Mera Swarnim Bengal - 2 in Hindi Moral Stories by Mallika Mukherjee books and stories PDF | मेरा स्वर्णिम बंगाल - 2

Featured Books
  • इंटरनेट वाला लव - 88

    आह में कहा हु. और टाई क्या हो रहा है. हितेश सर आप क्या बोल र...

  • सपनों की राख

    सपनों की राख एक ऐसी मार्मिक कहानी है, जो अंजलि की टूटे सपनों...

  • बदलाव

    ज़िन्दगी एक अनन्य हस्ती है, कभी लोगों के लिए खुशियों का सृजन...

  • तेरी मेरी यारी - 8

             (8)अगले दिन कबीर इंस्पेक्टर आकाश से मिलने पुलिस स्ट...

  • Mayor साब का प्लान

    "इस शहर मे कुत्तों को कौन सी सहूलियत चाहिए कौन सी नही, इस पर...

Categories
Share

मेरा स्वर्णिम बंगाल - 2

मेरा स्वर्णिम बंगाल

संस्मरण

(अतीत और इतिहास की अंतर्यात्रा)

मल्लिका मुखर्जी

(2)

हृदयोक्ति

आमार सोनार बांग्ला, आमि तोमाय भालोबासि।

चिरोदिन तोमार आकाश, तोमार बातास,

आमार प्राणे बाजाय बाँशि।

मेरे स्वर्णिम बंगाल, मैं तुमसे प्यार करता हूँ।

तुम्हारा आकाश, तुम्हारा वातास,

सदैव मेरे प्राणों में बाँसुरी बजाए।

कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर का यह गीत मेरी रगों में बहता है। अखंड भारत का बंगाल, भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बना पूर्व बंगाल फिर नया नामकरण ‘पूर्व पाकिस्तान’, पाकिस्तान से अलग होकर हुआ आज का बांग्लादेश, मेरे माता-पिता की जन्मभूमि! बचपन से ही माँ और पापा के अतीत में न जाने कितनी बार झाँकने का अवसर मिला। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के आधार पर ब्रिटन शासित भारत का दो भागों में विभाजन किया गया। इस विभाजन में, ब्रिटिश भारत के बंगाल प्रान्त और पंजाब प्रान्त के दो टुकड़े कर पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में बाँट दिए गए। माँ और पापा की जन्मभूमि पूर्व बंगाल पाकिस्तान के हिस्से में गया। देश विभाजन के फलस्वरूप किशोरावस्था में ही माँ को अपनी जन्मभूमि मैमनसिंह ज़िले के रायजान गाँव से विस्थापित होना पड़ा और परिवार के साथ हिन्दुस्तान में, पश्चिम बंगाल में आकर उन्हें कोन्नगर में कुछ महीनें एक रिश्तेदार के घर रहना पड़ा, फिर नाना जी ने हुगली ज़िले के चंदननगर टाउन में एक किराए का घर लेकर परिवार के लिए रहने की व्यवस्था की। नाना जी वहीं रुक गए। पापा सिर्फ अपने आठ वर्ष के भतीजे को साथ लिए वर्ष 1950 में कोमिल्ला ज़िले स्थित अपना गाँव मोईनपुर छोड़कर पश्चिम बंगाल आए। ताऊजी वहीं रह गए।

