दोनों बहनें पहले रक्षाबंधन पर गांव आती थीं , दो-चार दिन आराम से बीतते उनके फिर कुंती की बड़बड़ाहट और फिर सीधे-सीधे तानों से त्रस्त हो के महीने भर की जगह, आठ दिन में ही वापस चली जातीं। फिर धीरे-धीरे उनका आना, कम होते होते बन्द ही हो गया। अब बस शादी ब्याह में ही आती थीं सिया-मैथिली, वो भी दो दिन के लिए। अपनी गाड़ी से आईं, और उसी से वापस। आज पता नहीं क्यों, कुंती को सिया की बहुत याद आ रही थी। सिया और कुंती की उम्र में केवल दस साल का ही तो फ़र्क़ है। सिया ने पता नहीं कितनी मार खाई है कुंती से....मात्र दो साल रही वो कुंती के साथ लेकिन पिटाई दस साल बराबर हो गयी लेकिन तब भी सिया ने उफ तक न की। बल्कि जब कुंती के पांव में मोच आई थी तो सबसे पहले दौड़ के सिया ही गरम पानी और हल्दी लाई थी। घण्टों मालिश करती थी उसके पैर की। तो जल्दी ही मोच खाया पैर ठीक भी हो गया था।
कुंती का परेशान मन कहीं ठौर न पाता था। अस्थिर मन तो हमेशा से था उसका। अकेलेपन से घबराई कुंती जब टीवी पर कैलाश मानसरोवर के यात्रियों को देखती तो सोचती चली जाए इसी यात्रा पर। फिर चारों धाम की यात्रा के बारे में पढ़ती तो वहीं जाने की योजना बनाने लगती। लेकिन फिर खुद ही कहती-"महीना, दो महीना कट जाएंगे कुंती, फिर वापस लौटना ही होगा न इसी अकेलेपन में।" और कुंती कहीं भी जाने का इरादा त्याग देती। फिर जल्दी ही किसी आश्रम की शरण मे जाने की बात सोचती, तो टीवी पर आसाराम बापू या राम रहीमी जैसे बाबे दिख जाते और उसका इरादा फिर धराशायी हो जाता।
नीम तले खेलते बच्चों को उस दिन कुंती ने सुमित्रा के नाम पर घर बुलाया। सुमित्रा उस शनिवार को आई थी कुंती का हालचाल लेने। दो दिन के लिए तिवारी जी, सुमित्रा जी सपरिवार आ गए थे। चन्ना बोर हो रहा था, तो कुंती जा के बच्चों को बहला-फुसला के ले आई। दस-बारह बच्चों का दल पा के चन्ना तो प्रसन्न हो गया। सब वही आठ से दस साल के बीच के बच्चे। अचानक ही सुमित्रा जी ने बच्चों से उनकी पढ़ाई के बारे में पूछा तो सबने एक सुर में कहा- "हम तौ बस खाबे जात। मध्यान भोजन करो और गदबद लगाई। फिर को रुकत स्कूल में? मास्टरन की सड़इया खानै का? को बैठत पांच घण्टा?"
बच्चों की बातें सुन के सुमित्रा जी का मन उदास हो गया। अगर ये हाल रहा गांव की शिक्षा का, तो अनपढ़ों की ही जमात बढ़ती जानी है फिर तो....! अचानक उनके मन मे एक विचार कौंधा, और उनकी आंखों में चमक आ गयी।
"सुनो कुंती, तुम कह रहीं थीं कि कोई तुमसे बात नहीं करता, तुम्हारे पास नहीं आता....!"
"हओ सुमित्रा। इन बच्चों को तो हम चन्ना के नाम पे ल्याय हैं। नईं तो जे आते?" कुंती ने शिकायती लहजे में कहा।
"ये बच्चे तो स्कूल ही नहीं जाते। लगता है दिन भर खेलते हैं। कुंती, तुम्हारे पास जगह और समय की कमी नहीं। दिन में या शाम को दो घण्टे इन बच्चों को पढ़ाती क्यों नहीं? फिर ये स्कूल जाएं, न जाएं कम से कम पड़ लिख तो जाएंगे। परीक्षा देंगे तो अपनी ही मेहनत से पास भी हो पाएंगे। "
कुंती को ये सुझाव एक बार मे ही भा गया। ऐसा करने से दो फ़ायदे होंगे। एक तो उसका अकेलापन दूर होगा, दूसरे बच्चे भी पढ़ लिख जाएंगे। इस बहाने गांव वाले भी पास आने लगेंगे।
अगले ही दिन कुंती और सुमित्रा पूरे गांव में घूमीं। गांव में सुमित्रा जी की तो पहले ही बहुत वाहवाही थी। मोहल्ले के ही दस-बारह बच्चे जो नीम तले खेलते रहते थे, अब सुबह दस से बारह बजे तक पढ़ने भेजने की बात हो गयी। इस बार लौटते हुए सुमित्रा जी का मन उद्विग्न नहीं था।
अगले ही दिन से कुंती की कक्षाएं शुरू हो गईं। कुंती का डर तो पहले ही बच्चों के मन में बैठा था, बच्चे शैतानी किये बिना पढ़ते रहते थे पूरे दो घण्टे। कुंती ठहरी रिटायर्ड शिक्षिका। पढ़ाने के पूरे तौर तरीके से आते थे। नतीजतन, बच्चे जल्दी ही पढाई में दिलचस्पी लेने ।
तीन महीने बीत गए थे। इस बीच किशोर व्यस्तता की वजह से गांव नहीं जा पाया। छोटू तो पहले ही कई कई महीनों में आता था। इस रविवार किशोर गांव आया तो उसे घर के बाहर बड़ा सा बोर्ड लगा दिखा जिस पर लिखा था-"सुमित्रा शिक्षा निकेतन"
ये शायद कुंती का प्रायश्चित था- सुमित्रा के प्रति।
समाप्त