virasat - 3 in Hindi Thriller by श्रुत कीर्ति अग्रवाल books and stories PDF | विरासत - 3

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विरासत - 3



विरासत

पार्ट - 3

यह कोचिंग समाप्त होने का समय था। बस इसी समय ॠचा से भेंट हो सकती है अन्यथा अगले दो दिन छुट्टियाँ हो जाएँगीं तो उससे मिल सकना असंभव हो जाएगा। घर से निकला तो कोचिंग तक जाने के लिए ही था पर मन को पता नहीं क्यों, इस समय ऋचा से मिलने जाना एक विलासिता सी लग रही थी। इस समय शायद उसे रासबिहारी ठाकुर की कोठी पर जाना चाहिए कि पता तो चले वहाँ पर उसके लिए कोई भविष्य है या नहीं! मगर इन दो दिनों में ऋचा ने फोन क्यों नहीं किया? एक बार मिलकर उसे सब कुछ बता देना बहुत जरूरी है। पर इस काम में ज्यादा समय नहीं लगाएगा वह, और नीलगंज की कोठी पर भी आज ही हो लेगा।

रमेश को देखते ही ऋचा सहेलियों से छिटककर उसके पास आ गई। "मैं तुमसे कभी बात भी नहीं करूँगी... मैंने तुमसे तुम्हारे नोट्स क्या माँग लिये, तुमने तो यहाँ आना ही छोड़ दिया?"

अरे हाँ, इसने तो वो नोट्स माँगे थे जो उसने बड़ी मेहनत से पूरे टर्म के कोर्स को संयोजित कर के बनाया था कि बस उतना पढ़कर इस बार के इग्जाम्स निकाल ले जाने का भरोसा था उसे! ॠचा की जिद, अल्हड़पन और उसकी सहेलियों की चालाकियों के बारे में खूब जानता है वह इसलिए पहले तो थोड़ी टाल-मटोल ही की थी, फिर सोंचा था कि अगर देना ही पड़ा तो पूरी नोटबुक का फोटो काॅपी करा कर, तब देगा।

"तुझे पता ही नहीं, मेरे साथ इस बीच क्या-क्या हुआ है! मेरे पिता की सीढ़ियों से गिरकर डेथ हो गई।" बिना बालों वाले अपने सर पर हाथ फिराते हुए उसने कहा।

"पिता? वह कहाँ से पैदा हो गए? तुम्हारे बहाने भी न, बिना सिर-पैर के होते हैं।"
उसके चेहरे को देखकर ॠचा ठहाके मार रही थी।

"बात की सीरियसनेस को समझा करो। हर बात मजाक नहीं होती।"

वह अचानक बहुत गंभीर हो गई थी। "रमेश, मुझे लग रहा था कि तुम नहीं दोगे! तुम हम सब से सिर्फ कंपटीशन ही रखते हो और पढाई में कभी हेल्प नहीं करोगे। रागिनी ने भी मुझसे कहा था कि यही टाईम है जब पता चल जाएगा कि तुम मुझे कितना प्यार करते हो। ऐक्चुअली यही चेक करने को ये नोट्स माँगे थे मैंने... और इस पहली परीक्षा में ही तुम फेल हो गए।"

फिर वही रागिनी? उसके पास इसके कान भरने के अलावा और कोई काम ही नहीं रहता। और यह इतनी बेवकूफ है कि उसकी हर बात आँखें मूँदकर मानने को तैयार रहती है। इतनी जरूरी बातें करने आया है वह पर ऋचा को अपने बोलने के आगे सुनने की फुर्सत ही नहीं थी... "आज भी तुम खाली हाथ ही आए हो और इतनी सिली सी सफाई दे रहे हो। थोड़ा पढाई में अच्छे क्या हो, हमारी कोई औकात ही नहीं है? ठीक है, अब नहीं चाहिये मुझे तुम्हारी कोई हेल्प, तुम्हारे नोट्स के बिना फेल भी नहीं हो जाऊँगी।"
वह नाराज होकर जा रही थी... अभी तो वह अपनी कोई बात कह भी नहीं सका है...
उसने पुकारा, "रुक जा... रुक तो जरा... सुनहरी, मेरी बात तो सुन!"

ऋचा क्रोध में भरकर घूमी... "सुनहरी? यह कौन है?" वह हतप्रभ था... "पता नहीं कौन है! मैंने सुनहरी बोला क्या?"

ऋचा का चेहरा विद्रूप हो गया। एक साथ कितनी लड़कियों को घुमा रहे हो मिस्टर?"

वह रुआँसा सा हो गया। सब गलत ही क्यों हो रहा है उसके साथ?

