Anjane lakshy ki yatra pe - 25 in Hindi Adventure Stories by Mirza Hafiz Baig books and stories PDF | अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - भाग 25

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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - भाग 25

पिछले भाग में आपने पढ़ा कि व्यापारी की पत्नि को एक रहस्यमय रोग हो गया। क्या वह रोग है अथवा नहीं? क्या उसका कोई निदान है? और आगे क्या होता है? जैसे सवालों के जवाब प्रस्तुत हैं...

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे भाग-25

डाकू का पत्नि प्रेम

यह उत्तर सभी की समझ से परे था।

“हाँ भी और ना भी? वह किस प्रकार वैद्यराज?” मैंने पूछा।

“आश्चर्य न करो पुत्र, मैं सत्य कह रहा हूँ।” वैद्यराज ने कहा।

“आश्चर्य कैसे न करूं वैद्यराज? यह सत्य कैसे हो सकता है? सत्य या तो हाँ हो सकता है अथवा ना?” मैंने पूछा।

“आश्चर्य न करो पुत्र। मैं असत्य नहीं कह रहा हूँ। और फिर सत्य क्या है? सत्य कभी परम नहीं होता। सत्य कभी निर्पेक्ष नहीं होता। सत्य भी देशकाल से जुड़ा होता है। जैसे अभी बरसात नहीं हो रही है यह सत्य है; किंतु सिर्फ उस समय तक जब तक बरसात नहीं हो रही। और बरसात नहीं हो रही सत्य है यह उस स्थान पर असत्य होगा जहाँ बरसात हो रही है। और तुम्हे यह भी बता दूँ कि जिस तरह इसका निदान सम्भव है भी और नहीं भी; उसी प्रकार यह रोग है भी और नहीं भी। अब मेरी बात का मर्म तुम अवश्य समझ गये होगे।”

“ठीक है महाराज मैं समझ गया।” मैंने कहा। मैं वैद्यराज की बात समझ चुका था।

“तब ठीक है पुत्र अब मुझे आज्ञा दो। इस पुत्री के रोग का निदान अब तुम्हारी इच्छा पर ही निर्भर है।” कह कर वैद्यराज चल दिये और मैं उल्झन में फंस गया।

*

“यह तो बिल्कुल झूठ बात है। एक ही प्रश्न के उत्तर में हाँ और ना दोनो सत्य हो ही नहीं सकते। तुम हमें मूर्ख समझते हो...” एक डाकू बोला।

“नहीं तुम लोग मूर्ख नहीं महामूर्ख हो। इतने स्पष्ट तो संकेत थे। हाँ तुम कैसे समझोगे?”

“कैसे संकेत?”, दूसरा डाकू उपहास के स्वर में बोला, “वह धूर्त वैद्य जब रोग नहीं पहचान सका तो तुम्हें मूर्ख बना गया। जैसे तुम हमें मूर्ख बनाते हो।”

“वे विद्वान वैद्यराज जो बात सबके सामने कहना नहीं चाहते थे, मुझसे संकेतों में कह गये। उन्होने सत्य की अवधारणा के साथ कि सत्य देश और काल के सापेक्ष होने के साथ यह संकेत दे दिया था कि उनका यह कथन दो स्थान और समय के हिसाब से अपने अर्थ बदलता है। उन्होने जो कहा कि यह रोग है, भी और नहीं भी... उसे इस प्रकार समझो कि जिस स्थान से वह आई है, उस स्थान पर रहने वाले मनुष्य या कोई भी गर्म खून वाले प्राणी अपनी जीवनचर्या के कारण स्वाभाविक रूप से उस सूक्ष्म जीव अथवा रोगाणु के जीवन-चक्र का माध्यम बन जाते हैं। और वह रोगाणु अथवा सूक्ष्म जीव जिसके जीवन चक्र का मुख्य भाग सागर की अतल गहराइयों में ही पूर्ण होता है; बिना किसी बाधा के, वापस अपने स्वाभाविक पर्यावरण में लौट जाता है। अतः संक्रमित व्यक्ति अथवा जीव को कोई कष्ट नहीं देता। यहाँ तक कि उस पर्यावरण में रहने वाले व्यक्ति को कभी पता भी नहीं चल पाता कि वह संक्रमित है। अतः यह संक्रमण उस स्थान अथवा पर्यावरण के लिये रोग नहीं है। किंतु उससे भिन्न पर्यावरण में वह सूक्ष्म जीव अपना जीवन चक्र पूरा नहीं कर पा रहा है अतः वह संक्रमित व्यक्ति को उस वातावरण में जाने के लिये बाध्य कर रहा है; जिससे उस संक्रमित व्यक्ति को कष्ट होता है। तब, इस स्थान के लिये यह रोग हुआ।

