छूटा हुआ कुछ
डा. रमाकांत शर्मा
4.
उमा जी के मन में उथल-पुथल सी चल रही थी। इतने समय बाद पुष्पा के वे शब्द उनके कानों में गूंज रहे थे – “तूने किसी से प्रेम नहीं किया, अगर किया होता तो मेरी भावनाओं को समझ पाती।“
उमा जी अब छप्पन साल की हो गई थीं और गृहस्थी तथा स्कूल की व्यस्तताओं से लगभग आजाद हो गई थीं। स्कूल में वे हिंदी पढ़ाती रही थीं। प्रेम संबंधी कविताओं की व्याख्या करती रही थीं, पर उन्होंने खुद ने तो कभी उस प्रेम का रसास्वादन नहीं किया था जिसकी हर बात में, यहां तक कि विछोह की पीड़ा में भी एक अद्भुत आनंद छुपा था। आज वे अनायास ही सोचने लगी थीं कि वे प्रेम की उस अनुभूति से वंचित होकर रह गई थीं। उनके सामने सरिता-किशोर और पुष्पा-गोविंद की प्रेम कहानियां थीं। क्या सचमुच प्रेम ऐसा होता है जो एक-दूसरे को पाने और खोने से कहीं बढ़कर है, इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है? उन्हें क्यों नहीं हुआ किसी से वह महसूस करने वाला प्रेम? उन्हें कोई किशोर कोई गोविंद क्यों नहीं मिला? क्यों किसी गोविन्द ने उन्हें ढूंढ़ कर अपने मन में नहीं बसा लिया।
माना कि उनका स्वभाव खुद में डूबे रहने का रहा, वे पुष्पा की तरह खुलकर बोलने वाली और मस्ती करने वाली नहीं रहीं, पर सरिता तो उन्हीं की तरह थी। किसी की तरफ नजरें उठाकर न देखने वाली और अपने काम से काम रखने वाली सरिता ने भी तो किशोर से प्यार किया था। सरिता ने किशोर से वह अहसास वाला प्यार किया था जिसमें दिल की गहराईयों से किसी से जुड़ाव महसूस हो जाता है। उसके प्रेम में दिव्यता और अलौकिकता महसूस होती है। पुष्पा ने भी तो यही किया था, उसने गोविंद से टूटकर प्यार किया था। हां, उसके प्रेम में आसक्ति थी, उसके भीतर एक ऐसा मजबूत आकर्षण था जो सबकुछ भुलाकर किसी के साथ जाने को प्रेरित करता है। उसका प्यार ऐसा प्यार था जो किसी पर हक समझने लगता है और उससे वैसी ही आशा और अपेक्षा रखने लगता है। किसी को अपना समझने लगना और उस पर अधिकार जताने लगने का अपना सुख है। यही सुख किसी को खुद पर अधिकार देने और उसे अपने अंतर्मन तक पहुंचने देने में भी छुपा है।
उमा जी ने ना तो सरिता की तरह कोमल, लेकिन गहरे अहसास के साथ किसी को चाहा था और न ही पुष्पा की तरह अधिकार भावना के साथ किसी के दिल की गहराईयों में जगह बनाई। उनके लिए कोई किशोर नहीं था जो उसी अखबार पर बैठकर रोया हो जिस अखबार पर वे बैठी रही हों। उनके पास कोई गोविंद नहीं था जिस पर उन्होंने अपना अधिकार समझा हो और जिसके लिए तड़प महसूस की हो। उनके पास वह गोविंद नहीं थां जिसने उनके लिए गली के चक्कर काटे हों और जिसने बेचैनी की हद से गुजरते हुए उन्हें प्रेम पत्र भेजने का दुस्साहसी कदम उठाया हो। उनके पास वह गोविंद नहीं था, जिसने मंदिर की सीढ़ियों पर उदास, बदहवास बैठकर उनके लिए आंसू बहाए हों। खुद उन्होंने कब किसी का बेकरारी से इंतजार किया और किसके लिए आंसू बहाए? उन्होंने तो किसी के लिए भी प्यार के लम्हे नहीं जिए और न ही जिए किसी ने प्यार के लम्हे उनके लिए।