अचानक एक आवाज सी कानों में गूँजी... हाल में सीखा हुआ एक सबक... मर्द का बच्चा हैं आप! रोते हुए अच्छे नहीं लगते। आप के बाप में हर मुसीबत से भिड़ जाने का हौसला था! फिर एक अजीब सा आत्मविश्वास महसूस हुआ अपने अंदर में... "ऋचा, अगर मेरी बातें सुनने का पेशंस नहीं है तो वाकई तुम चली जाओ। एक नोट्स तुम्हें न देने के लिए मैं अपनी चार दिन की क्लासेस छोड़ देने वाला बंदा नहीं हूँ। मेरा चेहरा देखकर अगर मेरी परेशानियों का अंदाज नहीं लगा सकती हो तुम, तो फिर तुमसे कुछ भी कहना-सुनना बेकार है। और अभी तो मेरे पास इतना टाईम भी नहीं बचा है... अगर मेरी बातें सुनना चाहो तो कल शाम चार बजे, थोड़ी देर के लिए, अपने घर के पास वाले पार्क में आ जाना। मैं निकलता हूँ अब!"

रमेश के इस बदले रुख से ऋचा हतप्रभ थी, मगर वह सचमुच जा चुका था।

पार्ट - 4

नीलगंज की कोठी... एक तीन मंजिला, भव्य महल उसके समक्ष सिर उठाए खड़ा था। बड़ा सा आबनूसी दरवाजा, जिसे देखकर ही आदमी स्वयं को क्षुद्र महसूस करने लगे। कौन-कौन होगा इसके अंदर? नौकर-चाकर, लोग-बाग... पर क्या सरेशाम से ही सब लोग सोने चले गये है? वह इतनी देर से कॉल बेल दबा रहा है, कोई आता क्यों नहीं? ऋचा से मिलने के कारण देर हो गई, शायद यहाँ थोड़ी देर पहले आना चाहिए था। अब क्या करना चाहिए उसे, लौट जाए? उसने धीरे से दरवाजे को छुआ। आश्चर्य, यह तो खुला हुआ था। हिम्मत जुटा कर अंदर झाँका... पर वहाँ तो इतना गहरा अंधेरा था कि कुछ नजर नहीं आया। कोई नहीं रहता यहाँ पर या फिर सब लोग कहीं चले गए हैं? मोबाइल निकालकर टॉर्च जलाई... शायद बड़ा सा हॉल था वह! कोई अवरोध सामने न आने के कारण हिम्मत बढ़ती जा रही थी। थोड़ा खोजने पर स्विच बोर्ड मिल गया जिस पर उँगली रखते ही बड़ा सा झाड़फानूस जगमगा उठा और पूरा हॉल रोशनी से नहा गया। अब वह अचंभित सा बीच में खड़ा था... जाने कितनी कीमती चीजें उसके हर तरफ मौजूद थीं। बहुत सुंदर रहा होगा यह कुछ... सिनेमा में देखे किसी सेट से भी ज्यादा सुंदर, पर हर चीज पर धूल की मोटी परत थी, मकड़ियों के जाले थे... कब से यहाँ कोई नहीं आया है? फिर घर खुला क्यों पड़ा है?

हाॅल से लगते हुए कई कमरे थे शायद, पर हर कमरे के दरवाजे पर मोटे-मोटे ताले लटक रहे थे । सचमुच, यहाँ कोई नहीं रहता, ज्यादा रूका तो किसी झंझट में ही न पड़ जाय। ठीक से पता लगाना होगा कि ठकुराइन अब कहाँ रहने लगी हैं... वह लौट ही रहा था कि अचानक हवा सरसराई "...सुनहरी... सुनहरी..."
वह चौंक कर घूमा... ये क्या हो गया है उसे? हर समय सुनहरी-सुनहरी क्यों सुनाई पड़ता है कानों में? पर आवाज तो अब पूरी तरह स्पष्ट थी। सामने वाले कमरे से ही आ रही थी... ताला बंद दरवाजे के उस पार से! वह दरवाजे के बाहर खड़ा सोच रहा था... क्या इस ताले को तोड़ना चाहिए? उससे टूटेगा इतना बड़ा ताला? कमरे के बगल से पतला सा वरांडा नजर आया... शायद कोई दूसरा दरवाजा ही मिल जाए? रमेश ने फिर से टाॅर्च जलाई... खिड़की थी, जिसके उस पार भी सिर्फ अँधेरा ही था। शीशे के पार देखने का प्रयास किया... कोई लेटा था क्या उधर? हिम्मत करके उसने पुकारा... "कोई है वहाँ?" हवा में फिर से कोई आवाज़ सरसराई थी क्या? अब उसने खिड़की का शीशा तोड़ दिया था... अगर कोई सो ही रहा था तो उसकी नींद शीशा टूटने की आवाज से भी क्यों नहीं टूटी? फिर से आवाज लगाई... कान लगाकर सुना... कोई कराह रहा था। टाॅर्च की रोशनी डाली तो दंग रह गया... वहीं काली औरत पलंग से बँधी थी... बिल्कुल वही मंजर, जो वह पहले भी देख चुका था। कैसे हो सकता है यह? भूतों के चंगुल में फँस गया है क्या? क्या पिता की मृत्यु से उसका दिमागी संतुलन बिगड़ गया है?

