Shree maddgvatgeeta mahatmay sahit - 20 in Hindi Spiritual Stories by Durgesh Tiwari books and stories PDF | श्री मद्भगवतगीता माहात्म्य सहित - 20 - (गर्भ गीता, स्त्रोतम् और नागलीला)

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श्री मद्भगवतगीता माहात्म्य सहित - 20 - (गर्भ गीता, स्त्रोतम् और नागलीला)

जय श्रीकृष्ण बंधुवर!
भगवान श्रीकृष्ण और श्रीगीताजी के अशीम अनुकम्पा से (गर्भगीता) श्रीकृष्ण अर्जुन सम्वाद लेकर उपस्थित हूँ तथा साथ ही स्त्रोतम् और नागलीला को भी लेकर उपस्थित हूँ ।आपसभी इसके अमृतमयी शब्दो को पढ़कर , समझकर ,अपने जीवन को कृतार्थ करे तथा साथ ही साथ जीवन के रहस्य को समझे। श्रीगीताजी की अशीम कृपा आप सब पर बनी रहे।
जय श्रीकृष्ण!

श्रीमद्भगवतगीता (गर्भ गीता), स्त्रोतम्, नागलीला
~~~~~~~~~~~~~ॐ~~~~~~~~~~~~~
🙏श्री कृष्णाअर्जुन सम्वाद🙏
श्री गणेशाय नमः। भगवान् श्री कृष्ण का वचन है कि जो प्राणी इस गर्भ गीता का विचार करता है जो पुरुष पुरुष फिर गर्भवास में नहीं आता है।
अर्जुन उवाच- हे कृष्णजी! यह प्राणी जो गर्भ विषे आता है सो किस दोष करके आता है? हे प्रभुजी! जन यह जन्मता तब इसको जरा आदिक रोग लगते है। फिर मृत्यु होती है। हे स्वामी! वह कौन कर्म जिसके करने से प्राणी जन्म-मरण से रहित होवे?
श्री भगवांन् उवाच- हे अर्जुन! यह जो मनुष्य है जो अंधा व मूर्ख है जो संसार के साथ प्रीति करता है। यह पदार्थ मैंने पाया है और पाऊंगा, ऐसी चिंतक इस प्राणी के मन से उतरती नहीं, आठ पहर माया को ही मांगता है। इन बातों को करके बारम्बार जन्मता व मरता है और गर्भ विषे दुःख पाता है।
अर्जुन उवाच- हे श्री कृष्ण भगवांन्! मन मस्त हाथी की न्याई है, तृष्णा इसकी शक्ति है ये मन पाँच के वश में है। काम , क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, और इन पांचों से अहंकार बहुत बलि है। सो कौन यत्न है जिससे मन वश में होय?
श्री भगवान् उवाच- हे अर्जुन! यह मन निश्चय हाथी के न्याई है। तृष्णा इसकी शक्ति है। मन पाँच के वश में है अहंकार इनमें श्रेष्ठ है। हे अर्जुन! जैसे हाथी अंकुश से वश में होता है वैसे ही मन रूपी हाथी को वश में करने के लिए ज्ञान रूपी अंकुश हैं अहंकार करने से जीवन नरक में पड़ता है।
अर्जुन उवाच- हे श्रीकृष्ण भगवान्! एक तुम्हारे नाम के लिए वन खण्डों में फिरते हैं। एक वैरागी हुए, एक धर्म करतें हैं। इस विषय कैसे जानिये कि जो वैष्णव हैं वे कौन हैं?
श्रीकृष्ण उवाच- हे अर्जुन! एक मेरे नाम के लिए वनों नें फिरते हैं। एक संन्यासी कहलाते हैं। एक सिर पर जटा बाँधते हैं एक भस्म लगातें है। इसमें मैं नहीं हूँ क्योंकि इन विषे अहंकार है इससे मेरा दर्शन दुर्लभ है।
अर्जुन उवाच- हे श्री कृष्ण भगवान्! वह कौन पाप है जिससे स्त्री मर जाती है? वह कौन पाप है जिससे पुत्र मर जाते हैं? और नपुंसक कौन पाप से होता है?
