Karm Path Par - 63 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | कर्म पथ पर - 63

Featured Books
  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

  • मंजिले - भाग 14

     ---------मनहूस " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ कहानी है।...

Categories
Share

कर्म पथ पर - 63




कर्म पथ पर
Chapter 63



महीने के अंतिम दिनों में विष्णु के काम के लिए जय लखनऊ आया हुआ था। संपत्ति का किराया वसूल करने के बाद वह सारा हिसाब बनाकर विष्णु के सामने हाजिर हुआ। उसने हिसाब की किताब सामने रखते हुए कहा,
"दादा हिसाब पर एक नज़र डाल लीजिए।"
विष्णु ने हंस कर कहा,
"अब हिसाब तुमने लिखा है तो ठीक ही होगा। देखना क्या है।"
"नहीं दादा हिसाब के मामले में लापरवाही ठीक नहीं है। आप देख लीजिए।"
"अच्छा बाबा समझा दो हिसाब।"
जय ने उन्हें सारा हिसाब समझा दिया। विष्णु खुश थे कि जबसे जय ने काम संभाला है तबसे सारा हिसाब व्यवस्थित है। जय ने कहा,
"दादा यहाँ अब कोई काम नहीं बचा है। कल मैं वापस लौट जाऊँ।"
"हाँ बिल्कुल। जाने से पहले अपनी तनख्वाह भी ले लेना।"
"जी दादा...."
जय जाने लगा तो विष्णु ने उसे रोक कर कहा,
"तुम्हारा एक पत्र आया था।"
जय समझ गया कि पत्र माधुरी का होगा। विष्णु ने नौकर को आवाज़ देकर पत्र मंगवाया। उसे जय को सौंप दिया।
जय खत लेकर उसी कमरे में चला गया जहाँ पहले रहता था। उसने उसे खोला और पढ़ने लगा।
प्यारे भइया
छोटी बहन का नमस्ते। मैं अपने बाबूजी और अम्मा के पास सुरक्षित हूँ। स्टीफन की मौत के बारे में जानकर उन्हें बहुत दुख हुआ। मेरे दुर्भाग्य के लिए कई दिनों तक ईश्वर से शिकायत करते रहे। किंतु हर एक चीज़ की एक सीमा होती है। अतः मेरे दुर्भाग्य पर रोने की जगह अब वो आने वाले बच्चे की राह देखते हुए एक नई उम्मीद में दिन काट रहे हैं। इससे उनका दुख कुछ कम हुआ है।
भइया अभी मेरा सारा ध्यान आने वाले बच्चे को सुरक्षित जन्म देने पर है। यह स्टीफन की धरोहर है जो वह मुझे सौंप कर गए हैं। अतः अब इसे सही सलामत दुनिया में लाना ना सिर्फ एक माँ के तौर पर बल्कि एक पत्नी के तौर पर भी मेरी ज़िम्मेदारी है।
बच्चे के इस दुनिया में आ जाने के बाद मेरी दूसरी ज़िम्मेदारी शुरू होगी। मुझे स्वयं को इस काबिल बनाना होगा कि स्टीफन का सपना पूरा कर डॉक्टर बनूँ और अपने बच्चे को अच्छी परवरिश दे सकूँ। मुझे पूरा यकीन है स्टीफन मुझमें इतनी शक्ति भर कर गए हैं कि मैं जीवन की कठिनाईयों का सामना कर सकूँगी। पर चाहे मुझे कितनी भी मेहनत करनी पड़े मैं अपना लक्ष्य प्राप्त करके ही रहूँगी। हो सकता है कि मेरा संघर्ष मेरी संतान को भी प्रेरणा दे।
ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि आपने अपने लिए जो पथ चुना है उस पर ‌आप निर्बाध आगे बढ़ते रहें। आप जिस उद्देश्य को पाना चाहते हैं उसे पाने में सफल रहें। मैं अपनी संतान को आपकी कहानियां सुनाऊँगी। जिससे वह भी अपना कर्म पथ चुन सके।
अगला पत्र आपको मामा बन जाने की बधाई देते हुए लिखूँगी। मुझे पता है कि आपका आशीर्वाद सदैव ही मेरे साथ है। वह मेरे संकल्प को पूरा करने में मेरी सहायता करेगा।
आपकी बहन
माधुरी क्लार्क