माँ तो विवाह के बाद अपने नए संसार में व्यस्त हो गई। वैसे भी भारतीय परम्परा में स्त्री का धर्म है, पीहर की दहलीज पार करते ही पिछली स्मृतियों को भूला देना, फिर भी वे अपने वतन की यादों में मुझे कभी-कभी शरीक करती, पर पापा? उनका अतीत उनकी धड़कनों में बसा था। अपने मित्रों, रिश्तेदारों से बिछड़ने का ग़म, अपने गाँव, पगडंडियाँ, तालाब, नदियों से दूर होने की पीड़ा, अपने खेत, खलिहान, वृक्ष, फूल-पौधों को हमेशा के लिए अलविदा कहने की घड़ी, ऐसी कितनी यादें उनके जहन में थी जिन्हें याद करते ही उनका मन लहुलुहान हो जाता। प्रथम संतान होने के नाते मैं पापा के बहुत क़रीब थी। उन्हें पता था कि यह कहकर वे सिर्फ़ अपना मन हल्का कर रहे हैं क्योंकि उस वक्त सुनकर कोई प्रतिक्रिया देने की भी उम्र नहीं थी मेरी। मैं चुपचाप कोई कहानी की तरह उनकी बातें सुनती। पापा का अपनी जन्मभूमि को याद करने का यह सिलसिला ताउम्र चलता रहा। माँ का ब्रहमपुत्र नदी से लगाव, पापा का उनके गाँव के तालाब से लगाव, बिलकुल जैसे कृष्णा सोबती की कहानी ‘सिक्का बदल गया’ की शाहनी का चनाब से लगाव!

देश विभाजन की त्रासदी में मानवीय संबंध कैसे झूठे पड गए! वर्षों से साथ रह रहे लोग एक दूसरे के दुश्मन बन गए! आपसी सद्भावना का माहौल पलक झपकते ही बिगड़ गया। राजनीति ने सांप्रदायिक चेतना का विस्फोट करवा दिया, कृष्णा सोबती के शब्दों में ‘राज पलट गया, सिक्का बदल गया!’ पापा भी यही कहते थे कि देश का विभाजन एक ऐतिहासिक घटना थी। सत्ताधारियों का राजनैतिक खेल था। माँ बताती थी, उनके आस-पड़ोस में हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच दोस्ताना संबंध रातोंरात अचानक घातक बन गए। अनगिनत लाशें ब्रह्मपुत्र नदी में फेंकी गईं। माँ का परिवार जिस ट्रेन से पश्चिम बंगाल पहुँचा, उसके बाद वाली कई ट्रेने लाशों से भरी पहुँची थी। बाद में जब आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख स्तंभों में से एक, भीष्म साहनी की असाधारण कहानी 'अमृतसर आ गया है' पढ़ी तो माँ ने कही ट्रेन की घटनाएँ जैसे तादृश होने लगी। भारत-पाक विभाजन के दौरान ट्रेन की साधारण सी लगने वाली घटना को केन्द्र में रखकर लिखी गर्इ कहानी। ट्रेन के भीतर यात्रियों की मानसिकता और व्यवहार, उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया स्टेशन दर स्टेशन कैसे बदलती जाती है! गाड़ी के भीतर ही धर्म के आधार पर एक विभाजन होता दिखायी देता है। जैसे-जैसे गाडी आगे बढती है यह विभाजन समूची ट्रेन में हो जाता है। एक मजहब के लोग एक ही डिब्बे में इकठ्ठा होने लगते हैं। फिर शुरू होता है हत्याओं का दौर!

अठारहवीं सदी में यूरोप, एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व में किए गए अनेक विभाजनों में विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच जितनी हिंसा हुई, उससे कहीं अधिक हिंसा वर्ष 1947 में ब्रिटिश भारत के विभाजन में हुई। जगत के इतिहास में शायद ही ऐसा हुआ होगा, अहिंसा की नींव पर लड़ा गया स्वातंत्र्य संग्राम, स्वतंत्रता मिलते ही भयानक हिंसा की इमारत में परिवर्तित हो गया! ‘पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा’ की घोषणा करने वाले महात्मा गांधी असहाय से देखते रहे और धर्म के आधार पर देश दो टुकड़ों में बँट गया। आज़ादी की लड़ाई साथ मिलकर लड़नेवाले हिन्दू और मुसलमान का आपसी प्रेम और सौहार्द राजनीति की भेंट चढ़ गया। अधिकतर लोग इस स्वतंत्रता को मानने को ही तैयार नहीं थे जो देश के विभाजन की कीमत पर मिली थी। हमारे देश में नेताओं ने हिंसा के भय से देश का विभाजन स्वीकार किया और आग की तरह फैली हिंसा को रोकने में भी नाकामयाब रहे। विभाजन देश की सीमाओं का न होकर लोगों की भावनाओं का हुआ, कभी न भरनेवाले जख्मों के रूप में। धर्म का उपयोग सत्ता हासिल करने और सत्ता में बने रहने के लिए किया गया।