श्री भगवान् उवाच- हे अर्जुन! जो किसी से कर्ज लेता है और देता नहीं इस पाप से स्त्री मरती है और जो किसी की अमानत रक्खी हुई पचाय लेते हैं। जो किसी का कार्य किसी के गोचर आये पड़े और जबानी कहे कि मैं तेरा कार्य सबसे पहले कर दूंगा जब समय आन पड़े तब उसका कार्य नहीं करे, इस पाप से नपुंसक होता है ये बड़े पाप हैं।
अर्जुन उवाच- हे श्री कृष्ण भगवान! कौन पाप से मनुष्य सदा रोगी रहता है? किस पाप से गधे का जन्म पाता है? स्त्री का जन्म तथा टट्टू का किस पाप से होता है?
श्री भगवान् उवाच- हे अर्जुन! जो मनुष्य कन्या दान करते हैं और इस दान में मूल्य लेते हैं। वे दोषी है, वे मनुष्य सिदा रोगी रहते हैं। जो विषय विकार के वास्ते मदिरा पान करते है सो टट्टू का जन्म पातें हैं। जो झूठी गवाही करते हैं वे स्त्रीं का जन्म ओआते हैं जो जो रसोई बनाकर पहले आप खा लेते हैं और पीछे परमेश्वर अर्थ दान करते हैं वे बिल्ली का जन्म पाते हैं और स्त्री का जन्म पाते हैं जो मनुष्य अपनी जूठी वस्तु दान करते हैं वे स्त्री का जन्म पाते हैं।
अर्जुन उवाच- हे श्री कृष्ण भगवान्! कई मनुषयों को तुमने स्वर्ण दिया है सो उन्होनें कौन सा पूण्य किया है और कई मनुष्यों को आपने हाथी, घोड़े , रथ दीये हैं उन्होंने कौन सा पूण्य किया है?
श्री भगवान् उवाच- हे अर्जुन! जिन्होंने स्वर्ण दान किया है उनको हाथी, घोड़े वाहं मिलते हैं जो परमेश्वर निमित्त कन्या दान करते हैं सो पुरुष का जन्म पाते हैं।
अर्जुन उवाच- हे भगवान्! जिन पुरुषों को सुंदर विचित्र देह है उन्होंने कौन-२ पूण्य किया हैं? किसी के घर सम्पत्ति है कोई विद्वान है उन्होंने कौन सा पूण्य किया है?
श्री भगवान् उवाच- हे अर्जुन! जिन्होंने ने अन्न दान किया है उसका स्वरूप सूंदर है, जिन्होंने विघादान किया है वे विद्वान होते हैं। जिन्होंने संतो की सेवा करी है वव पुत्रवान होते हैं।
अर्जुन उवाच- हे भगवान्! किसी को धन प्रीति है कोई स्त्रियों से प्रीति करते है इसका क्या कारण है?
श्री भगवन् उवाच- हे अर्जुन! किसी का धन, स्त्री सब नाश रूप हैं, मेरी भक्ति का नाश नहीं है।
अर्जुन उवाच- हे भगवान्! राजपाट किस धर्म से मिलतें है? विघा कौन से धर्म से मिलती है?
श्री कृष्ण उवाच- हे अर्जुन! जो प्राणी श्री काशी में निष्काम भक्ति से तप करते हैं, वे देह त्यागते हैं, सो वह राजा होते हैं। जो गुरु की सेवा करता है सो विद्वान होता है।
अर्जुन उवाच- हे भगवान्! किसी को द्घन अचानक बिना परिश्रम मिलता है। कोई धन सारी उम्र एकत्र नहीं कर पाते, कोई रोग रहित होते हैं, सो उन्होंने कौन सा पूण्य किये हैं?
श्री कृष्ण उवाच- हे अर्जुन! जिन्होंने ने गुप्त दान किये है उनको धन अनायास ही मिलते है। जिन्होंने परमेश्वर का कार्य और पराया कार्य सँवारा है वे रोग से रहित होते हैं।
अर्जुन उवाच- हे भगवान्! कौन पाप से अमली होते हैं कौन पाप से कुष्टी और गूंगे होते है?
