जब तक वे याट पर पहुँचे तब तक साम हो गई थी. उन्होंने अब तै किया कि अब वे पूरे साजो सामान के साथ चलेंगे और मेघनाथजी की बताई खोह की तलाश करेंगे. साथ ही साथ उन भेदी सायों, अलग दिखने वाली तलहटी और आग का रहस्य पता करने की भी कोशिश करेंगे. इस दौरान कुछ दिन जंगल में ही रहेंगे, तभी कोई काम बन सकता है. वर्ना यूँ ही आने जाने में वक्त बर्बाद होता रहेगा.
मेघनाथजी की रची शिलपरिरक्षक वाली तीसरी पहेली उन्होंने याद की. जिसमे कहा था, एक खोहद्वार की रक्षा उत्तर, दक्षिण और पूर्व में एक एक शिलपरिरक्षक कर रहे हैं. ये शिलपरिरक्षक कौन हैं? यह तो उनकी समझ में न आया. पर इससे कुछ संकेत अवश्य मिल रहे थे कि उस खोह का मुहाना पूर्व में खुलता होना चाहिए. मतलब उन्हें हर पहाड़ी को पूर्व से जांचना है. दूसरा यह कि खोह के उत्तर, दक्षिण और पूर्व में एक जैसी समान चीज होनी चाहिए. यह दो संकेत उन्हें उस खोह तक पहुंचा सकते थे.
दूसरे दिन वे फिर से पहाड़ी की चोटी पर पहुँचे. और आगे की तलाशी शुरू की. पिछले दिन हिरेन की दिखाई दक्षिण दिशा में वे बढ़े. ख़ास तो वे उस साये, आग और अलग दिखाई देने वाली तलहटी का भेद पता करना चाहते थे. वे जंगल और पहाड़ी का चप्पा चप्पा छान मारते जा रहे थे. मार्ग में आने वाली हर पहाड़ी और खोहों की बारीक जांच करते जा रहे थे. पर अब तक उन्हें ऐसा कोई खोह का मुहाना न दिखाई दिया था. जिसके अगल बगल और सामने कोई समान चीज हो.
अभी भी वे तालाब और अलग दिखने वाली घाटी से थोड़े दूर थे. पर तब तक सूरज ढलने को हुआ. उन्हें अब यहीं कहीं अपना डेरा डालना था. इसलिए वे उपयुक्त जगह की तलाश करने लगे. उन्हें ऐसी जगह चाहिए थी, जिसके नजदीक में ही कहीं पानी का तालाब या ज़र्रा हो. यूँ तो वे किसी पहाड़ी पर मध्य ऊँचाई पर ही थे. उस स्थान पर उन्हें पानी मिलने की सम्भावना पूरी थी. पानी की तलाश में वे थोड़े और नीचे उतरे. यहाँ उन्हें थोड़े दूर ही एक ज़र्रा बहता दिखाई दिया. अब उन्होंने उसी स्थान पर डेरा डालने की तैयारी शुरू कर दी.
इस बार वे दो टेंट भी साथ लाए थे. सो उन्होंने एक उपयुक्त स्थान देखकर जगह साफ़ की. और टेंट लगा दिए.
इतना करते रात्रि का अंधकार पूरी तरह से ढल गया. उन्होंने टॉर्च सुलगा कर रोशनी कर ली.
वे अपने साथ काफी मात्रा में तैयार खाना लाए थे. इसलिए खाने की कोई चिंता नहीं थी. उपरान्त रफिक्चाचा और दीपक ने दिन में सूअर और खरगोश का शिकार भी किया था. और रास्ते में से जलावन की लकड़ियाँ भी इकठ्ठा कर लाए थे. सो आसपास की जमीन साफ़ कर भूनने के लिए आग सुलगाने लगे. जेसिका और प्रताप ज़र्रे से पानी लाने गए हुए थे.
आग के चारों और सब गोला बनाकर बैठे थे. हवा में गोश्त भूनने की गंध फ़ैल रही थी. अब उनको एक और चिंता ने घेरा. कहीं इस गोश्त की गंध से आकर्षित हो कर कोई जंगली हिंसक पशु यहाँ न आ पहुँचे. वे थोड़े सावधान हुए. तभी ज़र्रे की और से किसी की चीख सुनाई दी. चीख सुनकर सब दहशत में आ गए. थोड़ी देर में बंदूक से गोली चलने की भी आवाज़ सुनाई दी. सब कुछ छोड़ कर वे अपनी अपनी बंदूक लिए ज़र्रे की और भागे.
रास्ते में ही प्रताप और जेसिका भागते हुए मिले. वे बहुत गभराए हुए थे. अपने साथियों को आता देख वे रुके. जेसिका तो वहां हाँफते हुए बैठ ही गई. दोनों दहशत के मारे कांप रहे थे.