पाकिस्तान बन तो गया, पर अलगाववाद के बीज तभी पड़ गए जब वर्ष 1948 में राष्ट्र के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने उर्दू को पाकिस्तान की सरकारी भाषा बनाने का एलान किया। पश्चिमी पाकिस्तान ने भाषा की श्रेष्ठता के आधार पर पूर्वी पाकिस्तान (पूर्व बंगाल) के साथ सौतेला व्यवहार करना आरंभ कर दिया। बांग्ला भाषी पाकिस्तानियों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाने लगा। वर्ष 1952 में बांग्ला भाषा का आंदोलन शुरु हुआ। सत्तर का दशक आते-आते इसी आंदोलन ने शेख़ मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में मुक्ति संग्राम का रूप ले लिया। इस मुक्ति संग्राम के समर्थन में भारत-पाक युध्द के परिणाम स्वरुप वर्ष 1971 में पाकिस्तान का एक और विभाजन हुआ। पाकिस्तान से अलग होकर पूर्व पाकिस्तान (पूर्व बंगाल) विश्व के नक़्शे पर ‘बांग्लादेश’ नाम से एक स्वतंत्र राष्ट्र बनकर उभरा। इस लिहाज से दुनिया में बांग्लादेश एक मात्र देश है, जिसका निर्माण भाषा के आधार पर हुआ। ‘एथनिक आइडेंटिटी’ को महत्व दिया गया। बांग्ला में इसे ‘जातीय सत्ता’ कहते हैं। धर्म से आगे भाषा रही। बांग्ला संस्कृति की जीत हुई।

मेरे प्यारे मौसी-मौसा जी ने जब फरवरी 2013 को बांग्लादेश जाने की योजना बनाई, मैं कैसे रोक पाती ख़ुदको! मेरे माता-पिता की जन्मभूमि पूर्व बंगाल, अब बांग्लादेश राष्ट्र के मैमनसिंह जिले का गाँव ‘रायजान’ और कोमिल्ला जिले का गाँव ‘मोईनपुर’--ओह! बरसों बरस सुनती आ रही थी उनकी जन्मभूमि के बारे में, बस तैयार हो गई उनके साथ जाने के लिए। 1947 में कोन्नगर में एक रिश्तेदार के घर में कुछ महीने रहने के बाद, नाना जी ने हुगली जिले के चंदननगर टाउन में परिवार के लिए किराए के घर की व्यवस्था की, लेकिन परिवार का आर्थिक संकट उतना ही गहरा था। नाना जी चंदननगर का दौरा करते रहते, कभी-कभी किसी आनेजाने वालों के हाथों रुपये भेजते, कभी नानी माँ तक रुपये पहुँचते, कभी नहीं पहुँचते। वर्ष 1964 में हुई नाना जी की आकस्मिक मृत्यु ने तो उनके सारे परिवार को तबाह कर दिया। माँ ने अपनी छोटी बहन लेखा को, जिन्हें प्यार से हम रांगा मौसी कहते हैं, हमारे साथ रहने के लिए बुला लिया। रांगा मौसी अधिकतर हमारे साथ ही रही। मेरे लिए मेरी प्यारी रांगा मौसी आज भी दीदी समान है। पापा भी हमेशा नानी माँ को सहायरूप बनने की कोशिश करते।