श्री भगवान् उवाच- जो अपने गुरु की स्त्री से गमन करते हैं सो अमली होते हैं। जो गुरु से विघा पढ़कर मुकर जाते है सो गूंगे होते हैं जिन्होंने कुकर्म किया है वे कुष्टी होते हैं।
अर्जुन उवाच- हे श्री भगवान्! किसी के देह में रक्त का विकार होता है सो किस पाप से होता है? कोई दरिद्री होते हैं, किसी को खण्ड वायु होती है कोई अंधे होते है पंगुल होते है सो कौन पाप से होते हैं? कोई स्त्रियाँ बाल विधवा होती है सो कौन पाप से होती है?
श्री भगवान् उवाच- हे अर्जुन! जो सदा क्रोधवान् रहते हैं उनको रक्त विकार होता है जो कुचाली रहते है वे दरिद्री होते हैं, जो कुकर्मी ब्राम्हण को दान देते है उनको खण्ड वायु होती है। जो प्राणी स्त्री को नंगी देखता है गुरु की स्त्री से कुदृष्टि करता है जिसने गो ब्राम्हण को लात मारी है सो अन्धा व पंगुल होता है। जो स्त्री अपने पति को छोड़कर पराये पुरुषों से संग करती है सो बाल विधवा होती है।
अर्जुन उवाच- हे भगवान् हे श्रीकृष्ण! तुम पार ब्रम्हा हो। तुमको मेरा नमस्कार है आगे तुमको मैं संबंधी जानता था। अब मैं परमेश्वर रूप जानता हूँ। हे परब्रम्हा गुरु दीक्षा कैसी होती हक कृपा कर कहो।
श्री भगवान् उवाच- हे अर्जून! तू धन्य है, फिर तुम्हारी माता को भी धन्य है। जिनके तुम इसे पुत्र हुए, जिसने गुरुदीक्षा पूछी है। हे अर्जुन! सारे संसार के गुरु जगन्नाथ है विघा का गुरु काशी, चारों वर्णों का गुरु ब्राम्हण, ब्राम्हण का गुरु सन्यासी, सन्यासी उसको कहते हैं जिसने सबको त्याग करके मेरे विषय में लगाया है सो ब्राम्हण जगत गुरु है। हे अर्जुन! यह बात ध्यान देकर सुनने की है। गुरु हो कैसा? जिसने सब इन्द्रियाँ जीती हों जिसको सब संसार ईश्वर रूप नजर आता हो, सब जगह से उदास हो ऐसा गुरु करे। जो परमेश्वर के जानने वाला होवे। उस गुरु की पूजा सब तरह करे। हे अर्जुन! जो गुरु का भक्त है सो मेरा भक्त है जो ओरानी गुरु सन्मुख होकर मेरा भजन करते हैं, उनका भजन करना सफल हो जी प्राणी गुरु के विमुख हैं उनको सप्त ग्राम मारे का पाप है गुरु से विमुख प्राणी का दर्शन करना योग्य नहीं। गृहस्थ गुरु से विमुख हो सो चांडाल के समान है। जिस जगह मंदिर का भांड हो उसे विषय जो गंगा जल है सो अपवित्र होता है उसके हाथ का देवता भी नहीं लेते। उसके सर्व कर्म निष्फल हैं। कूकर, सूकर, गंदर्भ, काक इन सब योनियों से सर्प की बड़ी खोटी योनि है। इन सबसे भी वह।मनुष्य खोता है, जो गुरु नहीं करता। गुरु बिना गति नहीं होती। अवश्य नरक को जावेगा। गुरु दीक्षा बिना प्राणी के सब कर्म निष्फल होते है। हे अर्जून! जैसे चारो वर्णों को मेरी भक्ति करना योग्य है, तैसे गुरुधारी की गुरु की भक्ति करनी सेवा करनी योग्य है। जैसे सब नदियों में गंगा श्रेष्ठ है सब व्रतों में एकादशी का व्रत श्रेष्ठ है वैसे ही हे अर्जुन! सब से गुरु सेवा उत्तम है, गुरु दीक्षा बिना प्राणी पशु योनि पाता है। चौरासी में भरमता रहता है।
अर्जुन उवाच- हे श्री कृष्ण जी! गुरुदीक्षा क्या वस्तु है?
