Ek bund ishq - 20 in Hindi Love Stories by Chaya Agarwal books and stories PDF | एक बूँद इश्क - 20

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एक बूँद इश्क - 20

एक बूँद इश्क

(20)

उस झोपड़े में आज बहार सी आ गयी। पंखडंडियों से गुजरती छोकरियों ने तो ताकाझाँकी भी शुरु कर दी है। सबके मन में पूरा यकीन है जरुर शंकर ने अपने बड़े बेटे का ब्याह पक्का किया है।

परेश बाहर तख्त पर बैठा है गणेश और शंकर के साथ..रीमा अन्दर काबेरी के पास है। यूँ तो परेश को कभी प्रकृति से कोई खास लगाव नही रहा मगर वह उसका अतीत था आज तो वोह भी उसमें बह रहा है। उसने एक नजर उठा कर चारों तरफ सीधे तने पहाड़ों को देखा...चिड़ियों को देखा किस बेवाकी से पखंडडियों पर उतर कर खेल रही हैं....उस ढलान को देखा जो शायद नदी की तरफ जाता है....मंत्रमुग्ध सा वह खोया है।

"चलो परेश नीचे नदी पर चलते हैं.." रीमा ने पीछे से कहा तो परेश चौंक पड़ा।

"नदी पर???" वह सकपका गया। बेशक वह रीमा को उसके अतीत से छुटकारा दिलाना चाहता है..अपनी पत्नी को पाना चाहता है लेकिन नदी का नाम सुनते ही बैजू और उसका प्रेम उभर आया...वह सिर्फ नदी नही है रीमा के प्रेम का गर्भ स्थल है..यह वही जगह है जहाँ पर बैजू के साथ रीमा ने अपने प्रेम के आत्मिक पल बिताये हैं...वहाँ पर उनके आंलिंगन के निशान होगें....चुंबनों की महक होगी...प्रेम राग में नहाये झाड़...पेड़...और पौधे होगें....उनके साथ-साथ चलते पाँव तले की घास होगी...आगोश में लिपटा मंजर होगा...कण-कण में बैजू होगा और उसकी.....चन्दा होगी.....और मैं??????'

एक भयभीत पुरूष की तरह परेश की भावनाये और उसका उद्देश्य धाराशायी होने लगा.....असुरक्षित संवेदनाओं को लेकर काँटों पर चलना दुष्कर होगा,,,,,, पल भर में ही परेश एक पुरुष में बदल गया..जहाँ अपनी पत्नी को लेकर एकाधिकार की सुखद अनुभूति होती है और परपुरुष की कल्पना मात्र से कटुभाव।

"भीतर की कड़वाहट शब्दों में प्रवाहित होने लगी- " रीमा रात होने वाली है इस वक्त नदी पर जाना ठीक नही और फिर हम घूमने ही तो आये हैं काबेरी काकी के साथ बिता लो आज का शेष दिन....पूरा कोसानी पड़ा है घूमने के लिये,,,, यह नदी में क्या रखा है?"

रीमा के पाँव तले से जमीन निकल गयी- "तुमने ही तो कहा था हम साथ चलेगें...अब क्यों नही चलोगे???परेश अगर तुम नही गये तो इस बार मैं अकेले ही जाऊँगी और फिर कभी वापस नही आऊँगी,,,, देख लेना...."

रुठी हुई रीमा और परेश के बदले तेवर देख कर गणेश बीच में बोल ही दिया-

"साहब बिटिया जाना चाहती है तो ले चलो न...मगर आज नही फिर किसी दिन...."

