Kuchh Gaon Gaon Kuchh Shahar Shahar - 5 in Hindi Moral Stories by Neena Paul books and stories PDF | कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर - 5

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कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर - 5

कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर

5

सामने ही निशा का घर दिखाई दे रहा था। एक सर्द हवा के झोंके के साथ जब बादलों ने गरज कर जोर से ओले बरसाने शुरू किए तो सब पेड़ों के नीचे पनाह लेने के लिए भागीं। ओले छोटे हों या बड़े जब किसी गंजे से के सिर पर बरसते हैं तो इसका मजा वही जानता है। जब लड़कियाँ पेड़ों के नीचे भी ना बच पाईं तो निशा के साथ उसके घर की ओर भागीं।

सब बुरी तरह से ओलों की मार खा चुकीं थी। अभी थोड़ी देर पहले जो गर्मी की शिकायत कर रही थीं वही ठंड से बुरी तरह काँपने लगी।

"उफ यह बरसात है कि बर्फ के गोले, इतनी ठंडी बारिश और वह भी गर्मी के मौसम में..." निशा टपकते बालों को निचोड़ते हुए बोली।

"यही तो है ब्रिटेन का मौसम जो यहाँ की महिलाओं के मूड के समान बदलता है..."

थोड़ी देर में आसमान साफ हो गया। जितनी तेजी से बादल आए उतनी ही तेजी से बरस कर चले गए। बादलों के छटते ही सब जा कर बाहर धूप में अपने कपड़े सुखाने के लिए खड़ी हो गईं और फिर धीरे-धीरे अपने घरों की ओर चल पड़ीं...।

"निशा आज मेरे घर चलो इकट्ठे मिल कर होमवर्क करेंगे एंजलीना जाते-जाते रुक कर बोली...।"

"हूँ... तुम चलो एंजलीना मैं मम्मा से पूछ कर और कपड़े बदल कर आती हूँ।"

एंजलीना... जिसे सब लोग एंजी कह कर बुलाते हैं निशा की अच्छी दोस्त है। वह निशा की ही स्ट्रीट में तीन-चार मकान छोड़ कर रहती है। दोनों स्कूल भी एक साथ जाती हैं। एंजी जब भी निशा के घर आती है तो खाना खाकर ही जाती है। उसे एशियन खाना बहुत पसंद है। एंजी की माँ को भी उसके निशा के घर में आने जाने से कोई आपत्ति नहीं है। वह जानती हैं कि निशा पढ़ाई में बहुत तेज है और उसके साथ रह कर एंजी की भी पढ़ाई के प्रति रुचि बढ़ने लगी है। दोनों लड़कियाँ बड़े मन से पढ़ाई कर रही थीं कि घड़ी पर नजर डालते हुए एंजी ने कहा...

"निशा अभी हमारा होमवर्क पूरा नहीं हुआ और शाम के खाने का भी समय हो रहा है... क्यों ना तुम आज खाना हमारे साथ खा लो।"

"लेकिन एंजी तुम्हारी मॉम... "

"मैं अभी मॉम से पूछ कर आती हूँ..." उसकी बात बीच में ही छोड़ कर एंजी भाग खड़ी हुई।

"निशा... एंजी की मम्मी की किचन से आवाज आई... मैं रोस्ट चिकन बना रही हूँ। तुम्हें पसंद है ना। तुम उसके साथ कितने आलू लोगी..."

"जी..."

"हाँ निशा हमारा खाना तुम्हारी तरह नहीं होता। हम गिन कर पूरा हिसाब से बनाते हैं जो खाना दूसरे दिन के लिए बचे नहीं।"

निशा को यह बातें बड़ी अजीब सी लगीं। उसके घर में तो आवश्यकता से अधिक खाना बनता है कि यदि कोई खाने के समय घर पर आ जाए तो शर्मिंदगी का सामना ना करना पड़े। निशा ने झिझकते हुए कहा... जी दो आलू।

भारतीय और अंग्रेजों की संस्कृति में धरती आकाश का अंतर है। भारतीयों के लिए अतिथि भगवान का रूप माना जाता है जबकि अंग्रेजों के घर में कोई बिन बुलाए आ जाए तो कई बार तो वह उसे घर के अंदर आमंत्रित भी नहीं करते बस दरवाजे से ही बात कर के टरका दिया जाता है। अंदर बुला भी लें तो चाय तक नहीं पूछते।

समय पर खाना खाने के लिए आवाज आ गई। आज खाने की मेज पर केवल एंजी और उसकी मॉम ही हैं। एंजी के डैड काम के सिलसिले में कहीं बाहर गए हुए हैं। एक बड़ा भाई है जो युनिवर्सिटी में पढ़ रहा है।