श्री भगवान् उवाच- हे अर्जुन! धन्य जन्म तेरा है जिसने यह प्रश्न किया है। तू धन्य है गुरुदीक्षा दोनों अक्षर हैं। हरि नाम इन अक्षरों को गुरु कहता है यह चारों वर्णों को जपना श्रेष्ठ है। हे अर्जुन! जो गुरु की सेवा करता है वो मेरी सेवा करता है मेरी उस पर प्रसन्नता है वह चौरासी से छूट जावेगा। जन्म मरण से रहित नरक नहीं भोगता। जो प्राणी गुरु की सेवा नहीं करता सो साढ़े तीन करोड़ वर्ष तक नरक भोगता है जो गुरु की सेवा करता है उसको की अश्वमेघ के पुण्य का फल होता है गुरु की सेवा मेरी सेवा है। हे अर्जुन! हमारे तुम्हारे संवाद को जो ओरानी पढ़ेंगे और सुनावेगे सो गर्भ के दुःख से बचेंगे उनकी चौरासी कट जायेगी।
इसी करके इस पाठ का नाम गर्भ गीता है। श्री कृष्ण महाराज के मुख से अर्जून ने श्रवण किया है। गुरु दीक्षा लेना उत्तम कर्म है उसका फल यह है कि नरक की चौरासी से जीव बचा रहता है, भगवान प्रसन्न रहते हैं।
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🙏अथ कमल नेत्र स्तोत्रम्🙏
श्री कमलनेत्र कटि पीताम्बर अधर मुरली गिरधरम्।
मुकुट कुंडल कर लकुटिया, सांवरे राधेवरम्।१।
कुल यमुना धेनु आगे, सकल गोप्यन के मन हरम्।
पीत वस्त्र बरुङ वाहन, चरण सुख नित सरगम्।२।
करत केल कलोल निश दिन, कुन्ज भवन उजागरम्।
अजर अमर अडोल निश्चल, पुरुषोत्तम अपरा परम्।३।
दीनानाथ दयाल गिरधर, कंश हिरणाकुश हरम्।
गल फूल माल विशाल लोचन, अधिक सुंदर केशवम्।४।
वंशीधर वशुदेव छैया, बलि छल्यो श्री वासनम्।
जब डूबत गज राख लीनो, लंक छेघो रावनम्।५।
सप्त डीप नवखण्ड चौदह, भवन कीनो एक पदम्।
द्रोपदी की लाज राखी, कहाँ लौ उपमा करम्।६।
दीनानाथ दयाल पूरण, करुणामय करुणा करम्।
कविदत्त दास विलास निशिदिन, नाम जपत नट नागारम्।७।
प्रथम गुरुजी के चरण बन्दों, यस्य ज्ञान प्रकाशितम्।
आदि विष्णु जुगादि ब्रम्हा, सेविते शिव शंकरम्।८।
श्रीकृष्ण केशव कृष्ण केशव, कृष्ण केशव यदुपतिम।
श्रीराम रघुवर राम रघुवर, राम रघुवर राघवम्।९।
श्रीराम कृष्ण गोविंद माधव, वासुदेव श्री रामनम्।
मच्छ-कच्छ वाराह नरसिंह,पाहि रघुपति पावनम्।१०।
मथुरा में केशव राय विराजै, गोकुल बाल मुकुंद जी।
श्री वृन्दावन में मदन मोहन, गोपीनाथ गोविन्द जी।११।
धन्य मथुरा धन्य गोकुल, जहां श्रीपति अवतरे।
धन्य यमुना नीर निर्मल, ग्वाल बाल सुखावरे।१२।
नवनीत नागर करत निरन्तर, शिव विरंचि मनमोहितम्।
कालिन्दी तट करत क्रीड़ा, बाल अद्भुत सुंदरम्।१३।
ग्वाल बाल सब सखा विराजे, संग राधे भामिनि।
बंशी वट तट निकट यमुना, मुरली की टेर सुहावनी।१४।
भज राघवेश रघुवंश उत्तम, परम् राजकुमार जी।
सीता के पति भक्तन के गति, जगत प्राण आधार जी।१५।
जनक राज पणक राखी, धनुष बाण चढावहिं।
