Tere Shahar Ke Mere Log - 13 in Hindi Biography by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | तेरे शहर के मेरे लोग - 13

Featured Books
Categories
Share

तेरे शहर के मेरे लोग - 13

( तेरह )

कभी- कभी ऐसा होता है कि अगर हम अपने बारे में सोचना बंद कर दें तो ज़िन्दगी हमारे बारे में सोचने लग जाती है।
ज़िन्दगी कोई अहसान नहीं करती हम पर। दरअसल ज़िन्दगी के सफ़र में हमारे सपनों के बीज छिटक कर हमारे इर्द - गिर्द गिरते रहते हैं और जब उन्हें हमारे दुःख की नमी मिलती है तो उग आते हैं।
सभी परिजन एक बार उल्लास और उत्साह से इकट्ठे हुए। मेरे बेटे की सगाई यहीं जयपुर में धूमधाम से संपन्न हुई।
बस, इस बार फर्क सिर्फ़ इतना सा था कि घर में आने वाले मेहमानों की आवभगत में कोई ये पूछ नहीं रहा था कि उन्हें क्या चाहिए। उनसे कोई मनुहार नहीं कर रहा था कि ये खाइए, वहां बैठिए। उल्टे वे मुझे पूछ रहे थे कि मुझे क्या चाहिए, मैं कैसा हूं, मैंने खाया या नहीं?
घर तो औरत से होता है। और ये सब बातें तो घर में होती हैं। हम तो शिविर में थे!
लेकिन सुख मिले तो घर क्या, शिविर क्या?
मेरा दिवास्वप्न एक हक़ीक़त में तब्दील हो गया।
सब चले गए और मैंने भी अब विश्वविद्यालय जाना शुरू कर दिया।
कुछ ही दिनों में मेरे खराब दिनों पर जमा गर्द हटने लगी। धूल के नीचे से जो सनद - दस्तावेज़ निकल कर अाए उनकी चमक अभी मिटी नहीं थी।
जल्दी ही मैं मास कम्युनिकेशन और जर्नलिज्म का प्रोफ़ेसर बन गया।
मैं अब तक ये तय नहीं कर पाया कि सफ़र या यात्राएं करना कोई अभिशाप है या वरदान। यायावरी लोगों को बनाती है या थकाती है।
मैंने विश्वविद्यालय के आसपास छप्पन गांवों का दौरा किया।
इन गांवों में कुछ बड़े- छोटे कस्बे से लेकर अत्यंत छोटी ढाणियां तक थीं।
मैंने कई ग्रामीण घरों में जाकर देहाती लोगों को प्रेरित किया कि वो अपने बच्चों को पढ़ने भेजें।
मैं उनके आवास में पड़ी किसी पुरानी चारपाई पर बैठ कर उनकी दी हुई चाय पीता और उन्हें डांटने के स्वर में कहता- "आपका लड़का बता रहा है कि अगली फसल पर आप उसके लिए मोटर साइकिल खरीदने वाले हैं?"
वो चहक कर हामी भरते।
अगले ही क्षण मैं कहता, "आपकी लड़की कह रही है कि आपके पास उसकी फ़ीस देने के लिए पैसे नहीं हैं,इसलिए वो अब प्राइवेट पढ़ेगी, कॉलेज नहीं जाएगी?"