किचन से ही खाने की प्लेटें परोस कर लाई गईं। निशा की प्लेट में एक पीस चिकन का, दो आलू और साथ में उबले हुए गाजर और मटर थे। सबने ऊपर ग्रेवी डाल कर खाना शुरू कर दिया। निशा खाते हुए सोच रही थी... इतने से मेरा क्या बनेगा... घर जाते ही माँ के हाथ के बने हुए थेपले खाऊँगी।

खाने में जो सब से अच्छी चीज निशा को लगी वो थी पुडिंग। घर की बनाई हुई ताजी एपल पाई और उसके ऊपर गर्मागर्म कस्टर्ड बिल्कुल वैसा ही जैसा स्कूल डिनर्स में मिलता है...।

***

लेस्टर के चारों ओर हर आठ-दस मील की दूरी पर छोटे-छोटे गाँव बसे हुए हैं। जैसे लाफ़्बरो, सालबी, कोलविल, ऐशबी, थर्मस्टन, सायस्टन, मेलटन मोबरी आदि। प्रत्येक गाँव की अपनी एक विशेषता है। कोई अपनी यूनिवर्सिटी के लिए, कोई पब और रेस्तराँ के लिए तो कोई लैंडस्केप के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ के मेल्टन मोबरी गाँव के कारखाने में बनी हुई पोर्क पाईस तो देश में ही नहीं पूरे योरोप में मशहूर हैं। पाई की पेस्ट्री ऐसी कि अपना स्वाद छोड़ते हुए मुँह में ही घुल जाए। यह सब गाँव लेस्टर का ही एक हिस्सा हैं जिन्हें मिला कर ही यह "लेस्टरशयर" कहलाता है।

लेस्टर को गाँवों का देश भी कहा जाता है क्यों कि यह चारों ओर से गाँवों से घिरा हुआ है। इसी से इसकी गिनती ब्रिटेन के बड़े शहरों में होती है। कुछ लोग रिटायर होने के पश्चात छोटी जगह पर रहना अधिक पसंद करते हैं जहाँ वह शहरों की भीड़-भाड़ से दूर रह कर प्रकृति का मजा लेते हुए टहल सकें। गर्मी के दिनों में यहाँ रंग-बिरंगे बाग व घरों के बाहर टँगी हुई फूलों से भरी टोकरियों से सारा वातावरण महकता है।

निशा जिस घर में अपने परिवार के साथ रहती है वह एक कोने का मकान है। लेस्टर के लोगों का कहना है कि यदि किसी एशियन के पास कोने का घर है तो समझ लो कि वहाँ एक दुकान खुल जाएगी।

निशा के पापा ने भी नीचे के कमरे को और बड़ा करवा कर उसमें शैल्फ वगैरह लगवा एक अच्छी सी दुकान में परिवर्तित कर दिया। घर के पास कोई और दुकान भी नहीं थी जो रात देर तक खुली मिले। वैसे इन दुकानों की बिक्री शाम 6 बजे के बाद बाकी सारी दुकानें और सुपरमार्किट बंद हो जाने के पश्चात अच्छी खासी हो जाती है। इन कोने की दुकानों में घर में प्रयोग होने वाला हर छोटा बड़ा सामान, समाचार पत्र से लेकर शराब तक मिलते हैं।

एशियंस का सोचना है कि शराब बेचना महिलाओं का काम नहीं है इसलिए दिन में नानी सरला बेन इस दुकान को चलातीं हैं और शाम को निशा के पापा सुरेश भाई। उस समय ग्राहक अधिकतर बियर, सिगरेट वगैरह लेने आते हैं। आस-पास सब गोरों के मकान होने के कारण शुरू में दुकान चलाने के लिए काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पास में और कोई ऐसी दुकान थी नहीं जो रात देर तक खुलती हो। पब भी थोड़ी दूरी पर थे। धीरे-धीरे ग्राहक आने आरंभ हो गए। सुरेश भाई के हँसमुख स्वभाव और मीठी जुबान ने जल्दी ही ग्राहक खींचना शुरू कर दिया।

सामने से सरोज को आता देख कर सुरेश भाई बोले...