"हमममम ठीक है दादा, अगर आप कहते हैं तो देखते हैं।" कहने को तो परेश ने कह दिया मगर दिल तो न जाने कैसे तूफान से डगमगा रहा है।

रीमा बेहद उदास और चिढ़चिढ़ी सी है। उसे परेश का मना करना डरा गया।

लौटते समय भी गणेश ने हाथ रिक्शा बुला ली है। रिजार्ट आते-आते दस बज गया। पहाड़ की रातें लम्बी और सूनसान होती हैं। कुछ लोगों को डरावनी भी लगती हैं मगर रीमा उसमें घुली-मिली और सहज है।

परेश के मन की खटास रीमा के दिल तक पहुँच रही है। उसकी चंचलता धीमी पड़ने लगी, उसने एक भी बात नही की बस दिल्ली की तरह गुमसुम सी हो गयी। परेश सब जान कर भी चुप है,,, वह चाह कर भी रीमा को उसके साथ होने का अहसास नही करा पा रहा।

निरीह पेड़ हो या पौधा ज्यादा दिन तक अकेला नही खड़ा रह सकता। फिर इन्सान की तो औकात ही क्या है?

उस रात उन दोनों के बीच अबोला रहा। परेश भी यह भूल गया कि वह उसके इलाज के लिये आया है और रीमा तो पहले से सब भूली बिसरी बैठी है। परिस्थितियाँ इन्सान को बनाती हैं या इन्सान परिस्तिथी को ? यह अजब सा सवाल है......जो भी हो दोनों एक दूजे के बशीभूत हैं यह तय है।

अभी पौ भी न फटी थी एक चिड़िया न जाने कहाँ से उड़ती हुई कमरे के अन्दर आ गयी। यह कौन सी चिड़िया है यह कहना तो मुश्किल होगा परन्तु यकीनन वह कुछ लेने या ढूँढने आई है। वोह एक जगह टिकती ही नही कभी फूलदान पर, कभी आइने पर और कभी खिड़की पर..ची..चीं...चीं..कर पूरा कमरा शोर से भर गया। रीमा भी उठ गयी, परेश तो पहले से उसे देख रहा है। पहली बार किसी पक्षीं को इतने करीब से और ध्यान से महसूस किया है उसने, यह एक अजीब किन्तु सच बात है। रीमा के चेहरे पर मुस्कुराहट खिल गयी,,,,,, परेश भी उसे देख कर मुस्कुरा रहा है।

सुबह-सुबह परेश के मोबाइल की घण्टी बज उठी। कुशाग्र का नम्बर फ्लैश हो रहा है। उसने जल्दी से स्क्रीन को स्वैप किया और बालकनी में आ गया।

"हैलो ...हाऊ आर यू? वैहन डिड कोसानी अराइव? नो न्यूज ऐनी वे?" कुशाग्र का शिकायती स्वर गूँजा।

"आई एम फाइन डाक्टर...एवरीथिंग इज फाइन" परेश की आवाज़ में वोह उत्साह नही है जैसा दिल्ली से आते वक्त था।

"समथिंग इज नॉट राइट,,, तुम्हारी आवाज़ बता रही है। बताओ क्या बात है....एज ए फ्रेंड" कुशाग्र ने बहुत अपनत्व से कहा।

परेश ने साफ-साफ कह दिया कि वह रीमा को किसी और के प्रेम की दुहाई देते नही देख पा रहा है। कुछ जल रहा है उसके अन्दर.....जिसने उसे तोड़ के रख दिया है। शायद मैं नही कर पाऊँगा यह सब .."आई एम बैरी सॉरी डाक्टर,,,,,,,"

"व्हाट मैडनैस इज दिस??? तुम जानते हो तुम्हारा पागलपन रीमा की जान भी ले सकता है। मैं जिस परेश को जानता हूँ वोह इतना सैल्फिश तो नही हो सकता......तुम ऐसा नही कर सकते...कभी नही....खुद को संभालो परेश..नही तो उसे कौन संभालेगा? और फिर तुम तो अपने विजनेस के लिये भी कितने पंगच्युल हो, स्ट्रीक्ड हो।"

"यह विजनेस नही है डाक्टर,,,,, मैंने पर्सनल लाइफ और प्रोफेशनल लाइफ को अलग-अलग नजिरिये से देखना सीख लिया है...यहाँ वोह नियम लागू नही हो सकते, बल्कि यहाँ नियम नही भावनाओं से चलता है पूरा साम्राज्य।"

"गुड, जानता हूँ और यह अच्छा है कि तुमने भावनाओं की कद्र सीख ली है,,,, अब उनका सम्मान भी करो। मैं जानता हूँ तुम यह पूरी ईमानदारी से करोगे और सफल भी होगे। तुम्हारी क्षमतायें मुझसे छुपी नही हैं, या याद दिलाने की जरुरत भी नही है बल्कि कई बार बिषम परिस्तिथियों में मैंने तुमसे ही लड़ना सीखा है...आई एम प्राउड ऑफ यू.."