दसवीं की परीक्षा पास करते ही उनकी शादी कर दी गई। उम्नीस साल की उम्र में शादी के बाद उनकी जिंदगी बदल जानी चाहिए थी। उनकी झोली प्यार के फूलों से भर जानी चाहिए थी, पर उनके पतिदेव का स्वभाव भी उनके स्वभाव से अलग नहीं निकला। वे भी शर्मीले और अपने काम से काम रखने वाले थे। लगता था, उन्होंने भी अपना जीवन उमा जी की तरह ही बिताया था। वे अपनी अहलकारी में मस्त थे। उन्होंने उमा जी को कभी किसी प्यार के नाम से नहीं पुकारा। प्यार प्रदर्शन उनके स्वभाव में नहीं था। जब भी उन्हें उमा जी की जरूरत होती, वे उनके पास आ जाते। शायद वही उनके लिए प्यार की अंतिम परिभाषा थी। उमा जी को कभी-कभी लगता था उनके पतिदेव उनकी, उनके काम की तारीफ करें, पर इसके लिए उनके कान तरसते ही रहे। वे इतने अच्छे थे कि कभी मजाक में भी उन्होंने कोई ऐसी बात नहीं की जो उमा जी को बुरी लगी हो। वे उमा जी से ज्यादातर औपचारिक बात ही करते। शादी के तुरंत बाद जहां पति-पत्नी के बीच रोमांस उभार पर होता है और बातें रोमांटिक मोड़ ले लेती हैं, वहीं उमा जी और उनके पतिदेव के बीच अकसर शब्दों का आदान-प्रदान कुछ इस प्रकार होता –
“उठ गईं उमा जी? रात को ठीक से नींद आई?”
“हां, और आपको?”
“मैं भी गहरी नींद सोया।“
“……चलो, जल्दी से फ्रेश होकर चाय बना दो”
“मालूम है मुझे, बिना चाय पिये आपका पेट साफ नहीं होता।“
“मेरी इस आदत का अंदाजा हो गया है तुम्हें” – उनके चेहरे पर मुस्कान खेल जाती
“आपको पता चला मेरी किसी आदत का?”
“हां, थोड़ा देर तक सोने की आदत है तुम्हारी”
“बस यही?”
“तुम्हें हर चीज उसकी जगह पर रखने की भी आदत है। मैं जो भी चीजें इधर-उधर पटक जाता हूं, वे सब मुझे अपनी जगह पर रखी मिलती हैं। तुम्हारी तो कोई चीज मुझे बेतरतीब पड़ी दिखाई नहीं देती।“
“अच्छी है या बुरी है, ये आदत?”
“अच्छी है, इसे बुरा कौन कहेगा?”
“सुनो, मैं कह रही थी.............।“
“बातें तो बाद में भी होती रहेंगी, उमा जी। पहले जल्दी से चाय बना दो, तैयार होना है और फिर ऑफिस के लिए भी निकलना है।“
उमा जी भूल जातीं वे क्या कहने वाली थीं और उठकर चाय बनाने चल देतीं।
दोनों लगभग चुपचाप बैठकर चाय पीते। चाय खत्म होते ही वे ऑफिस के लिए तैयार होने लग जाते और उमा जी उनके लिए टिफिन बॉक्स तैयार करने में।
ऑफिस के लिए निकलते समय वे पूछते – “कुछ लाना तो नहीं है बाजार से?”
“सब्जी नहीं है घर में। पर कोई बात नहीं, सब्जी वाला आता है गली में।“
“ठीक है तो फिर मैं चलूं?”
“हां, जल्दी आने की कोशिश करना।“
“तुम्हें तो पता ही है, बड़ा मुश्किल है, काम ही इतना है ऑफिस में।“
“फिर भी देख लेना, हो सके तो।“
“अच्छा, देखता हूं।“
उमा जी के पतिदेव अपनी नौकरी की वजह से शहर में यह किराए का मकान लेकर रह रहे थे। उनके मां-बाप और एक बड़ा भाई गांव में ही रह कर खेती-बाड़ी संभाले हुए थे। उनके पास फुरसत नहीं थी शहर आने की और पतिदेव के पास फुरसत नहीं थी गांव जाने की। उमा जी सारे दिन घर में अकेली पड़ी रहतीं। शाम के इंतजार में वे पूरा दिन बड़ी मुश्किल से निकाल पातीं। पति के आने से पहले ही खाना बना कर रख देतीं और सोचतीं साथ-साथ खाएंगे। शुरू में तो कुछ दिन यह व्यवस्था ठीक-ठाक चलती रही, पर उस दिन खाना खाते समय अचानक पतिदेव ने कहा था – “खाने में मजा नहीं आ रहा उमा जी।“
“क्यों ठीक नहीं बना?”
