Vanprasth Sankul is need of the hour in Hindi Moral Stories by Meenakshi Dikshit books and stories PDF | वानप्रस्थ संकुल समय की मांग हैं : इसे अन्यथा न लें

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वानप्रस्थ संकुल समय की मांग हैं : इसे अन्यथा न लें

लगभग एक दशक पूर्व हम केन्द्रीय सेवा के एक उच्चाधिकारी के घर किराये पर रहने गए। उस कोठीनुमा घर के पीछे वाले भाग में दो कमरों का निर्माण किराये पर देने के लिए ही किया गया था। उसके ठीक ऊपर वैसे ही दो कमरे और थे, हमारे प्रवेश द्वार के पास ही सीढ़ी थी, जो छत पर खुलती थी, और छत से ही ऊपर वाले कमरों में जाने का द्वार खुलता था।

घर व्यवस्थित करने के बाद पहले शनिवार को हम कपड़े सुखाने छत पर गए तो एक बुजुर्ग सज्जन मिले, आयु होगी लगभग पचहत्तर वर्ष, शरीर स्वस्थ और तेजस्वी, पता चला वो हमारे माकन मालिक के पिता जी हैं। वो ऊपर के उन्हीं दो कमरों में रहते थे। अपने कमरे की साफ़ सफाई, छत पे झाड़ू देना, सीढ़ी पे झाड़ू देना, अपने कपड़े स्वयं धोना ये उनकी दिनचर्या थी।

कभी उन्हें नीचे उतरते या घर के मुख्य भाग में जाते नहीं देखा, न ही घर के किसी सदस्य को उनके पास जाते।

घर का उनसे इतना ही सम्बन्ध था कि कोई सेवक उनके लिए समय से चाय, नाश्ता और भोजन पंहुचा देता। हम प्रत्येक शनिवार या रविवार कपड़े सुखाने छत पर जाते तो धीरे धीरे हमारे परिवार से उनकी अच्छी मित्रता हो गयी। उनके लिए समाचार पत्र, कल्याण और ऐसी अन्य पत्रिकाएं ले जाना, उनकी रूचि के विषय पर चर्चा करना या उनके किसी काम में सहायता कर देना हमारी सप्ताहांत दिनचर्या का अंग बन गया।

एक रविवार को हम ऊपर पंहुचे तो उनके हाथ में पिज़्ज़ा का डब्बा था वो उसे आश्चर्य से या संभवतः अपरिचित भाव से देख रहे थे। उन्होंने हमसे पूछा, ये क्या है, कैसे खाते हैं इसको? पिज़्ज़ा तब तक ठंडा हो चुका था। वैसे भी वो उनके लिए उपयुक्त नहीं था। अब तो भोजन रात को ही आएगा .....उन्होंने उदासी भरी मुस्कान से कहा। फिर हताशा से बुदबुदाए,’ बहुत हो गया, अब मुझे कहीं चले जाना चाहिए।”

एक भरे-पूरे, समृद्ध और सुखी परिवार में नितांत एकाकी और तिरस्कृत सा जीवन जीने की ये हताशा ह्रदय विदारक थी।

ऐसे बुजुर्ग हमें अपने आस-पास न जाने कितने परिवारों में मिल जायेंगे। वो शारीरिक रूप से किसी पर आश्रित नहीं है। अपना काम करने में समर्थ हैं। उनकी भौतिक आवश्यकताएं सीमित हैं। उनको आवश्यकता है तो समय बिताने और बात करने के लिए समान आयु वर्ग के साथियों की।

बड़े नगरों के उच्च वर्गीय और विकसित क्षेत्रों के बड़े-बड़े घरों में बुजुर्ग दम्पति या दोनों में से शेष रहा कोई एक, अकेले रह रहा है। बच्चे शिक्षा, व्यवसाय, नौकरी जैसे कारणों से दूसरे नगरों या देशों में रह रहे हैं। इनका जीवन अलग प्रकार के भय से ग्रस्त है।

कई परिवारों में आर्थिक कारणों से, नयी पीढ़ी के पास समय के आभाव से, पीढ़ियों में सामंजस्य के अंतर के कारण ऐसी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं कि बुजुर्गों का अपने पुत्र या पुत्री के परिवार के साथ रहना कठिन हो जाता है। दो पीढ़ियाँ एक दूसरे से जूझते हुए जबरन साथ रहती हैं। दोनों ही मानसिक अवसाद से ग्रस्त।

एक अन्य पक्ष; बदली हुयी सामाजिक परिस्थितियों, एकल और एक – द्वि संतान परिवारों में यदि बच्चे किसी भी कारण से बाहर जाते हैं तो स्वाभाविक है परिवार के बुजुर्गों को अकेले ही रहना होगा। न तो सारे बुजुर्ग बच्चों के साथ बाहर जाने को तैयार होंगे और न ही सारे बच्चे ऐसी स्थिति में होंगे कि उन्हें साथ ले जा सकें।

इस प्रकार प्रत्येक नगर में कार्यरत कुछ परिवारों के बुजुर्ग दूसरे नगरों में अकेले ही रह रहे होंगे।

क्या इस परिस्थिति से निबटने के लिए एक सामाजिक और साझी व्यवस्था नहीं बनायी जा सकती?