"सरोज दुकान ने ग्राहक खींचने आरंभ कर दिए हैं। ऊपर वाले की मर्जी हुई तो और अच्छी चल पड़ेगी। मैं चाहता हूँ कि आप कारखाने की नौकरी छोड़ कर दिन में बा के साथ दुकान का काम सँभाला करो।"

" नहीं जी... दुकान से अभी इतना खर्चा नहीं निकलता कि मैं अपनी कारखाने की नौकरी छोड़ दूँ। बच्चों की स्कूल की पढ़ाई चाहे मुफ्त होती है परंतु बाकी के खर्चे तो स्वयं ही करने पड़ते हैं। निशा और जितेन जैसे-जैसे बड़े हो रहे हैं उनके खर्चे भी बढ़ रहे हैं। मैं चाह कर भी कारखाने की नौकरी अभी नहीं छोड़ सकती।"

सरोज जैसी और भी बहुत सी महिलाएँ हैं जिन्होंने अफ्रीका में कभी नौकरी नहीं की थी। यहाँ आने पर घर चलाने के लिए सब को कड़ी मेहनत का सामना करना पड़ा। कारखानों में पीस-वर्क के हिसाब से वेतन मिलता है यानी जितना काम उतने पैसे। हर काम गिनती के साथ होता है इस लिए सबकी यही कोशिश रहती है कि बिना किसी से बात किए बस अधिक से अधिक काम किया जाए। उस समय यह तेज हाथ चलाती हुई महिलाएँ किसी मशीन से कम दिखाई नहीं देतीं।

सरोज जिस होजरी में काम करती है वह यहाँ के बहुत ही प्रसिद्ध सर रिचर्ड टाउल्स का कारखाना है। सर रिचर्ड टाउल्स ने अपने कठिन परिश्रम द्वारा देखते ही देखते एक छोटे से कारखाने से तीन बड़े कारखाने खड़े कर लिए। इनके पिता कोयला खदान में काम करने वाले एक मामूली मजदूर थे।

रिचर्ड अपने माता पिता की एकलौती संतान हैं। यह वो समय था जब पीढ़ी दर पीढ़ी लोग कोयला खदानों में काम करते चले आ रहे थे। पढ़ाई केवल अमीर लोगों के बच्चों का काम था। रिचर्ड की माँ एलिजबेथ का यह सपना था कि वह अपने एकलौते बेटे को पढ़ा लिखा कर एक बड़ा आदमी बनाए जिसके लिए पति और बेटे दोनों ने उसका साथ दिया। यह जानते हुए भी कि यह रास्ता बहुत कठिन है। दोनों मियाँ-बीवी ने अपना पेट काट कर आखिर बेटे को युनिवर्सिटी तक पहुँचा ही दिया। रिचर्ड के लिए भी यह सब आसान नहीं था। अमीर बच्चों के साथ वह कहाँ मेल रख सकता था। बहुत कुछ ताड़ना, अवहेलना सहते हुए आखिर वह दिन भी आ गया जब रिचर्ड डिग्री ले कर बाहर आया।

"डिग्री तो मिल गई अब आगे क्या करने का इरादा है बेटे?" माँ ने पूछ ही लिया।

"मैंने अपना ही कुछ काम करने का सोचा है मॉम।"

"अपना काम... क्या करने की सोची है...?"

"मॉम यहाँ अमीर गरीब के बीच बहुत बड़ा अंतर है। अब जब डिग्री ले ही ली है तो मैं किसी के लिए काम नहीं करूँगा। मैं अपना ही कोई काम करना चाहता हूँ।"

"बेटे इस मामले में तुम हमसे अधिक जानते हो जैसा उचित समझो..."

रिचर्ड का काम शुरू करवाने के लिए उसके माता पिता ने अपना बड़ा मकान बेच दिया। वह एक दो बेडरूम के फ्लैट में चले गए। बचे हुए पैसों से रिचर्ड ने एक छोटा सा कारखाना खोल कर उसमें तीन चार ओवरलॉकिंग की मशीनें लगा दीं। जिसके लिए उसे बैंक से भी सहायता लेनी पड़ी। वह दूसरे बड़े कारखानों से ओवरलॉकिंग का काम लाकर अपने कारखाने में तैयार करता। रिचर्ड की हिम्मत, मेहनत व लगन ने रंग दिखाया और काम बढ़ने लगा।

कॉलेज के समय से ही रिचर्ड और जेनी एक दूसरे से प्यार करते हैं। जेनी एक उद्योगपति की बेटी है। उसे मालूम है कि मॉम डैड रिचर्ड से शादी की मंजूरी कभी नहीं देंगे। एक तो अमीर माता पिता की बेटी ऊपर से एकलौती संतान। उसने जब जो माँगा फौरन मिल गया। जेनी जानती थी कि इस बार डैड उसकी बात आसानी से नहीं मानेंगे। अपनी बात मनवाने का उसने दूसरा तरीका निकाला...