सती सीता नाम जाके, श्री रामचन्द्र पर्णावहीँ।१६।
जन्म मथुरा खेल गोकुल, नन्द हरि नन्दनम्।
बाल लीला पतित पावन, देवकी वसुदेवकम्।१७।
श्रीकृष्ण कलिमल हरण जाके, जो भजै हरि चरण को।
भक्ति अपने देव माधव, भवसागर के वरण को।१८।
जगनन्नाथ जगदीश स्वामी, श्री बद्रीनाथ विश्वम्भरम्।
द्वारिका के नाथ श्रीपति, केशवं प्रणामाम्यहम्।१९।
श्रीकृष्ण अष्टपद पढ़त निशदिन, विष्णु लोक सगच्छतम्।
गुरु रामानन्द अवतार स्वामी, कविदत्तदास स्माप्तम्।२०।
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🙏हरिहर स्तोत्र🙏
प्रथम जो लीजै गणपति का नाम।
तो होवें सभी काम पूरण तमाम।
करे विनती दास कर हर का ध्यान।
जो कृपा करि आप गिरधर हरि०।
मेरी बार क्यों देर इतनी करी।
ब्रम्हा विष्णु शिवजी हैं एकोस्वरूप।
हुए एक से रुप तीनों अनूप।
चौबीसों अवतारों की महिमा करी। हरि०।
शक्ति स्वरूपी और परमेश्वरी।
रक्खा अपना नाम महा ईश्वरी।
योगीश्वर मुनीश्वर तपीश्वर ऋषि।
तेरी जोट में लीन परमेश्वरी। हरि०।
तेरा नाम है दुःख हरण दीनानाथ।
जो बरसन लगा इन्द्र गुस्से के साथ।
रखा तुमने ग्वालो को देकर के हाथ।
वहां नाम अपना धरा गिरधारी। हरि०।
असुर ने जो बांधा था प्रहलाद को।
न छोड़ा भक्त ने तेरी याद को।
न किनी तब वकफ खड़े दाद को।
धरा रु नरसिंह पीड़ा हरि। हरि०।
नही छोड़ता था राम का जिकर।
जो गुस्से में बांधा था उसको पिदर।
कहा के करूँ मैं जुदा तन से सर।
तो खम्भ फाड़ निकले न देरी करी। हरि०।
चले जल्द आये प्रहलाद की बेर।
हिरणाकुश को मारा ना किनी थी देर।
किया रूप वामन ब्राम्हण का फेर।
बली के जो द्वारे आ ठाड़े हरि। हरि०।
था जलग्राह ने गज को घेर जभी।
ना लीन था नाम उसने तेरा कभी।
जो मुश्किल बनी शरण आया तभी।
हरि रूप होकर के पीड़ा हरि। हरि०।
अजामिल को तारा न किनी थी देर।
चखे प्रेम से झूठे भीलनी के बेर।
करि बहुत क्रिया जो गणिका की बेर।
अजामिल कहा कर सके हमसरी। हरि०।
अजामिल को तारा ना किनी थी देर।
चखे प्रेम से जूठे भीलनी के बेर।
करि बहुत कृपा जो गणिका की बेर।
अजामिल कहाँ कर सके हमसरी। हरि०।
जभी भक्त पे आके विपदा पड़ी।
सुदामा की थी पल में पीड़ा हरि।
है जिसने तेरे नाम की धुन धरि।
ना राखे तू मुशिकल किसी की घड़ी। हरि०।
नरसी भक्ति की हुण्डी भरी।
सांबल शास ऊपर थी उस उस लिख धरी।
ढूढ़त फिरे थी लगी थरथरी।
सांवल शास बो उसकी हुडी भरी। हरि०।
वक्रीदन्त ने जब सताई मही।
न सूझी बहुत कुछ आतुर भई।
सिरफ ओट तेरी मही ने लई।
कीना रूप वाराह रक्षा करी। हरि०।
जो सैयाद ने पंछी को था दुःख दिया।
वह आतुर भया नाम तेरा लिया।
तभी साँप सैयाद को डस गया।
छुड़ाया था पंछी को जो हरहरि। हरि०।
वा रावण असुर जो सिया ले गया।
निकट मौत आई वह अन्धा भया।