प्रतिदिन समाचार पत्रों, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया में बुजुर्गों से सम्बंधित व्यथित करने वाले समाचार आते हैं।

केंद्र की राजनीति में रहे प्रमुख राजपरिवार की एक महिला और एक बड़े उद्यमी को अपने आर्थिक अधिकारों के लिए न्यायालय की शरण लेनी पड़ रही है।

एक बुजुर्ग महिला ने अपने फ्लैट में न जाने कब प्राण त्याग दिए पता ही नहीं चला, शव सड़कर कंकाल हो गया।

वीडियो आते हैं लोग परिवार के बुजुर्गों से मार पीट कर रहे हैं, गृह सेवक की तरह काम करा रहे हैं, भोजन नहीं दे रहे हैं।

इन समाचारों और वीडियो क्लिप्स पर प्रतिक्रियाओं का ज्वार उठ जाता है। सम्बंधित व्यक्ति को पकड़ने, जेल में डालने, कड़ी सजा देने और उसको अपशब्द कहने वालों की संख्या गिनने में नहीं आती जबकि प्रतिक्रिया देने वालों में से भी बहुत से परिवारों में बुजुर्ग उपेक्षित जीवन ही जी रहे होंगे।

जिन परिवारों के बुजुर्ग वृद्धाश्रम में चले जाते हैं उनको अत्यंत हेय दृष्टि से देखा जाता है इसलिए कई बार केवल उस सामाजिक भर्त्सना से बचने के लिए लोग बुजुर्गों को मजबूरी मान घर में रख लेते हैं और हर समय कोसते रहते हैं।

यहाँ तक की पूरी बात बुजुर्गों के पक्ष की है। किन्तु ये समस्या इतनी सरल भी नहीं। पूरा दोष नयी पीढ़ी पर नहीं डाला जा सकता।

कई बार बुजुर्गों का आवश्यकता से अधिक मोह, नयी पीढ़ी के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप और हठधर्मिता भी परिवार में उनकी उपेक्षा का कारण बनती है।

जीवन की गुणवत्ता और चिकित्सीय विधानों में उन्नति के कारण जीवन प्रत्याशा बढ़ी है,

आने वाले समय में समाज में बुजुर्गों की संख्या बढ़ेगी और साथ ही उनसे सम्बंधित समस्याएं भीं।

क्यों न इसके लिए कुछ अभिनव “वयः श्री संकुल” या “वानप्रस्थ संकुल” की रचना की जाए ?

नहीं, ये आपके अभी तक देखे या कल्पना किये हुए वृद्धाश्रम नहीं होंगे जहाँ केवल निरीह और परिवार से परित्यक्त बुजुर्ग मृत्यु की प्रतीक्षा में समय काट रहे हों।

ये सामाजिक उत्तरदायित्व और आध्यात्मिक चेतना के जागृत शक्ति केंद्र होंगे।

इनकी प्रेरणा हमारी आश्रम व्यस्था के वानप्रस्थ आश्रम से ली जाएगी और इनकी संरचना हमारी आज की आवश्यकताओं के अनुरूप होगी।

वानप्रस्थ की परिकल्पना जीवन के उस कालखंड के लिए है जब व्यक्ति अपने गृहस्थ जीवन के सामान्य उत्तरदायित्व पूर्ण कर लेता है और भौतिक जीवन का नेतृत्व नयी पीढ़ी को सौंप, वृहद् समाज के कल्याण और अपनी अध्यात्मिक उन्नति की दिशा में आगे बढ़ता है। ये समय आयु के वर्षों में नहीं वरन व्यक्ति के अपने चिंतन के आधार पर तय होता है।

वानप्रस्थ आश्रम की परिकल्पना समाज में पीढ़ियों के संघर्ष को रोकने में भी सहायक हो सकती है।

भक्त प्रहलाद पुत्र का विवाह और माता का देहावसान होने पर पुत्र का राज्याभिषेक कर वानप्रस्थी हो गए थे,

धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती महाभारत युद्ध के पश्चात् वानप्रस्थी हुए।

दिग्विजयी चन्द्रगुप्त मौर्य ने मात्र बावन वर्ष की आयु में वानप्रस्थी होने का निर्णय ले लिया था।

आश्रम व्यवस्था से प्रेरित इन वानप्रस्थ संकुलों में आने का निर्णय लेने वाले बुजुर्ग, यहाँ आकर अपनी रूचि के अनुसार उत्पादक और समाजसेवा के कार्य कर सकेंगे, अपनी उन अभिरुचियों पर काम कर सकेंगे जो जीवन की आपा धापी में नेपथ्य में पड़ी रह गयीं, इसके साथ ही यहाँ आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने वाला मार्गदर्शन भी उपलब्ध होगा।

ये समाज से कटा निराश्रित समूह नहीं वरन समाज को समर्पित सशक्त साधना केंद्र होगा।

यहाँ आकर रहना लज्जा का नहीं सम्मान का द्योतक होगा।

वानप्रस्थ संकुलों के निर्माण से आने वाले समय में बढ़ने वाली बुजुर्ग जनसँख्या के नियोजन की एक पूर्व व्यवस्था हो सकेगी।

कुछ धार्मिक संस्थाओं और केन्द्रों ने ऐसे प्रयास किये हैं किन्तु वे उन संस्थाओं से जुड़े लोगों तक ही सीमित हैं। ऋषिकेश, वृन्दावन जैसे स्थानों पर भी ऐसे कुछ केंद्र हैं किन्तु उन तक अत्यंत सीमित जनसँख्या की ही पंहुच है।

समय की मांग है हम वृद्धाश्रम की नकारात्मकता से बाहर आएँ, वानप्रस्थ संकुल की संकल्पना करके उसे क्रियान्वित करें।