वो बगलें झांकने लग जाते।
विश्वविद्यालय परिसर में या बाहर कहीं मिलने पर कुछ विद्यार्थी मेरे पांव छूने लगते। यदि चरण स्पर्श करने वाली लड़की होती तो मैं उससे कहता - "लड़कियां पांव नहीं छूतीं"। और अगर लड़का होता तो मैं उससे कहता, "मुझे अभी बूढ़ा मत बनाओ,मेरे पास सहारे को लाठी नहीं है"।
इन्हीं दिनों यूनिवर्सिटी परिसर में सामुदायिक रेडियो की भी स्थापना हुई। मैंने दिल्ली और कुछ अन्य नगरों में इससे संबंधित बैठकों और प्रशिक्षणों में भाग लिया। मैं इस केंद्र का पहला निदेशक बना।
मैंने विद्यार्थियों के लिए एक हाउस मैगज़ीन का संपादन भी किया। इसके पंजीकरण की प्रक्रिया से गुजरने में कुछ यात्राएं फ़िर हुईं।
हमारे देश की जनसंख्या बहुत है। ऐसे में यहां आप भीड़ से बच नहीं सकते। भीड़ का मनोविज्ञान नकारात्मक होता है।
यदि किसी साठ सीटर बस में बैठने के लिए चालीस सवारियां हों तो "पहले आप, पहले आप... लेडीज़ फर्स्ट.." जैसे व्यवहारों का पालन होता है। बच्चों को उनकी मनचाही खिड़की की सीट मिल जाती है। वृद्धों को विश्राम करने के लिए पैर फैलाने वाली पूरी सीट उपलब्ध हो जाती है। सफ़र आराम से कट जाता है।
यदि साठ सीट की बस में चढ़ने के लिए नीचे डेढ़ सौ लोग खड़े हों, तो भगदड़ मचती है, चिल्ल- पौं सुनाई देती है, गाली - गलौज की नौबत आती है। बहस - मुबाहिसे मार- पीट में बदल जाते हैं।
पहले लोग सोचा करते थे कि भीड़ का ये व्यवहार शायद शिक्षा का फ़र्क है। किन्तु अब शिक्षित व्यक्ति को भी ज़रा से कष्ट में रंग बदलते देखा जा सकता है।
मुझे कभी- कभी याद आता था कि मुंबई में एक बार छब्बीस साल की उम्र में चौथी मंज़िल के कार्यालय में काम करते हुए अक्सर बिना लिफ्ट के ऊपर चढ़ जाने की आदत के चलते मुझे उच्च रक्तचाप की शिकायत हो गई थी।
अब कुर्सी पर बिना बैठे कई घंटे पढ़ा लेने के बाद छप्पन साल की उम्र में भी मैं चार मंज़िल के भवनों में एक के बाद एक इमारत चढ़ता उतरता रहता था।
मैंने कभी ऊपर से लेकर नीचे तक के पद सोपान के किसी भी व्यक्ति को, किसी भी काम से, कभी अपने पास नहीं बुलाया। मैं स्वयं चल कर उसके पास जाता था जिससे मुझे काम हो, और ये काम चाहे मेरा हो या उसका।
यहां तक कि मैंने किसी शहर के, अपने किसी दफ़्तर में, कभी भी अधीनस्थ कर्मचारी को बुलाने के लिए घंटी नहीं बजाई।
मैं जानता हूं कि मेरे साथ कई वर्ष तक काम कर लेने वाले लोग भी इस बात को पढ़ कर चौंकेंगे ज़रूर, पर वे ये नहीं कह सकेंगे कि मैं ठीक नहीं कह रहा। जैसे, उन्हें कुछ याद आ जाएगा और वे हैरान रह जाएंगे!
इसके उलट, मुझे बैंक सेवा के दौरान अपने एक ऐसे उच्च अधिकारी अक्सर याद आ जाते हैं जो कहा करते थे- तेरे हाथ में न तो इनका ट्रांसफर है, न छुट्टी की मंजूरी, और न लोन पास करने का काम, फ़िर भी ये सब तेरे पास ही क्यों भीड़ लगाए रहते हैं, क्यों तुझे ही आते - जाते नमस्कार करते हैं?
मज़ेदार बात ये थी कि इन्हीं दफ्तरों में कई अफ़सर ऐसी शिकायत भी करते रहते थे कि "ये सुनते नहीं हैं, गायब रहते हैं, घंटी बजती रहती है और ये सोते रहते हैं"।
सच कह रहा हूं, अपने साहित्य में मुझे बहुत सालों तक ये पता नहीं चला कि "जनवाद" क्या है, "प्रगति शीलता" क्या है!
इस बीच कई साहित्यिक संस्थानों ने मुझे आमंत्रित किया। सम्मानित भी किया। इस संदर्भ में भी मैंने पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, मेघालय, कश्मीर, उत्तराखंड आदि राज्यों के कुछ शहरों की यात्राएं कीं।
मुझे लगता है कि इन साहित्यिक सम्मानों के आयोजन पर भी अपने निजी विचारों को लेकर मुझे कुछ कहना चाहिए।
कुछ लोग सीधे- सीधे कह देते हैं कि असली सम्मान तो "सरकारी" होते हैं, निजी संस्थानों में तो धांधली है।
इस पर क्या कहूं?
धांधली के कई प्रकार हैं। कई जगह तो ये इसलिए होती है कि आयोजकों के पास साधन सुविधाएं नहीं होती हैं, इसलिए वे उन लोगों को महत्व दे देते हैं जो उन्हें इस तरह सहयोग दे सकें।
लेकिन एक धांधली वो होती है जिसमें प्रचुर साधन, सुविधा और अधिकार तो हैं किन्तु उनमें सेंध लगाने की लालसा, हिस्सा पाने की ललक, मंच लूट ले जाने का लोभ और भी बड़ा है।
अब ये आप खुद तय कर लें कि अपराध कहां ज़्यादा है।
रहा सवाल ये, कि कहां "साहित्य" ज़्यादा है?