असुर मार राज विभीषण किया।
सिया लेके आए अयोध्या पूरी। हरि०।
जो गौतम ने अहिल्या को बद्दुआदई।
उसी वक्त अहिल्या शिला हो गई।
पड़ी थी वह रास्ते मे मुद्दत हुई।
लगाके चरण मुक्ति उसी की करी। हरि०।
जो संकट बना इकनॉमी को आ।
कहा बादशाह मेरी गौ दे जीवा।
तो नामें ने विनती तुम्हारी करी।
वहां नाथ नामे की पीड़ा हरि। हरि०।
शंखासुर असुर एक पैदा हुआ।
ब्रम्हा के वह वेद सब ले गया।
ब्रम्हा आपकी शरण आकर पडा।
मत्स्य रु हो वेद लाये हरी। हरि०।
यमला और अर्जुन किया जो हाव।
हुए जण जो उनको हुआ था श्राप।
ऊखल हो नाथ पहुचे जो आप।
ऊखल नाथ ही उनकी आपदा हरी। हरि०।
द्रोपदी के कौरव जुल्म जोर साथ।
किया याद द्रोपदी तुझे दीनानाथ।
रखी लाज उसकी नगत ना कर। हरि०।
वो है याद तुमको जो रुकमन की बार।
खबर देने आया था जुन्नार दार।
चढ़े नाथ रथ पर हुए थे सवार।
रुकम बांध रुकमन को लाये हरि। हरि०।
असुर ऐ दर ये सयावन लगा।
दसोदिश शिवा को फिरावन लगा।
धरन हाथ सिर शिव के इच्छा करी।
शक्ति रूप हो शिव की रक्षा करी। हरि०।
दुर्वासा गया शिष्य ले पांडवों के पास।
भोजन करन की जो किनी थी आस।
तो राजे छलक वन की इच्छा करी।
वहां नाथ पांडवों की आपदा हरि। हरि०।
जो धन्ने भक्त मांग ठाकुर लिया।
त्रिलोचन मिसर हंस बट्टा दिया।
भगत का जो दृढ़ निश्चय देखा हरि।
भोजन किया धरती हुई हरी भरी। हरि०।
युधिष्ठिर पी कोप कौरव हुआ।
की हर दो तरफ जंग आकर मचा।
तभी खून का सिंधु बहने लगा।
टटीरी के बच्चों की रक्षा करी। हरि०।
तेरे अन्त को कोई पावे कहाँ।
माधो दास को जाड़ा लगा जहाँ।
छप्पर बांधा होकर के पहुंचे वहा।
छप्पर बांधकर उसकी रक्षा करी। हरि०।
गरुड़ की सवारी पर अब तक रहा।
बड़ज्जुब ही आत है हमको भया।
कड़ाह गरम कर तेल वह जब चढ़ा।
सुधन्बा को आकार बचाया हरी। हरि०।
बड़ा राक्षसों का जुल्म था जहां।
अधीश्वर मुनीश्वर खराबी नशां।
मारें दैत्य सब ऋषि शादमा।
बड़ी। कृपा करी पीड़ा भगतां। हरि०।
भृवन सुखन माता का गोश कर।
चले घर से बाहर तेरी आस पर।
लगे भजन करने तब एक पाँव पर।
किया दास उसको गले ला हरी। हरि०।
तमाम उम्र कंश दुश्मन रहा।
पलक में तूने उसको उद्धारण किया।
अग्रसेन को राज मथुरा दिया।
सम्दीपन का बेटा जियाया हरी। हरि०।
लिखी बाप की उसकी चिट्ठी गयी।
नही एक पल दिल करनी पड़ी।
लइखी विषथीजा उसको विष्यकारी।
लिखी कुछ थी ईश्वर ने कब्जा करी। हरि०।
जो कब्जा से सन्दल लकया मुरलीधर।
लगे देखने लोग इधर और उधर।
तअज्जुब रहे देख कब्जा ऊपर।
रखा पाओ पर पाओ सीधी करि।हरी०।
राजा पकड़ जहर कातिल दोया।
जो पीवे तब उसको न छोड़े जियाया।
मीरा ने तेरा नाम लेकर पिया।
उसी विष भेजा उसको अमृत करी। हरि०।
ये अड़सठ के ऊपर चौबीस हजार।
रखे बहुत राजा जरासन्ध तार।