जो भी हो, इस पहेली को अब वह सुलझा कर रहेगा। उसने उनके हाथ-पैर खोले, पानी पिलाने की कोशिश की... जाने कब से बँधी हुई थीं वह! दिमाग फिर परेशान था... पुलिस को बुलाना चाहिए? फिर तो सौ जवाब देने पड़ेंगें? किसी के घर का दरवाजा यदि खुला भी छूट गया है तो उसे अंदर घुस जाने का हक कैसे मिल जाता है?
कौन यकीन करेगा कि यह बेहोश और अशक्त औरत इतनी तेज आवाज में सुनहरी को पुकार रही थी और उसकी आवाज़ शीशों और दरवाजों को पार कर उसके पास तक आ गई? क्या इससे अच्छा यह नहीं होगा कि पहले इनकी सेवा करके इनको होश में लाया जाए, पता तो चले कि हुआ क्या था, और तब पुलिस को बुलाकर इनकी मदद की जाए... माँ को फोन कर दिया कि रात में नहीं आ सकेगा। जानता है कि वह परेशान हो जाएगी पर क्या करे वह? यहाँ उसकी ज्यादा जरूरत थी।

खूबसूरत और आधुनिक किचन था। खाना बनाने की सारी चीजों की उपलब्धता भी थी। इसका मतलब यहाँ लगातार कोई आता-जाता है, खाना-पीना बनता रहता है। जब पूरी कोठी धूल से सनी हुई है, यहाँ खाना बनाने कौन आता है? थोड़ी सी खिचड़ी बनाकर उनके मुँह में डाली, दूध गर्म करके पिलाया... अब वह कुछ स्वस्थ लग रही थीं।

"तुम यहाँ कैसे आया? कौन है तुम?"

"पहले बताइये, आप को इस तरह किसने बाँधा था? आप कौन हैं? क्या इतनी बड़ी हवेली में और कोई नहीं रहता? कितने दिनों से बँधी हुई हैं आप?"

रमेश ने महसूस किया कि उस औरत की उम्र पैंतीस-चालीस से ज्यादा नहीं थी।

"हम रासबिहारी ठाकुर की विधवा, 'ग्लोरिया' हूँ। तीन-चार दिन पहले मेरा मुनीम गिरधारीलाल मुझे बाँधकर चला गया और लौटा ही नहीं। हम उसे अब जिंदा नहीं छोड़ेगा, तुम देखना! क्या तुम हमारा मदद करेगा? अगर तुम हमको गिरधारीलाल से बचा लेगा तो हम...हम तुमको बहुत पैसा देगा। हम ये हवेली ही तुम्हारे नाम कर देगा।"

तीन-चार दिन? तो क्या उसदिन बाऊजी इन्हें यहाँ बाँधकर, यहीं से घर आए थे? तब से ये इसी तरह बँधी पड़ी हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि मृत्योपरांत बाऊजी ही उसे यहाँ आने को प्रेरित करते रहे हैं?
"आप इतने दिनों से इस तरह बँधी पड़ी हैं, इस बीच कोई आया-गया नहीं यहाँ?"

"गिरधारी लाल राक्छस है राक्छस! जब बाहर जाता है, हमको ताला में बंद कर के या बाँध के जाता है।" वह तेज आवाज़ में रो रही थी... "किसी को आने-जाने भी नहीं देता यहाँ! मेरा सब कुछ उसने छीन लिया है... हमको भिखारी बना दिया। देखना, मरेगा तो कोई पानी भी नहीं पूछेगा! कीड़े पड़ेंगे, कोई नामलेवा नहीं मिलेगा... बद्दुआओं से शुरू होकर अब वह धाराप्रवाह गालियाँ दे रही थी। इन तथाकथित बड़े घरों की औरतें भी गाली-गलौज करती हैं क्या? उनके माथे पर गहरी नसें उभर आई थीं जिससे काला चेहरा और भी ज्यादा बदसूरत दिखाई दे रहा था। रमेश ने देखा, चार दिनों से बँधे हाथ-पैरों पर पड़े रस्सियों के दागों से खून रिस रहा था! मन के अंदर ममता सी उमड़ी, कितना सहा है इस औरत ने! क्या उसके पिता इतने जालिम इंसान थे? उसने हमेशा सही पहचानता था उनको... बस यही पता नहीं था कि उनके जुल्मों का शिकार माँ और उसके सिवा और भी पता नहीं कितने लोग हैं!

गर्म दूध में हल्दी मिलाकर, एक बार फिर से उन्हें पिला दिया, सर में तेल लगाकर बाल भी बुहार दिए। वह बहुत जल्दी बिल्कुल स्वस्थ हो गई थीं। उन्हें सँभाल कर सुला दिया तब अचानक अपने शरीर की थकान याद आई, और वह स्वयं भी कुर्सी पर बैठे-बैठे सो गया।

क्रमशः

श्रुत कीर्ति अग्रवाल
पटना
shrutipatna6@gmail.com