अफ़सोस इसी बात का है कि आज माँ और पापा में से कोई भी इस दुनिया में नहीं है, जो मेरी इस यात्रा की अनुभूति को सुन सकें। सुनना क्या, वे होते तो मैं उनको अपने साथ न ले जाती? बांग्लादेश की यात्रा मेरे लिए चारों धाम की यात्रा से कम नहीं। यही मेरे माता-पिता को सच्ची श्रद्धांजलि है। इस यात्रा ने मेरी संवेदना को एक नया फ़लक प्रदान किया। माँ और पापा के अतीत के संस्मरण मेरे हृदय में किसी रेखाचित्र की तरह अंकित थे। इस यात्रा के दौरान, मैंने देश के विभाजन के परिणामस्वरूप माँ और पापा के परिवार के साथ हुई महत्वपूर्ण घटनाओं को उजागर करने का प्रयास किया।

जैसे-जैसे लिखती गई मेरी अनुभूतियों ने एक पुस्तक का रूप धारण कर लिया। मानसिक रूप से तो मैं कई बार अपने माँ-पापा, नानी माँ, ताऊजी-बड़ी माँ के साथ बांग्लादेश की यात्रा कर चुकी थी। वास्तव में जब यह अवसर मिला तो अपने जीवन के अविस्मरणीय क्षणों को यात्रा वृतांत के माध्यम से रेखांकित करने से ख़ुदको रोक न पाई। कविवर के गीत की अनुभूति मैंने अंतर्मन से महसूस की, यहाँ की हवाएँ आज भी मन में बाँसुरी-सी बजती सुनाई देती है। लहराते धान के खेत मुस्कुराते नज़र आते हैं। नदियों के तट पर वटवृक्ष की छायाएँ अब भी अपना आँचल फैलाए राह तक रही है किसी मुसाफिर के आने की, फ़र्क बस इतना आया है कि राहें सूनसान पड़ी है, इस धरती से बिछड़ने वाले जहाँ कहीं भी हैं, बस ज़ार-ज़ार रो रहे हैं।

विभाजन का दर्द वो ही अच्छी तरह जानते हैं, जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से इसको सहा है। भारत का विभाजन और उसके परिणाम स्वरूप हुए दंगे-फ़साद पर यशपाल (झूठा सच), अमृता प्रीतम (पिंजर), भीष्म साहनी (तमस), बलवंत सिंह (काले कोस), खुशवंत सिंह (ट्रेन टू पाकिस्तान), सलमान रशदी (मिडनाइट्स चिल्ड्रन) जैसे कई नामी लेखकों ने उपन्यास और कहानियाँ लिखी हैं। सत्ता हासिल करने के लिए राजनीति और सांप्रदायिक शक्तियाँ किस प्रकार आम आदमी की ज़िंदगी को नर्क में बदल देती है इस सच्चाई का चित्रण ही इन उपन्यासों का उद्देश्य रहा है। मैंने विभाजन का दर्द प्रत्यक्ष रूप से नहीं सहा, पर देश विभाजन के परिणामस्वरुप माँ और पापा के परिवार ने सहे दर्द को सुना है, महसुसा है। बांग्लादेश की यात्रा के दौरान उनकी यादों की कश्ती पर सवार होकर उन्हें उस धरती पर खोजने की कोशिश की है।

मैं यशस्वी कथाकार श्री अवधेश प्रीत सर का दिल से आभार व्यक्त करती हूँ, आपने भूमिका लिखकर इस पुस्तक के बारे में अपना मूल्यवान अभिमत दिया। मैं इस पुस्तक को इतने सुन्दर आवरण पृष्ठ के साथ प्रकाशित करने के लिए प्रकाशक मातृभारती डॉट कॉम का दिल से धन्यवाद करती हूँ। मुझे उम्मीद है कि मेरी यात्रा के इस संस्मरण को पढ़ते हुए, आप भी मेरे साथ अखंड भारत की उस स्वर्णिम बंगाल की यात्रा करेंगे।

23 अक्टूबर 2019

मल्लिका मुखर्जी

अहमदाबाद