दूसरी बात जो वैद्यराज ने कही कि इस रोग का निदान सम्भव है, नहीं भी और हाँ भी तो इसका तात्पर्य है कि वर्तमान पर्यावरण में इसका निदान सम्भव नहीं है, यानि उस सूक्ष्म जीव को समाप्त करने हेतु कोई ऐसा विष नहीं है जो रोगी को हानि न पहुंचाये। किंतु वापस उस पर्यावरण में जाया जाये तो उसका अपने आप निदान हो जायेगा। इसके साथ ही वे मुझे यह भी संकेत दे रहे थे कि सम्भव है मैं भी उस सूक्ष्म जीव से संक्रमित हो गया होऊँ।

और इसी कारण वे सबके सामने यह बात कहने से कतरा रहे थे।”

“ओह! तो यह बात है...” डाकू ने सिर खुजाते हुये कहा, “तुम तो बड़े बुद्धिमान निकले।”

‘हाँ, बुद्धिमान हूँ, तभी तो अभी तह जीवित हूँ...’ व्यापारी ने मन में कहा।

किंतु दुसरे डाकू ने अपने कथन से उसके अभिमान का स्वाद बिगाड दिया...

“बुद्धिमान है; तभी तो लोगों को ठगने में सफल होता है।”

“किंतु अपनी बुद्धिमानी हमें न दिखाना। हम बुद्धिमानों का सम्मान करना नहीं जानते।” दूसरे डाकु ने कहा।

“लेकिन हमारे हथियार यह काम करना खूब जानते हैं...” पहले डाकू ने कहा और वे दोनो हंसने लगे।

“ह ह ह...”

व्यापारी उनके इस कथन का तात्पर्य समझता है; किंतु वह अब इसका आदि हो गया है। वह थककर नीचे बैठ गया।

उसके नीचे रेत थी और सामने वही सागर जो अब तक उसकी कथा का एक पात्र था; उसकी कल्पना का एक टुकड़ा जो अब उसकी कल्पना से निकलकर साक्षात उसके सामने था।

वे उस पहाड़ से नीचे उतर चुके थे और सागर तट पर पहुंच चुके थे। यह स्थान एक गुप्त सागर तट तीन ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ था। चौथी ओर असीम सागर था जिसकी लहरें चिंघाड़ती हुई, तट की ओर दौड़ी चली आतीं और फिर तट की रेत और चट्टानों पर अपना फन पटककर वापस सागर में लौट जातीं। यहाँ हवा का वेग भी बहुत तीव्र था। हवा में नमी घुली हुई थी जो उनके थके हुये शरीर पर ताज़गी और स्फूर्ति का लेप कर रही थी।

यह दृश्य उन तीनों के लिये अद्भुत था और शेरू के लिये भी। शेरू उछल कूद कर अपनी प्रसन्नता को अभिव्यक्त कर रहा था और वे तीनों किंचित मौन...

कथावाचक, बातूनी व्यापारी के लिये तो यह उसकी कल्पना के यथार्थ में परिवर्तित होने जैसा ही अनुभव था। उसका मन जैसे पुकार रहा था,

कल्पना करो... कल्पनायें यथार्थ भी हो सकती हैं...

वे तीनो नीचे सागरतट की नम रेत पर बैठे सम्मोहित से प्रकृति के इस अप्रतिम रूप को निहार रहे थे। समय जैसे जड़ हो गया था और सिर्फ वायु गतिशील थी या सागर की लहरें। सबसे तीव्र होने का दम्भ भरने वाली कल्पनायें भी जड़ हो चुकी थीं। दृष्टि की सीमा पर सागर भी मौन था। मौन और स्थिर! धीरे धीरे उनकी उनकी दृष्टि की परिधि पर जहाँ सागर आकाश के विस्तार में विलीन हो रहा था, एक काला बिंदु नुमा धब्बा उभर आया था जो उनकी बांई ओर की चट्टान के पीछे से निकला और दांई ओर की चट्टान की ओर बढ़ने लगा।

“वह काला धब्बा क्या है...?”