वहां भक्त संग जो किनी पुकार।
उसी वक्त उसकी जो आपदा हरि। हरि०।
दीनानाथ जो नाम तेरा भया।
वही नाम सुन दास शरणी पया।
अपने नाम की लाज राखो हरी।
मेरे सब दुःख काट राखो हरी। हरि०।
तू हैगा ब्रदर बलीराम का।
में राखूं भरोसा तेरे नाम का।
नहीं कोई दूजा तेरे नाम का।
तू है जगत रचा करती हरी। हरि०।
मेरे विनती को सुनो लाल जी।
यह गफलत का नहीं वक्त गोपालजी।
करो मुझेको दुनिया में खुशहाल जी।
तेरे बिना नहीं मेरा हैं दुःख हरी। हरि०।
न ही जगत बीच तारन तरन।
तू ही है सकल सृष्टि कारण करण।
विभीषण जो आया था तेरी शरण।
बख्शीश लंका थी उसको करि। हरि०।
कृष्णदास की विनती हर सुनी।
सर्व सुख दिए तूम सब्र के धनी।
आनन्द भया बहुत करुणा करि।
भक्त अपने की पदवी ऊंची करी। हरि०।
करी हर कृपा दरस दिया दिखाई।
अपनी जान संकट से लिया बचाई।
मन की मुराद सभी मिल आई।
पूर्ण कृपा कर लिया है हरी। हरि०।
(प्रातः काल पढ़ने के वास्ते)
~~~~~~~~~~~~~~ॐ~~~~~~~~~~~~~
🙏 नागलीला🙏
श्री कूल यमुना धनु आगे। जल में बैठे प्रभु जी आन के।
नाग नागिनी दोनों बैठे। श्रीकृष्ण जी पहुचे आन के।
नागिन कहती सुना रे बालक। जागो यहां से भाग के।
तेरी सुरत देख मन में दया उपजी। नाग मारेगा जाग के।
किसका बालक पुत्र कहिए।कौन तुम्हारा ग्राम है।
जिसके घर तू जनमिया रे। बालक क्या तेरा नाम है

वासुदेव जी का पुत्र कहिए। गोकुल हमारा ग्राम है।
श्री माता देवकी जनिमया मैंनू। श्रीकृष्ण हमारा नाम है।
ले रे बालक हत्थामदेकगन। कन्ना दे कुंडल सवा लाख की बोरियां।
इतना द्रव्य ले जा रे बालक।
दिया नागां कोलों चोरियां। क्या करां तेरे हाथों के कगंन।
कन्नादे कुंडल सवा लाख की बोरियाँ।
श्री मात यशोदा दही बिलावे । पावां तेरे नाग कालेदियाँ डोरिया।
क्या रे बालक वेद वेद ब्राम्हण। क्या मारिआ तू तान चाहनाएँ।
नाग दल में आ पहुँचिया। अब कैसे घर जावनाएँ।
ना रे पदमनी वेद ब्राम्हण। नन्द जी का में बालका।
श्री मात यशोदा दही पिलावे। नेत्रा मांगे काले नाग का।
कर चूमे भुजा मरोड़ी। नागनी नाग जगाया।
उठो रे उठो बलवंत योद्धा। बालक नथने को आया।
उठियो रे उठियो मांडलिक राजा। इन्द्र वांगूं गरजाया।
बांके मुकुट पर झपट किनी। श्रीकृष्ण जी मुकुट बचाया।
भुजा का बल स्वामी खेच लिया। भुजा का बल प्रभु हरण किया।
हाथ जोड़ नागनियाँ कहती। हूँ बल पिया जी कहाँ गया।
बंसरी सेती कालीनाग नथिया। फन फन नृत्य कराया।
फूल फूल मथुरा की नगरी। देवकी मंगल गाया।
भगत हेत लरभो जन्म लेकर। लंका में रावण मारिया।
काली प्रहलाद नाग नथिया। मथुरा में कंश पछारियाँ।
सप्त दीप नौखण्ड चौदह। सभी तेरा है पसारिया।
सूरदास जी तेरा यश गावे। तेरे चरणां बलिहारियाँ।
~~~~~~~~~~~~ॐ~~~~~~~~~~~~~
💝~Durgesh Tiwari~