“नहीं, नहीं खाने में कोई कमी नहीं है, पर.....।“
“पर क्या?”
“मां हमेशा गरम रोटी ही खिलाती रही है। शादी से पहले जिस ढावे में खाता था, वहां भी गरम रोटियां खाने को मिलती थीं। रोटी खाने का आनंद तो तभी है जब वह सीधे तवे से उतर कर थाली में आती है।“
“अरे, इतने दिनों से मैं आपको ठंडी रोटियां ही खिलाती रही। आपने कभी कुछ कहा नहीं?”
“अब आज कह दिया ना।“
“ठीक है, कल से आपको तवे से उतरती गर्म रोटी ही मिलेगी। पर.........।“
“पर... क्या?
“यही कि मैं रोटियां बनाऊंगी तो फिर आपके साथ बैठकर खा नहीं सकूंगी।“
“कोई बात नहीं, तुम बाद में खा लिया करना। मां भी तो हम सभी को खिला कर बाद में ही खाती थी।“
उमा जी उनका मुंह देखते रह गईं। वे सुबह से राह देखती थीं, उनके साथ खाना खाने और इस बहाने उनके साथ कुछ क्षण बिताने के लिए, पर उन्हें तो इस बात की कोई परवाह ही नहीं थी।
छुट्टियों के दिन भी वे घर पर काम ले आते और उसमें व्यस्त हो जाते। काश, कभी उनसे प्यार के दो शब्द बोले होते उन्होंने। वैसे उमा जी को उनसे कोई और शिकायत नहीं थी, सीधे-सादे सरल और सच्चे व्यक्ति से कोई शिकायत हो भी तो क्या। रोमांस उनके स्वभाव में नहीं था। कभी जब अंतरंग क्षणों में वे रोमांटिक होते भी तो उनका सारा रोमांस सिर्फ स्पर्श में झलकता, कभी शब्दों के रूप में सामने नहीं आया।
एक दिन जब वे शाम को ऑफिस से लौट कर घर आए तो उनके हाथ में फूलों का गजरा देख कर उमा जी रोमांचित हो उठीं। गजरा उन्होंने उमा जी को पकड़ाते हुए कहा - “बालों में लगा लो, अच्छा लगेगा।“
“आप खुद लगा दो ना मेरे बालों में।“
“मैं? मुझसे नहीं होगा, तुम खुद लगा लो।“
“कोशिश तो करके देखो।“
“कहा ना तुम लगा लो अपने आप, मुझसे यह सब नहीं होता।“
उमा जी चुप हो गईं। शीशे के सामने खड़े होकर अपने बालों में गजरा लगाते हुए उन्होंने कहा – “आज मेरे लिए गजरा लाने का मन कैसे हुआ आपका?”
“तुम्हें तो पता है, मुझे इस तरह की चीजों का कोई शौक नहीं है। हुआ यूं कि मैं और मेरे साथ काम करने वाला कुकरेती आज साथ-साथ ऑफिस से निकले थे। कुकरेती की शादी भी बस हमारी शादी के आसपास ही हुई है। रास्ते में एक औरत गजरे लिए बैठी थी। कुकरेती ने उससे अपनी बीबी के लिए दो गजरे खरीदे। फिर मुझसे पूछा – ‘तुम नहीं खरीदोगे भाभी जी के लिए गजरे?’ मैंने मना किया तो वह मेरे पीछे ही पड़ गया – ‘नई बीबी के लिए गजरे लेकर जाओगे तो वह खुश हो जाएगी।‘
मैंने कहा था – “मेरी बीबी तो वैसे ही खुश रहती है, उसे गजरों की कोई जरूरत नहीं है।“
पर वह नहीं माना, उसने खुद ही ये दो गजरे खरीद कर मुझे पकड़ा दिए। फिर मैं मना नहीं कर सका।
बालों में गजरा लगाते उमा जी के हाथ रुक गए – “तो आप गजरा नहीं लाए मेरे लिए, किसी दूसरे ने खरीद कर दिए हैं?”