तो साहित्य तो लिखने वाले और पढ़ने वाले के दरम्यान बिछे पुल पर विचरता है। उसे न सम्मान से कुछ लेना देना, और न पुरस्कार से!
लोग कहते हैं कि सरकारी सम्मान और पुरस्कार मिलने से आदमी पाठ्यक्रमों में आता है, समितियों में आता है, मेलों में गाता है...
लेकिन हम सब जानते हैं कि हमने पाठ्यक्रमों में भी कई लोगों को पढ़ा है...उनमें से कुछ हमारी ज़िन्दगी की मशाल बन गए और कुछ के हमें अब नाम भी नहीं याद!
अपना एक अनुभव आपको और सुनाता हूं।
हमारे कई संस्थान ऐसे होते हैं जिनमें एक सी प्रकृति का काम बरसों बरस चलता रहता है। उनमें काम करने वाले लोग भी जब तरक्की का अवसर पाते हैं तो उनके लंबे अनुभव को देख कर ही उन्हें प्रमोशंस दे दिए जाते हैं जबकि पदोन्नति के बाद भी उनका काम लगभग वही या वैसा ही रहता है जैसा उनकी तरक्की होने से पहलेे था।
जबकि कुछ स्थान ऐसे होते हैं जिनमें आपको पदोन्नति के साथ चुनौतियां भी नई नई मिलती हैं। आपके काम की प्रकृति भी बदलती जाती है।
ऐसे में यदि आपके कार्य की प्रकृति न बदले और आपका ओहदा बड़ा होता जाए तो आपमें एक नकारात्मक ऊर्जा संचरित होती रहती है। आप अपने रोज़गार प्रदाता के लिए एक कठिन एंप्लॉयी बनते जाते हैं।
शैक्षणिक संस्थानों में भी ये प्रवृत्ति आप आसानी से देख सकते हैं। इसके निराकरण के लिए ही ये ज़रूरी होता है कि आपको किसी रचनात्मक काम में लगाया जाए।
आप चालीस साल से विद्यार्थियों को कोई विषय पढ़ा रहे हैं, और अब पाठ्यक्रम में कुछ नवीनता लाने के लिए आप कुछ रचनात्मक नहीं कर पा रहे हैं तो ये निश्चित है कि आप अपने आप को शाम को घर में बैठ कर शराब पीने, दिनभर गुटके जैसा कोई नशा करने, बाज़ार में पार्ट टाइम कमाने, विद्यार्थियों पर निजी ट्यूशन के लिए दबाव बनाने, राजनीति के पंक में आकंठ डूब जाने, शेयर बाजार के सट्टे में खो जाने, यूनियनों के साए में "मिनिमम काम मैक्सिमम बेनिफिट्स" लेने या परिवार के लिए घर में आतंककारी बन जाने के लिए अपने को निमंत्रण दे रहे हैं।
यदि आपको ये बात सही नहीं लगती तो देश के किसी भी शहर की किसी भी बस्ती के आम लोगों का एक सर्वे कर लीजिए।
यही डर हमेशा मुझसे लिखवाता रहा।
इस बीच मैं सोशल मीडिया पर भी आ गया और मैंने ब्लॉग लेखन भी शुरू कर दिया। आरंभ में मैं ये देख कर बहुत संतुष्ट होता था कि मेरे रोज़ाना लिखे जा रहे ब्लॉग्स को कई देशों में ढेर सारे लोग पसन्द कर रहे हैं, इससे मुझे नए- नए विषयों पर बात करने की प्रेरणा मिल रही थी।
किन्तु कुछ ही समय में मेरा इस तकनीकी ट्रिक चित्रण से मोहभंग हो गया। मैं संजीदगी से चुपचाप लिखता ज़रूर रहा पर मेरा इसकी अराजकता पर भी निरंतर ध्यान जाने लगा।
एक तो तकनीकी दुनिया में रोज़ इतनी तेज़ी से बदलाव हो रहे थे कि इसके साथ "अप टू डेट" रह पाना मुश्किल लगने लगा। दूसरे, इसके साथ ऐसी कई प्रवृत्तियां जुड़ी दिखाई देने लगीं जिन्होंने लेखन की मौलिकता, प्रामाणिकता, विश्वसनीयता को दांव पर लगा दिया।
जिस तरह टीवी ने रेडियो पर गुण की जगह रूप को उभार दिया, उसी तरह यहां भी आधुनिक, ख़ूबसूरत, आकर्षक लेखक गंभीर, चिंतनशील लेखकों की तुलना में ज़्यादा लोकप्रिय होने लगे।