"मैं हार जाऊँगा...यह स्तिथी मेरे बस में नही है।" परेश लगातार टूट रहा है। वह हमेशा से बिल्कुल अलग है।

"क्या जवाब दोगे खुद को अपनी फैमिली को? क्यों गये थे कोसानी?? रीमा को मरने देने के लिये?? यह साबित करने के लिये कि तुम एक कमजोर इन्सान हो,,,, जिसकी पत्नी एक अजीब बीमारी से पागल हो गयी...या कुछ तो लांछन भी लगायेगें.....बोलो यही चाहते हो? सह पाओगे वोह सब??? तुम तुम न रहोगे फिर ..जानते हो??"

"यू आर राइट...मैनी..मैनी थैंग्स डा. कुशाग्र...आपने मेरी आँखें खोल दी...मुझे खुद की नजरों में गिरने से बचा लिया। मैं न जाने कैसे कमजोर पड़ गया था...मैं रीमा को मरने नही दूँगा..शी इज माई लव....मैं उसे बचाने के लिये कुछ भी करूँगा। उसका अतीत हमेशा के लिये खत्म हो जायेगा...आई प्रामिस यू.." परेश की आवाज़ भरभरा रही है।

"गुड लक डियर...गॉड ब्लैस यू.." परेश ने कह कर फोन रख दिया।

कुशाग्र के फोन ने उसके अन्दर एक नया उत्साह भर दिया। जिस रास्ते से वह भटक रहा था उस पर चलने का तरीका बता दिया। मैं आपका तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ।

उसने रीमा के बालों को सहलाते हुये कहा- "रीमा मुझे माफ कर दो....मैं तुम्हें परेशान नही देख सकता....तुम जहाँ कहोगी हम चलेगें।"

रीमा के चेहरे की चमक लौट आई। वह अभी अभी गयी उस चिड़िया की तरह चुहुक उठी- "सच में परेश....हम चलेगें न वहाँ पर??? "

दोनों ही एक दूसरे के आगोश में समाये रहे यूँ ही काफी देर तक। परेश ने उसके माथे पर, गालों पर नाक पर और होठों पर क ई सारे प्रेम की सुगंध से महकते चुंबन जड़ दिये...रीमा के प्रेम का अंकुर फूटना लगा उसने खुद को परेश की बाहों में समर्पित कर दिया। सारे नये पुराने बंधनों, रिक्तताओं के किनारों को तोड़ता हुआ यह सैलाब स्वछंदता से बहने लगा और अपनी मंजिल पाने को आतुर है।

प्रेम क्रीड़ा से परिपूरित यह जोड़ा तृप्त होने के लिये अब खिल सा रहा है। यहाँ गिले-शिकवे, रूठना मनाना या दूरियों की कोई जगह नही है। रीमा परेश के सीने पर उगे बालों से खेल रही है। रीमा का निमन्त्रण पाकर परेश उन्मादित हो गया है वह आज पूर्ण सुख भोगना चाहता है उसने रीमा को अपने ऊपर गिराना ही चाहा तभी....बाँसुरी की तान ने रीमा को झकझोर दिया....वह परेश को छोड़ कर उठ खड़ी हुई.....गाउन को बाँधती हुई बालकनी की तरफ बढ़ने लगी-

"बैजू......कहाँ हो तुम? क्यों सता रहे है मुझे?? अब आ जाओ ...मैं नही रह सकती तुम्हारे बगैर...।।"

क्रमशः