“वही तो बता रहा था मैं तुम्हें अभी।“
उमा जी रूआंसी हो आईं। उन्होंने बालों से गजरा निकाल कर खिड़की से बाहर उछाल दिया।
“क्या हुआ? बाहर क्यों फेंक दिया तुमने? कुकरेती ने पैसे दिए हैं उसके, फ्री का नहीं है।“
“बस, मुझे गजरा लगाना पसंद नहीं है।“
“वही तो मैंने कहा था कुकरेती के बच्चे से, पर उसने मेरी एक न सुनी। अब बेकार गया ना।“
पतिदेव क्या कह रहे थे उमा जी का उस पर कोई ध्यान नहीं था, वे भागती हुई बाथरूम में गईं और आंसुओं से भरी अपनी आंखों और मुंह पर ठंडे पानी के छींटे मारती रहीं। उस दिन उनका मन उखड़ा –उखड़ा रहा और बार-बार रोने को करता रहा।
एक दिन बातों ही बातों में उमा जी ने पतिदेव से कहा – “आप मेरे नाम के साथ जी क्यों लगाते हो? मुझसे बड़े हो, सिर्फ उमा कह सकते हो।“
“हां, कह तो सकता हूं, पर मुझसे कहा नहीं जाता। शुरू से ही उमा जी कहता आया हूं। अब सिर्फ उमा कहूंगा तो ऐसा लगेगा कुछ छूट रहा है।“
“लेकिन, मुझे अच्छा नहीं लगता जब आप मुझे उमा जी कहते हो।“
उन्होंने हंस कर कहा – “मुझसे उमा नहीं कहा जाएगा, उमा जी।“
उनके कहने के ढंग से उमा जी को हंसी आ गई और उस दिन के बाद उन्होंने उनसे कभी नहीं कहा कि वे उन्हें उमा कह कर पुकारें।
उमा जी के जीवन में रोमांस नहीं था। पर वे कभी-कभी सोचतीं कि क्या कहीं ना कहीं वे खुद भी तो इसके लिए जिम्मेदार नहीं थीं। अपने संकोची स्वभाव के कारण वे भी तो पतिदेव से कभी प्रेम के दो शब्द नहीं बोल पाई थीं। पर, दूसरे क्षण ही उन्हें विचार आता कि कभी पतिदेव ने इसके लिए उन्हें प्रेरित किया ही कहां। काश, उन्होंने कभी वे तीन मैजिक शब्द बोले होते जो सभी सुनना चाहते हैं। शायद वैसा प्रेम था ही नहीं दोनों के बीच में। मां-बाप ने मिलकर उनकी शादी तय कर दी थी। पहले से वे एक-दूसरे को जानते तक नहीं थे। लेकिन, उन्होंने सुना था कि अरेंज्ड मैरिज में शादी के बाद पति और पत्नी के बीच प्रेम पनपता है। वे उस प्रेम की तलाश करती रही थीं, पर प्रेम की कोंपल फूटी होती तभी तो पौधा पनपता।
उन्हें याद है, शादी के दूसरे वर्ष में ही प्रशांत उनकी कोख में आ गया था। अपने भीतर पलते शिशु के विचार से ही वे खुशी से भर उठी थीं। पतिदेव को जब इसका पता चला तो उनके चेहरे पर भी चमक आ गई थी। उन्होंने कहा था – “उमा जी अब तक हम दो थे, तीन होने जा रहे हैं, हमारा परिवार बन जाएगा।“
“आप खुश हो?”
“हां, खुश क्यों नहीं होउंगा?”