पत्र पढ़ कर जय को संतोष हुआ कि माधुरी अपने माता पिता के पास सुरक्षित है। वह सोच रहा था कि माधुरी बहुत ही बहादुर लड़की है। इतना सब झेलने के बाद भी अपने बेहतर भविष्य की उम्मीद रखती है।
जय सोच रहा था कि हमारा समाज औरतों के लिए कितना गलत दृष्टिकोण रखता है। उन्हें सदा ही कमज़ोर माना जाता है। लोगों को लगता है कि विकट परिस्थितियों का सामना केवल पुरुष ही कर सकते हैं। स्त्रियां ऐसी परिस्थितियों में टूट जाती हैं। पर कई अवसरों पर औरतों ने हौसला दिखा कर इस बात को झूठा साबित किया है। उसे फख्र हुआ कि माधुरी उसे अपना भाई मानती है।
माधुरी के बारे में सोचते हुए उसे वृंदा की याद आ गई। लेकिन हर बार की तरह उसके मन में वृंदा की एक जुझारू औरत के रूप में छवि नहीं उभरी। इस बार वृंदा का खयाल उसके मन में एक प्रेयसी की तरह आया था। उसके ज़ेहन में माधुरी की खिलखिलाती हुई छवि उभरी।
लखनऊ आने से एक दिन पहले जब दोनों मिले थे तो उसकी एक बात पर वृंदा खिलखिलाकर हंस पड़ी थी। उसकी वह हंसी झरने की तरह थी। उस समय उसका अंदाज़ एक चंचल शोख लड़की का था। कुछ क्षणों तक वह बेझिझक हंसती रही थी। उन पलों में जय उसे टकटकी लगाए देखता रहा था।
पहली बार उसने वृंदा को इस तरह खुल कर हंसते हुए देखा था। वह सोच रहा था कि वृंदा ने अपना यह रूप दबा कर क्यों रखा था। हमेशा उसके चेहरे पर एक कठोरता ही रहती थी। यह कठोरता उसके ह्रदयहीन होने के कारण नहीं थी। बल्कि अपने हालातों से जूझते हुए उसके चेहरे पर आकर जम कर बैठ गई थी। उसी कठोरता के चलते जय उससे प्यार करते हुए भी कभी इज़हार नहीं कर पाया था।
लेकिन उस दिन उस हंसी ने चेहरे की कठोरता को उसी तरह हटा दिया था जैसे बारिश का पानी पत्तियों पर जमी हुई धूल को हटा कर उन्हें साफ बना देता है।
वैसे बात कोई बड़ी नहीं थी। ग्रामीण जीवन से परिचित हो रहे जय ने कोल्हू को रहट कह दिया था। पर वृंदा का खुल कर हंसना इस बात का इशारा था कि वह जय से पूरी तरह खुल चुकी थी।‌ वह यह बताना चाहती थी कि अब जय को उससे दूर दूर रहने की नहीं है।
वृंदा की उस हंसती हुई छब ने उसके मन में बैठी उस पुरानी छब को मिटा दिया था जो विलास रंगशाला में बनी थी। इस समय वृंदा का मन उसके लिए उसी तरह धड़क रहा था जैसे एक प्रेमी का अपनी प्रेमिका के लिए धड़कता है।
जय ने फैसला कर लिया कि अब जब वह वृंदा से मिलेगा तो उसे अपने दिल की इन धड़कनों से वाकिफ कराएगा।

हंसमुख इस बार पूरी मुस्तैदी के साथ जय पर नज़र रखे हुए था। इंद्र को पूरा विश्वास था कि जय अवश्य लखनऊ छोड़कर वृंदा के पास ही रहने गया होगा। उसने हंसमुख से कहा था कि जितनी जल्दी वो लोग इंस्पेक्टर जेम्स वॉकर का काम पूरा करेंगे उतनी ही जल्दी उनके अपने सपने पूरे होंगे। जय के ज़रिए ही वृंदा तक पहुँचा जा सकता था। हंसमुख अपने उन्हीं सपनों को पूरा करने के लिए जय के पीछे जा रहा था जिसके सब्जबाग इंद्र ने उसे दिखाए थे।
आज उसकी अभिनय क्षमता की भी परीक्षा थी। वह एक ग्रामीण का भेष बनाकर उसी बस में सफर कर रहा था जिसमें जय था। उसकी सफलता इसी में थी कि वह जय की निगाहों में आए बिना उसका पीछा कर सके।
बस मोहनलाल गंज पहुँची। अन्य यात्रियों के साथ जय भी उतरा। उसके बाद सावधानी बरतते हुए हंसमुख भी उतरा। एक दूरी बनाए हुए वह जय के पीछे चल रहा था।
जय उस जगह पर पहुँचा जहाँ तांगे खड़े थे। जय अपने लिए कोई तांगा देख रहा था। तभी किसी ने आवाज़ लगाई,
"आदित्य भइया....आओ तांगा तैयार है। हम गांव छोड़ देंगे।"
आवाज़ सुनकर जय उस तांगेवाले के पास पहुँचा और बोला,
"बांके भइया तबीयत ठीक हो गई तुम्हारी। काम शुरू कर दिया।"
"हाँ भइया अब ठीक हैं। आप बैठो हम दूसरी सवारियां बैठा लें।"
हंसमुख समझ गया कि जय आदित्य के नाम से गांव में रहता है। बांके और सवारियों को बुलाने लगा।
"आ जाओ भइया सिसेंदी गांव...सिसेंदी गांव..."
हंसमुख को उस गांव का नाम पता चल गया जहाँ जय आदित्य बनकर रह रहा था।
जय बांके के तांगे पर बैठ गया। कुछ सवारियां बैठाने के बाद तांगा गांव की तरफ बढ़ गया। जय की जानकारी में आए बिना हंसमुख भी उसी तांगे में बैठा था। उसने अपने गमछे से अपना मुंह इस तरह ढक रखा था कि उसके चेहरे का कुछ ही हिस्सा खुला रहे।
हंसमुख जय के साथ सिसेंदी गांव पहुँच गया था।