जहां हम लोगों ने पुराने कई साहित्यकारों की लिखावट व हस्तलिखित पांडुलिपियों को संग्रहालयों में रखे देखा था, वहीं हम लोगों के पास पत्र- पत्रिकाओं से ऐसे अनुरोध व निर्देश आने लगे कि कृपया रचना कंप्यूटर पर टाइप करके ही भेजें। उसमें भी चुनिंदा फ़ॉन्ट्स और तकनीकी अनिवार्यताओं की मांग होती जिससे मुझे बेहद डर लगता।
मैं मानता हूं कि इसमें गलती मेरी ही थी क्योंकि तकनीकी प्रशिक्षणों के कई अवसर मिलने पर भी मैंने आरंभ में इन्हें गंभीरता से नहीं लिया। केवल कामचलाऊ बातें ही सीखीं।
लेकिन सोशल मीडिया से जुड़ जाने के बाद ढेर सारे फ़ायदे भी हुए। एक तरह से दुनिया ही बदल गई।
जो कुछ खो गया था, सिमट कर आसपास आ गया।
जो कुछ सपनों में दिखता था कभी- कभी आंखों के सामने भी आने लगा।
नई पीढ़ी हो या पुरानी दोनों से मित्र मिलने लगे।
जिन लोगों से मिल पाना कभी संभव नहीं रहा था, ऐसा लगा जैसे मानो एक साथ रहने ही आ गए हों। चौबीस घंटे उनके दरवाज़े खुले दिखने लगे।
जैसे...जैसे एक ही विशाल तालाब में तैर रहे हों सब!
जब मेरे कुछ मित्रों व शुभचिंतकों ने देखा कि मैंने बिल्कुल अकेले ही रहने का फ़ैसला किया है तो उन्होंने किसी न किसी तरह मेरा भला ही सोचने की नीयत से तरह- तरह की पेशकश की।
एक पुराने बुज़ुर्ग मित्र ने कहा कि उनकी एक विधवा छोटी बहन है जो बेसहारा भी है और ज़रूरतमंद भी। मैं उसे अपने घर में एक कमरा दे दूं, और वो किराए के ऐवज में मेरा खाना बनाना, साफ़- सफ़ाई और कपड़े धोना जैसे काम कर दिया करेगी।
मैंने किसी सिगरेट पीने वाले की भांति उनकी बात का कश खींचकर धुएं की तरह मुंह से उड़ा दिया। वे खखार कर चुप हो गए।
मेरे एक मित्र की पत्नी ने अपने भाई का हवाला एक ऐसे शौक़िया शायर के तौर पर दिया जिसने ज़िन्दगी भर शादी नहीं की थी। उनका कहना था कि आपके साथ रह जाएगा तो कुछ सीखेगा ही। मैं थरथरा कर सिहर गया।
मेरे एक मित्र चाहते थे कि उनकी बेटी की सुपुत्री पढ़ने के लिए जयपुर आ रही है और उसे किसी ऐसी कॉलोनी में ही कमरा दिलाना निरापद रहेगा जहां उस पर मेरी नज़र रहे। वैसे बीच - बीच में उसे संभालने उसकी मां भी आती ही रहेगी।
मैंने अपने एक परिचित विद्यार्थी को उन मां- बेटी की सेवा में भेज दिया जिसने उन्हें सुदूर एक ऐसी कॉलोनी में कमरा दिलवाया जहां कभी छठे- छमाहे भी मेरा पहुंच पाना संभव न था।
किन्तु हर बार नए शैक्षणिक सत्र शुरू होने पर कुछ- कुछ दिनों के लिए मेरे पास रहने, सामान आदि रख जाने, परीक्षाओं की तैयारी वगैरह के लिए मित्रों, परिजनों या अन्य पुराने विद्यार्थियों के भेजे बच्चे आते रहते थे।
वैसे मन में कभी - कभी मैं भी ये विचार लाया करता था कि घर का सदुपयोग करने के लिए कोई सीमित विद्यार्थियों की मैस, या ट्यूशन क्लास जैसी कोई एक्टिविटी आरंभ कर दूं।
वो दिन तो मैं बहुत पीछे छोड़ आया था जब इंसान किसी भी काम से कुछ कमाने की सोचता है किन्तु वो दिन मुझे बहुत पीछे छोड़ गए थे जब घर पर भी मैं लोगों से घिरा रहता था।
अब तो मेरा चाहना ये था कि मुझे कोई न कोई आसपास दिखाई देता रहे।
कोई बुत, कोई छाया... हिलता- डुलता सा कुछ!