राजू और अन्य साथी: "क्या हुआ!?"
दोनों की साँसे फूली हुई थी. अतः, भीमुचाचा ने ज़रा देर के लिए सब को शांत रहने के लिए कहा.
थोड़ी देर बाद जब दोनों की साँसे कुछ शांत हुई, तब प्रताप बोला.
"राक्षस!"
"क्या?" जैसे सुनाई न दिया हो ऐसे सब ताज्जुब और प्रश्न दृष्टि से उसे देखने लगे.
प्रताप: "राक्षस है!"
"कहाँ?" सब एक साथ बोले.
वहां...!" प्रताप ने ज़र्रे की दिशा में पेड़ों के पीछे हाथ से इशारा किया. अब भी वह बहुत गभराया हुआ था. उनकी सांस फूल रही थी और उसे बोलने में दिक्कत आ रही थी.
सब ने उनकी दिखाई दिशा में देखा, पर वहां कुछ नहीं दिखाई दिया.
राजू संजय को लेकर पता लगाने के इरादे से ज़र्रे की और जाने लगा. भीमुचाचा भी उनके साथ चले. बाकी के टीम मेम्बर्स जेसिका और प्रताप को साथ लिए पड़ाव की और निकले.
ज़र्रे के पास पेड़ों के पीछे राजू , भीमुचाचा और संजय पहुँचे ही थे कि पीछे से दीपक और हिरेन की आवाज़ सुनाई दी. वे उन्हें आवाज़ लगा रहे थे.
हिरेन और "दीपक: "भीमुचाचा... राजू... वापस चलो."
उनकी आवाज़ सुन तीनों ने पीछे मुड़कर देखा. दीपक और हिरेन दौड़ते हुए उन्ही की और आ रहे थे.
संजय: "अब क्या हुआ!"
राजू: "क्या जाने अब कौन सी नई मुसीबत आ गई."
तीनों तेजी से वापस लौटे. उन्हें लौटता देख दीपक और हिरेन भी मुड़कर वापस टेंट की और भागे. मार्ग में जेसिका और प्रताप के हाथ से गिरे हुए पानी के केन भी वे उठाते चले.
जब वे अपने पड़ाव पर पहुँचे, तो वहां का हाल देखकर तीनों की आंखें फटी की फटी रह गई. जो उन्होंने आग सुलगाई हुई थी, वह बूझ गई थी. उसकी लकड़ियों को कि सीने इधर उधर फेंक मारा था. उस पर भूनने रखे मांस के टुकड़े भी यहाँ वहां मिट्टी में बिखरे पड़े थे. ज्यादा वक्त तक आग पर रह जाने से वे अब जल चुके थे. और उनकी तीव्र कड़वी बास ने आस पास की हवा को कसैला बना दिया था.
तीनों ने प्रश्न दृष्टि से अन्य मेम्बर्स की और देखा.
पिंटू ने उन्हें टेंट में अन्दर जाकर देखने का इशारा किया.
पिंटू का इशारा पा कर वे जल्दी से टेंट में दौड़े. वहां का नज़ारा भी कुछ ऐसा ही था. सारा सामान बिखरा पड़ा था. जैसे यहाँ किसी ने तलाशी ली हो! टेंट की नीव भी किसी ने हिला दी थी. हाँ, एक अच्छी बात थी कि उनका कोई सामान गायब नहीं हुआ था.
अब तक उनके सामने कई घटनाएँ भेद बनकर खड़ी थी. इन में एक और भेद खड़ा हो गया. यह हुल्लड़ मचा जाने वालों का पता लगाने राजू और भीमुचाचा टॉर्च लिए टेंट के बाहर निकले.
जेसिका अभी भी दरी हुई थी. संजय, प्रताप, पिंटू और रफीकचाचा मिलकर सारा सामान एवं टेंट ठीक करने में लगे. दीपक और हिरेन फिर से लकड़ियाँ इकठ्ठा कर आग सुलगाने में लगे. सब कुछ ठिकाने लगाने में काफी देर हो गई.
भीमुचाचा और राजू आसपास की मिट्टी में किसी के पैरों के निशान धुंध रहे थे. उनकी टीम मेम्बर्स के जूतों के निशान के अलावा उन्हें किसी और के आने जाने के पैरों के निशान भी दिखाई दिए. ये निशान लगते तो इंसानों के पैरों के निशान जैसे ही थे, पर थोड़े से अलग और छोटे थे. उनकी उँगलियों के निशान जरा बड़े थे.
"ये तो बन्दर के पैरों के निशान जैसे लगते हैं." भीमुचाचा ने अनुमान लगाया.