"रिचर्ड अब समय आ गया है कि हम दोनो शादी कर लें..." जेनी ने रिचर्ड की बाँहों में मचलते हुए कहा...

"किंतु जेनी तुम्हारे मॉम और डैड... वो तो कभी मंजूरी नहीं देंगे।"

उन्हें देनी ही पड़ेगी... मेरे मन में एक विचार आया है... बस तुम्हारा साथ चाहिए..." पहले तो रिचर्ड को जेनी की बात पसंद नहीं आई किंतु जेनी की जिद के आगे वह झुक गया।

बेटी जब शादी करके सामने खड़ी हो गई तो जेनी के मॉम डैड कुछ न कर सके। हाँ समाज में अपनी इज्जत कायम रखने के लिए उन्हें रिचर्ड को अपनाया ही नहीं बल्कि धूम-धाम से बेटी की शादी सारे समाज के सामने चर्च में कर दी। रिचर्ड की काम के प्रति लगन व मेहनत देख कर जेनी के डैडी ने अपने दामाद का काम बढ़ाने में उसका पूरा साथ दिया। उसकी सफलता को देख कर एक दिन जेनी के डैडी ने उन्हें सलाह दी...

"रिचर्ड अब समय आ गया है कि तुम अपना काम बढ़ाने के लिए एक और कारखाना खोल लो..."

"पर डैडी इसका काम ही कितना फैला हुआ है। जेनी काम में मेरा हाथ बँटाती है। हमारी बेटी रोजी भी अभी छोटी है। और काम बढ़ा लिया तो इसे कौन सँभालेगा।"

तुम इसकी चिंता मत करो। जेनी समझदार है वह सब सँभाल लेगी। तुम नया काम शुरू करो।"

"वो तो ठीक है डैडी लेकिन कारखाना चलाने के लिए वर्क फोर्स की भी तो आवश्यकता होती है। हमारे पास इतने लोग नहीं हैं।"

"तुम यह सब मुझ पर छोड़ दो रिचर्ड। इसका भी उपाय है। मालूम है न कि हमारी सरकार पहले ही गरीब देशों से यहाँ काम करने के लिए मजदूरों को लेकर आई है। उन्हें काम करने के परमिट व बीजे दिए गए हैं। यह लोग एक दो नहीं सैंकड़ों की संख्या में ब्रिटेन में आए हैं। यह मौका अच्छा है। मजदूर स्वयं ही काम की तलाश में इधर आएँगे क्योंकि सारे कारखाने और होजरी तो मिडलैंड्स में ही हैं...। कोशिश करो कि यहीं लॉफ़्बरो में ही कहीं जगह मिल जाए एक और कारखाना खोलने के लिए तो अच्छा होगा।"

बस फिर क्या था देखते ही देखते रिचर्ड ने लॉफ़्बरो में ही एक के बाद एक तीन बड़े कारखाने खड़े कर दिए...। लॉफ़्बरो जैसे छोटे शहर में जिधर भी नजर घुमाओ टाउल्स टैकस्टाइल की इमारतें ही दिखाई देने लगीं। पूरे लेस्टरशयर में उनका दबदबा बढ़ने लगा। कोयला खदान में काम करने वाले एक मामूली से मजदूर का बेटा नाम और इज्जत कमा कर रिचर्ड से "सर रिचर्ड टाउल्स" बन गया।

टाउल्स कारखानों की इमारतें एक विशेष प्रकार के हल्के भूरे रंग की ईंटों से बनी हुई हैं। यह ईंटे भी लॉफ़्बरो के कारखाने में ही तैयार की गई हैं। इमारत के अंदर घुसते ही सामने एक बड़ा सा दरवाजा है लोगों के अंदर आने के लिए। दरवाजे के ऊपर सर उठाए एक बड़ा सा नीले रंग का बोर्ड लगा है जिस पर सफेद शब्दों में लिखा हुआ है "टाउल्स टैक्स्टाइल्स"। दरवाजे से अंदर बाएँ हाथ पर एक बड़ी सी क्लॉक मशीन लगी हुई है। वहाँ काम करने वाले कारखाने में आते ही सबसे पहले अपने नाम और नंबर का कार्ड निकाल कर उस मशीन के अंदर डाल पंच करते हैं जिससे उस पर समय छप जाता है कि वह कितने बजे काम पर आए। ऐसे ही जाते समय सब लोग कार्ड को पंच करके जाते हैं।

दरवाजे में प्रवेश करते ही कहीं मशीनों की आवाजें तो कहीं ट्रॉली को इधर से उधर घसीटने के शोर से पता चल जाता है कि यह कोई बड़ा कारखाना है। यह 70 के दशक का समय था जब कि कारखानों की नहीं काम करने वालों की कमी थी।