उनका खुशी प्रदर्शित करना उमा जी को अच्छा लगा। पहली बार उन्होंने दोनों के संबंध को लेकर खुशी जो व्यक्त की थी।
प्रसव के लिए पतिदेव ने गांव से अपनी मां को बुलाना चाहा था, पर मां चाहती थीं कि उमा जी को ही गांव भेज दिया जाए। गांव में हर तरह की सुविधा मौजूद थीं और फिर जरूरत पड़ने पर मदद के लिए पास-पड़ोस ही नहीं, पूरा गांव खड़ा हो जाता था। शहर में कौन किस को पूछता है।
पर, उमा जी गांव नहीं जाना चाहती थीं। उन्होंने कहा था – “शहर में जितनी सुविधाएं हैं, उतनी गांव में कहां से मिलेंगीं।“
“उमा जी, हम भी गांव में पैदा हुए हैं। हर दिन गांव में बच्चे पैदा होते ही रहते है। बेहतर होगा कि तुम मां के पास गांव चली जाओ। मां यहां आ नहीं पा रही हैं, मैं अकेला सबकुछ कैसे संभाल पाऊंगा।“
“तो फिर आप मुझे मेरी मां के पास क्यों नहीं भेज देते? वे भी शहर में रहती हैं। यहां से अच्छी सुविधाएं वहां मौजूद हैं। फिर मैंने सुना है, पहले बच्चे के जन्म के लिए लड़कियों को मां के पास भेजने की परंपरा है।“
पतिदेव ने जब गांव में अपनी मां से बात की तो उन्होंने भी इसके लिए सहमति जताई और फिर वे उमा जी को उनकी मां के पास छोड़ आए।
करीब एक माह तक उमा जी वहां रहीं। उन्हें पता था, उनके बिना पतिदेव को काफी परेशानी उठानी पड़ रही होगी। खुद तो कभी उन्होंने अपने हाथों से चाय भी नहीं बनाई। खाना तो उसी ढावे में खा लेते होंगे जिसमें शादी से पहले खाते थे। पर, घर में कोई चीज ठिकाने पर नहीं मिलती होगी, खुद ही इधर-उधर रख देते होंगे और फिर ढूंढ़ते फिरते होंगे। उन्हें लगता, कितना अच्छा होता अगर वहां के हालचाल मालूम होते रहते। पर, उस समय इसके लिए एक ही साधन था – पत्र। जब भी डाकिया आता उन्हें लगता उनके लिए पत्र होगा, पर वे भेजते तभी तो मिलता। उन्हें गुस्सा आने लगता कि कैसे हैं ये, मेरी जरा भी परवाह नहीं है और वह भी तब जब वे उनके बच्चे को जन्म देने के लिए यहां आई हुई हैं। काश, उन्होंने उन्हें एक पत्र लिख कर उनके प्रति प्रेम दर्शाया होता और उनकी चिंता की होती।
बेटे के जन्म की खबर पाकर वे दूसरे दिन ही वहां आ पहुंचे। उन्होंने उसे गोद में लेकर बहुत प्यार किया। उमा जी को यह बहुत अच्छा लगा। मौका देखकर उन्होंने पूछा लिया – “इतने दिनों में एक पत्र भेजने की भी फुरसत नहीं मिली आपको? बच्चे को जन्म देने के लिए यहां आई हुई पत्नी की जरा भी चिंता नहीं हुई?”
उन्होंने बच्चे को उनके पास लिटाते हुए कहा – “किस बात की चिंता? तुम अपने घर में थीं और तुम्हें संभालने के लिए मां-बाबूजी दोनों यहां थे।“
“आपको एकबार भी नहीं लगा कि मेरे हाल-चाल ले लेते?”
“तुम्हें तो पता है ऑफिस में कितना ज्यादा काम रहता है, कुछ सोचने की फुरसत ही नहीं मिली कभी। फिर, मन में यह तो निश्चिंतता थी ही कि तुम यहां हो और तुम्हारी पूरी देखरेख हो रही होगी।“
“ठीक है, ठीक है। मां कह रही थीं कि जब तक बच्चा एक महीने का नहीं हो जाता, वो मुझे यहां से नहीं जाने देंगी।“
“मां हमसे ज्यादा जानती हैं। जब तक उन्हें रखना हो रखें।“
“इतने सारे दिन अकेले रह लोगे?”
“रह ही रहा हूं। हां, सुबह चाय के समय लगता है तुम होतीं तो मुझे नहीं बनानी पड़ती” - उन्होंने मुस्कराते हुए कहा।
उमा जी मन ही मन सोच रही थीं कि यही कह देते कि तुम्हारे बिना जरा भी अच्छा नहीं लगता। तुम्हें बहुत मिस करता हूं। पर, प्रकट में उन्होंने कहा था – “हम दोनों की जरा भी परवाह नहीं होगी आपको?”
“किस बात की परवाह, तुम्हारे पास तुम्हारी मां है और मेरे बेटे के पास उसकी मां।“
तभी बाबूजी ने उन्हें खाना खाने के लिए आवाज लगा दी थी और वे उठ कर चले गए। ऑफिस के काम का हवाला देकर वे उसी दिन रात की बस से वापस चले गए थे।