“वह कोई जलयान होगा जो अपने गंतव्य की ओर गतिमान है। वह हमारी आंखों से इतना दूर है कि एक बिंदु सा दिख रहा है।” व्यापारी ने कहा।

मौन का साम्राज्य पुनः स्थापित हो गया और वह काला बिंदु रूपि धब्बा शनैः शनैः उनकी दांई ओर की चट्टान के पीछे विलुप्त हो गया।

“फिर क्या हुआ?” सागर की ओर से दृष्टि हटाये बिना वह बोला।

व्यापारी कथावाचक चौंक गया। उस डाकू की आवाज़ इस तरह आ रही थी मानो आकाशवाणी हो रही हो। वह ऐसा लग रहा था कोई धीर गम्भीर व्यक्ति हो। वह एक डाकू तो कदापि नहीं लग रहा था। यह किंचित इस परिवेश का प्रभाव था। सच है परिवेश इंसान के व्यक्तित्व का निर्माण करता है। वही आपके व्यक्तित्व को बनाता है, बिगाड़ता है और परिवर्तित भी करता है। अतः सही कहा गया है कि मनुष्य को सावधानी से अपना परिवेश चुनना चाहिये। यदि यह सम्भव न हो तो उसे बदलने अथवा सुधारने का प्रयास तो करना ही चाहिये। यह भी सम्भव न हो तो जितना उसे नियंत्रित कर सके उतना तो नियंत्रित करने का प्रयास तो करना ही चाहिये।

व्यापारी ने कथा पुनः प्रारम्भ की-

“सारी स्थिति स्पष्ट हो जाने के बाद मैं चिंतित था। इस स्थिति में मुझे क्या करना चाहिये? परिवार के बाकी सदस्यों के लिये मेरी पत्नि बोझ हो गई थी। सारी स्थिति वे समझ तो नहीं सके थे किंतु वे समझ चुके थे कि इसे यहाँ से जाना ही होगा और वे इस बात से प्रसन्न भी थे। उन्हे अपना पुत्र और भाई वापस मिल गया था और वे नहीं चाहते थे कि कोई भी बाहर से आई स्त्री उनके पुत्र अथवा भाई पर अधिकार रखे। वैसे भी हमारे समाज में हर परिवार में वह बहु अथवा भाभी अस्वीकार होती है जिसे उसका पति प्रेम करे। और यह स्थिति तो और अधिक गम्भीर हो जाती है जब उसका पति ही सारे घर की ज़िम्मेदारी उठाता हो। यह भी एक प्रकार का सत्ता का ही संघर्ष होता है। चाहे कितने छोटे स्तर पर ही क्यों न हो हमें सदैव इस संघर्ष का सामना करना पड़ता है। यह ठीक वैसे ही होता है जैसे उस जलपोत पर मेरे साथ हुआ था। अंतर केवल यही था कि यहाँ मेरी पत्नि बाहरी तत्व और घुसपैठिये की भूमिका में थी। अवांछित थी और उसकी सबसे बड़ी बुराई यही थी कि उसका पति उससे असीम प्रेम करता है।”

सुबक सुबक कर रोने की आवाज़ से व्यापारी की कथा वाचन की लय टूट गई। उसने देखा एक डाकू रो रहा है। व्यापारी चुप हो गया। थोड़ी देर बाद दूसरा डाकु उसे दिलासा देने लगा। व्यापारी को अचरज हुआ; एक माह बीतने को आ रहा है और इस माह भर के अंतराल में उसे कभी ऐसा भान नहीं हुआ कि इन डकैतों के सीने में भी दिल है।

“तुम्हे क्या हुआ है?” व्यापारी ने आश्चर्य से पूछा, “अभी तो कथा में हृदय विदारक पल आयेंगे। तब तुम क्या करोगे?”

“मुझे अपनी पत्नि की याद आ गई। मैं भी उसे बहुत प्रेम करता था, किंतु...”

“किंतु” के आगे वह बोल न सका। उसकी रुलाई फूट गई।

“किंतु क्या?” व्यापारी ने बेचैन होकर पूछा।

**

जारी...

इस किंतु का उत्तर पायें-

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे भाग-26

राक्षस और राजकुमार

में

(मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति)