केसरिया बालम
डॉ. हंसा दीप
17
एक किनारे की नदी
बाली का किसी से फोन पर झगड़ा हो रहा था और तैश में आकर वह मारपीट की धमकी दे रहा था। जाहिर था कि यह पैसों के अलावा तो कोई बात हो ही नहीं सकती। उस दिन बाली के तेवर देखकर धानी सिर्फ आशंकित ही नहीं भयभीत भी हो गयी थी। उसे लगने लगा था कि अब शायद हालात और भी खराब हो।
उस दिन पहली बार आर्या अपने पापा के लिये डरी थी, पापा से भी डर लगा था।
उस झगड़े के बाद घर की खामोशी और भी बढ़ गयी थी। आर्या अपने घर की चुप्पी को अब पहचानने लगी थी। समझने लगी थी कि ममा-पापा के बीच सब कुछ ठीक नहीं है। वे तीनों एक साथ घूमने जाते हैं तो भी अलग-अलग रहते हैं। पहले बाली की चुप्पी थी अब धानी का मौन था।
रिश्तों का ठंडापन किस कदर ‘घर’ शब्द का अर्थ बदल देता है। माँसा-बाबासा को याद करके धानी कभी आँसू न बहाती। ममतामयी प्यार और आपसी समझ के बीच बीते बचपन ने उसे बहुत धैर्यवान बना दिया था। अंदर बसे बच्चे की जिद और बड़े की समझदारी दोनों मिलकर उसे कुछ नहीं कहने देते। इस परिवार से अलग एक परिवार काम पर भी था, जिनके साथ अच्छा समय बिताती। धानी भी तो एक इंसान ही थी। कब तक अपने सारे प्रयासों के बावजूद स्वयं उपेक्षित रहकर प्रयास करती। अब वह अकेले जीना सीख रही थी। आर्या, घर और बेकरी उसकी अपनी दुनिया थी।
बहुत कुछ बदला पर बाली का पितृत्व नहीं बदला। वह एक अच्छा पिता बना रहा। आर्या हाई स्कूल में थी। पढ़ाई के साथ पार्टटाइम काम भी करने लगी थी। अब वह पापा-मम्मी पर पहले जैसा निर्भर नहीं थी। न आर्थिक रूप से, न मानसिक रूप से। अब उसके पास अपने दोस्त थे। पढ़ाई और स्कूल की अन्य गतिविधियों में सक्रिय रहती। कई बार कुछ विषयों पर ममा की सलाह भी लेती। पढ़ाई के साथ-साथ उसका व्यक्तित्व मजबूत होता जा रहा था। धानी को अच्छा लगता जब आर्या अपने स्कूल के बारे में फैसले खुद लेती। आगे जाकर उसे क्या करना है, किस विषय की पढ़ाई करनी है। खुद योजना बनाती और खुद ही उसके फायदे नुकसान गिना देती।
उसका आत्मविश्वास धानी को बहुत संतोष देता। उसके स्कूल के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने कई बार धानी-बाली दोनों जाते, कई बार न भी जा पाते। जब भी ये दोनों न जा पाते तब वह घर आकर विस्तार से सब कुछ बताती।
आर्या के स्कूल में “साउथ एशियन कल्चर डे” मनाया जा रहा था। वह उस कार्यक्रम की मुख्य आयोजक थी। पिछले एक सप्ताह से खूब दौड़-धूप हो रही थी कि कार्यक्रम शानदार हो सके। संस्कृति से जुड़ने-जोड़ने के लिये कार्यक्रम के लिये छात्रों की वेशभूषा खास थी। लड़कों के लिये कुर्ता-शेरवानी और लड़कियों के लिये साड़ी पहनकर आना उमंग से भरा था। बहुसंस्कृति वाले इस स्कूल में हर देश की संस्कृति से जुड़े ऐसे कई कार्यक्रम होते। इसके कारण हर छात्र एक नयी संस्कृति से परिचित होता। वे उस दिन उस संस्कृति के अनुरूप अपने आप को सजाने की कोशिश करते। गोरे-काले सारे रंग एक समान थे यहाँ। रंग, जाति, धर्म, भाषा जैसी विभिन्नताओं के बावजूद संगठित होती युवापीढ़ी वैश्विक प्रेम का संदेश देती।
लगभग सारी लड़कियाँ साड़ियों का जुगाड़ करके उस कार्यक्रम से जुड़ रही थीं। कुछ ऐसी भी थीं जिनके पास साड़ियाँ नहीं थीं उस खास कार्यक्रम में पहनने के लिये। आर्या ने ममा की कुछ साड़ियाँ अपनी दोस्तों को दे दी थी। कुछ लड़कों को पापा के कुर्ते भी दिए थे। अपनी पूरी टीम के साथ अथक परिश्रम करते हुए बहुत उत्साहित थी वह। इस आयोजन को बहुत शानदार बनाने की कोशिश में लगातार जुटी थी वह।
धानी आर्या को साड़ी पहनाने की तैयारी पूरी कर चुकी थी। अपने एक ब्लाउज़ में टाँके लगाकर उसे आर्या के नाप का बना दिया था। उसे इस तरह साड़ी पहनाना था कि वहाँ का काम संभालते हुए साड़ी कहीं से खुल न जाए। मुख्य आयोजक होने के कारण उसकी जिम्मेदारियाँ भी ज्यादा थीं। साड़ी की प्लेट्स के हुजूम को अंदर डालकर यहाँ-वहाँ ढेर सारी पिनों से ठीक करती जा रही थी धानी।
साड़ी में आर्या इतनी अच्छी लग रही थी कि कि एकबारगी धानी देखती ही रह गयी उसे। कुछ पलों के लिये नज़रें बिटिया पर ठहरकर उसे आल्हादित कर गयीं।
आर्या ने जब खुद को आइने में देखा तो तत्काल बोल उठी - “मैं तो बिल्कुल आपकी तरह लग रही हूँ ममा।”
पहली बार सुंदर-सी साड़ी में सजी आर्या को देखकर अपने अल्हड़पन की यादें ताजा हो आयीं। स्वयं की प्रतिकृति को अपने सामने देखकर आँखें नम हो उठीं। आर्या के मन में भी अब युवा धड़कनें जागने लगी होंगी। वह भी किसी के सपने देखने लगी होगी। धानी का मन छोटा होने लगता। बेटी का बढ़ता कद याद दिलाता कि बहुत जल्द वह भी पराई हो जाएगी।
“आज तो आरू बेटी को सारे लड़के देखते ही रह जाएँगे।”
“लड़कियाँ नहीं?”
“अरे लड़कियाँ तो जल जाएँगी, पापा को दिखाने के लिये एक फोटो ले लेती हूँ।”
मैचिंग जूते, बगैर बाँहों का ब्लाउज और सुंदर-सी झिलमिलाती साड़ी। नि:संदेह बच्ची बहुत प्यारी लग रही थी। घुँघराले बालों की लट जब माथे को छूती तो वह और खूबसूरत लगती। हाई हील के सैंडल पहनकर आर्या कुछ ही कदम चली होगी कि पैर लड़खडाए उसके। दरवाजे तक पहुँचते-पहुँचते सैंडल में अटक गयी साड़ी और वह गिर पड़ी। पिछले आधे घंटे में बड़ी मेहनत से पहनायी गयी साड़ी, चारों तरफ से खिंच गयी।
आर्या बहुत घबरा गयी। लगा, अब तो पहुँचने में देर हो ही जाएगी। उसका चेहरा रुआँसा हो गया।
“ममा, अब क्या होगा”
“कोई बात नहीं बेटा, अभी फिर से पहना देती हूँ मैं।”
“मैं लेट हो जाऊँगी, बहुत देर लगेगी दोबारा पहनाने में।”
“ना, ना, बिल्कुल देर नहीं होगी। मिनटों में फिर से पहना देती हूँ। घबराने की कोई जरूरत ही नहीं।”
फिर से शुरुआत करनी पड़ी।
एक के बाद एक वे ही सारी पिनें फिर से लगने लगीं। समय का ध्यान रखते हुए धानी शीघ्रता से दोबारा साड़ी पहनाने की धुन में पूरी तरह मगन थी। आर्या को उठाते और उसकी साड़ी को संभालते हुए, धानी के शर्ट के गले पर लगे बटन खुल गए थे। वह इस बात से बिलकुल बेखबर थी कि खुले बटन से उसके उठते-झुकते शरीर का भीतरी भाग उभर कर साफ दिखाई दे रहा था। साड़ी की प्लेट्स लगाते हुए तेजी से ममा को हाथ चलाते देख रही आर्या की निगाहें कहीं और जाकर अटक गयीं। ममा के खुले बटन से झाँकती वहाँ, जहाँ ममा के शरीर पर पड़े निशान अपनी कहानी कह रहे थे। इधर वह बिटिया को साड़ी से लपेट रही थी उधर उसकी परतें खुल रही थीं।
आर्या के दाँत भिंच रहे थे, जोर से चिल्लायी “ममा”
“हूँ”
“मेरी बात सुनो”
“आर्या, अभी कुछ नहीं, यह पिन लगा देने दो। बड़ी मुश्किल से अच्छी प्लेट्स लगी हैं”
“ममा”
“पिन लगा लेने दो बेटा, शांति रखो”
“पिन छोड़ो, ममा। मैं कहती हूँ छोड़ो पिन”
बेटी का यह कर्कश स्वर उसे अचम्भित कर गया। लेकिन बेटी की आँखों की भाषा पढ़ते ही जान गयी कि इस झुकने-खड़े होने में वह बेनकाब हो गयी थी।
आर्या उसे लगातार घूरे जा रही थी। ममा की आँखों में आँखें डालकर, दाँत चबाते हुए बोली - “आय हेट हिम, आय हेट हिम।”
उसकी स्तब्ध आँखें ममा की आँखों से पूछ रही थीं कि यह सब है क्या। पलक झपकते ही “लव” शब्द “हैट” में तब्दील हो गया था। जानती तो थी वह ममा की चुप्पी। लेकिन ममा इस कदर घायल होगी, इस बात का पता नहीं था उसे। आँखें तरेरती आर्या कार्यक्रम के लिये तो चली गयी मगर धानी के दिल में एक डर छोड़ गयी कि पता नहीं उसके जीवन का ऊँट अब कौनसी करवट बैठने को तैयार है।
उस दिन आर्या लौटी तो अपनी पूरी टीम के साथ। थोड़ा बहुत पहले ही समझने लगी थी। ममा-पापा के बीच का विषम रिश्ता वह काफी दिनों से महसूस कर रही थी। पापा उसकी ममा के साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं। आज अपने पापा का जो रूप ममा के शरीर पर देखा उसके कारण आपे से बाहर हो गयी।
हाई स्कूल में पढ़ाई के साथ वह जिस विभाग में जॉब कर रही थी वहाँ ऐसे सोशल मुद्दों पर भी चर्चा होती थी। वहाँ कई कौंसलर थे जो समय-समय पर घरेलू हिंसा से परेशान छात्रों की मदद करते थे। एक बार तो वह भी ऐसे ही एक दल का नेतृत्व करते हुए पीड़ित छात्रा का साक्षात्कार भी ले चुकी थी। कुछ अपना अतिरिक्त शौक, कुछ कोर्स की अनिवार्यता, ऐसे कई साउथ एशियन परिवारों के घरेलू मामलों से आमना-सामना हो चुका था उसका व उसकी टीम का। अपनी उम्र से ज्यादा समझदार थी आर्या। वह उस टीम का हिस्सा थी जो सामाजिक उत्पीड़न जैसे मुद्दों की गंभीरता को समझते हुए ठोस जानकारियाँ प्राप्त करके न्याय दिलाने की भरपूर कोशिश करते।
वह ये सोचकर हैरान थी कि बाहरी मामलों को सुलझाती रही पर उसके अपने घर में उसकी माँ भी पीड़ित है, ये न समझ सकी। माँ की यह हालत उसके बर्दाश्त से बाहर थी। आर्या के साथ उसके कई दोस्त भी थे जो अब ऐसे परिवारों में हो रही अंदरूनी हिंसा को खत्म करने के लिये सक्रिय थे। यह युवा पीढ़ी एक बेहतर समाज के लिये जागरुकता फैलाने के लिये तत्पर थी।
धानी की कोई अगर-मगर नहीं चली। आर्या अपनी टीम के साथ ममा को ले गयी थी कौंसलर के पास। कौंसलर ने इसे काफी गंभीरता से लिया। अब बाली का बचाव उसकी अपनी धानी चाह कर भी नहीं कर सकती थी। उसने आर्या को समझाना चाहा पर उसे रोक नहीं पायी। धानी के अंदर बहता प्यार अभी भी थमने को तैयार नहीं था। धैर्य की सीमा अब भी इंतज़ार करना चाहती थी। पर शायद यही समय था जब नदी को भी रुककर साँस लेने की जरूरत थी।
अपराधी नहीं पर अपराध के खिलाफ आवाज उठाना जरूरी था।
अब डोमेस्टिक वायलेंस का केस बन चुका था वह, हैरासमेंट का केस।
बाली के अंदर का बौखलाया पति समझ ही नहीं पा रहा था कि यह सब क्या हो रहा है। बिटिया की नफरत भरी एक निगाह जब उस पर पड़ी, शायद उसी पल वह हार गया। जीवन में लगातार हारता रहा बाली, इस हार को बर्दाश्त नहीं कर पाया। उस पल के बाद वह बिटिया का सामना न कर सका और कहीं चला गया। किसी को मालूम नहीं पड़ा कि वह कहाँ था।
धानी घर पर थी, पर शायद कहीं नहीं थी। प्यार के जो अलग-अलग रूप उसके मन में थे, आज दूध की तरह फट गए थे। वह अपनी इस रिक्तता को प्रेम के नए आरूप में ढाल सकती है - आर्या के प्रति, मित्रों के प्रति, समाज के प्रति।
ठीक है कि आसमान में एक ध्रुव तारा जो उसकी दिशा, उसका मार्ग दर्शक था, वह टूट भी गया तो उसका अपना आसमान तो अब भी शेष है।
क्रमश...