वे और कोई सुराग पाने की उम्मीद में निशान का पीछा करने लगे. ये निशान उनके पड़ाव से उत्तर पूर्व की और जा रहे थे. वे टॉर्च लेकर उनके पीछे पीछे गए. पर जरा दूर जाकर घाँस लताओं कि वजह से वे निशान गायब हो गए थे. चारों दिशा में और ऊपर पेड़ों पर टॉर्च की रोशनी डाली. रोशनी पड़ते ही ऊपर पेड़ पर कुछ हिलचाल हुई. पर घने पत्तों की वजह से साफ़ कुछ मालूम न पड़ा.
वहां से अब वे अपने पड़ाव की और आने वाले पैरों के निशान का पीछा करते हुए लौटे. ये निशान उन्होंने जहां आग झलाई थी वहां तक आते थे. फिर वे निशान उनके टेंट तक गए थे.
राजू और भीमुचाचा आपस में मसलत करने लगे.
मतलब सबसे पहले वे आग तक आये. फिर आग की लकड़ियों और भूनने रखे मांस को बिखेर दिया. फिर टेंट में घूसे. जहां उसने वह धमाल मचाई. और उनके लौटने से पहले वे भाग गए.
पर उनके सामने एक सवाल था. अगर किसी प्राणी को छेड़ा नहीं जाता तब तक ये ऐसा बर्ताव तो नहीं करते? हाँ, अगर कोई खाने की चीज हो तो वे खा जरूर लेते हैं. फिर उनके छिड़े जाने की वजह क्या हो सकती है?
दोनों ने दिमाग पर जोर डाला.
उन्हें याद आया कि जब वे लौटे तब मांस जल जाने से हवा कसैली हो गई थी. अब वे हवा के रुख को परखने लगे. हवा दक्षिण पश्चिम से उत्तर पूर्व की और बह रही थी. मतलब जहां से ये धमाली आये हुए थे उसी दिशा में.
अब कुछ कुछ तस्वीर साफ़ होने लगी. जब वे प्रताप और जेसिका की चीख सुनकर भागे तब मांस आग पर ही रह गया था. और ज्यादा वक्त तक मांस आग पर रह जाने से जलने लगा. इसकी तीव्र बदबू ने इस हुल्लड़बाजों की नाक में घुसकर सुरसुरी की होगी. इसी लिए उनको गुस्सा आ गया और तभी वे आकर ये सारा फसात मचा गए.
दोनों ने बंदरों का सुराग पाने का काम सुबह तक स्थगित कर यह जांच पड़ताल यहीं रोक दी. और अपनी टीम मेम्बर्स को यह बतला दिया कि ये सारा कांड बंदरों का मचाया हुआ है. इसके समर्थन में जो जो सुराग उन्हें मिले थे वे भी कह सुनाए. इससे टीम मेम्बर्स को तसल्ली हुई और उनकी गभराहट कम हुई.
अब प्रताप और जेसिका का मामला सुलझाना था. पर उनकी बात सुनने से पहले उन्होंने भोजन कर लेना उचित समझा. मांस सारा नष्ट हो गया था, इसलिए साथ लाए तैयार भोजन से ही उन्हें चलाना पड़ा.
भोजन समाप्त करने के बाद उन्होंने अपने टेंट के आसपास तीन चार जगह आग जला दी. आसाम के जंगल से लायी हुई मच्छर भगाने वाली पत्तियाँ भी उन्होंने आग में दाल दी. जिससे मच्छरों से बचा जा सके. फिर वे प्रताप और जेसिका का हाल सुनने बैठे.
प्रताप और जेसिका का हाले बयान आरम्भ हुआ.
प्रताप ने कहना शुरू किया.
जब हम ज़र्रे से पानी भरकर वापस लौट रहे थे, तब मार्ग में हमें पंद्रह बीस मीटर के फासले पर पेड़ों के पीछे से किसी प्राणी के ग़ुर्राने की आवाज़ सुनाई दी. हम यह जानने के लिए जरा बगल में हटे कि वहां क्या है. और वहां टॉर्च की रोशनी डाली. तभी रोशनी पड़ने से एक भयंकर राक्षस ने पेड़ के पीछे से चेहरा निकालकर झांका. उनका भयंकर रूप देखकर हम दोनों ठिठक गए. जेसिका तो जोर से चीख कर लड़खड़ा पड़ी.
क्रमशः
वह टेंट में धमाल मचाने वाले क्या सचमुच में बन्दर ही थे? या इनका कोई और ही राज़ निकल कर सामने आता है? प्रताप और जेसिका को दिखाई देने वाले राक्षस का भेद क्या है? जानने के लिए पढ़ते रहे... कहानी अब रोचक दौर में प्रवेश कर गई है.
अगले हप्ते कहानी जारी रहेगी.