन दी थी। मगर माहौल में बात यह थी कि फौजी बेटा इससे पहले ही यह दुनिया छोड़ चुका था।

स्टाफ की अटूट एकता कायम थी सारी बातें दबा दी गईं। मैं क्रोध के कारण अंदर ही अंदर जल रहा था। दिलो-दिमाग में तूफान सा चल रहा था कि काश मेरे पास दोषी को सख्त सजा देने की ताकत होती, अधिकार होता। एक व्यक्ति की ड्यूटी के प्रति लापरवाही ने मेरे फौजी बेटे की जान ले ली थी। उन देवता स्वरूप महान डॉक्टरों की मेहनत पर पानी फेर दिया था जिन्होंने चौदह घंटे लगातार ऑपरेशन करके, गले-सिर में टाइटेनियम जैसी निर्जीव धातु की प्लेटें लगाकर मेरे फौजी बेटे को फिर जीवन दे दिया था। एक की लापरवाही ने न सिर्फ एक व्यक्ति को असमय मार दिया बल्कि इतने बड़े संस्थान को बदनाम भी किया। मगर मैं यह सब सिर्फ सोच ही सकता था, मेरे वश में कुछ नहीं था। कुछ करने की कोई क्षमता नहीं थी।

इसके बाद हर तरह से पस्त मैंने भी चार बजते-बजते हॉस्पिटल से विदाई ली। स्टॉफ की मुझे रोकने की कोशिशें मेरी जिद के आगे बौनी साबित हुईं। उन्होंने कहा अपने बेटों को बुलाइए। मैंने कहा मैंने परिवार से सारे संबंध खत्म कर लिए हैं। आप लोग देखते नहीं मेरे पास कोई नहीं आता। एक आदमी हमेशा यहां रहे हॉस्पिटल के इस नियम के बावजूद यहां कोई आज तक नहीं रुका।

मैं हारा जुआरी सा घर पहुंचा। अपने कमरे में बेड पर पसर गया आंखें बंद कर लीं। या यह कहें कि थकान, भूख के कारण खुद ही बंद हो गई थीं। कुछ देर बाद बड़ी बहू आई ‘अरे! आप का ऑपरेशन हो गया? ऐसे कैसे आ गए आप?’ जिस पोते ने दरवाजा खोला था वह भी खड़ा था। उसने भी सुर मिलाया ‘हां आपको बताना चाहिए था।’ ऑपरेशन नहीं कराऊंगा यह जानकर सब विफर रहे थे। बाकी बहुएं और पोते-पोती भी आ गईं थीं। सभी अपने-अपने हिस्से का गुस्सा उतारकर चल दिए। किसी ने एक गिलास पानी तक नहीं पूछा।

*****