सारी कमी पहले भारत और फिर अफ्रीका से आए लोगों ने पूरी कर दी।

सर रिचर्ड एक के बाद एक तीन बड़े कारखानों के मालिक बन गए। इनका सबसे पहला कारखाना... जिसमें रंगाई का काम होता है इसकी इमारत स्वयं अपना इतिहास बताती है। छत और दीवारों पर जमी हुई काई तो कहीं मौसम की मार खाती हुई भुरभुरी ईंटें। यह कारखाना छोटा होने के कारण यहाँ काम करने वाले कम दिखाई देते हैं। यह पुरुष प्रधान कारखाना है। एक बड़े से आँगन में बर्तनों में पानी में घुले हुए विभिन्न प्रकार के रंग पक रहे हैं। कुछ काम करने वाले मजदूर सूती धागों व ऊन के लच्छों को अलग-अलग रंगों में डुबो कर रंग रहे हैं। यह रंगे हुए लच्छे फिर बड़ी टोकरियों में भर कर दूसरे डिपार्टमेंट में भेज दिए जाते हैं।

यहाँ चारों ओर चर्खे लगे हुए हैं। चर्खों पर कुछ ओर आदमीं काम करते हुए मिले। इनका काम उन लच्छों को चर्खों पर चढ़ाना है। चर्खे के बीचो बीच गर्म हवा का पंखा लगा होता है। चर्खा चलते ही यह पंखा भी चल पड़ता है रंगे हुए धागों को सुखाने के लिए। सूखे लच्छों को चर्खे से उतार कर फिर उनके गोले बनते हैं। इन गोलों को बुनाई के लिए दूसरे कारखानों में भेज दिया जाता है।

यहाँ काम बड़े मनोरंजक तरीके से होता है।

दूसरे कारखाने में बुनाई और कटाई का काम है। बुनाई के लिए काफी भारी मशीने लगी होने के कारण केवल पुरुषों को ही इस काम के लिए रखा जाता है। यहाँ शिफ्ट वर्क में चौबिसों घंटे काम चलता रहता है। पहली शिफ्ट सुबह 6 बजे से 2 बजे तक, दूसरी शिफ्ट दोपहर 2 बजे से रात 10 बजे तक व तीसरी शिफ्ट रात के 10 बजे से सुबह के 6 बजे तक चलती है।

इन मशीनों पर काम करने वालों को निटर कहते हैं। एक निटर दस से अधिक मशीनों पर एक साथ काम कर सकता है...।

पहले मशीनों पर धागा चढ़ाते है। मशीनों को बुनाई के डिजाइन के हिसाब से एक बार सैट कर दिया जाए तो वो तब तक वही डिजाइन बनाती रहेंगी जब तक उन्हें बंद न किया जाए। निटर को यह देखना होता है कि धागा कहीं टूट या समाप्त तो नहीं हो गया। यहाँ बड़ी सावधानी व तेजी से काम हो रहा होता है। धागा समाप्त होने से पहले ही निटर को दूसरा गोला तैयार रखना होता है जोड़ने के लिए। जरा सी असावधानी से डिजाइन के आगे पीछे होने का डर होता है। यह बुना हुआ कपड़ा छोटे टुकड़ों में नहीं थान के रूप में बाहर निकलता है। इस काम के लिए निटर्स वेतन भी काफी अच्छा पाते है।

वेतन निटरस को ही नहीं और काम करने वालों को भी उनकी मेहनत के हिसाब से ही मिलता है। यह बुनाई किए हुए थान दूसरे बड़े से कमरे में भेज दिए जाते हैं जहाँ कटाई का काम होता है। इस काम में अधिकतर महिलाएँ दिखाई देती हैं जो नाप नाप के थान से कपड़ा काट कर उसे दूसरों के लिए आगे खिसका देती हैं।

यहाँ एक दीवार पर गत्ते के आकार टँगे हुए हैं। उन गत्ते के बने आकार के अनुसार कुछ महिलाएँ वस्त्रों का केवल आगे और पीछे का हिस्सा काट रही होती हैं और कुछ केवल बाजू। फिर यह सब कटे हुए टुकड़े दर्जन और नाप के हिसाब से बाँध कर ओवरलॉकिंग के लिए दूसरी मशीन पर बैठी महिलाओं के पास चले जाते हैं। वह इन टुकड़ों को जोड़ कर इनकी कच्ची सिलाई कर के अपनी टिकट काट के फिर से बंडल बाँध कर प्रेस के लिए भेज देती हैं।

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